Ek tha Thunthuniya - 22 in Hindi Children Stories by Prakash Manu books and stories PDF | एक था ठुनठुनिया - 22

Featured Books
  • You Are My Choice - 41

    श्रेया अपने दोनो हाथों से आकाश का हाथ कसके पकड़कर सो रही थी।...

  • Podcast mein Comedy

    1.       Carryminati podcastकैरी     तो कैसे है आप लोग चलो श...

  • जिंदगी के रंग हजार - 16

    कोई न कोई ऐसा ही कारनामा करता रहता था।और अटक लड़ाई मोल लेना उ...

  • I Hate Love - 7

     जानवी की भी अब उठ कर वहां से जाने की हिम्मत नहीं हो रही थी,...

  • मोमल : डायरी की गहराई - 48

    पिछले भाग में हम ने देखा कि लूना के कातिल पिता का किसी ने बह...

Categories
Share

एक था ठुनठुनिया - 22

22

फिर एक दिन

सचमुच ये ऐसे दिन थे जिनके बारे में कहा जाता है कि वे पंख लगाकर उड़ते हैं। मानिकलाल कठपुतली वाले के साथ रहते हुए ठुनठुनिया भी मानो सपनों की दुनिया में उड़ा जा रहा था।

यों तो मानिकलाल का पहले भी खूब नाम था, पर ठुनठुनिया के साथ आ जाने पर तो उसकी कठपुतलियों में जैसे जान ही पड़ गई। अब तो उसकी कठपुतलियाँ नाचती थीं, तो सचमुच की कलाकार लगती थीं। दूर-दूर से उसे कठपुतलियों का खेल दिखाने के लिए न्योते मिल रहे थे। बड़े-बड़े लोग उसे बुलाते और मुँह माँगे पैसे देने को तैयार रहते।

ठुनठुनिया भी अपने खेल में रोज कुछ-न-कुछ मजेदार दृश्य जोड़ देता है, जिससे हर दिन खेल नया लगा और उसमें रोज एक नया रंग आता। ठुनठुनिया की यह कला मानिकलाल को भा गई। वह कहता, “ठुनठुनिया, मुझे तो लगता है इस कठपुतली के खेल का असली मालिक और डायरेक्टर भी तू ही है।”

ठुनठुनिया कहता, “वाह जी मानिक जी, वाह! मैंने तो आपसे ही यह कला सीखी है।...आप मुझे शर्मिंदा न करें!”

जवाब में मानिकलाल मुसकराकर कहता, “ठुनठुनिया, सीखी तो है यह कला तुमने मुझसे ही, पर तुमने उसे वहाँ तक परवान चढ़ा दिया, जहाँ तक का मैंने भी न सोचा था।”

एक दिन मानिकलाल रायगढ़ के नवाब अलताफ हुसैन की कोठी पर अपना खेल दिखा रहा था। और खेल की डोर ठुनठुनिया के हाथ में ही थी। मानिकलाल ने इशारों-इशारों में ठुनठुनिया से कह दिया था, ‘ठुनठुनिया, आज अपनी कला का जितना जादू दिखाना है, दिखा ले। नवाब साहब हमारे पुराने मुरीद हैं। कलाओं की बारीक पहचान रखने वाले और कद्रदान हैं। अगर खुश हो गए तो...!’

और ठुनठुनिया एकाएक अपने पूरे जोश में आ गया। उसके मन में कठपुतली के खेल की जो-जो नायाब कल्पनाएँ थीं, अब एक-एक कर वह नायाब खजाना बाहर आने लगा। ठुनठुनिया का जादू आज सिर चढ़कर बोल रहा था। नवाब साहब कभी मुँह से बजाय गए उसके घुँघरुओं के संगीत, कभी उसके लचकदार बोलों वाले सुरीले गाने, कभी उसकी कठपुतलियाँ नचाने की लोचदार कला और यहाँ तक कि कभी-कभी तो उसकी मीठी मुसकान और खुशदिली पर निसार होकर इनाम पर इनाम दिए जा रहे थे।

नवाब साहब के खूब बड़े आँगन में, जिसमें कोई सौ-डेढ़ सौ लोग बैठे थे, कठपुतलियों ने ऐसे इंद्रधनुषी रंगों की बारिश कर दी थी कि हर कोई उसमें भीग-सा रहा था। परदे की ओट में उनकी बेगम, बेटियाँ, बहुएँ और सहेलियाँ बैठी थीं। वे भी बार-बार तालियाँ बजा-बजाकर और मीठी हँसी की झंकार से ठुनठुनिया की खूब हौसला अफजाई करतीं। ठुनठुनिया हर बार खेल में कोई-न-कोई ऐसा अनोखा नाटकीय मोड़ ले आता कि लोग साँस रोककर देखने लगते कि अब आगे क्या होगा...क्या होगा...?

ऐसे ही उसके एक खेल के क्लाइमेक्स पर राजा रज्जब अली अपने दुश्मन बाज अली से भिड़ते हुए, बिल्कुल तलवार की नोक पर आ टिके थे। और अब कुछ भी हो सकता था, कुछ भी—कि अचानक खुदा के फजल से वे बचकर आ गए। फिर घोड़े पर बैठ, वो जम के तलवारबाजी करने लगे कि मानो बिजलियाँ-सी छूटती थीं...!!

ठुनठुनिया के खेल की इस नाटकीयता की नवाब साहब जी भरकर तारीफ कर रहे थे। कह रहे थे, “कठपुतली के खेल बहुत देखे, पर ऐसा आनंद पहले कभी न आया।...ओह, जान अधर में अटकी ही रही, जब तक रज्जब अली को ठीक-ठाक हालत में, एकदम सलामत वापस आते न देख लिया!”

