Nakshatra of Kailash - 13 in Hindi Travel stories by Madhavi Marathe books and stories PDF | नक्षत्र कैलाश के - 13

Featured Books
  • One Step Away

    One Step AwayHe was the kind of boy everyone noticed—not for...

  • Nia - 1

    Amsterdam.The cobbled streets, the smell of roasted nuts, an...

  • Autumn Love

    She willed herself to not to check her phone to see if he ha...

  • Tehran ufo incident

    September 18, 1976 – Tehran, IranMajor Parviz Jafari had jus...

  • Disturbed - 36

    Disturbed (An investigative, romantic and psychological thri...

Categories
Share

नक्षत्र कैलाश के - 13

                                                                                        13

थोडे विश्राम के बाद हम जवानों से बातचीत करने लगे। उन्होंने कहाँ आप यात्री आते हो वही हमारे लिए थोडा बदलाव रहता हैं। आपका यात्रा समय खत्म हो जाने के बाद एक पंछी भी यहाँ दिखाई नही देता। चारों तरफ बर्फ ही बर्फ। जनलेवा ठंड़। पहरा देने गया हुआ जवान वापिस आएगा या नही इसका भी भरोसा नही रहता हैं। आवाज सुनाई देती हैं तो वह सिर्फ बंदूकों की। यह सब सुनकर मन उदास हो गया।
वहाँ कुछ दुरी पर एक गर्म पानी का झरना बह रहा था। कुदरत का करिश्मा तो देखो एक ओर ठंडा बहता पानी तो दुसरी ओर गर्म पानी का झरना। हम वहाँ जाने के लिए ऊत्सूक थे। मैं और आरती निकल गए। आते आते देर हो गई तो मिलीट्री ऑफिसर की डाँट सुननी पडी। हिमालयीन भुभाग अस्थिरता युक्त हैं। इसीलिए कोई जानकार आदमी साथ न हो तो इधर- उधर जाना खतरे से खाली नही । इंडोतिबेटीयन पोलीस फोर्स कँम्प में पासपोर्ट पर स्टँम्प लगाना पड़ता हैं और भारतीय चलान भी जमा करना पड़ता हैं। सब काम खत्म करने के बाद यात्रा फिरसे चालू हो गई। 
अभी हम पहाडों के चढ़ान से गुजर रहे थे। मुझे चलने के लिए मनाई की थी इसीलिए घोडे पर ही बैठी रही। नैसर्गिक सुंदरता का आनन्द उठाती रही। जल्दी ही यात्रा कालापानी पहूँच गई।

