a unique love story in Hindi Children Stories by धरमा books and stories PDF | एक अनोखी प्रेम कहानी

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एक अनोखी प्रेम कहानी

यारों की यारियां...


उन तीनों को होटल में बैठा देख, रमेश हड़बड़ाहट सा गया...


लगभग 22 सालों बाद वे फिर उसके सामने दिखे थे...


शायद अब वो बहुत बड़े और संपन्न आदमी हो गये थे...


रमेश को अपने स्कूल के दोस्तों का खाने का आर्डर लेकर परोसते समय बड़ा अटपटा लग रहा था...


उनमे से दो मोबाईल फोन पर व्यस्त थे और दो लैपटाप पर...


रमेश पढ़ाई पूरी नही कर पाया था...


उन्होंने उसे पहचानने का प्रयास भी नही किया...


वे खाना खा कर बिल चुका कर चले गये...


रमेश को लगा उन चारों ने शायद उसे पहचाना नहीं या उसकी गरीबी देखकर जानबूझ कर कोशिश नहीं की...


उसने एक गहरी लंबी सांस ली और टेबल साफ करने लगा...


टिश्यु पेपर उठाकर कचरे मे डलने ही वाला था,


शायद उन्होने उस पे कुछ जोड़-घटाया था...


अचानक उसकी नजर उस पर लिखे हुये शब्दों पर पड़ी...


लिखा था - अबे तू हमे खाना खिला रहा था तो तुझे क्या लगा तुझे हम पहचानें नहीं?

अबे 22 साल क्या अगले जनम बाद भी मिलता तो तुझे पहचान लेते.


तुझे टिप देने की हिम्मत हममे नही थी...


हमने पास ही फैक्ट्री के लिये जगह खरीदी है...


और अब हमारा इधर आन-जाना तो लगा ही रहेगा...


आज तेरा इस होटल का आखिरी दिन है...


हमारे फैक्ट्री की कैंटीन कौन चलाएगा बे...


तू चलायेगा ना?

तुझसे अच्छा पार्टनर और कहां मिलेगा??? याद हैं न स्कुल के दिनों हम चारों एक दूसरे का टिफिन खा जाते थे ।


आज के बाद रोटी भी मिल बाँट कर साथ-साथ खाएंगे...


रमेश की आंखें भर आई


उसने डबडबाई आँखों से आकाश की तरफ देखा और उस पेपर को होंठो से लगाकर करीने से दिल के पास वाली जेब मे रख लिया...


सच्चे दोस्त वही तो होते है

जो दोस्त की कमजोरी नही सिर्फ दोस्त देख कर ही खुश हो जाते है...


हमेशा अपने अच्छे दोस्त की कद्र करे...यारों की यारियां...


उन तीनों को होटल में बैठा देख, रमेश हड़बड़ाहट सा गया...


लगभग 22 सालों बाद वे फिर उसके सामने दिखे थे...


शायद अब वो बहुत बड़े और संपन्न आदमी हो गये थे...


रमेश को अपने स्कूल के दोस्तों का खाने का आर्डर लेकर परोसते समय बड़ा अटपटा लग रहा था...


उनमे से दो मोबाईल फोन पर व्यस्त थे और दो लैपटाप पर...


रमेश पढ़ाई पूरी नही कर पाया था...


उन्होंने उसे पहचानने का प्रयास भी नही किया...


वे खाना खा कर बिल चुका कर चले गये...


रमेश को लगा उन चारों ने शायद उसे पहचाना नहीं या उसकी गरीबी देखकर जानबूझ कर कोशिश नहीं की...


उसने एक गहरी लंबी सांस ली और टेबल साफ करने लगा...


टिश्यु पेपर उठाकर कचरे मे डलने ही वाला था,


शायद उन्होने उस पे कुछ जोड़-घटाया था...


अचानक उसकी नजर उस पर लिखे हुये शब्दों पर पड़ी...


लिखा था - अबे तू हमे खाना खिला रहा था तो तुझे क्या लगा तुझे हम पहचानें नहीं?

अबे 22 साल क्या अगले जनम बाद भी मिलता तो तुझे पहचान लेते.


तुझे टिप देने की हिम्मत हममे नही थी...


हमने पास ही फैक्ट्री के लिये जगह खरीदी है...


और अब हमारा इधर आन-जाना तो लगा ही रहेगा...


आज तेरा इस होटल का आखिरी दिन है...


हमारे फैक्ट्री की कैंटीन कौन चलाएगा बे...


तू चलायेगा ना?

तुझसे अच्छा पार्टनर और कहां मिलेगा??? याद हैं न स्कुल के दिनों हम चारों एक दूसरे का टिफिन खा जाते थे ।


आज के बाद रोटी भी मिल बाँट कर साथ-साथ खाएंगे...


रमेश की आंखें भर आई


उसने डबडबाई आँखों से आकाश की तरफ देखा और उस पेपर को होंठो से लगाकर करीने से दिल के पास वाली जेब मे रख लिया...


सच्चे दोस्त वही तो होते है

जो दोस्त की कमजोरी नही सिर्फ दोस्त देख कर ही खुश हो जाते है...


हमेशा अपने अच्छे दोस्त की कद्र करे...