Bird furry.. in Hindi Children Stories by Anand Vishvas books and stories PDF | चिड़िया फुर्र..

Featured Books
  • One Step Away

    One Step AwayHe was the kind of boy everyone noticed—not for...

  • Nia - 1

    Amsterdam.The cobbled streets, the smell of roasted nuts, an...

  • Autumn Love

    She willed herself to not to check her phone to see if he ha...

  • Tehran ufo incident

    September 18, 1976 – Tehran, IranMajor Parviz Jafari had jus...

  • Disturbed - 36

    Disturbed (An investigative, romantic and psychological thri...

Categories
Share

चिड़िया फुर्र..

चिड़िया फुर्र..

-आनन्द विश्वास

अभी दो चार दिनों से कबीर के घर के बरामदे में चिड़ियों की आवाजाही कुछ ज्यादा ही हो गई थी। चिड़ियाँ तिनके लेकर आती, उन्हें ऊपर रखतीं और फिर चली जातीं, दुबारा तिनके लेने के लिए।

ऐसा लगातार होता, कुछ तिनके नीचे गिर जाते तो फर्श गंदा हो जाता। पर इससे चिड़ियों को क्या? उनका तो निर्माण का कार्य चल रहा है, नीड़ निर्माण का कार्य। उन्हें गंदगी से क्या लेना-देना।

नये मेहमान जो आने वाले हैं और नये मेहमान को रहने के लिए घर भी तो चाहिये? आखिर एक छत तो उनको भी चाहिये, रहने के लिए। पक्षी हैं तो क्या हुआ? उड़ना बात अलग है, चाहे कितना भी ऊँचा उड़ लिया जाय, पर रहने के लिए, घर तो सबको ही चाहिये।

और फिर इनकी दुनियाँ में तो सब कुछ सेल्फ-सर्विस ही होता, सब कुछ खुद ही तो करना होता है इन्हें। कोई नौकर नहीं, कोई मालिक नहीं और कोई मजदूर नहीं। सबको मिल-जुलकर काम करना होता है इनकी दुनियाँ में।

कबीर जब भी बरामदे में आता तो उसे कचरा पड़ा दिखाई देता। ऐसा कई बार हुआ। पर जब उसने ऊपर की ओर देखा तो उसे ख्याल आया कि ये तिनके तो चिड़ियाँ ला रहीं हैं। वे ही तिनके नीचे गिर जाते हैं और घर गंदा हो जाता है।

गन्दगी तो कबीर को बिल्कुल भी रास नहीं आती। कभी काम वाली से तो कभी खुद, साफ-सफाई करते-करवाते कबीर हैरान परेशान हो गया।

उसने मम्मी से शिकायत भरे लहज़े में कहा-“मम्मी, देखो तो सही, ये चिड़ियाँ घर को कितना गंदा कर रहीं हैं?”

मम्मी को समझने में देर न लगी। उन्होंने कबीर को समझाते हुए कहा-“बेटा, ये अपना घर बना रहीं हैं और जब घर बनता है तो थोड़ी बहुत गंदगी तो हो ही जाती है। ला मैं साफ कर देती हूँ। देखना, कुछ दिनों के बाद घर में छोटे-छोटे बच्चे आएँगे।”

“ऐसा माँ।” कबीर ने आश्चर्यचकित होकर पूछा।

“हाँ बेटा, चिड़िया के छोटे-छोटे बच्चे।” मम्मी ने बड़े प्यार से कबीर को समझाया।

कबीर के मन में आतुरता जागी, छोटी-छोटी चिड़ियों के पास कहाँ से और कैसे आ जाते हैं छोटे-छोटे बच्चे? अब तो उसके मन में बस प्रतीक्षा थी कि कब वह छोटे-छोटे बच्चों को देख सकेगा?

अब तो उसे उनके प्रति सहानुभूति हो गई थी । नीचे पड़े हुए तिनकों को पहले तो वह गन्दगी मानकर बाहर फैंक दिया करता था। पर अब तो सब तिनकों को उठाकर, चुपके से टेबल के ऊपर चढ़कर घोंसले के पास रख देता। और इस तरह रखता कि चिड़िया को पता न लगे। गुप्तदान की तरह, गुप्त सहयोग।

सहयोग और सहानुभूति की प्रबल इच्छा होती है बाल-मन में। बस यह सोचकर कि जितनी जल्दी घर बन जायेगा, उतनी ही जल्दी बच्चे भी आ जायेंगे। और कभी-कभी तो वह गार्डन में पड़े तिनकों को खुद ही उठा लाता और टेबल पर चढ़कर घौंसले के पास रख देता।

और जब उन तिनकों को चिड़ियाँ नहीं लेतीं, तो कभी तो बोलकर, तो कभी इशारे से कहता-“ये तिनके भी ले लो ना। ये सब तो तुम्हारे लिए ही हैं।” पर दोनों एक दूसरे की भाषा समझें, तब न।

कबीर रोज सुबह घोंसले की ओर देखता, और फिर निराश होकर मम्मी से पूछता-“मम्मी, कितने दिन और लगेंगे बच्चों के आने में?”