कालापानी कँम्प के चारों तरफ पहाड़ ही पहाड़ थे। बीच के क्षेत्र में फायबर के तंबू लगाए हुए, रहेने का ईम्तज़ाम किया था। गर्म भोजन की सुविधा भी बहुत अच्छी थी। यहाँ से व्यासगुंफा के दर्शन हो रहे थे। यही पर व्यासजी ने महाभारत लिखा ऐसा कहा जाता हैं। अत्यंत कठिन ऊँचाई पर वह गुंफा थी। प्रतिभा स्फूर्ती के लिए योग्य जगह। अलग स्तर से देखा ज़ाए तो महाभारत ग्रंथ हर दृष्टिकोन से परिपूर्ण हैं। दुनिया, व्यक्ति, निसर्ग, इनके बारे में पुरी तरह से जानकारी लेकर उनकी आपस में रचना करते हुए एक कलाकृती का निर्माण करना कठिन काम हैं। क्योंकी हर व्यक्ति का अपना दृष्टिकोन होता हैं, परिस्थिती होती हैं और उसी की वजह से व्यक्ति अपना कर्म करता हैं। सामनेवाले से वह दृष्टिकोन नही मिल पाया तो झगडा, शत्रूत्व, चालू हो जाता हैं और आपस में बंध जुड़ गए तो ममत्व प्रेम, मोह, आनन्द की उत्पत्ती होती हैं। यह सब समझ के लिखने के लिए सिर्फ पहाडों की ऊँचाई या शांत वातावरण की नही, तो बौध्दिक विशालता का स्तर जरूरी हैं। इसीलिए महाभारत पुज्यनीय ग्रंथ हैं। उस गुंफा को और व्यासजी को यही से नमन किया। शाम को हम सब काली मंदिर में भजन के लिए गए। वहाँ के शांत, निःस्तब्ध वातावरण में मन विलीन हो गया। संसार की याद कम होती गई। लेकिन कितने पलों का वह आशियाना था ? स्मशान वैराग्य सिर्फ कुछ देर तक ही रहता हैं। फिरसे संसार में मन डुब जाता हैं। आगे जाने के लिए मन उत्सूक हो रहा था। दुसरे दिन नाभीढांग पहूँचना था। खाना खत्म कर के सब निंदीया के आगोश में चले गए। कालापानी से नाभीढांग का सफर 9 कि.मी. का हैं। यहाँ तक 2000 फीट ऊँचाई का सफर तय हो जाता हैं और समुद्र समतल से 13000 फीट ऊँचाई पर पहूँच ज़ाते हैं। भारत सरहद्द का यह आखरी पड़ाव हैं। 
हिमालय में सुरज पाँच बजे ही उगता हैं। चारों और फैली सुरज की लालीमा, सुनहरे रंगों की रेखा साथ में दमकती रहती हैं। सुरज की रश्मियों का पृथ्वीतल से पावन स्पर्श होते ही सब सृष्टी चैतन्यमय हो उठतेही  जीवन संगीत चालू हो जाता हैं। अणु रेणूं का लयबध्द चक्र शुरू हो जाता हैं। 
आठ बजे हम जब निकले तब धूप बहुत गर्म हो गई थी। आसमान में बादल ना हो और पूरा शरीर कपडे से ना ढका हो तो तेज धूप के कारण पूरा शरीर जल जाता हैं। काला पड़ता हैं। हिमालय में यात्रीयों को सनस्क्रीन लगा कर ही सफर करना पड़ता हैं। चलना आरंभ हूआ। अभी ऊँचे ऊँचे पहाड़ साथ दे रहे थे। वृक्षराजी खत्म हो चूकी थी। कालापानी तक छोटे पौधे दिख रहे थे वह भी खत्म हो गये। अब सिर्फ घास, और खुले पहाड़ यही नजर आ रहा था। ऐसा लगा मानो सृष्टी व्दारा भगवान संदेश दे रहे हैं एक एक करते हुए सब निशानीयाँ छोड़ते, मेरे पास आ ज़ाओ। 
अति कष्टदायक चढ़ान थी। घोडे के बिना अब कुछ भी मुमकीन नही था। मानवी निशान कही भी नही दिखाई दे रहे था। सिर्फ यात्रियों के लिए बनवाए ITBP के कँम्प और जवान,इन्ही लोगों का यहाँ संचार था। वह भी सिर्फ चार महिने, बर्फ गिरने के बाद गुंजी और बूधी से ही सब व्यवहार चलते हैं। नाभीढांग के नजदीक थोडा विश्राम करने लिए कहाँ गया। चाय और वेफर्स सामने आ गये। अभी आलू खाना ज़ान पर आ रहा था। लेकिन अभी तक तो बहुत दिन उसी पर गुज़ारने थे। यहाँ आलू यह ही सबसे महत्वपूर्ण अन्न घटक था। 
विश्राम के बाद फिरसे चढ़ाई आरंभ कर दी। अभी देखने जैसा कुछ भी था नही। जहाँ नजर डालो वहाँ पहाड़ की कतारे, एखाद पौधा, नीचे छोटे मोटे पत्थरों की रास । एक अच्छा था घोडे पर बैठे हुए चारों और नजर घुमा सकते हैं,पैदल चले तो सिर्फ नीचे नजर झुकाए ही चलना पड़ता हैं। नही तो नजर हटी दुर्घटना घटी।
धीरे धीरे सफर चलते 4 बजे हम नाभीढांग पहूँचे। ठंड़ इतनी थी की स्वेटर, शॉल, ओढे हुए भी शरीर कपकपाँ रहा था। चारों और कोहरा छाया हुआ था। कँम्प में सामान रख दिया और ताज़ा होकर सब बाहर आ गए। यहाँ से ओम पर्बत के दर्शन होते हैं ऐसा सुना था। इस पहाड़ पर ऐसी नैसर्गिक रचना हैं की बर्फ गिरते ही उस ढाँचे का आकार ओम जैसे दिखता हैं इसीलिए उसे ओम पर्बत कहाँ जाता हैं। बर्फ पिघलने के बाद भी वह ढाँचा वैसा ही रहता हैं। भगवान की लीला और क्या ? अध्यात्मिक दृष्टिकोन से देखा ज़ाए तो पृथ्वीतल के सारे जीवमात्र की पहेली सुलझाने वाला शक्ती स्वरूप ओंकार हैं। विख्यात संशोधक और गूढवाद के अनुसंधानक आइन्स्टाईन को भी इसी सुत्र में एक शक्ती स्वरूप दिखाई दिया। किस को कहाँ शक्ती का दर्शन मिल जाए यह कह नही सकते। गायक को गानकला में, चित्रकार को उसकी कलाविष्कार में, जिस को जो भी पसंद हैं और वह पाने के लिए अखंड़ परिश्रम करता हैं और फल पाता हैं वहाँ उसे भगवान ही मिलते हैं। सब धुंदला वातावरण साफ होने की प्रतिक्षा कर रहे थे। ओम मतलब भगवान की घंटी। हमे ओम पर्बत के दर्शन होंगे तो कैलाश के भी दर्शन होगे ऐसा लग रहा था इसीलिए सब अपनी आँखे गडाए वातावरण साफ होने का इंतज़ार करते रहे । ताकी ओम पर्बत के दर्शन हो ज़ाए।

