Irfaan Rishi ka Addaa - 3 in Hindi Fiction Stories by Prabodh Kumar Govil books and stories PDF | इरफ़ान ऋषि का अड्डा - 3

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इरफ़ान ऋषि का अड्डा - 3

करण के पिता अपने सारे आश्चर्य के बावजूद ये चाहते थे कि लड़की भीतर आए, बैठे, बताए कि उसका आना क्यों हुआ, वो करण को कैसे जानती है, उससे क्या काम है आदि - आदि।
लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। क्योंकि वो देहरी से नीचे उतर कर उन मोहतरमा की अगवानी कर पाते उससे पहले ही भीतर से उछलता- कूदता हुआ एक छोटा लड़का आया और उसने लड़की के कान के पास मुंह ले जाकर न जाने क्या कहा कि लड़की ने अपने ड्राइवर को गाड़ी वापस लौटा ले चलने का आदेश दिया और गाड़ी घूमने लगी।
करण के पिता की जिज्ञासा वैसे ही धरी रह गई क्योंकि वह छोटा लड़का भी बाहर से ही निकल कर कहीं गुम हो गया।
दीवार का सहारा लेकर धीरे- धीरे चलते हुए करण के पिता अभी भीतर जा ही रहे थे कि पीछे से फिर एक पुकार सुन कर रुक गए। उन्होंने पीछे मुड़ कर देखा।
बाहर एक आदमी एक ठेले पर कोई सामान लिए खड़ा था। शायद कोई फेरी वाला था।
उत्सुकता - वश वो फ़िर बाहर चले आए। ठेले पर रखे सामान में उन्हें कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई दी क्योंकि उसके पास एक से आकार में रखे किसी मशीन के से छोटे- छोटे डिब्बे थे। डिब्बे पैक थे और उन पर लगे हुए रैपर्स से ही ये पता चल सकता था कि इनमें क्या है और वो किस काम आता है। इतनी माथापच्ची उनके बस की नहीं थी इसलिए उन्होंने बिना देखे- जाने ही उपेक्षा से फेरी वाले को "जाओ- जाओ" कहा और भीतर बिला गए।
लेकिन फेरी वाले को वहां से ज़रा आगे बढ़ते ही कुछ महिलाओं ने घेर लिया। वो फेरी वाले से कम, आपस में ज़्यादा बातें करती हुई उसे वहां काफ़ी देर तक रोके रहीं।
फेरी वाले के पास बड़े विचित्र किस्म का सामान था। जब उसने कुछ डिब्बों से खोल - खोल कर सामान महिलाओं को दिखाना शुरू किया तो वो दंग रह गईं।
ये अधिकांश पुनः प्रयोग यानी री - यूज़ की चीज़ें थीं। जैसे कानों का मैल साफ़ करने वाले ईयर बड्स। धो कर साफ़ की गई पुरानी पॉलिथीन जिसे प्रेस करके फ़िर नया जैसा बना दिया गया था। दांत कुरेदने वाली सींकें और जली हुई दियासलाई की सींकें जिन के सिरे पर फिर से ज्वलनशील मसाला लगाकर उन्हें पुनः जलने योग्य बनाया गया था। यहां तक कि चाय की काम में ली जा चुकी पत्तियों को भी सुखा कर उन पर चाय - पत्ती की डस्ट का लेप करके उसे फिर काम में लेने योग्य बना दिया गया था। कुछ नामी- गिरामी ब्रांड्स की खाली शीशियों में घरेलू तौर पर तैयार लोशन - क्रीम आदि भी थीं।
महिलाओं को जितना कौतूहल इन्हें देखने- समझने में लगा उतनी ही निराशा ठेले वाले को वहां बिल्कुल भी बिक्री न होने पर हुई। लेकिन यहीं हुई आपसी चर्चा के दौरान बस्ती की कुछ और औरतों के वहां से बस्ती छोड़ कर जाने की सूचना भी मिली।
कारण वही- हमारे आदमी ने काम छोड़ दिया इसलिए हम जा रहे हैं।
बस्ती के खोए हुए ट्रैक्टर के बारे में अभी तक किसी को कुछ पता नहीं चला था कि अचानक वो कहां चला गया। ट्रैक्टर था कोई सुई नहीं, कि कहीं इधर- उधर हो गई। फिर ट्रैक्टर के साथ- साथ पूरी बारह हाथ की लंबी - चौड़ी ट्रॉली भी तो थी। कोई चोर- उचक्का उठाई - गीरा कहां उठाए फिरेगा? फिर भी गई तो गई।
शुरू में एक - दो दिन तो नज़दीक के पुलिस स्टेशन से पुलिस वालों का आना - जाना भी रहा लेकिन उसके बाद मामला ठंडा पड़ गया।
करण से आर्यन बार- बार पूछता था - अब क्या करेंगे? शाहरुख ने कुछ कहा? लेकिन करण के पास उसकी किसी बात का कोई जवाब नहीं था।
मन ही मन करण भी थोड़ा सा शंकित ज़रूर था कि शाहरुख इतना बड़ा नुकसान अकेले ऐसे - कैसे झेल जायेगा? कोई न कोई बात तो आयेगी।
करण और आर्यन ये अच्छी तरह जानते थे कि ट्रैक्टर शाहरुख का ख़ुद का नहीं बल्कि उसके किसी मिलने वाले का था।
करण शाम को घर आया तो उसके पिता ने उसे बाहर दालान में ही रोक लिया। उससे बोले - तुझे पूछने के लिए सुबह कोई मैडम आई थी, मिल लिया उससे?
