main to odh chunriya - 48 in Hindi Fiction Stories by Sneh Goswami books and stories PDF | मैं तो ओढ चुनरिया - 48

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मैं तो ओढ चुनरिया - 48

मैं तो ोढ चुनरिया 

 

48

 

माँ और मामी दोनों अपने अपने अहं में मस्त थी या शायद दोनों सामने वाले की नाराजगी और गुस्से से डरती थी । अगर उन्होंने बात की तो सामने वाला पता नहीं किस तरह से प्रतिक्रिया दे ।

मजा यह दोनों ही बात करना चाहती थी पर शुरु कौन करे । इसी चक्कर में चार साल बीत गये । इस बीच बहुत कुछ बीत गया । नानी का घर तीन हिस्से हो गया । छोटे दोनों मामाओं ने अपने हिस्से बेच कर जवाहर पार्क में बेहटरोड पर दो सौ गज में बङा सा मकान बनाया । इस तरह दोनों मामा के पास अब सौ सौ गज के मकान हो गये । वहाँ बडे मामा उसी घर में अपने पचास गज के हिस्से के साथ रह गये । इधर आने के बाद मझली मामी के एकबेटा और पैदा हुआ और छोटी मामी के एक और बेटी । इस बीच नानी परलोक सिधार गई । नानी के जाने के तीन साल बाद मेरा रिश्ता तय हुआ ।

एक दिन पिताजी हमेशा की तरह बङे मामा के घर गये । मामा दफ्तर जा चुके थे । छोटे बच्चे स्कूल । अकेली सबसे बङी बेटी नीलम घर पर थी या मामी । मामी पिताजी से घूंघट करती थी तो सामने कम ही आती थी । आती भी तो सिर्फ चरणवन्दना के लिए । दोनों में बात बिल्कुल ही नहीं होती थी । मामी को जो देना होता या कहना होता बच्चों के जरिये ही कहा सुना जाता । उस दिन भी मामी ने चाय बना कर नीलम को पकङाई और आकर पैर छुए ।   वापस रसोई में लौट ही रही थी कि पिता जी ने पुकारा – सुनो बेटा ।

मामी तो वही की वहीं जङ हो गई । पीठ किए वैसी की वैसी ही खङी रही । पहली बार पिताजी बात कर रहे थे ।

पिताजी ने गला साफ किया – रानी का रिश्ता तो तुम्हें पता ही है , हो गया है । अब पता नहीं कब शादी मांग बैठें , काम बहुत ज्यादा है । तुम सम्हाल लो आकर ।

मामी ने सिर झुका कर सुना । पिताजी चाय पीकर चले तो पीछे पीछे मामी घूंघट काढे चल पङी । न मामी ने पिताजी से कुछ कहा न नीलम से । बस पैर में चप्पल फसाई और चार कदम की दूरी बना कर चलती रही । मोड पर पिताजी ने पीछे मुङ कर देखा , मुस्कराए और चलते रहे । आगे आगे पिताजी पीछे मामी ।

करीब पांच मिनट बाद वे घर पहुंचे – सुनो तृप्ता आई है , जो काम करवाना हो ,इसे बता दो । मामी ने आकर माँ के पैर छुए और चारपाई पर बैठ गई । मैं दौङ कर दो गिलास पानी के भर लाई । एक पिताजी को दिया और दूसरा मामी को । पानी पकङा कर  चुपचाप चाय बनाने रसोई में चली गई । मन ही मन डर रही थी । चार साल का रोका हुआ गुस्सा अब फटा कि तब फटा । पर ऐसा कुछ भी नहीं हुआ । जिस बात पर मनमुटाव हुआ था , उसका तो दोनों में से किसी ने जिक्र तक नहीं किया । माँ अंदर से तीन साङियां निकाल लाई । मामी ने उलट पलट कर देखी और उनके नीचे से पेटीकोट का कपङा निकाल लिया – बहन ये मैं सिल दूंगी । आप काट दो । माँ ने कैंची और इंचीटेप उठाया और तीनों पेटीकोट काट दिए । रील तो है नहीं । अभी लानी है । तुम्हारे भाऊ से कह कर मंगवा दूं ।

