Nakshatra of Kailash - 23 in Hindi Travel stories by Madhavi Marathe books and stories PDF | नक्षत्र कैलाश के - 23

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नक्षत्र कैलाश के - 23

                                                                                                23

माँ जैसे बच्चे को स्कुल ट्रिप के लिए भेजती हैं तो साथ में खाना,पानी, पैसा, मित्रपरिवार उनको देखने वाले शिक्षक, ऐसे सब सुविधा के साथ भेजती हैं, वैसेही ईश्वर भी हमें संसार में आते वक्त यह सब देते हुए भेजता हैं | जो साथ में देकर भेज़ा हैं उसका दुरुपयोग किया तो उसकी कमी हमें जिंदगीभर भुगतनी पड़ती हैं जैसे खाना ज्यादा खा लिया तो शरीर के पाँच तत्त्व पर अतिरिक्त भार आ जाता हैं और हमें परहेज के नाम से, भूखा रहना पड़ता हैं | पानी का दुरुपयोग, तो अवर्षणग्रस्त जगह पर रहने की नौबत आती हैं आदी ऐसे अनेक पहलू हैं जो हम अपने अन्दर झाँककर देखे तो अपने आप सामने आ ज़ाते हैं | हम किस बात का दुरूपयोग कर रहे हैं, इस बात का पता बादमें चलता हैं तब तक समय आगे ज़ा चूका होता हैं |

