Namo Arihanta - 5 in Hindi Fiction Stories by अशोक असफल books and stories PDF | नमो अरिहंता - भाग 5

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नमो अरिहंता - भाग 5

(5)

दुःख

**

बरसात बीत गई है। साधु विहार के लिये निकल पड़े हैं। एक दल गोहद की नसियाजी पर भी आ गया है। सेठानी की व्यस्तता बढ़ गई है।

वैसे भी बारहों पूनो वे भोर में उठकर टट्टी-कुल्ला से निबटने के बाद झाड़ू-पोंछा करके , नल से घर का पानी भरने के बाद बाड़े में कुएँ पर चली जाती हैं। और वहाँ से स्नान करके घर न लौटकर सीधी मंदिर पहुँचती हैं। यहाँ उनकी एक आलमारी है। जिसमें पूजा वाली सामग्री-थाली, कलश, छोटी-छोटी कलशियाँ आदि रखी रहती हैं। अच्छी तरह साफ किये गये चावलों का एक डिब्बा, एक बाल्टी-रस्सी और पूजा वाली धोती भी!

फिर सेठानी बाल्टी, रस्सी, कलश और छन्ना लेकर मंदिर के कुएँ पर पहुँचती हैं। बर्तन अच्छी तरह माँज-धोकर छन्ने से छानकर कलश में पानी भरती हैं। और दालान में कलश लाकर पटे पर रख देती हैं। आलमारी से पूजा वाली धोती निकाल कर पहनने के बाद सिल पर चंदन घिसकर एक छोटी-सी कटोरी में रख लेती हैं। कलश के जल से पूजा की सामग्री धोकर थाली में सजा लेती हैं। फिर एक छोटी कलशी में जल भरकर तथा पूजा की थाली लेकर भगवान् महावीर की प्रतिमा के आगे आ खड़ी होती हैं। थाली के चावलों के दो भाग करती हैं। एक भाग मूल रंग में छोड़ कर दूसरे भाग को, हरसिंगार के ढेर सारे पुष्पों को मींजकर रंग डालती हैं और कुछ बुदबुदाती हुई बारी-बारी से हलके लाल-पीले और सफेद चावल दायें हाथ की अंजुलि से भगवान् के समक्ष पटे पर चढ़ाती जाती हैं। पाठ का गुटका उनके बायें हाथ में होता है। पटे पर बढ़ते जाते चावलों के छोटे-छोटे ढेर जाप की आवृत्ति का हिसाब रखते जाते हैं। और जल्दी के दिनों में भी यहाँ विद्यमान आठों प्रतिमाओं में से किसी एक की तो विधि-विधान पूर्वक पूजा करनी ही होती है! और इस सारी कंप्यूटरीकृत क्रिया के बाद वे छंद श्रग्विनी में आबद्ध यह स्तुति झूम-झूमकर गा उठती हैं-

जय चिदानंद आनंद रूपी जिनं

ज्ञानमय दर्शमय वीर्यमय मलहनं

राग नहि द्वेष नहिं क्रोध नहिं मान ना

मोह ना शोक ना भाव अज्ञान ना.

है कपट कोई ना लोभ ना कामना

पंच इंद्रिययमी सौख्य का धामना

जन्म ना मर्ण ना खेद ना दोष ना

कोई संताप ना कोई पर रोष ना.

कर्म आठो हने शुद्ध आपी भये

आपसे आप में आप जानत भये

नाहिं है वर्ण रस गंध अरु-फर्शना

जड़मयी मूर्ति ना जड़मयी दर्शना.

आपतो ज्ञानमय आप ज्ञाता बली

आपने सर्व बाधा जगत् की दली

आप ही पूज्य हो आप ही सिद्ध हो

आप को देखते आप ममरिद्ध हो.

आदिनाथं तुम्हीं, शांतिनाथं तुम्हीं

नेमिनाथं तुम्हीं पार्श्वनाथं तुम्हीं

हो महावीर सन्मति परमशिवमयी

सुक्खसागर तुम्हीं देखि समता भई.