करण ने कोई जवाब नहीं दिया। वह उनकी अनदेखी कर फिर से बाहर निकल गया।
पिता ने कुछ मायूस होकर वो अखबार उठा लिया जिसे करण ही लेकर आया था और उसने उसकी तह को गोल - गोल घुमाते हुए सामने वहीं एक स्टूल पर पटक दिया था।
पिता ने अब पैर से जूतियां उतारीं और आराम से तख्त पर पांव फैलाते हुए अखबार को खोल लिया। मानो उन्हें काफी देर का मनपसंद काम मिल गया।
बुजुर्गों का अखबार से पुराना नाता है, ये बात वैसे ही नहीं कही जाती। बड़े बूढ़ों को समाचार पत्र और थोड़ा खाली समय मिल जाए तो उनके लिए ये किसी जन्नत से कम नहीं है।
सच ही तो है, नई पीढ़ी का मेहबूब जिस तरह मोबाइल फोन है वैसे ही पुरानी पीढ़ी की प्रेमिका अख़बार के ये फैले पन्ने हैं जिनमें विचर कर घर में पड़े बड़े - बूढ़ों का जैसे कोई "अराउंड द वर्ल्ड" हो जाता है।
कई बार तो अखबार के रस के आगे उन्हें चाय की मिठास भी कम लगती है।
ओह! लेकिन अख़बार इस तरह बिजली के झटके तो पहले कभी नहीं मारता था।
उन्होंने देखा तो उनके पांवों के नीचे से ज़मीन ही खिसक गई। तीसरे पेज के नीचे वाले कोने में एक बड़ा सा बॉक्स बना था जिसमें उसी लड़की की एक तस्वीर बनी थी।
उसे कैसे भूल सकते हैं वो? नहीं, कोई गलती नहीं। शत- प्रतिशत वही है। किसी लड़की को देख कर आम- तौर पर लोग उसकी शक्ल भूलते कहां हैं? और अगर लड़की जवान हो तब तो भूलने का प्रश्न ही पैदा नहीं होता।
उन्होंने एक बार अपनी अंगुलियों से चश्मे को अपनी आंखों पर फिर से जमाया और ज़ोर देकर वही खबर पढ़ने लगे।
खबर क्या थी वो तो कोई विज्ञापन था। उनकी ज़बान में बात करें तो इश्तहार।
वो जल्दी - जल्दी पढ़ गए।
लड़की को तुरंत पहचान लेने का तो एक बड़ा कारण ये भी था कि लड़की ने आज लगभग वही कपड़े पहने थे जो इस फ़ोटो में दिखाई दे रहे थे। अर्थात फ़ोटो बिल्कुल ताज़ा था।
लेकिन फ़ोटो के साथ छपी इबारत पढ़ कर उनका माथा भन्ना गया। लिखा था - ये लड़की दो दिन से बिना बताए घर से गायब है जिसका कोई सुराग मिलने पर तुरंत खबर दें। फिर नीचे शहर के एक पुलिस स्टेशन के नंबर दिए हुए थे। नीचे एक नोट लिखा था कि लड़की के पास चोरी की एक लक्जरी गाड़ी भी है जिसे सात दिन पहले हाई- वे से चुराया गया था।
करण के पिता को ज़ोर से खांसी उठी और वो करण को पुकारते हुए कमरे की ओर दौड़े।
शायद उन्हें कोई दौरा सा पड़ा।