झरनोंसे बाते करते, उछलते हम तारचेंन पहुच गए | तारचेन (दारचेंन) का अर्थ हैं महाध्वज | पश्चिम दिशा की और परिक्रमा के रास्ते में साढ़े तीन कि.मी. दुरी पर महाध्वज का प्रचंड़ स्तंभ गिरी हुए अवस्था में पाया जाता हैं | गर्मी के मौसम में यहाँ बाज़ार लगता हैं | भेडियोंके बाल काटने का यह एक बड़ा केंद्र हैं | यहाँ से उत्तर दिशा की और पहाड़ी से बरखा मैदान का विस्तृत नज़ारा सामने आ जाता हैं | छोटे बड़े प्रपात, एक दुसरे से निकलते हुए गुर्लामांधाता पर्बत तक की फैली हुई पहाड़ियाँ , नेपाल राज्य के गिरिशिखर और उसमें, अपने नीलवर्ण में चमकता हुआ राक्षसताल ऐसी पुर्ण कलाकृति देखते मन अपनी सीमा पार कर गया | अपना मन जितना सुक्ष्म हो सकता हैं उतना विशाल भी हो सकता हैं | तो सामने के हर चैतन्य में गुजरते हुए फिर अपनी स्थान पर आ गया | ऐसे रचना रचेता प्रकृति नामक कलाकार को प्रणाम करते हुए आगे निकले | छोटेसे गाँव के बाज़ार में जिग्ज्ञासा भरी नज़र फेरते हुए बस गेस्ट हाउस पहुँच गई | मन कृतार्थ    संवेदनाओंसे भर गया था | हमारी कैलाश परिक्रमा कोई भी कठिनाई न आते पूरी हो गई | कैलाश दर्शन हो गए थे | सिर्फ विचारों से शुरू हुई कैलाश यात्रा प्रक्रिया को, अनुभव के साथ पूरी करने का एहसास अलौकिक था | अब ईश्वर अपने जीवन में एक भी इच्छा निर्माण ना करे इतनी निर्मोही , उदात्त भावना मन में समाई थी | कमरे में  आते ही मैं तो लेट गई , शरीरने कितना साथ दिया था, इतनी पीड़ा सहेन की, फिरभी कही बिमारी नहीं आयी | उसने साथ दी थी इसीलिए इतने सुंदर अनुभव का मैं लुफ्त उठा सकी | शरीर का धन्यवाद अदा करते हुए थोड़ी देर आराम किया | एक दुसरे के अनुभवों का रसपान साथ में चालू हो गया | चीन के समय के अनुसार आठ बज रहे थे | कमरे से बाहर आते हुए प्राकृतिक सौंदर्य का आस्वाद लेने लगी | अभी भी सुरज की रौशनी चमक रही थी | गुर्लामांधाता पर्बत बड़े दिमाख से अपने तेजस्विता में चमक रहा था | सायंकालीन अनमोल, निस्तब्ध क्षणों में अब खयालों का साया भी नहीं था | मन की झोली पूरी खाली थी | उसी एहसास में खाना खाकर सो गई | जब नींद खुली तब एक तरह की तरलता महसूस होने लगी, पुरी सृष्टि सुंदर,तृप्त,तेजरूपसे प्रकाशमान होने लगी | शुभ्रसफेद इस शब्द से परे वह अनुभूती थी |  कुछ समझ नहीं आ रहा था | कितने पल ऐसे गए पता नहीं |  कुछ ही  क्षणों बाद वह दुनिया लुप्त हो गई | एक अपूर्व अनुभूति से गुजरने के संकेत प्राप्त हुए | शरीर सुक्ष्म कंप से काँप रहा था और विस्फारित नेत्र वास्तविकता का सामना कर रहे थे | वह देखते ही सुमित्रा दीदी पास आ गई | क्या हुआ पुछने लगी | लेकिन में कुछ जवाब न दे सकी | आखिर उन्होंने मुझे बिस्तर पर लिटा दिया | उसी अवस्था में मैं सो गई | थोड़ी देर बाद उठते हुए, चलने की तैयारी करने लगी | कुछ अनुभव ऐसे होते हैं की उसे शब्दों से वर्णन करते वह ज़ादू कम नहीं करना चाहती थी | ऐसा भी होता हैं सुनने वाला अगर उस मानसिक अवस्था का ना हो तो वह अनुभूति उसके लिए व्देष या नींदा का विषय बन ज़ाती हैं | लगभग आठ बजे यात्रा घ्यांगटा गुंफा के तरफ निकल गई | अभी तो गाडी से ही ज़ाना था | दाएँ हाँथ पहाड़ी, और बाएँ हाँथ झोंगच्यू नदी की गहरी खाई इस में से गाडी का सफ़र चालू था | यहाँ से एक रास्ता मानससरोवर के च्यू गुंफा की ओर जाता हैं | वहाँ से कुछ ही दुरी के दायरे में ‘जह्स्मोहरा’ यह हरे रंग का सर्पविष उतारने वाला पत्थर मिलता हैं| परिक्रमा के रास्तेसे तीन कि.मी. आगे जाने  के बाद छाड़ गज़ा – गंग नामक ठिकाना लगता हैं, वहाँ तक फैला हुआ बरखा मैदान सौंदर्य का खज़ाना प्रतीत हो रहा था | रास्ते में दाम छु (चैनल) नाला लगा | उसकी दोनों तरफ पानी की दलदल फैली हुई थी | जल्दीही घ्यांगटा गुंफा का बौद्ध मठ आ गया | गुंफा के अन्दर प्रसिद्ध तिबेटी सिद्ध मिलारेपा और बौद्ध देवी देवाताओंकी मुर्तियाँ रखी हुई थी | ऐसा कहते हैं ,सबसे ज्यादा तपश्चर्या सिध्द मिलारेपा इन्होंने की हैं और यह गुंफा उन्हीके योग साधना से निर्माण हो गई | उन्होंने तिबेटी भाषा में १ लाख से भी अधिक ‘कवन’ लिखे हुए हैं और उसे सुक्ष्मसंदेशवाहक ऐसा ज़ाना जाता हैं |