फिर सभी पर्यक में स्थित आठों प्रतिमाओं को पंचांग नमन् अर्थात्-घुटनों को जमीन पर टेककर, कुहनियों को पेट से लगाकर, दोनों हाथपुट बंद कमल के आकार में जोड़ कर तथा मस्तक से लगाकर स्तवन करने के उपरांत माथे पर चंदन तथा आँखों में प्रक्षाल का गंध्योदक (मूर्ति अभिषेक का जल) लगाकर घर के लिये कूच कर देती हैं।...

और घर आकर जब तीनों लड़कियों को अभी भी बिस्तर में दुर्गंध छोड़ते हुए पाती हैं तो इस प्रकार के श्लोक पढ़ उठती हैं-

‘देखौ इन थोरियन (मोटी भैंसें) कों! अभी इनको सबेरो नईं भओ। देखौ, अभी तलक जे बिस्तरन में धरी-धरी पादि रहीं हैं! कै इनके लच्छिन बहुतई बिगड़ गये महाराज कैसे नधेंगी (निभेंगी) जे दूसरे के घर जाइकें।’ आदि।

और लड़कियाँ उनकी इस दस्तक की खूब आदी हो गई हैं।...

अंजलि का किसी से लव चल रहा है। सेठानी को पता है। सेठजी भी चिंतित रहने लगे हैं।

पर वे संतुष्ट हैं कि उन्होंने प्रीति के लव को जड़ से उखाड़ दिया है।

छोटी सुधा है। वह तो अभी निरी बच्ची है। वह तो खेल में ही भूली रहती है।

और उसे तो सेठानी धर्म की ओर मोड़ लेंगी! उन्होंने अभी से तय कर लिया है। लड़कियों को सिर नहीं चढ़ाना चाहिये। ‘बिना नाथ का भैंसा देखा है तुमने?’ वे सेठजी के कानों में रोज रात को यही भुनभुनाती हुईं दिन भर की थकान से चूर खर्राटे भर उठती हैं।

पर साधुओं का दल जब से नसियाजी में आकर ठहर गया है, सेठानी का ध्यान लड़कियों से हट कर पूरी तरह धर्म और उसके आडंबरयुक्त क्रियाकलापों में रम गया है और वे कई दिन से प्रयासरत् हैं कि एक बार कैसे भी मुनि महाराज उनके यहाँ आहार ले लें!

मुनि महाराज रोज ही 9 बजे के लगभग नसियाजी से नेम लेकर चलते हैं। दायीं अंजुलि कंधे से लगाकर! सिंह की तरह गर्दन तानकर! निःशंक! निर्भय! निर्निमेष! बायें हाथ में पीछी पकड़े हुए। नंगे पाँव! नंगे सिर! नंगे बदन।

और उन्हें देखकर प्रीति को याद आती है पंत की वही पॉपुलर कविता-‘तू अम्बर मैं दिग्वसना।’

कि उनके पीछे होते हैं कोई ऐलक महाराज! श्री 105 की उपाधि से विभूषित। फकत एक लंगोट धारी। पीछी हिलाते हुए। अंजुलि को सीने पर लगाये हुए। ये भी नेम लेकर चलते हैं!

दिन में सिर्फ एक बार आहार लेते हैं ये साधु! और जल भी तो एक ही बार ग्रहण करते हैं? और उस एक बार के लिये भी नेम लेकर चलते हैंकि आज अगर आहार दान का इच्छुक श्रावक जोड़ी से (श्राविका सहित) खड़ा मिलेगा तो! एक श्राविका मिलेगी तो! एक श्रावक मिलेगा तो! तीन कन्याएँ, दो कन्याएँ या एक कन्या मिलेगी तो!

कि इनके हाथों में एक जलकलश! दो कलश या सिरों पर एक जलकलश! दो कलश! तीन कलश! चार कलश! पाँच कलश रखे मिलेंगे तो!

कि इनके हाथों में नारियल/अमुक फल/सुपारी/लौंग/इलाइची/बादाम/अमुक मेवे या चावल मिलेंगे तो!

