Hanuman Prasad Poddar ji - 18 in Hindi Biography by Shrishti Kelkar books and stories PDF | हनुमान प्रसाद पोद्दार जी (श्रीभाई जी) - 18

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हनुमान प्रसाद पोद्दार जी (श्रीभाई जी) - 18

गोरखपुर का जीवन
उस समय गोरखपुर शहर जलवायु, मकान, रास्ते आदि सभी दृष्टियों से गया-गुजरा था। बम्बई के अच्छे मकान में रहने वाले भाई जी के रहने योग्य गोरखपुर कदापि नहीं था। गोरखपुर में रहने का प्रधान हेतु 'कल्याण' एवं 'गीताप्रेस' ही था। पूज्य श्रीसेठजी को भाईजी सदैव गुरुतुल्य मानते थे। पूज्य सेठजी की आज्ञा थी कि 'कल्याण' गीताप्रेस से प्रकाशित हो और भाईजी उसे सम्भालें। गोरखपुर में भाईजी ने अपने रहने का स्थान गीताप्रेस एवं शहर से २-२ मील दूर असुरन के पोखरे एवं रेलवे लाइन के समीप में श्रीकान्तीबाबू के बगीचे को चुना। वह बगीचा किराये पर लिया गया। गीताप्रेस से कान्तीबाबू के बगीचे का रास्ता बिलकुल कच्चा था। वह कच्चा रास्ता खासकर बरसात में तो बड़ा भयंकर हो जाता था। उस रास्ते में न कोई सवारी जा सकती थी और न वहाँ रोशनी का प्रबन्ध था। बरसात के दिन में चिकनी मिट्टी के कीचड़ का कहना ही क्या ? उसी रास्ते भाई जी नित्य गीताप्रेस आया-जाया करते थे। अँधेरी रात, रोशनी नहीं, वर्षा के दिन भाईजी नित्य गीताप्रेस पैदल आते-जाते थे। कई बार वर्षा अचानक आने से उनके पास छाता भी नहीं रहता था। शुरू में भाईजी अकेले श्रीबद्रीदास जी आचार्य (जो गम्भीरचन्द दुजारी की प्रेरणा से आये थे) के साथ उस बगीचे में रहते थे। बाद में भाईजी का परिवार भी उसी बगीचे में आ गया। आज का विश्वविख्यात 'कल्याण' एवं 'गीताप्रेस'-भाईजी के इस सतत परिश्रम का फल है। भाईजी को न बम्बई में रहने में आसक्ति थी और न बगीचे में रहने में अनासक्ति थी। उन्हें अपने प्रियतम भगवान् का काम करना था। भाईजी गोरखपुर में कान्तीबाबू के बगीचे में करीब २८ महीने भाद्र शुक्ल सं० १९८४ से पौष कृष्ण सं० १६८६ वि० तक रहे।
उक्त बगीचे को छोड़ने का भी एक प्रेरणात्मक प्रसंग है। उन दिनों गोरखपुर शहर में प्लेग की महामारी फैला करती थी। सैकड़ों आदमी प्लेग की चपेट में आते थे और काल कवलित होते थे। सं० १६८६ के मार्गशीर्ष मास में भी प्लेग फैला। शहर से लोग इधर-उधर गोरखपुर से बाहर जाने लगे। आस-पास के बगीचों में भी शहर के लोग आश्रय लेने लगे। साहबगंज मोहल्ले के एक गरीब ब्राह्मण जी भी प्लेग की चपेट में कालकवलित हो गये। उनका परिवार अनाथ हो गया। उनके पास कोई आश्रय नहीं था। उक्त परिवार ने भाईजी से उनके बगीचे में आश्रय माँगा। अनाथ शरणागत को आश्रय देना जरूरी था। भाईजीने एक कमरा देने की स्वीकृति दे दी।
इस बगीचे में भाईजी को कई बार भगवान् के दर्शन हुए एवं उनके दिव्य सन्देश भी प्राप्त हुए। अतः भाईजी के रहने से इस बगीचे का महत्त्व दिन-पर-दिन बढ़ने लगा। गोरखपुर के जालान बन्धु भाईजी पर श्रद्धा रखते थे। अतः वे लोग भी इस बगीचे का महत्त्व समझते थे। उन्होंने यह बगीचा खरीद लिया था।

उक्त अनाथ परिवार को आश्रय देने की बात जालान परिवार के एक सदस्य को अच्छी नहीं लगी और उन्होंने उसका विरोध किया। भाईजी के कानों में यह बात गयी। भाईजी ने अपने को निरुपाय पाया। परंतु भाईजी को हृदय में एक बहुत बड़ी ठेस लगी। 'आज मैं एक अनाथ गरीब परिवार को, शरणागत को आश्रय नहीं दे सका।
भाईजी ने तत्काल एक निर्णय लिया। उनके रहने के लिये दूसरा स्थान खोजा गया। बाबू श्रीबालमुकुन्द जी का एक छोटा टूटा-फूटा खपरैल का मकान गोरखनाथ मन्दिर के दक्षिण की ओर था। यह मकान किराये पर लिया गया। यद्यपि यह मकान कान्तिबाबू के बगीचे से काफी दूर था परंतु जहाँ बन्धन में रहना पड़े, शरणागत को आश्रय न दिया जा सके यह भाईजी को सह्य नहीं था। अपने कष्ट की उन्हें तनिक भी परवाह नहीं थी। अपने स्वयं पर वे कम-से-कम खर्च करना चाहते थे। अतः बहुत कम किराये का टूटा-फूटा मकान लिया गया था। भाईजी ने जीवनभर गीताप्रेस-कल्याण से एक पैसा भी अपने लिये नहीं लिया। जीवनभर अपने शरीर पर कम-से-कम खर्च करते थे। उस समय भाईजी एवं उनके साथ रहने वाले सभी का जीवन बहुत ही सादा था। बहुत थोड़ा-सा सामान, साधारण भोजन, कपड़े आदि। आये थे थोड़े दिन रहकर गंगातट पर जाने के लिये पर भगवान् की इच्छा से गोरखपुर में ही रह गये।