ये एक ऐसा यक्ष प्रश्न था जिसका उत्तर किसी के पास न था और वैसे भी बच्चों के प्रश्नों का उत्तर देना इतना आसान भी तो नहीं होता। हर कोई बीरबल तो होता नहीं है।

कबीर को समझाते हुए मम्मी ने कहा-“बेटा, भगवान की मर्जी है, जब वे चाहेंगे तब तुरन्त भेज देंगे।”

“पर कब होगी भगवान की मर्जी, इतने दिन तो हो गये हैं।” कबीर ने उलाहना देते हुए कहा। जैसे कि वो भगवान की शिकायत कर रहा हो। बच्चों के लिए तो माँ, किसी भगवान से कम नहीं होतीं।

शायद कबीर की बात भगवान को सुन ली और दूसरे ही दिन घोंसले से चीं-चीं की आवाज सुनाई दी। घोंसले के अन्दर का वातावरण गर्मा गया। चहल-पहल बढ़ गई।

कबीर को जब पता चला तो खुशी के मारे फूला नहीं समाया। दौड़ा-दौड़ा वह मम्मी के पास पहुँचा और बोला-“मम्मी, घोंसले से चीं-चीं की आवाज आ रही है, सुनो न।”

मम्मी ने कबीर को समझाया-“एक दो दिन बाद जब बच्चे बाहर निकलेंगे तब दिखाई देंगे। तब तक तो इन्तजार करना ही होगा।” 

“मम्मी, मैं अभी ऊपर चढ़कर देख लूँ?” कबीर ने उत्सुकता वश पूछा।

“न बेटा, चिड़िया नाराज़ हो जायेगी और घर छोड़कर चली जायेगी।” मम्मी ने कबीर को समझाया।

“तो फिर क्या करूँ, मम्मी।” कबीर ने पूछा।

“बस एक दो दिन में बच्चे खुद ही बाहर आ जायेंगे, तब देख लेना।” मम्मी ने कहा।

“ठीक है, मम्मी, तभी देख लूँगा।” कबीर ने अपने मन को समझाते हुये कहा।

एक-एक पल का इन्तज़ार जिसके लिए बेहद मुश्किल था उसने दो दिन कैसे बिताये होंगे, ये तो कबीर ही जाने। पर आज चिड़िया के बच्चों ने घोंसले से बाहर अपना मुँह निकाला और वो भी तब, जब कि चिड़िया दाना लेने बाहर गई हुई थी।

 शायद अधिक देर होने के कारण, बेटों को माँ की चिन्ता हुई हो या फिर भूख लगने के कारण?

खैर, कारण कुछ भी रहा हो, पर कबीर की शिशु-दर्शन की इच्छा आज पूर्ण हो गई। छोटे-छोटे बच्चों को आज उसने जी भरकर देखा। और इतने में ही चिड़िया वहाँ आ पहुँची।

बच्चों का चीं-चीं करके मुँह खोलना और चिड़िया का मुँह में दाना डालना। दिव्य-दृश्य कबीर ने निहारा। गद्-गद् हो गया था, उसका आतुर बाल-मन।

छोटे-छोटे बच्चों का कभी घोंसले से बाहर की ओर मुँह निकालकर अपनी माँ का इन्तजार करते और कभी जब माँ दिखाई दे जाती तो चीं-चीं करके उसे बुलाते। कबीर यह सब देखकर बड़ा खुश होता।

कभी थाली में दाना रखकर दूर हट जाता और दूर खड़े होकर चिड़िया का इन्तजार करता। उसे तो उस क्षण का इन्तजार रहता जब चिड़िया दाना लेकर अपने छोटे-छोटे बच्चों के मुँह में दाना डाले। इस क्षण की अनुभूति ही कबीर को बड़ी अच्छी लगती। और इसी क्षण की प्रतीक्षा में वह घण्टों घोंसले से दूर खड़ा इन्तजार करता रहता।

छोटे बच्चों का घोंसले के बाहर निकलना, पंखों को फड़फड़ाना और उड़ने का प्रयास करना, अब तो आम बात हो गई थी। पर कबीर की आत्मीयता में कोई भी कमी नही आई थी। वह उनका पूरा ध्यान रखता। कभी-कभी तो वह छोटी थाली में दाना डालकर, टेबल पर चढ़कर थाली को ही घोंसले के पास रख देता। और फिर दूर खड़ा होकर देखता।