तो ही! उसी के यहाँ, विनम्रता और श्रद्धापूर्वक ले जाने पर जायेंगे, अन्यथा नहीं! फिर लौट आयेंगे मंदिरजी में। फिर दुबारा निकलेंगे और नेम फिर भी नहीं मिला तो फिर लौट आयेंगे अंजुलि कंधे से, सीने से लगाये हुए।

फिर तीसरी बार भी उसी नेम को धारण कर निकलेंगे तथा दुर्योगवश नेम न मिलने पर बिना आहार के ही लौट आयेंगे नसियाजी में। फिर उस दिन बिना आहार के ही बने रहेंगे। अगले दिन फिर निकलेंगे नेम लेकर।

और नेम न मिलने पर एक दिन, दो दिन, तीन दिन, चार दिन, चाहे जितने दिन बीत जायें, आहार नहीं लेंगे-नहीं लेंगे!

सो सेठानी पहले रोज महावीर चौक बस्ती में पीली साड़ी पहन और सेठजी को पीला दुपट्टा ओढ़ाकर, हाथों में फल और सिर पर जल कलश इत्यादि रखकर खड़ी होती हैं। मुनि महाराज आते हैं और निस्पृह भाव से आगे बढ़ जाते हैं। फिर जब तक उधर से लौटते हैं, सेठानी जल कलशियों की संख्या घटा-बढ़ा लेती हैं। हाथों में फलों की जगह, लौंग/इलाइची/सुपारी/चावल आदि ले लेती हैं। मुनि महाराज नहीं ठहरते।

अगले दिन वे अकेली खड़ी होती हैं-जलपात्र और बादाम, छुआरे इत्यादि लेकर। मुनि महाराज नहीं मिलाते, रुख आज भी। जबकि बिछ-बिछ जाती हैं सेठानी, ‘स्वामी! स्वामी! स्वामीऽऽ’ ‘त्राहि-त्राहि-त्राहि!’ महावीर चौक में साक्षात् अनन्य करुणा गूँजती है पचासौ नारी कंठों से। तब किसी परम् भाग्यशाली भक्त के चौके पर चरण पड़ते हैं मुनि महाराज के ।...

सेठानी अगले दिन युद्ध स्तर पर बार-बार पलट पलटकर एक/दो/तीन कन्याओं को अलग-अलग जल पात्र धारण कराकर मुनि महाराज को पड़गाने का यत्न करती हैं और उनका नेम न मिलने पर किसी ऐलक को पड़गाना चाहती हैं पर नेम नहीं मिलता। और किसी क्षुल्लक के पीछे पड़ती हैं, तब तक उन्हें और कोई पड़गा ले जाता है!

और वे क्षोभ से भर उठती हैं कि ऐन कोठी के सामने वाले चौक में साधुओं को पड़गाने हेतु पंक्तिबद्ध खड़े जैनी उनकी हँसी उड़ा रहे हैं, ‘धन हाथ का है, धर्म हाथ का थोड़े ही है! वह तो पूर्व जन्म के संचित पुण्यों और इस जन्म के सद्कर्मों का फल होता है।’

अपमानित सेठानी खीजती हैं लड़कियों पर। सेठजी पर। घर लौटकर बेमन से, उदास भाव से खा लेती हैं आधी-कौरा और पड़ी रहती हैं दुःखित भाव से।...

पर रात में सोकर जैसे, सब कुछ भूल जाती हैं और नई आशा में, नवोत्साह से भरकर फिर रच उठती हैं रसोई साधुओं के लिये।... जमीकंद (सकलकंदी, आलू, रतालू, अरबी, मूली आदि) ही नहीं, भिंडी और भटे और गोभी और करम-कल्ला भी रसोई से दूर रखकर कद्दू/लौकी या तोरई, दाल-चावल, खीर वगैरह पका लेती हैं कुछ। कभी-कभी ककड़ी, अंगूर, टमाटर वगैरा ही या मूली के पत्ते ही छोंक लेती हैं। अक्सर पूड़ी-पराँठे और कभी-कभी रोटियाँ भी सेंक लेती हैं। फलों के जूस, तो कभी बादाम-पिस्ता का शर्बत अलग।

रसोई का सारा पानी कुएँ से खुद भरकर लाती हैं। अंजलि पड़ोस में दूध लेने जाती है। इन दिनों में अगर वह धोखे से भी पीतल की बाल्टी नल के पानी से धोकर ले गई तो समझो हो गया कलह! यहाँ तक कि ‘थन’ धोने तक के लिये कुएँ का पानी ले जाना पड़ता उसे!