एक सात फीट का चौड़ा पत्थर था | उस पर दो बड़े हस्तिदंत, पीतल के बड़े निरांजन, धूपदानी, कतार से रखे हुए थे | मूर्ति के बाएँ बाजू चबूतरा और दाएँ ओर मुख्य लामा का आसन था | उनके सामने एक मंजूषा फैली हुई थी | आगे की जगह भक्तों के लिए बैठने की व्यवस्था में छोड़ी गई थी | एक तरफ बौद्ध पवित्र किताबे बाँध के रख दिए थे | कोने में बड़े बड़े ढोल,कर्णे,तुतारी, रखी हुई थी | पीछे के तरफ ध्यान कक्ष और रंगबिरंगे  परदे छोड़ते हुए दीवार पर कागज़ चिपकाकर लगाया था | उस पर मंत्रमुर्ती तथा सांकेतिक वेलबुट्टी से अलंकृत किया था | लामा के तप:सामर्थ्य से भरे आशिर्वाद लेकर, हम सब बाहर आ गए | कैलाश अष्टपाद के लिए जो लोग जाने वाले थे उनकी जल्दी चालू थी | वहाँ दर्शन के लिए ज़ाना हैं, तो थोडा खाना खाते हुए निकलना पड़ता हैं | टूर कंपनी इसका आयोजन नहीं करती। इसीलिए स्थानीय गाइड़ लेते हुए वहाँ ज़ाना पड़ता हैं | यह जैन धर्मियों का सबसे बड़ा तीर्थस्थान हैं | जैन धर्म के संस्थापक आदिनाथ ऋषभदेव को इसी लोक में घोर तपस्या के बाद ज्ञानप्राप्ति हुई थी | सात कदमो में उनको मोक्ष प्राप्त हो गया ऐसी मान्यता हैं | सात कदम के बाद आठवाँ कदम मतलब मोक्षप्राप्ति | यह कदम जैन धर्म की अलग अलग महत्वपूर्ण मूल्य हैं | २००० फीट की ऊंचाई और सात कि.मी. की दुरी पर यह ठिकाना था | चढ़ाई देखते ही मेरी तो अब हिम्मत नहीं बढ़ रही थी | मुझे बहुत थकान महसूस हो रही थी | जिनको ज़ाना था वह दो बजे रवाना हो गए | मैं और सुमित्रा दीदी वही पर रुक गए | मैं ज़ाप करते हुए बैठ गई | शाम तक ऐसीही बैठी रही | अष्टपाद से कैलाश दर्शन नजदीक से हो ज़ाते हैं | लेकिन उसके लिए भी नसीब का साथ होना बहुत जरुरी हैं | धुन्दला वातावरण अगर समाया हो तो कुछ भी नजर नहीं आता | यहाँ रात के दस बजे अँधेरा छा जाता हैं | इस कारण नौ बजे तक, गए हुए यात्री वापीस आ गए |  कैलाश का वह अलौकिक रूप नजदीक से देखकर कोई भी बात करने के स्थिति में नहीं था | उसकी गूढता में सब मौन हो गए थे | खाने में भी उनका ध्यान नहीं था | बाद में सब सो गए | पहिले सुबह जब आँख खुलती थी तो खुदको उस वातावरण से परिचित कराना पड़ता था | लेकिन अब इतना एक रस हो गए थे की यही अपना घर जैसा लगने लगा | उत्तुंग पर्बतोंके सानिध्य में कई युगों से रहते हैं ऐसे लगने लगा | आज तारचेन से होरे ज़ाना था | यह दुरी ४० कि.मी. की हैं | इतनीसी दूरी तय करने में भी दो घंटे लगने वाले थे | क्योंकि पूरा रास्ता पथरीला था | उसमे से गाडी उछलती कूदती हुए ज़ा रही थी | आज कैलाश को हम, या हमें कैलाश छोड़कर जानेवाला था | मन में अचानक उदासी छा गई | अजीबसी उलझन से मन तड़पने लगा , कौनसे प्रेरणा से ऐसे दिव्य के हम भागीदार बन गए | वह सब कैलाशनाथ का बुलावा था और उन्होंने यह यात्रा पूरी करा दी | मैं अगर मैंने यात्रा की ऐसे शब्द यहाँ मायनेही नहीं रखते | कुछ देर ही सही मैं ख़त्म हो जाता ही हैं | अर्थात हर एक का अनुभव अलग हो सकता हैं | पहले तो कैलाश कही से भी नजर नहीं आ रहा था | पर एक मोड़ से गुजरते ही बर्फ के शिवलिंग रूप में कैलाश अपने पुर्णत्व से, सामने प्रकट हुआ | ऐसा लगा जैसे पूर्णरूप से प्रसन्न हो कर हमारी विदाई कर रहा हो | कुछ लोगो को इसी जन्म में फिर से यहाँ आने को आशा थी लेकिन मैं इससे भी संतुष्ट हूँ कहते हुए मनोमन आर्त भाव में प्रणाम किया | डोलमा माता का ध्यान किया |

(क्रमशः)