एक दिन कबीर ने देखा कि एक बिल्ली टेबल पर रखे सामान के ऊपर चढ़कर घोंसले तक पहुँचने का प्रयास कर रही है। उसे समझते देर न लगी कि बिल्ली तो बच्चों को नुकसान पहुँचा सकती है। उसने बिल्ली को तुरन्त भगाया और मम्मी को बताया।

मम्मी ने मेड की मदद से टेबल को वहाँ से हटाकर दूसरी जगह रख दिया। और ऐसी व्यवस्था कर दी कि घोंसले के पास तक बिल्ली न पहुँच सके।

अब उसे ख्याल आ गया कि बिल्ली कभी भी चिड़िया के बच्चों को नुकसान पहुँचा सकती है और उनकी रक्षा करना उसका पहला कर्तव्य है। उसने निश्चय किया कि वह अपना अधिक से अधिक समय बरामदे में ही बिताएगा।

अपने पढ़ने की टेबल-कुर्सी भी उसने बरामदे में ही रख ली और तो और डौगी को भी पिलर से बाँध दिया ताकि बिल्ली घोंसले के आसपास भी न फटक सके। अब तो उसकी पढ़ाई भी बरामदे में ही होती।

शायद राजा दिलीप ने भी इतनी सेवा नन्दिनी की नहीं की होगी, जितनी सेवा कबीर ने चिड़िया और उनके बच्चों की, की। राजा दिलीप का तो स्वार्थ था। पर कबीर का क्या स्वार्थ, उसे तो बस सेवा करने में अच्छा लगता है। बच्चों का प्रेम तो निश्छल होता हैं, उनका प्रेम तो निःस्वार्थ भावना से भरा होता है। छल और कपट से परे, भगवान का वास होता है उनके पावन मन-मन्दिर में।

और इस तरह एक सप्ताह ही बीता होगा कि एक दिन कबीर ने देखा कि घोंसले में न तो चिड़िया थी और ना ही बच्चे। चिड़िया-फुर्र और घोंसला खाली।

एक दिन और इन्तजार किया, शायद रास्ता भूल गये हों। पर वे नहीं आये तो नहीं ही आये। चिड़िया और बच्चे उड़कर जा चुके थे।

बाल-मन उदास हो गया। प्रेम की डोर ही कुछ ऐसी ही होती है। जब टूटती है तो दुःख तो होता ही है।

उसने मम्मी से बड़े उदास मन से कहा-“मम्मी, चिड़िया तो बच्चों के साथ कहीं उड़ गई। अब तो घोंसला भी खाली पड़ा है।”

“अच्छा, चिड़िया फुर्र हो गई। चलो, अच्छा हुआ और दूसरी आ जायेगी।” मम्मी ने जानबूझकर वातावरण को हल्का करते हुए कहा।

“नहीं मम्मी, मुझे चिड़िया के बच्चे बहुत अच्छे लगते थे।” कबीर ने दुःखी मन से कहा।

“पर उन्हें जहाँ अच्छा लगेगा, वहीं तो वे रहेंगे।” मम्मी ने कबीर को समझाया।

“पर मैं तो उनका कितना ध्यान रखता था फिर भी वे चले गये।” कबीर ने शिकायत भरे लहज़े में कहा और कहते-कहते आँसू छलक पड़े।

कैसे समझाये मम्मी, जिन्दगी के इस गूढ रहस्य को। बच्चे प्यारे होते हैं, वे निश्छल और निःस्वार्थ प्रेम करते हैं। और प्रेम ही तो मोह का मूल कारण होता है। बन्धन में बाँध लेता है भोले मन को। जो आया है उसे एक न एक दिन तो जाना ही होता है। बालक को समझाना कितना मुश्किल होता है, ये तो कबीर की मम्मी ही जाने। माँ से ज्यादा अच्छा और कौन समझा सकता है? और समझ सकता है अपने बालक को?

पर यह सत्य है एक न एक दिन तो हम सबको ही फुर्र होकर उड़ ही जाना है और घोंसले को यहीं रह जाना है। फिर मोह कैसा? पर फिर भी, मोह तो होता ही है। आँखें भर ही आती हैं।

मम्मी ने कबीर को समझाते हुए कहा-“बेटा, जब तेरे पापा छोटे थे तो पापा की मम्मी, पापा को दूध पिलाती थी, खाना खिलाती थी और गाँव में रहते थे।”

“ऐसा मम्मी।” कबीर को आश्चर्य भी हुआ और हँसी भी आई।

“हाँ और सुन, फिर पापा बड़े हो गये, उनकी नौकरी यहाँ शहर में लगी, तो फुर्र से गाँव से शहर आ गये।” ऐसा कहते हुए मम्मी ने एलबम में से अपनी बचपन की एक फोटो दिखाई।