चिढ़ती हैं सारी लड़कियाँ इस ढोंग से, पाखंड से। ये साधु क्या आते हैं, अच्छी-भली आफत आ जाती है। जब कभी भाग्य से नेम मिल भी जाता है उनका, ठिठक जाते हैं मुनि महाराज! और बस, हो जाता है पूरा नाटक।...

मम्मी सबके सामने बाजार में दिगंबर महाराज की तीन प्रदक्षिणा करते हुए जोर-जोर से गा उठती हैं, ‘हे महाराजजी, नमोस्तु, नमोस्तु, नमोस्तु! अत्र, अत्र, अत्र! तिष्ठ, तिष्ठ, तिष्ठ! हे स्वामी-मन शुद्धि, वचन शुद्धि, काय शुद्धि, आहार-जल शुद्ध है, आइये महाराज!’

कि एक भगदड़-सी मच जाती है।

दौड़ती हुई मुटल्लो मम्मी आगे-आगे घर का रास्ता दिखलाती जाती हैं मुनि महाराज को! क्योंकि वे तो भागते हुए से चलते हैं! मानो ट्रेन छूट गई हो हरी झंडी के बाद।उनके पीछे तीनों बहनों और सेठजी को भी भागना पड़ता है- गदबद, गदबद! तमाशा देखते हैं, तमाशबीन (अजैन)! लड़कियों को अच्छा नहीं लगता।

मम्मी दरवाजे पर आकर फिर स्तुति करती हैं, ‘हे स्वामी! नमोस्तु, नमोस्तु, नमोस्तु! अत्र, अत्र, अत्र! तिष्ठ, तिष्ठ, तिष्ठ! मन शुद्धि, वचन शुद्धि, काय शुद्धि, आहार-जल शुद्ध है! भोजनशाला में पधारिये महाराज।’

सब झटपट जीना चढ़ जाते हैं नीली कोठी का। दूर से दिखती है पूरी रामलीला! मुनि महाराज के पीछे कोई-कोई प्रतिमाधारी भी घुस आते हैं हॉल में। ब्याह-सी हड़बड़ी मची होती है। सब दौड़ते हैं-इस, उस चीज के लिये। जैसे, किसी मंत्री का आगमन हुआ हो अपने विभाग में और कर्मचारी/अधिकारी सब अपनी अदृश्य दुमें हिलाकर न्यौछावर हुए जा रहे हों!

काठ का पटा डाल दिया जाता है। विद्युत गति से भोजन परोसा जाता है। घिघियाते हुए बताया जाता है, ‘ये-ये, ये-ये है क्या-क्या ग्रहण करेंगे स्वामी!’

और लकड़ी के पटे पर खड़े मुनि महाराज कहते जाते हैं-‘ये हटाओ, ये हटाओ, ये हटाओ बस ये रहने दो-ये रहने दो, बस-ठीक!’

भावुक स्वर में बोलती हैं सेठानी, ‘आहार तो काया रखने को करते हैं स्वामी नहीं तो वो भी न करें। हे तपोनिष्ठ, आपके ही इस पुन्न प्रताप से ये धरती थमी है।’ मानो रोती हों! और फिर पंचांग प्रमाण कर दीन स्वर में आगे कहती हैं सेठानी, ‘हे स्वामी, मन शुद्धि, वचन शुद्धि, काय शुद्धि! आहार-जल शुद्ध है! ली हुई मुद्रा छोड़, अंजुलि ग्रहण कर भोजन ग्रहण कीजिये, महाराज!’

तब सेठजी मुनि महाराज के दोनों हाथों द्वारा कमल सदृश बनाई गई अंजुलि में खड़े-खड़े ही भोजन डालते जाते हैं। मुनि महाराज अपने दोनों अंगूठों से भोजन को मींजते हुए हाथों की ओक-सी बनाकर नितांत स्वादहीन भाव से भोजन को मुख के हवाले करते जाते हैं।

और अगर बीच भोजन एक बार अंजुलि छूट जाये, खुल जाये असावधानी वश तो फिर नहीं मारते अंजुलि। फिर नहीं करते भोजन। लाख घिघिआओ, फिर नहीं ग्रहण करते एक कण भी। जल तक नहीं लेते मुनि महाराज अंजुलि के छूट जाने पर।

या फिर भोजन में अचानक दो-ढाई इंच तक का बाल निकल आये या कोई कीट पतंग निकल आये, तो हो गया गजब!

