Apanag - 26 in Hindi Fiction Stories by Pranava Bharti books and stories PDF | अपंग - 26

Featured Books
  • NICE TO MEET YOU - 6

    NICE TO MEET YOU                                 પ્રકરણ - 6 ...

  • ગદરો

    અંતરની ઓથથી...​ગામડું એટલે માત્ર ધૂળિયા રસ્તા, લીલાં ખેતર કે...

  • અલખની ડાયરીનું રહસ્ય - ભાગ 16

    અલખની ડાયરીનું રહસ્ય-રાકેશ ઠક્કરપ્રકરણ ૧૬          માયાવતીના...

  • લાગણીનો સેતુ - 5

    રાત્રે ઘરે આવીને, તે ફરી તેના મૌન ફ્લેટમાં એકલો હતો. જૂની યા...

  • સફર

    * [| *વિચારોનું વૃંદાવન* |] *                               ...

Categories
Share

अपंग - 26

26

--------

    बाबा अपनी पूरी फॉर्म में आने लगे थे धीरे-धीरे | भारतीय संगीत व सभी कलाओं के प्रेमी बाबा उसके साथ पहले कितनी चर्चाएं किया करते थे | उसे कत्थक नृत्य व शास्त्रीय संगीत सीखने वे स्वयं उसके साथ जाते थे | कभी, कोई बहुत व्यस्तता आ गई हो तो बात अलग है किंतु वे चाहते थे कि वे अपनी बिटिया के साथ जितना रहा सकें, रहें | उसको साथ जुड़े हुए दोस्तों की कारी गरी देखने का, उन्हें सुनने का। उनको नृत्य करते देखना, पेंटिंग देखना यहाँ तक कि बेटी की रचनाएँ सुनना भी उनके प्रिय षग़लों में से था |

  कभी शाम को अपने बगीचे में बने कोर्ट में भानु के साथ बैडमिंटन खेलन तो अपने घर के बरामदे से उतरकर बनी हुई बजरी के फुटपाथ पर ही उसके साथ दौड़ लगा लेना | माँ तो दोनों को शरारतें करती, खेलते हुए देखती, खिलखिलाते हुए सुनकर प्रसन्न हो उठती थी | बाहर बरामदे में अधिकतर शाम को चाय-नाश्ते का लुत्फ़ उठाते दोनों बाप-बेटी को टहोके ही मारतीं रहतीं |

"क्या बच्चों की तरह मस्ती करते रहते हो दोनों ---" माँ कहतीं |

"आओ, तुम भी लगाओ हमारे साथ रेस --किसने मना किया है ?" और दोनों बाप-बेटी सम्मिलित स्वर में खिलखिलाने लगते | माँ कहाँ चुप रह पाती थीं | बाग -बाग हो जातीं वो ! उनके चेहरे पर मुस्कान थिरकने लगती |

भानु के अमरीकी मित्र के बारे में जानकर बाबा बोले थे ;

"हमारा दुर्भाग्य है बेटे कि हम अपनी सभ्यता और संस्कृति को भूलते जा रहे हैं और बाहर के लोग उसीको अपनाते जा रहे हैं |" बाबा ने कहा |

 न जाने उसने रिचार्ड की कितनी बातें माँ-बाबा से साझा कर दीं थीं | यहाँ तक कि वह राजेश की जगह हर बात में रिचार्ड का नाम लेने लगी जो उसके लिए स्वाभाविक था लेकिन माँ-बाबा को तो अजीब लगना ही था |

वहाँ विदेश में ही राजेश से उसकी उसकी दूरी इतनी बढ़ चुकी थी तो अब तो वह भौगोलिक रूप में भी उससे दूर थी | दरसल, वास्तविक दूरी मन की होती है | तन दूर हो और मन पास हो तो सब कुछ पास ही बना रहता है | वह भीतर का ही एक भाग होता है लेकिन जब मन में ही दूरी आ जाए तब ? एक बड़ा और कमसुलझा सवाल इलैस्टिक की तरह खींचता चला जाता है |

  नाश्ता करने के बाद उसने माँ-बाबा से ऊपर कमरे में जाने की आज्ञा माँगी |

"चल लाखी, ऊपर का कमरा ठीक करवा दे मेरा | क्या फैलाकर रख दिया है मैंने " भानु ने लखी से कहा |

"चलो दीदी ---" कहकर वह मुन्ने के झूले को झुलाना रोककर खड़ी हो गई |

"अरे ! तू नाश्ता तो कर ले लाखी --"वह तो भूल ही गई थी लखी वैसे ही भागती उसके पास आ गई होगी, उसने कुछ खाया -पीया भी नहीं होगा |

"दीदी, आप चलो, मैं आती हूँ |"

"तू नाश्ता कर ले मैं माँ-बाबा के पास बैठकर उन्हें बातें सुनाती हूँ |" उसकी चटर-पटर शुरू हो गई | बाहर से खूब खुश, खिलखिलाती भानु का मस्तिष्क जैसे किसी बीहड़ रास्तों में भटक रहा था |

मुन्ना आराम से पालने में चैन की नींद सो रहा था | यहाँ उसे जैसे सब तरह का सुकून मिल गया था | अपने भारत की मीठी सुगंध मानो बच्चे के मन व तन में भी भरी जा रही थी | मुन्ना पहली बार यहाँ आया था लेकिन उसके सोते हुए मुख पर सुन्दर मुस्कान ऐसे खिल रही थी जैसे उसका मन इस सुगंध को पाकर किसी अलौकिक दुनिया में है | शायद वह अपने जैसे मुस्कुराते जहान की सैर कर रहा था |

"देखो न बाबा, कैसा मीठा-मीठा मुस्का रहा है ये बदमाश !" अचानक भानु ने मुन्ना की और देखते हुए कहा |

"ये माँ की ही नज़र लगती है सबसे पहले, तू ऐसे न देखा कर ---" माँ ने उसे समझाने की कोशिश की |

"क्या ---आप लोग भी ! क्या बाबा सच में होती है ये नज़र-वज़र ?"

"पता नहीं भई, तेरी माँ को ज़्यादा पता होगा पर तुझे तो बहुत लगती थी ---" और वे बहुत ज़ोर से हँस पड़े |

जितनी भी देर वह माँ-बाबा के पास बैठी रही पता नहीं कहाँ-कहाँ की बातें करती रही | माँ -बाबा जब भी उससे राजेश के बारे में बात करने की कोशिश करते, वह यह कहकर बात ताल देती कि राजेश बहुत व्यस्त है और फिर से किसी और बात की तरफ़ बात घुमा देती | यहाँ तककि उन दोनों की आँखों में शंका के बादल तैरने लगे थे--जबकि भानुमति अपनी और से काफ़ी एलर्ट रहने की कोशिश कर रही थी |