Aakhir woh kaun tha - Season 2 - Part 5 in Hindi Fiction Stories by Ratna Pandey books and stories PDF | आख़िर वह कौन था - सीजन 2 - भाग 5

Featured Books
  • خواہش

    محبت کی چادر جوان کلیاں محبت کی چادر میں لپٹی ہوئی نکلی ہیں۔...

  • Akhir Kun

                  Hello dear readers please follow me on Instagr...

  • وقت

    وقت برف کا گھنا بادل جلد ہی منتشر ہو جائے گا۔ سورج یہاں نہیں...

  • افسوس باب 1

    افسوسپیش لفظ:زندگی کے سفر میں بعض لمحے ایسے آتے ہیں جو ایک پ...

  • کیا آپ جھانک رہے ہیں؟

    مجھے نہیں معلوم کیوں   پتہ نہیں ان دنوں حکومت کیوں پریش...

Categories
Share

आख़िर वह कौन था - सीजन 2 - भाग 5

श्यामा के मुँह से यह सुनकर सुशीला थोड़ा हिचकिचाई लेकिन फिर संभल कर बोली, “मैडम आप क्या पूछना चाहती हैं, मैं जानती हूँ? जाने दो ना मैडम, मेरा जीवन तो बिगड़ गया पर आपका सुधरा हुआ है उसे वैसे ही रहने दो। क्यों बिगाड़ना चाहती हो?”

“यह बताओ सुशीला कि तुम्हारे साथ जो कुछ भी हुआ वह जबरदस्ती था या तुम्हारी मर्जी के साथ?”

“मैडम मैं तो सोलह साल की अल्हड़ थी, माँ बाप मर चुके थे। माँ ने तो काम के दौरान ही दम तोड़ा था। मैं माँ के मरने के बाद मेरी माँ के बदले का काम मांगने गई थी।  मैंने तो यह कहा था कि और कहीं जाऊंगी तो लोग ऐसे ही नोच खाएंगे। आपके घर वर्षों से मेरी माँ काम कर रही है। आप पर मुझे भरोसा है। लेकिन मैं ग़लत थी मैडम। मैंने ओढ़नी से अपनी जवानी को छुपाने की बहुत कोशिश की। बहुत कोशिश की मैडम जी कि किसी की नज़र ना पड़े। किंतु जवानी छुपती कहाँ है, नज़र पड़ ही गई। उस रात मैडम मेरी इज़्ज़त के साथ ही साथ मेरा विश्वास भी चूर-चूर हो गया। मैंने बहुत कोशिश की ख़ुद को बचाने की लेकिन मैं हार गई।”

“वह सब तुम्हारे साथ एक बार हुआ या…?”

“एक बार में ही मैं माँ बन गई मैडम। उसके बाद उसने पलट कर कभी नहीं देखा।”

“तुम यह जगह छोड़कर चली क्यों नहीं गईं?” 

“मैडम एक माह तक मुझे समझ ही नहीं आ रहा था कि मुझे क्या करना चाहिए। अकेली थी ना मैडम, गरीब, बेसहारा डरती थी। छोटी भी तो थी, कहाँ जाती? यहां तो बाजू की खोली वाली शांता ताई का सहारा था। अपनी बेटी की तरह रखती थीं वह मुझे।” 

“एक माह बाद पता चला कि मेरे छोटे से शरीर में भी एक छोटा बच्चा बन रहा है। मैं किसी को जन्म देकर माँ बनने वाली हूँ। ऐसे में मैं कहाँ जाती मैडम? यहाँ थी तो शांता ताई ने संभाल लिया। मुझे हिम्मत भी बंधाई। यदि शांता ताई नहीं होती तो मैं इस बच्चे को जन्म कैसे देती। सोचती हूँ तो डर जाती हूँ मैडम और वैसे भी तब तक मेरे अंदर एक ताकत आ गई थी। मेरे मन ने सोच लिया था मैं यहीं रहूंगी। उस की औलाद उसकी आँखों के सामने गोद में उठाकर काम करूंगी और यहीं उसे बड़ा भी करूंगी। उसे जताऊँगी कि उसके दो पल के सुख के पीछे, उसने मुझे जीवन भर का दुख दे दिया है। ना मैं किसी और की हो सकती थी ना किसी के साथ ब्याह कर अपना घर बसा सकती थी।”   

सुशीला ने बात को आगे बढ़ाते हुए कहा, “मैडम हमारे में तो आदमी लोग बहुत मारते हैं। मैं तो वैसे ही आधी मर चुकी थी। मैं उसे यह एहसास कराना चाहती थी मैडम कि उसका खून उसके ही सामने मैले कुचैले कपड़े पहनकर दर-दर की ठोकरें खा रहा है और वह ख़ुद आलीशान ऑफिस में बैठकर नोट गिन रहा है। उस बच्चे की माँ ईंटों की तगाड़ी सर पर रख कर बोझा ढो रही है और उसे माँ बनाने वाला उसे मजदूरी दे रहा है। यह सब कर्मों का लेखा जोखा है मैडम जी। मैंने तो किसी को भी नहीं बताया लेकिन भगवान ने ही आपको बता दिया। १०-१२ वर्ष पहले उसकी माँ भी मुझसे यही पूछने आई थीं जैसे आज आप आई हैं।” 

 

रत्ना पांडे, वडोदरा (गुजरात) 

स्वरचित और मौलिक  

क्रमशः