होम करते हाथ जले सेठानी के , ‘आग लगाइ देउ इन धिधरियन (लड़कियों) में! बना बनाया सामान खोल के डाल देंगी इनके चुट्टईऽ होत रहत हैं-जब देखो, तब!’

और फिर तो उनकी लाख खुशामद के बावजूद एक क्षण नहीं ठहरते साधु।

और फिर सेठानी बीमार पड़ जाती हैं दो-चार दिन के लिये।

प्रीति अब खुद भी बीमार रहने लगी है।

हॉल के बाद दायें बाजू रसोई और स्टोर रूम है और बायीं ओर लेट्रीन-बाथरूम। इनके बीच के खुले स्थान पर लोहे का जाल पड़ा है जो आँगन कहलाता है।

आँगन के बाद दो कमरे पटजोड़ा हैं। यदि इनके बीच के पार्टीशन को हटा दिया जाये तो दस गुना तीस फीट का यह एक ही कमरा है। किंतु पार्टीशन बदस्तूर कायम है, क्योंकि इन दोनों कमरों में अलग-अलग प्रकृति के लोग रहते हैं।...

इन कमरों के पीछे एक-एक कमरा और भी है, जिसमें इन्हीं के दरवाजे में होकर जाया जा सकता है।

सो, नक्शा कुछ इस प्रकार हुआ सेठजी के घर का-हॉल (कॉमन), दायें बाजू रसोई-स्टोर (कॉमन), बायीं ओर के लेट्रीन-बाथरूम (कॉमन), बीच का आँगन (कॉमन), उसके बाद दायें बाजू के पटजोड़ा कमरे (अंदर वाला अंजलि का, बाहर वाला सुधा का) और बायीं ओर के पटजोड़ा कमरे (अंदर वाला प्रीति का और बाहर वाला सेठानी का!) और सेठजी का ‘वास’ कॉॅमन हॉल में।

पर लड़कियों को पता है कि सेठानी या तो गई रात हॉल में चली जाती हैं और रात्रि के अंतिम प्रहर में अपने कमरे में लौट आती हैं या फिर सेठजी सेठानी के कमरे में चले आते हैं आधी रात के बाद एक-दो घंटे के लिये। और उस समय यदि प्रीति को पेशाब भी आता है तो दबा लेती है और सपने में भी पेशाब के लिए

जगह तलाशती फिरती है! तभी तपाक से आँख खुल जाती है। ठीक उसी समय किवाड़ों के उस पार पटजोड़ा कमरे में सेठ-सेठानी इस गंभीर वार्तालाप में निमग्न होते हैं-

सेठ-फिरोजाबाद में अकेलेदम सेठ छदामीलाल ने बाहुबली भगवान् की कितनी ऊँची प्रतिमा लगवाई है, पता है!

सेठानी-लगवाई होइगी, पहले अपनी धीधरियन को इंतजाम तो करिलेउ

तुम।...

सेठ खिसियाकर-क्या बकती हो, मैं कहूँ जवान संभार के बतियाओ तुम.

सेठानी- संभरि गई जबान भटेले को मोंड़ा अंजलिया के कब से पीछे परो है.

सेठ- सो! अपनो ही दाम खोटो तौ

सेठानी- जाने काये खोटो हमऊँ तो ज्वान भईंती!

सेठ मसखरी से- तुम्हारे कुछ किस्सा रहे होंगे!

