Hanuman Prasad Poddar ji - 13 in Hindi Biography by Shrishti Kelkar books and stories PDF | हनुमान प्रसाद पोद्दार जी (श्रीभाई जी) - 13

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हनुमान प्रसाद पोद्दार जी (श्रीभाई जी) - 13

बम्बई छोड़नेका उपक्रम एवं विदाई
'कल्याण' का पहला अंक निकालकर भाईजी निश्चिन्त हुए ही थे औषधोपचारसे कोई लाभ नहीं हुआ। उनके लिये एक विशेष अनुष्ठान कि एक नयी चिन्ता आ पड़ी। श्रीसेठजीका स्वास्थ्य विशेष खराब हो गया। उनके यज्ञोपवीत-गुरु बीकानेरके पं० गणेशदत्तजी व्याससे भाईजीने करवाया। भगवत्कृपासे अनुष्ठान पूरा होते ही श्रीसेठजी स्वस्थ हो गये।
भाईजीके व्यवहारसे एवं साधनासे बम्बईके मारवाड़ी समुदायमें भाईजीकी बहुत प्रतिष्ठा हो गई थी। वे इस मान-बड़ाईके चक्करसे निकलना चाहते थे।
भाईजीके मनमें इस प्रपञ्चसे उपरामता तेजीसे बढ़ रही थी। सारे कार्य करते हुए भी मन प्रभुकी ओर लगा रहता था। प्रभु तीव्रतासे अपनी ओर खींच रहे थे। सोचने लगे कहीं एकान्तमें गंगातटपर जीवन व्यतीत किया जाय। ज्येष्ठ सं० 1984 (मई, 1927) से निराकारके ध्यानके स्थानपर शिमलापालके सदृश श्रीविष्णुभगवान्का प्रत्यक्ष ध्यान होने लगा। इन दिनों भाईजी ताराचन्द घनश्यामदासके मकानमें सबसे ऊपरकी मंजिलपर श्रीरामकृष्णजी डालमिया, श्रीबनारसीदासजी झुनझुनवाला, श्रीगम्भीरचन्दजी दुजारीके साथ ही रहते थे। श्रीसेठजीकी प्रेरणासे अग्रवाल-महासभाके कामसे कलकत्ता जाना पड़ा। वहाँसे भाईजी अपनी जन्मभूमि आसाम गये। इनके सास-ससुर गौहाटीमें रहते थे और उन दिनों वे अस्वस्थ थे, उनसे मिलने गौहाटी गये। मन तीव्र वैराग्यसे भरा हुआ था, वहीं भाईजीने बम्बईकी दूकानसे अलग होनेका निश्चय कर लिया। वहाँसे बम्बई दूकानवालोंको तार दे दिया कि
घरू सौदे (माथे पोतेके कामको) बराबर कर दो। वहाँसे बाँकुड़ा श्रीसेठजीसे मिलने गये।
अब इन्हें बम्बईका रहना, एक-एक दिन भारी लगने लगा। इन्हें अपने फर्म 'चिरंजीलाल हनुमानप्रसाद' से अपना हिस्सा निकालना था। यद्यपि इनके पास उस समय पूँजी एकत्रित नहीं थी पर फर्ममें उस समय लाभ था अतः साझीदारसे अपना हिस्सा निकालनेका दृढ़तापूर्वक नम्र प्रस्ताव किया। उन्होंने पहले तो स्वीकार नहीं किया, पर इनकी उपराम वृत्तिसे वह परिचित था, इसलिये मनमाना जमा खर्च कराके इन्हें अलग कर
दिया। भाईजीको धनकी परवाह तो थी नहीं, उन्होंने जैसे कहा वैसे ही लिखा-पढ़ी कर दी और व्यापारसे सर्वथा अलग होकर साधन-भजनमें मस्त हो गये।