सब शांत बैठे थे। वातावरण में जो कोहरा छाया हुआ था वह कम होने का नाम ही नही ले रहा था। ठंड़ बढने लगी। गंभीरता भरा सन्नाटा चारों और फैलने लगा। उसमें आशा की किरण फैलाए सब ओम पर्बत की ओर दृष्टी गडाए बैठे थे। लेकिन अभी शाम का रूपांतरण रात के घने अंधेरों में परिवर्तित होने लगा। तब सबने ओम पर्बत के दर्शन की आशा छोड़ दी। एक उदासी मन में छा गई। ऐसे लग रहा था भगवान के व्दार ही नही दिखे तो उनके दर्शन कैसे होंगे? लेकिन जो बात अपने बस में नही वह भगवान के ऊपर छोड़ देना ही बेहत्तर हैं। कँम्प में आने के बाद सब एक दुसरे से पुछने लगे तुम्हे क्या दिखा? कोई कहे मुझे आनन्द आया। कोई बताए मुझे कुछ नही दिखा। मुझे तो पूरे पर्बत पर छोटे मोटे ओम दिख रहे थे। 
यहाँ पहिले वाले कॅमेरा रोल जमा करते हुए नये ड़लवाने पड़ते थे। ज्यादा सामान जमा कर के मैं फोन सुविधा के तरफ बढी। आगे फोन सुविधा उपलब्ध नही थी। मोह माया के दुनिया से पार का रास्ता शुरू होनेवाला था। कुमांऊ मंड़ल विकास निगम (KMVN) के मुख्य अधिकारी ने दुसरे दिन के सफर के बारे में बताया। वह सुनते ही अनुठे सफर के लिए सब के मन उत्कंठा से भर गये। मन के एक ओर उत्कंठा और रोमांच समाया हुआ था तो दुसरी ओर साशंकता और ड़रसे मन काँप रहा था। लेकिन अंर्तमन में यह निश्चितता थी की अब हम अलौकिकत्व में प्रवेश करने वाले हैं। मानो उसके लिए अमृतबेला के मुहूर्त का चयन किया हो। रात को 1.30 बजे बेड़ टी और 2.30 को सफर चालू ऐसा हमे आदेश दिया गया। संमिश्र कोलाहल से भरे मन को लेकर सब 7.30 बजे ही सोने का प्रयास करने लगे।

रात के 2 बजे सबको उठाया गया। चाय पी कर हम तैयार होने की कसरत करने लगे। टॉप, पँट,उसके उपर छोटा स्वेटर, फिर बडा स्वेटर, गरम कोट,, पैर के मोजे, हाँत के मोजे, बूट यह सब पहराव करने के लिए 15-20 मिनिट लग गए। यह पहनने के वक्त भी साँस फूल रही थी। पीठ पर एक छोटी बॅग में पानी, नॅपकीन, ड्रायफ्रूट्स, हाथ में टॉर्च, आखिर रेनकोट पहने हुए हॉल में इकठ्ठा हो गए। नाश्ता सामने आ गया। दुध और कॉर्नफ्लेक्स। इतनी सुबह खाना ज़ान पर आ रहा था। लेकिन कुछ खाना तो जरूरी था।

(क्रमशः)