Ambition in Hindi Short Stories by Neelam Kulshreshtha books and stories PDF | लालसा

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लालसा

[ नीलम कुलश्रेष्ठ ]

['हँस'से साभार ]

मन कैसा कैसा रोने को हो आता है -मम्मी पापा के बिना भी कभी रहना पड़ेगा ? जब वह उनके साथ थी तो तब कहाँ लगता था इस घर, मम्मी पापा से अलग भी कोई दुनियाँ होती है। जब उसने ज़िद की कि वह उन्हें छोड़कर कभी हॉस्टल में रहने नहीं जायेगी। मम्मी ने प्यार से समझाया था, "कब तक घर छोड़कर नहीं जाओगी? हर लड़की को शादी के बाद घर छोड़ना पड़ता है। "

"शादी से पहले मैं क्यों घर छोड़ूँ ? "

पापा ने फ़ैक्टरी जाने से पहले एक तरह से आदेश दिया था, " तुम इतने अच्छे नंबर लाती हो। मैथ्स व साईंस में डिस्टिंक्शन है तो क्यों नहीं अपने ब्राईट फ़्यूचर की सोचतीं ? इस टाऊन में क्या रक्खा है ?"

हॉस्टल में कितना कुछ अनजाना था। नये चेहरे, कड़क सी तीन हाऊस कीपर। बस ग़नीमत थी कम उम्र की वॉर्डन हमेशा मुस्कराती मिलती, बार बार कहती, "मुझे पता है पहली बार घर छोड़ने का मतलब क्या होता है ? मैं भी बारह साल के होते ही दून स्कूल में भेज दी गई थी। आप लोगों को कुछ भी परेशानी हो तो मुझे बताइये। "

उसे अपनी रूम मेट उष्मा को देखकर तो बहुत गुस्सा आता था। हर समय घर की याद से उसकी ऑंखें डबडबाई रहतीं थीं। न वह बात करती, न हंसती थी। बार बार बड़बड़ाती, "देखना एक दिन मैं अपने घर भाग जाऊँगी। "

उष्मा तो मैस में खाना खाने जाती ही नहीं थी। पलंग पर पड़े पड़े सुबकती रहती। वॉर्डन कड़क नहीं थी इसलिये वह उष्मा का खाना मैस से रूम में ले आती थी। वह उसमें से आधी रोटी बहुत मुश्किल से गले से उतारती थी। अक्सर बचा हुआ खाना थाली में ढका रहता था।

एक दिन उसने अपने हॉस्टल के कमरे की खिड़की के पीछे के मैदान में खेलते हुए उस बच्चे से उसने कहा, " ओ बच्चे घर से छोटी कटोरी ले आ, दाल रखी है।”

“ऐ लड़की ! अपनी कटोरी हमें दे दे, मैं सच्ची कह रहा हूँ खाली करके लौटा दूँगा ।”

उस बच्चे के धूल भरे नाक बहते चेहरे व गंदी घुटनों के नीचे तक झूलती मटमैली कमीज़ को देखकर लग रहा था कि कटोरी वापस लायेगा भी या मार जायेगा । खैर.... इतनी छोटी-सी कटोरी मार भी गया तो उसे कौन-सा फ़र्क़ पड़ जायेगा, लेकिन अपनी कटोरी बस्ती में कैसे भेज दे? उसने साफ़ इंकार कर दिया, “अपनी कटोरी लाकर दाल लेनी है ले ले, वरना भाग जा।”

“अच्छा ! अभी आया !” कहता वह अपनी ढीली-ढाली कमीज़ झुलाता दूर दिखायी देती अपनी बस्ती की झोंपड़ियों की तरफ़ दौड़ गया।

वह खिड़की से हटकर उष्मा के पलंग पर बैठ गयी । उसके माथे पर हाथ रखकर बड़बड़ाने लगी, “ अब तो इस हॉस्टल में रहते महीना भर हो गया है, कब तक ‘होम सिक’ रहेगी? तेरा खाना रोज़ इस भीकम को देना पड़ता है ।”

घर की याद दिलाते ही उष्मा रोने लगी । वह उसे दिलासा देती रही ।

थोड़ी देर में खिड़की से आवाज़ आयी, “ऐ लड़की ! मैं कटोरी ले आया हूँ ।”

उसने खिड़की में से कटोरी की दाल उसकी कटोरी में उलट दी। रोटियाँ व सब्जी एक पॉलिथिन बैग में रखकर दे दीं ।

उष्मा अचानक रो पड़ी, “मैं हॉस्टल में नहीं रह सकती । मैं मम्मी-पापा के बिना नहीं रह सकती।”

वह फिर उसे डाँटते हुए दिलासा देने लगी, “इस हॉस्टल में क्या तू ही अकेली नयी लड़की है?”

“मैं यहाँ नहीं रह सकती ! देखना मैं कल यहाँ से चली जाऊँगी ।”

भीकम सीधे हाथ में दाल भरी कटोरी पकड़े व दूसरे हाथ से खिड़की की सलाख पकड़े खुशी से चिल्लाया, “ओ लड़की! तू तो कल घर जा रही है। अपने इत्ते बड़े मकान में हमें बस एक दिन रहने देगी ?”

 

नीलम कुलश्रेष्ठ

e-mail—kneeli@rediffmail.com