इधर 'कल्याण' के प्रकाशनकी योजना गीताप्रेस, गोरखपुरसे बनने लगी। श्रीसेठजीका जसीडीहसे तार मिला कि 'कल्याण' का सब स्टाफ लेकर शीघ्र गोरखपुर जाकर दूसरे वर्षका, दूसरा अंक वहींसे प्रकाशित करो। भाईजी तो बम्बई छोड़नेको लालायित थे ही। इन्होंने श्रीसेठजीको अपने गंगातट सेवनकी अभिलाषासे अवगत कराया। उनका उत्तर आया-दो तीन महीने गोरखपुर रहकर 'कल्याण' का काम वहाँके लोगोंको समझाकर
पीछे तुम जहाँ जाना हो चले जाना और वहींसे प्रति मास छापनेकी सामग्री भेज देना। भाईजीको यह बात अपने मनके अनुकूल लगी। भाईजी कहीं एकान्तमें भजन करनेके लिये विदा ले रहे हैं- -यह संवाद आगकी तरह चारों ओर फैल गया। जो-जो सुनता वही अधीर हो जाता। भाईजीसे रहनेका आग्रह करनेपर भी ये अपने निर्णयपर अडिग थे। यह समाचार पाकर उनके मित्र पं० हरिवक्षजी जोशी मिलने आये। बोले--भाईजी आप
जा रहे हैं, मन बड़ा भारी है। मैं चाहता हूँ आपका भावी जीवन भी ऐसा पवित्र बना रहे और साधनामें उत्तरोत्तर उन्नति करें। पर आप किसी सत्संगीसे पैसेका सम्बन्ध कभी मत रखियेगा। भाईजीने इस बातकी गाँठ बाँध ली और जीवन पर्यन्त इसे निभाया। शरीर छोड़नेके दस दिन पहले भाईजीसे मिलने जोशीजी गोरखपुर आये तो भाईजीने कहा--पण्डितजी आपने मुझे बहुत बड़े दोषसे बचनेकी जो बात कही थी, वह मुझे बराबर
याद रही और उसके कारण मैं अनेक दोषोंसे बच गया। भगवान्की कृपासे मेरा व्रत अक्षुण्ण निभ गया।
गोरखपुर जानेकी तैयारी होने लगी और श्रावण शुक्ला 13सं० 1984 (11 अगस्त, 1927) के दिन पैंतीस वर्षकी अल्पायुमें व्यापारसे सर्वथा विलग होकर अध्यात्म साधनाके लिये बम्बईसे चल पड़े। रात्रिको दिल्ली एक्सप्रेससे रवाना होना था। स्टेशनपर एकत्रित सैकडों प्रेमीजन सिर्फ एक ही चर्चा कर रहे थे--क्या भाईजी सदाके लिये बम्बई छोड़ रहे हैं ? समाजके अनेक प्रतिष्ठित लोग आये थे। भाईजीने सबसे अपनी त्रुटियोंक लिये क्षमा याचना की और आजीवन कृपा बनाये रखनेकी भीख माँगी। गाड़ी रवाना हो गयी। भगवान्के नामका जय घोष हुआ, सभीके नेत्र बरस पडे। भाईजी हाथ जोड़े सबकी ओर स्नेहभरी दृष्टिसे निहारते रहे। इनका 'भाईजी' नाम बम्बईसे ही पड़ा। जिसे बादके जीवनमें बालक-वृद्ध, स्त्री-पुरुष सभीने अपनाये रखा।

प्रलोभनोंमें न फँसना
गोरखपुर पहुँचकर भाईजी एक बार गीताप्रेसमें ठहरे एवं 'कल्याण' के काममें लग गये। गीताप्रेसका कार्य उस समय भी श्रीघनश्यामदासजी, श्रीशुकदेवजी, श्रीगंगाप्रसादजी, पं० लाधूरामजी देखते थे। बम्बईके साथी मित्र सभी भाईजीसे मिलनेको उत्सुक थे। उनका भाव सच्चा था। अतः प्रभुने वैसी व्यवस्था की। अभी गोरखपुर आये पन्द्रह दिन भी नहीं हुए थे कि श्रीरामकृष्णजी डालमियाके विशेष कार्यसे बम्बई जाना पड़ा। भगवत्-साक्षात्कारके पहले प्रायः परीक्षा होती ही है। भाईजीकी