कोई न मैं जुगल को चौक में भेज कर मंगवा लूंगी । चाय पीकर और पेटीकोट का कपङा थैले में लेकर मामी चली गई ।

लो समस्या का समाधान इतना आसान था तो इन्होंने चार साल क्यों गंवाए । तभी क्यों नहीं आ गए । खैर सुखद ये हुआ कि मामी हमारे घर आने लगी थी । माँ से वे अब भी सिर्फ काम लायक बात करती वरना चुप रहती ।

कोई लाख कहे पर होता वही है जो तकदीर में लिखा होता है । पिछले दो साल से मेरी पढाई छूटी हुई थी । इस बीच ऊषा सिलाई सैंटर से सिलाई कढाई का एक साल का कोर्स कर चुकी थी । पढाई पहले ही पूरे मोहल्ले में सबसे ज्यादा हो गई थी । ज्यादातर लङकियां छटी सातवीं तक पढी थी और अब अपने चुन्नू मुन्नी संभालने में लगी थी । लङके दसवीं करके अपनी दुकानें संभाल रहे थे । सिर्फ दो लङकों ने आगे पढाई की थी । एक विनोद भाई थे जो बी ए करके बैंक में क्लर्क लगे थे । दूसरे सतीश भाई थे ला पढ कर वकालत कर रहे थे । लङकियों के नौकरी करने का तब रिवाज न था । कोई विधवा ही नौकरी करने निकलती । वहाँ भी पिता या भाई उसकी जिम्मेदारी ओट लेते थे । लङकियों को तब तक पढाया जाता जब तक उनके लिए याग्य घर वर न मिल जाए । एक बार बात पक्की हो गई तो पढाई छुङवा दी जाती । और यहाँ मेरा रोक्का हो जाने के सात महीने बाद मेरा एम ए का फार्म भरने पर बात हो रही थी । लोग हैरान हो रहे थे । परेशान हो रहे थे । ऐसा क्या हो गया जो अब दाखिला भरा जा रहा है । रिश्ता तो कायम है न ।

खैर पिता जी ने दो चार दोस्तों से सलाह की और मेरा राजनीति में फार्म भर दिया गया ।  

इस तरह मेरी एम ए की पढाई का श्रीगणेश हो गया । फार्म जनवरी में भरा गया और परीक्षा होनी थी अप्रैल मई में । उसके बाद शादी होने की योजना बन रही रही थी । माँ के एक यजमान की फर्नीचर की दुकान थी । उसने कहा – जीजा जी सारा फर्नीचर मेरी तरफ से । आप एक दिन दुकान पर आकर पसंद कर लीजिए । रानी जिस भी चीज पर हाथ रख देगी , मैं घर पहुँचा दूंगा । माँ ने पिताजी से सलाह की – आज तो वह कह रहा है , कल का क्या पता तो आज कल में सामान उठवा देते हैं । दो दिन बाद हम शो रूम गए । वहाँ मैंने एक डबलबैड, एक सोफासैट और एक ड्रैसिंग टेबल पसंद कर लिया । तीनों चीजें बहुत सुंदर थी । एक हफ्ते बाद सारा सामान पालिश होकर घर आ गया । उसे चादरों से ढक कर एक कोने में रख दिया गया । पर घर तो छोटा सा था तो सारा सामान रामकटोरी के घर भेज दिया गया । बात तीन चार महीने की थी फिर तो शादी होनी थी । पर एक दिन अचानक खबर आई कि इनके बङे भाईसाहब जो फौजी थे , छुट्टी काटकर उधमपुर पोस्टिंग गये ही थे कि अचानक उन्हें हार्टअटैक आया और वे असमय ही दुनिया छोङ गए । उनका अंतिम संस्कार फौज में सैनिक सम्मान के साथ उनकी युनिट में ही कर दिया गया । घर सिर्फ उनका अस्थिकलश और फोटोस पहुँचे । खबर दुख देने वाली थी । मुश्किल से तीस बत्तीस साल की भाभी और तीन छोटे छोटे बच्चे । बङी बेटी दस साल की होगी और बेटे आठ और तीन साल के । परिवार पर दुख का पहाङ टूट पङा था ।

 

 

बाकी फिर ...