‘किस्सा को नईं हमने पेट गिरवाय लए!’ सेठानी एकदम चढ़ बैठतीं।

‘अरे नहीं।’ सेठ चुमकारता हुआ-सा एकदम नरम पड़ जाता। मानो उसकी अपनी पोल खुलने वाली हो, इस मुँहबाद में। पर सेठानी अब तैश में होतीं, कहतीं-

‘खलीफा की याद भूलि गये अंजलि पेटें आइ गई तब लों चक्कर काटत रहे तुम्हारे’

खिसियाना सा सेठ कहता ‘बालापन के कुकरम अब क्या याद करना।’

और खुद ही याद करने लगता कि- किस तरह बचपन में उसे पहलवानी का शौक लग गया था। उन दिनों रामदास पंडित अखाड़े के खलीफा हुआ करते थे और अखाड़ा था हठीले हनुमानजी की जग्गा में। और वे अब के सेठजी तब के पप्पू अमोलकचंद छटवाँ करके लौटे थे गोहद। अपनी नानी के यहाँ (फिरोजाबाद) से कि- पहलवानों की सोहबत में फंस गये।

जग्गा के अखाड़े पर उनसे साल दो साल बडे़ एक-दो लड़के और भी जाया करते थे। उन दिनों पप्पू अमोलकचंद के गाल सेब की तरह लाल रखे रहते। कि उन पर हरेक पहलवान का मन मचल उठता था। और खेल-खेल में सब उनका चुम्मा ले लेते। गोदी में बिठा लेते। उनके साथ जोड़ करने का बहाना कर उन्हें अखाड़े में अपने नीचे दाब लेते!

और एक दिन तो हद हो गई।

बाबू गूजर उन्हें रात में तीन बजे ही बुला ले गया और जग्गा न ले जाके बंधे की तरफ ले जाने लगा। पप्पू अमोलकचंद ने किशोरियों-से पतले स्वर में कहा, ‘दद्दा, कहाँ लये जात हो आज!’

पर बाबू बोला नहीं, तेज-तेज चलता रहा, आगे-आगे। आगे जाने पर सड़क के बगल के गड़खों में पानी भरा मिल जाने पर पप्पू को दहशत होने लगी। उन्हें एक साथ कई कहानियाँ याद हो आईं कि फलां-फलां को फलां-फलां भूत, फलां-फलां जगह लिवा ले गये। वे आदमी के भेष में-दोस्त, चचा, ताऊ, भैया बनकर आ जाते हैं। और लिवा ले जाते हैं। और पानी में गाड़ देते हैं। पहलें कुस्ती लड़त हैं।

वे रोने लगे। दहशत के मारे उनका कलेजा काँप रहा था।

तब उन्हें एकदम क्षेत्रपाल महाराज याद हो आये। और वे काँपते करुण स्वर में यह आरती गा उठे-

‘करूँ आरती क्षेत्रपाल की, जिनपद सेवक रक्षपाल की विजयवीर अरु मणि भद्र की, अपराजित भैरव आदी की सर पर मणिमय मुकट विराजे, कर में आयुध-त्रिशूल जुराजे कूकर वाहन शोभा भारी, भूत-प्रेत दुष्टन भयकारी लंके श्वर ने ध्यान जो कीन्हाँ, अंगद आदि उपद्रव कीन्हाँ, जभी आपने रच्छा कीनी जिन भक्तन की रक्षा करते-भूत-प्रेत को मारा करते माऽरा करते ऽऽ’

पप्पू की ठंड भाग गई थी, मगर ठोड़ी काँप रही थी। और वह घुटी-घुटी-सी आवाज में खूब तेज रोने लगा। चलते-चलते उसे ठोकरें लगती जा रही थीं। दहशत का पार नही था! देवस्तुति ही एक सहारा थी! ये स्तुतियाँ उसे बचपन से ही रटी पड़ी थीं। लौकिक शिक्षा के साथ-साथ वह अपने समाज के बच्चों के साथ मंदिर में रोज धार्मिक शिक्षा भी लिया करता था। अपनी कुशाग्र बुद्धि के बल पर बाल बोध भाग-1 से लेकर 3 तक तो उसने पहले साल में ही पढ़ लिया। फिर दूसरे साल में बाल बोध भाग-4 और 5 कम्पलीट कर मौखिक परीक्षा भी पास कर ली थी।...

उस वक्त दहशत से काँपते पप्पू को कमठ के उपसर्ग याद आये। और यह भी कि किस तरह राजा श्रेणिक ने खड़गासन में तपस्यारत मुनि महाराज के गले में मरा हुआ साँप डाल दिया, जिसमें चींटियाँ लग गईं, जिन्हांने मुनि महाराज को डँस-डँसकर खोखला कर दिया, तब भी वे विचलित नहीं हुए!