भी परीक्षाका समय आया। बम्बईमें सभी प्रतिष्ठित मारवाड़ी बन्धुओंके ये आदरणीय सुहृद थे। वहाँ 'हरनन्दराय रामनारायण रुइया' एक करोड़पति फर्म थी। उस समय उनकी तीन-चार बड़ी मिलें थीं। भाईजीके बम्बई पहुँचनेका समाचार सुनकर फर्मके मालिक श्रीरामनारायणजी रुइया पूनासे बम्बई आये। इन्हें एकान्तमें ले जाकर अपने हृदयकी बात कही कि मेरी अवस्था वृद्ध हो गयी है एवं बच्चे अभी छोटे हैं। इसलिये अब बम्बईमें रहकर आप मेरे फर्मकी एवं बच्चोंकी देख-भाल करें। इसके लिये पचास हजार रुपये सालाना अपने खर्चके लिये लेते रहें, रहनेके लिये बंगला और गाड़ी भी रहेगी। इसके साथ ही आप जिस काममें चाहें अपना हिस्सा रख लें। मैं आपको पूर्ण अधिकार देकर आपकी इच्छानुसार लिखा-पढ़ी कर देता हूँ वास्तवमें भाईजीके सामने यह बड़ा लुभावना प्रस्ताव आया था। परन्तु जिनके मनमें भगवान्के दर्शनोंकी उत्कंठा जाग उठती है, उनको प्रलोभन क्या लुभायेंगे ? भाईजीने बड़ी नम्र भाषामें उत्तर दिया--मैंने तो बम्बई रहनेका विचार ही छोड़ दियाा है, अतः मैं बम्बई रहकर आपके कार्य संचालनमें सर्वथा असमर्थ हूँ। उन्होंने बहुत अनुनय-विनय की, परन्तु भाईजी पूर्ण दृढ रहे। प्रभुने परीक्षा लेनी चाही जिसमें भाईजी सर्वथा उत्तीर्ण हो गये।

भगवद्दर्शनकी उत्कंठा
भाद्र शुक्ला 3 सं० 1984 ( 30 अगस्त, 1927) को भाईजी पुन गोरखपुर आ गये एवं 'कल्याण' के दूसरे वर्षके तीसरे अंकके सम्पादनम लग गये। ऊपरसे तो ये सारा कार्य कर रहे थे, परन्तु इनके हृदयमे भगवद्दर्शनोंकी लालसा प्रतिपल तीव्र होती जा रही थी, इसके अतिरिक्त और कुछ भी नहीं सुहाता था। भाईजीका मन छटपटा रहा था, प्रभु सामने क्यों नहीं आते। हमलोग वैसी स्थिति हुए बिना कुछ भी कल्पना नहीं कर सकते। भाईजी अपना सब कुछ स्वाहा करनेको तैयार थे--
प्रियतमसे मिलनेको जिसके, प्राण कर रहे हाहाकार।
गिनता नहीं मार्गकी कुछ भी दूरी को वह किसी प्रकार।।
नहीं ताकता किंचित् भी शत-शत बाधा-विघ्नोंकी ओर।
दौड़ छूटता जहाँ बजाते, मधुर बंशरी नन्द-किशोर।
(पद-रत्नाकर)
यही हालत भाईजीके हृदयकी थी। हर समय एक ही लालसा लगी हुई थी -
एक लालसा मन महँ धारौँ।
बंशी बट, कालिंदी-तट नट नागर नित्य निहारौँ।
(पद- रत्नाकर / प० सं० 1052) अपने अध्यात्मपथपर चलते हुए भाईजी भगवान्के अत्यन्त निकट आ गये थे। दर्शनोत्कंठा प्रतिदिन बढ़ती ही जा रही थी। श्रीसेठजी भी इस उत्कंठाको और तीव्र करते जा रहे थे। उस समय श्रीसेठजी जसीडीहमें स्वास्थ्य लाभके लिये गये हुए थे। वहाँ रहते हुए भी वे भाईजीकी मनः स्थितिसे पूर्ण परिचित थे और सूक्ष्मतासे निहार रहे थे। वे उपयुक्त अवसरकी ताकमें थे।