Fathers Day - 4 in Hindi Fiction Stories by Praful Shah books and stories PDF | फादर्स डे - 4

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फादर्स डे - 4

लेखक: प्रफुल शाह

प्रकरण 4

सोमवार, 29/11/1999

बेचैन परिंदा शिरवळ शवदाहगृह की ओर उड़ चला। कहने की बात नहीं कि उस जगह पर नीरव शांति पसरी हुई थी; अक्षरशः श्मशान शांति। परिंदा यहां की नकारात्मक ऊर्जा से परेशान होकर आराम की तलाश में कुछ और दूर उड़ गया। उसने शवदाहगृह की अस्थाई दीवार का सहारा लिया, नल की टोंटी और बिजली के खंबे का आसरा लेने की कोशिश की, लेकिन सब व्यर्थ। अंततः, वह अंतिम संस्कार स्थान के नजदीक बनी लोहे की पटरी पर जा पहुंचा। अधजले शव से उसे कुछ ताप तो महसूस हुआ, लेकिन गरमाहट न मिली। वह फिर से बिजली के खंबे पर पहुंच गया। दुर्भाग्य से, इस समय वह सजीव तार से उलझ गया। उसके लिए सांस लेना, कराहना भी मुश्किल हो गया। वह सीधे जमीन पर गिरा, वह दुःखद स्मृतियों से छुटकारे का अनुभव कर रहा था।

आखिरी इच्छा के रूप में वह शिरवळ के सभी दृश्यों को एक बार फिर देखना चाहता था; अफसोस, इस समय वह अपनी खुली आंखों और घूमती हुई पुतलियों से सारा नज़ारा देख पा रहा था। श्मशानगृह में भयानक शांति व्याप्त थी। इस शांति को एक भूखे कुत्ते ने भंग किया, वह परिंदे को खाने की नीयत से भागता हुआ आ रहा था।

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शिरवळ जिला परिषद प्रायमरी स्कूल के कक्षाओं की कक्षा की शांति स्कूल की घंटी बजने से टूटी। बच्चे अपनी कक्षाओं से बाहर भागने लगे। प्रतिभा भी कक्षा से बाहर निकल आई। उसने फातिमा के भाई इमरान को देखा। वह किसी से बात कर रहा था। उसने उन दोनों से संकेत को स्कूल से घर लाने के लिए कहा। दोनों ने सिर हिलाकर सहमति जताई और दौड़ पड़े। प्रतिभा और उसके बच्चों के स्कूल के बीच फासला मुश्किल से एक किलोमीटर का ही था। आमतौर पर, इस फासले को 10 मिनट के भीतर पार किया जा सकता है। इमरान और उसके दोस्त ने इसे साढ़े आठ में ही तय कर लिया; आखिर वे अपने टीचर का काम जो कर रहे थे!

जब वे एमईएस हाईस्कूल पहुंचे, तो उन्हें पता चला कि संकेत तो किसी और के साथ घर के लिए निकल चुका है। वे वापस स्कूल की ओर भागे। प्रतिभा वहां उनके लौटने का इंतजार कर रही थी।

उसे इस बात से आश्वस्ति हुई कि संकेत घर के लिए निकल चुका है। उसने अनुमान लगाया कि वह अपने पिता के साथ निकला होगा।

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कुत्ता मृत परिंदे की देह को चट कर रहा था। उसके पंख पूरे शवदाहगृह में उड़ते फिर रहे थे; वहां भूख-प्यास, भावनाएं, इच्छाएं या दर्द बाकी नहीं था। परिंदा अब इस दुनिया में नहीं था।

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सूर्यकान्त अपने स्कूटर को पूरी स्पीड से चला रहा था। वह सोच रहा था कि यदि शेखर इस समय मौजूद होता तो वह उसे यह काम सौंप देता, लेकिन वह आखिर है कहां? सूर्यकान्त राजनीतिक, सामाजिक और प्रशासनिक-सभी मंडलियों में एक प्रभावी व्यक्ति था। दुर्भाग्य ही है कि वह ऐसे किसी व्यक्ति को नहीं जानता जो आज के काम को पूरा करने में उसकी मदद कर सकता हो। सरपंच गुरुदेव भंडारे, पंचायत समिति सभापति नितिन भारगुड़े पाटील, ग्राम पंचायत सदस्य राजेंद्र तांबे और रवीन्द्र पानसरे, व्यापारी मित्र प्रेमभाई पटेल और स्कूल का मित्र विजय मालेकर उन लोगों में शामिल थे जिनसे वह आए दिन बात करता रहता था। आज वह इतनी अधिक जल्दी में था कि उसने इनमें से किसी की भी उपस्थिति को महसूस तक नहीं कर पाया।

समय तेजी से भाग रहा था, इतनी तेजी से कि सूर्यकान्त के लिए उसके साथ कदमताल कर पाना संभव नहीं हो रहा था। यह एक तरह से अभिशाप ही था कि समय को थामा नहीं जा सकता था। घड़ी के लिए भले ही इसका कोई महत्व न हो, लेकिन इसने बहुतों के नियति को बदल कर रख दिया है।

विवेक अपने जीवन के सर्वोत्तम चरण का इंतजार कर रहा था। इस समय, वह दुविधा में था कि आगे क्या किया जाए।

दूसरी ओर, सूर्यकान्त अपने स्कूटर पर पूरी गति से चला जा रहा था; संभवतः अपने जीवन के सुनहरे काल को पकड़ने की चाह में।

प्रतिभा अध्यापन में तल्लीन थी।

सौरभ के लिए यह समय कुछ ज्यादा ही खिंच रहा था और वह चाहता था कि यह पीरियड समाप्त हो।

जाड़ों का मौसम आ गया था। दोपहर दो बजे सूर्य की मद्धिम किरणें एक स्वागतयोग्य परिवर्तन का संकेत दे रही थीं।

फातिमा आराम फरमाते हुए अपने बॉयफ्रेंड अमजद शेख के बारे में सोच रही थी। ‘वह कहां होगा? वह कब आएगा?’ अचानक, टेलीफोन की घंटी ने उसके विचार प्रवाह में बाधा पैदा कर दी। वह उठना तो नहीं चाहती थी पर लगातार बजती घंटी ने उसे फोन का रिसीवर उठाने के लिए बाध्य कर दिया। इसके पहले कि वह ‘हैलो’ कहती, उसने दूसरी ओर से एक ठंडी, तीखी आवाज सुनी, “तुमचा मुलगा माझ्या कड़े आहे, पाहिजे असल तर होटल जय भवानी वर एक लाख रुपये घेऊन या,” उसने कहा। (तुम्हारा बेटा मेरे पास है, वापस चाहिए हो तो एक लाख रुपए लेकर होटल जय भवानी में आ जाएं)

अनुवाद: यामिनी रामपल्लीवार

©प्रफुल शाह

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