पप्पू के दिल को खासा ढांढ़स बंधा। चलते-चलते उसने महावीर चालीसा, पार्श्वनाथ चालीसा, पद्म प्रभु चालीसा और चंद्र प्रभु चालीसा भी गा लिया। पर बाबू गुर्जर के वेश में आया भूत जैसे इन सभी पर भारी पड़ रहा था! कि पप्पू उसके पीछे स्वतः खिंचा चला जा रहा था।

और बांध की पार पर आकर वह जोर-जोर से रोने लगा। डर से उसका कलेजा फटा जा रहा था। उसकी इस दुर्दशा पर पसीजने के बजाय बाबू ने रौद्र स्वर में कहा, ‘बड़ो पहलमान बनत हे ससुर! आज तेरी सगरी पेहलमानी निकार देहों!’

पप्पू के होश फाख़्ता हो गये।

फिर कैसे बाबू ने उन्हें सड़क के बगल में ही खंती में पटक लिया! और क्या-क्या किया? सब बेहोशी की बही में दर्ज रह गया है। सेठजी ने एक लंबी साँस भरी।

संकोचवश प्रीति ने कमरे में रखी डस्टबिन में ही पेशाब कर लिया!

पटजोड़ा कमरे की खाट पर सेठानी करवट लेकर खुर्राटे भर उठी थीं और सेठजी बचपन की त्रासदी से उबर नहीं पा रहे थे-

उस घटना से तीन रोज तक बुखार आया था उन्हें।

उन्होंने सुना कि खलीफा बहुत बिगड़े हैं, बाबू गूजर पर! उसे अखाड़े से भी निकाल दिया है, उन्होंने!

गोहद में ‘पप्पू को भूत ने घेर लओ, भूत ने घेर लओ’ अफवाह उड़ रही थी।...

पर खलीफा जानते हैं-वैसे भी खलीफा लोग ब्याह-शादी नहीं करते। ऐसो ही कोई एकाध मोंड़ा छाँट लेत हैं।

सो, उन्होंने पप्पू को छाँट लिया था। और सेठ बाल-बच्चेदार होने तक मुक्त नहीं हो पाया था उनसे। जब तलक कि वे पूरी तरह बुढ़ाकर असाध्य नहीं हो रहे।...

ग्लानि से मुँह में भर आये थूक को थूकने के लिये सेठ खाट से उठा। खाट चरमराई तो सेठानी की नींद फिर उचट गई।

बोलीं, ‘जि तो नईं कि कालेज-फालेज खुलवाओ अपने ही गोहद में। लड़कियाँ आगे पढ़ाई के लाने धरती धरें फिरती हैं। तुमें तो मंदिर की पड़ी है।’

‘कालेज भी खुल जागो। धीरज धरौ,’ सेठ ने कहा, ‘पर मंदिर हू जरूरी है।’

‘काए?’

‘काए नईं?’ वह तैश में आ गया, ‘देखो-कित्ते-कित्ते बड़े गुरुद्वारे बनि गये! मस्जिदन के आँगन दिन रात बढ़त चले जात हैं। हिंदुअन को कछू भरोसो है हम तो वैसे भी अल्पसंख्यक हैं, बनिया हैं!’

और फिर सेठानी जमुहाई लेते हुए कुछ यों मोर्चे से हट जाती हैं, ‘तुम्हें दीसे सो करो।’ तब सेठजी उठकर हॉल में चले जाते हैं।

प्रीति उठती है। गंधाती डस्टबिन को नाक सिकोड़कर हाथ में उठाती है और किवाड़ खोलकर मम्मी का कमरा पार करती हुई आँगन से जुड़े बाथरूम में जाकर उलट देती है।

सेठजी को धक्का लगता है। प्रीति अब बीमार रहने लगी है! जानती सेठानी भी हैं, पर दिन भर की थकान और रात की टुकड़ा-टुकड़ा नींद से टूटता है शरीर टुकड़ा-टुकड़ा कराहती हैं वे!

प्रीति को फिर नींद नहीं आती।

(क्रमशः)