“ये तो मम्मी फ्रॉक पहने हुए कोई छोटी सी लड़की बैठी है ।” कबीर ने फोटो देखकर कहा।

 “पहचान, ठीक से पहचान। ये तो मैं हूँ।” मम्मी ने कबीर की जिज्ञासा बढ़ाई।

“पहले ऐसी थीं मम्मी आप?” देखकर कबीर को हँसी आ गई।

“हाँ, पहले मैं ऐसी थी, फिर बड़ी हो गई, शादी हो गई और फिर फुर्र से मैं तेरे पापा के पास आ गई।” मम्मी ने कबीर को समझाया।

पहले तो कबीर हँसा और फिर बोला-“फिर तो मम्मी, मैं भी बड़ा होकर पापा जैसा हो जाऊँगा?”

“हाँ, अभी तू पढ़ेगा, फिर जहाँ तेरी नौकरी लगेगी वहीं तू भी फुर्र से चला जायेगा। तेरी भी सुन्दर-सी बहू फुर्र से तेरे पास आ जायेगी।” मम्मी ने कबीर को गुदगुदाया।

“अच्छा मम्मी, मैं अभी फुर्र से दूसरे कमरे में होकर आता हूँ और आप मेरे लिए किचिन में से फुर्र से ठंडा-ठंडा एक गिलास पानी लेकर आओ। मुझे बड़ी जोर से प्यास लगी है” कबीर ने कहा।

और जब एक प्यास बुझ जाती है तो दूसरी प्यास लगा ही करती है, ऐसा प्रकृति का नियम है। शायद कबीर की समझ में भी कुछ आ गया होगा।

उधर कबीर के पापा ने यह सोचकर कि कबीर का मन लगा रहेगा और चिड़िया के बच्चों से मन हट जायेगा, बाजार से दो तोते पिंजरों के साथ मँगवा दिये। और जहाँ घोंसला था उसी के नीचे टँगवा दिये।

कबीर ने तोतों को देखा तो उसे आश्चर्य हुआ। पर अच्छा नहीं लगा।

उसने पापा से कहा-“पापा, इन तोतों को उड़ा दें तो कितना अच्छा रहेगा? आकाश में उड़ते हुये ये कितने सुन्दर लगेंगे?”  

“हाँ, पर तुम जैसा उचित समझो?” पापा ने कहा।

चाहते तो पापा भी यही थे। पर सन्तान की खुशी के लिए माता-पिता को वह काम भी करना पड़ता है जिसे वे नहीं चाहते हैं। पर उनका प्रयास बच्चों को सही दिशा दिखाने का अवश्य होता है।

कबीर ने दोनों तोतों को खट्टी अमियाँ खिलाईं, पानी पिलाया और फिर पिंजरे के दरवाजे को खोलकर हँसते हुये कहा-“तोते फुर्र..... तोते फुर्र...... तोते फुर्र.....।”

और देखते ही देखते दोनों तोते पंख फड़फड़ाते हुए असीम आकाश में ओझल हो गए और शायद कबीर का मन भी असीम आकाश सा विशाल हो गया था।

 और मम्मी खड़ी-खड़ी कबीर की प्रसन्नता को निहार रहीं थीं।

फिर मम्मी को देखकर, कबीर ने हँसते हुये कहा-“मम्मी, चिड़िया फुर्र... तोते फुर्र...  फुर्र... फुर्र...”

कबीर ने दोनों पिंजरों को बड़ी बेरहमी से तोड़ डाला और घोंसले को वहीं रखा रहने दिया ताकि कोई दूसरी चिड़िया इसमें आकर रह सके।

पर भोले कबीर को क्या मालूम कि इनके समाज में, ये लोग तो अपना घौंसला खुद ही बनाते हैं। ये लोग किसी दूसरे के घौंसले में नहीं रहते हैं। इनके यहाँ तो सब कुछ सैल्फ-सर्विस ही होता है।

कबीर क्या जाने कि जब ये प्राण-पखेरू उड़ जाते हैं तो ये नश्वर शरीर किसी काम का नहीं रहता और ना ही इस नश्वर घोंसले में कोई प्राण, पुनः प्रवेश करता है। प्राण को परमात्मा से मिलने के लिए घोंसले से बाहर निकलना ही पड़ता है। ये चिड़िया फुर्र होकर ही तो अनन्त आकाश में विलीन हो जाती है। एक जगह विरह होता है तो दूसरी जगह मिलन होता है।

इस जरा सी बात को कबीर क्या, हम भी नहीं समझ पाते हैं और चिड़िया के फुर्र होने पर वरबस आँखों से सागर छलक जाते हैं। गंगा-जमना बह जातीं हैं। मन उदास हो जाता है।

यही तो संसार का नियम है।

***

-आनन्द विश्वास