'कल्याण' के विकास में परमश्रद्धेय श्रीभाईजी की आध्यात्मिक स्थिति ही प्रधान हेतु रही है। उनका जीवन भगवद्विश्वास, भगवत्प्रेम, भगवद्भक्ति, ज्ञान एवं निष्काम कर्म का मूर्तिमान् आदर्श है। गीता के सोलहवें अध्यायमें वर्णित दैवी-सम्पदा के गुण सहज एवं स्वाभाविक रूप से उनमें प्रतिष्ठित थे। जो कुछ वे 'कल्याण' में लिखते थे, वह सब उनमें था। उनके पवित्र जीवन, पवित्र वाणी, पवित्र लेखनी, पवित्र दृष्टि, पवित्र विग्रह से नित्य-निरन्तर भगवद्रस की विश्वपावनी अखण्ड सुधा-धारा प्रवाहित होती रहती थी और वह जगत् के जीवों को सहज ही अमृत प्रदान करती थी। यही हेतु है कि 'कल्याण' का छोटा-सा पौधा सहजरूप से विकसित होता हुआ आज इस रूप में जनता-जनार्दन की सेवा कर रहा है। 'कल्याण' की सेवा में श्रद्धेय श्रीभाईजी ने अपने जीवन का क्षण-क्षण तथा शरीर का कण-कण होम दिया था। वास्तव में 'कल्याण' और श्रीभाई जी पर्याय हो गये हैं।

भाईजी 'कल्याण' के कार्य के लिये सदैव तत्पर रहते थे। 'कल्याण' मासिक पत्र के रूप में जब से निकलना प्रारंभ हुआ तभी से बहुत तीव्र गति से भारतवर्ष में भगवद्भक्ति एवं भगवन्नाम के साथ-साथ सदाचार, ज्ञान, वैराग्य, निष्काम, कर्मयोग आदि ऋषि प्रणीत सनातन धर्म के भावों का प्रचार करने लगा था। श्रीभाईजी ने सं० १६८५ के श्रावण मास में तृतीय वर्ष का विशेषांक 'भक्तांक' के रूप में पूर्वापेक्षा दुगुने पृष्ठ तथा अधिक चित्रों से अधिक कलेवर को लेकर बारह हजार का प्रथम संस्करण निकला जिसे सब लोग देखकर चकित हो गये। यद्यपि द्वितीय वर्ष के अन्त तक केवल चार हजार ही 'कल्याण' के स्थायी ग्राहक हुए थे फिर भी भाईजी ने बड़े उमंग के साथ बहुत अधिक नुकसान की बिना कुछ परवाह करके निकाल दिया। उन दिनों 'कल्याण' का हिसाब गीताप्रेस से अलग रखा जाता था। 'कल्याण' के नुकसान की जिम्मेवारी व्यक्तिगत रूप से श्रीभाई जी पर रहती थी। भाईजी लाखों रुपये कर्ज लेकर दूसरों की सहायता कर देते थे। अतः वे 'कल्याण' के नुकसान की भी परवाह नहीं करते थे।

किसी कारणवश दिल्ली के श्रीआत्माराम जी खेमका गोविन्द भवन के न्यासी मण्डल से अलग हो गये। गीताप्रेस के तत्कालीन व्यवस्थापक श्रीमहावीरप्रसाद जी पोद्दार ने भी गीताप्रेस के कार्य से विरक्ति ले ली। उस भीषण समय में श्रीभाईजी एवं उनके अभिन्न मित्र श्रीज्वालाप्रसाद जी कानोड़िया पूज्य श्रीसेठजी के कंधे-से-कंधा मिलाकर उस विषम परिस्थिति से झूझते रहे।
कुछ समयके लिये 'कल्याण' व्यवस्था विभाग भी पूज्य श्रीभाईजी ने ही सम्भाला। 'कल्याण' के गोरखपुर आने पर श्रीदुजारीजी ने प्रेरणा करके श्रीबद्रीप्रसाद जी आचार्य को बीकानेर से गोरखपुर बुलाया। श्रीआचार्यजी ने 'कल्याण' के ग्राहकों की व्यवस्था का काम तो सम्भाला ही साथ में श्रीभाईजी के अकेले रहने के गोरखपुर के समय उनके भोजन बनाने आदि का भी काम सम्भाला। श्रीबद्रीदास जी आचार्य भी इतने कर्मठ व्यक्ति थे कि इन्होंने अपने स्वास्थ्य की बिना परवाह किये 'कल्याण'की व्यवस्था में कहीं कोई कमी नहीं आने दी। विषम परिस्थिति में भी श्रीभाईजी के मुँह से यही निकला था कि अभी तो 'कल्याण' के ग्राहक चार हजार ही हैं, जल्दी ही चालीस हजार हो जायेंगे। उनके वचन सत्य होने में देर नहीं लगी। भाईजी के समय में ही कल्याण के ग्राहक एक लाख साठ हजार से ऊपर हो गये थे। यह भी एक अनोखी बात है 'कल्याण' पत्र की माँग पूरी न करने की स्थिति में कुछ समय के लिये 'कल्याण' के नये ग्राहक बनाने पर रोक लगा दी गयी।