Achhut Kanya Part - 2 in Hindi Fiction Stories by Ratna Pandey books and stories PDF | अछूत कन्या - भाग २  

Featured Books
  • શ્રાપિત પ્રેમ - 18

    વિભા એ એક બાળકને જન્મ આપ્યો છે અને તેનો જન્મ ઓપરેશનથી થયો છે...

  • ખજાનો - 84

    જોનીની હિંમત અને બહાદુરીની દાદ આપતા સૌ કોઈ તેને થંબ બતાવી વે...

  • લવ યુ યાર - ભાગ 69

    સાંવરીએ મનોમન નક્કી કરી લીધું કે, હું મારા મીતને એકલો નહીં પ...

  • નિતુ - પ્રકરણ 51

    નિતુ : ૫૧ (ધ ગેમ ઇજ ઓન) નિતુ અને કરુણા બીજા દિવસથી જાણે કશું...

  • હું અને મારા અહસાસ - 108

    બ્રહ્માંડના હૃદયમાંથી નફરતને નાબૂદ કરતા રહો. ચાલો પ્રેમની જ્...

Categories
Share

अछूत कन्या - भाग २  

गंगा के पिता सागर पेशे से मोची का काम करते थे। परिवार का लालन-पालन सागर के ही कंधों पर था। दो वक़्त की रोटी उनके परिवार को आसानी से मिल जाती थी। सागर का काम बहुत अच्छा था। इसलिए गाँव के बहुत से लोग अपने जूते चप्पल की मरम्मत के लिए और कभी-कभी उन्हें चमकाने के लिए भी सागर के पास ही आया करते थे। यूं तो सागर का परिवार खुश था लेकिन यमुना, वह खुश नहीं थी। बचपन से अपनी माँ को सर पर ४-४ मटकी भर कर पानी लाता देख वह हमेशा दुखी हो जाती थी।

एक दिन उसने अपने पिता से कहा, “बाबूजी गंगा-अमृत का पानी हमें क्यों नहीं मिलता? वह तो पूरे साल भरा ही रहता है।” 

सागर ने कहा, “यमुना बेटा वह कुआँ ऊँची जाति के लोगों के लिए है। हमारा उस पर कोई हक़ नहीं है। आगे से ऐसा ख़्याल भी अपने मन में मत लाना।”

“क्यों बाबूजी भगवान जी ने तो ऐसा नहीं कहा है ना? फिर इंसान…”

“यमुना यह बहस का विषय नहीं है। कहा ना तुमसे, भूल जाओ गंगा-अमृत को।” 

यमुना ऊपर से तो चुप हो गई लेकिन उसके अंदर की यमुना उछालें मार रही थी। उसे अपने इन सवालों का जवाब चाहिए था; लेकिन कौन देगा उसके इन सवालों का जवाब? यमुना बहुत ही संवेदनशील और समझदार लड़की थी। हालातों और विषम परिस्थितियों ने उसे वक़्त से पहले ही बड़ा कर दिया था। सोचने समझने की शक्ति भी उसके पास कुछ ज़्यादा ही थी। बड़ी होते-होते उसे पता चल गया था कि उनकी जाति को नीची जाति का माना जाता है, उन्हें अछूत माना जाता है। वह सोचती भगवान ने ही तो सबको बनाया है फिर यह भेद भाव क्यों? इसीलिए उन्हें गंगा-अमृत के पास जाने की अनुमति नहीं है लेकिन यह बात उसे किसी भी क़ीमत पर हजम नहीं हो रही थी। यमुना अपने पिता की डांट सुन कर भी अक्सर गंगा-अमृत से पानी लाने की ज़िद किया करती थी। गंगा-अमृत ऊँची जाति के लोगों की जागीर है हमारा उस पर कोई हक़ नहीं। अपने पिता की यह बात यमुना सुनना ही नहीं चाहती थी। यह सब कुछ अब तो रोजमर्रा की बातें हो गई थीं इसलिए सागर भी यमुना की बातों पर ज़्यादा ध्यान नहीं देते थे।

इस साल इंद्र देवता शायद कुछ ज़्यादा ही नाराज थे। बादल आते ज़रूर थे पर मुंह दिखा कर वहाँ से कहीं और दूर-दराज के गाँव की ओर निकल जाते थे; मानो वीरपुर वालों को देख कर मुस्कुरा रहे हों या गंगा-अमृत को लबालब भरा देखकर सोचते हों कि इस गाँव के लोगों को पानी की क्या कमी है। इन्हें तो गंगा मैया अपनी कोख से पानी निकाल कर देती हैं। वह बेचारे बादल इंसानों की काली करतूत कहाँ जानते थे। इस बार कुएँ सूख रहे थे। नर्मदा रोज़ की तरह आज भी तीन-चार घड़े लेकर पानी लेने के लिए जाने लगी।

आज नर्मदा का मुंह देखकर यमुना को पता चल गया था कि उसकी माँ आज रोज़ की तरह नहीं है। उसने पूछा, “अम्मा तबीयत ठीक नहीं है ना तुम्हारी?”

 

रत्ना पांडे, वडोदरा (गुजरात) 

स्वरचित और मौलिक  

क्रमशः