उन्होंने बड़ी गहरी मुसकान के साथ मानिकलाल से कहा, “मानिकलाल, याद रखो, हर साल तुम इन्हीं दिनों खेल दिखाने रायगढ़ जरूर आअेगे। और अगर तुम नहीं आए, तो जरूर मेरी तबीयत खराब हो जाएगी और मैं तुम पर नालिश कर दूँगा...!”

मानिकलाल हँसते हुए सिर झुकाकर बोला, “हुजूर, आपका हुक्म सिर माथे!”

नवाब साहब के आँगन में बैठकर ठुनठुनिया का खेल देखने वाले दर्शकों में अयोध्या बाबू भी थे। शुरू में कुछ देर तक उन्हें समझ में ही नहीं आया कि कठपुतलियाँ नचाने की यह सारी जादूगरी ठुनठुनिया की है। फिर उन्हें ठुनठुनिया की एक झलक दिखाई दे गई। उसे लचकदार बोलों वाला एक सुरीला गाना गाते हुए भी उन्होंने सुना, जिसमें ‘ठुन-ठुन, ठुन-ठुन, ठुनठुनिया...ठिन-ठिन, ठिन-ठिन ठुनठुनिया, हाँ जी, कहता साधो ठुनठुनिया...!’ जैसी लाइनें भी शामिल थीं।

अयोध्या बाबू ने झट से पहचान लिया कि यह गला और ये सुरीले बोल तो ठुनठुनिया के ही लगते हैं।

ठुनठुनिया की इस कला से अयोध्या बाबू भी मोहित हो गए। पर मन-ही-मन उन्हें एक कचोट भी महसूस हुई। वे सोचते थे, पढ़-लिखकर ठुनठुनिया कुछ ऐसा काम करे कि उसकी माँ का दु:ख कुछ हलका हो। ठुनठुनिया के घर से जाने और उसके पीछे गोमती की हालत का भी उन्हें अंदाजा था। वे सोच रहे थे, ‘कुछ भी हो, आज मैं ठुनठुनिया को अपने साथ ले जाऊँगा, उसकी माँ के पास। बेचारी अभागिन माँ उसे देखकर कितनी खुश होगी...!’

जैसे ही कठपुतली का खेल खत्म हुआ, नवाब साहब ने मंच पर आकर एक बार फिर ठुनठुनिया और मानिकलाल की कला की तारीफ के पुल बाँधे। कहा, “जैसे मैंने साँस रोककर देखा, आपने भी देखा होगा। ठुनठुनिया की कला की क्या तारीफ करूँ कि उसके खेल में वाकई कठपुतलयाँ जिंदा हो जाती हैं। पर...चिंता न करें। अब आप लोग हर साल इस खेल का एक बार तो जरूर आनंद लेंगे। मानिकलाल से मैंने वादा ले लिया है।...” इतना कहकर उन्होंने नोटों से भरी एक थैली मानिकलाल की ओर बढ़ा दी।

खूब तालियाँ बजीं, खूब।...फिर जितने लोग कठपुतली का खेल देखने आए थे, सभी को केवड़ा मिली ठंडाई पिलाई गई। स्वादिष्ट ठंडाई का आनंद लेने के बाद मुँह में खुशबूदार पान का बीड़ा दबाकर दर्शक धीरे-धीरे चलने को तैयार हुए।

पर मास्टर अयोध्या बाबू के पैर तो मानो जमीन से ही चिपके हुए थे। वे न आगे बढ़ पा रहे थे, न पीछे...! तभी उन्हें अपना निर्णय याद आया। वे तेज कदमों से चलते हुए फौरन परदे के पीछे पहुँचे और एकाएक ठुनठुनिया के आगे जा खड़े हुए।

मास्टर अयोध्या बाबू को यों सामने देख ठुनठुनिया तो हक्का-बक्का रह गया। जैसे सब ओर अजीब धुआँ ही धुआँ छा गया हो, और अब कुछ नजर न आ रहा हो! समझ नहीं पाया, क्या कहे क्या नहीं?

फिर इस हालत से उबरकर बोला, “मास्टर जी, आपको यहाँ देखकर जी जुड़ा गया। मैं तो आपको बहुत याद करता रहा। शायद ही कोई दिन गया हो, जब मैंने आपको याद न किया हो, पर...।”

इस पर मास्टर जी बोले, “पगले, मुझसे भी ज्यादा तो तुझे याद करना चाहिए था अपनी माँ को। बेचारी न जाने किस उम्मीद पर अभी तक जिए जाती है। सोचती है, मेरा बेटा कुछ लायक बनेगा तो दु:ख-संकट कट जाएगा। पर तूने तो एक चिट्ठी तक नहीं डाली। यह खबर भी नहीं ली कि वह जीती भी है या नहीं...?”

सुनते ही ठुनठुनिया की आँखों के आगे से परदा हट गया। बेचैन होकर बोला, “माफ कीजिए मास्टर जी, यह खेल ही ऐसा है कि इसमें डूबो तो आगे-पीछे का कुछ होश ही नहीं रहता। मैंने खुद कई बार सोचा है कि मानिकलाल से महीने भर की छुट्टी लेकर घर जाऊँ, पर बस टलता ही गया। आपको पता है मास्टर जी, कैसी है मेरी माँ?”

“अब तुम खुद चलकर देखना।” मास्टर अयोध्या बाबू बोले, “चल अभी इसी वक्त मेरे साथ, नहीं तो अपनी माँ को जीती न देखेगा। वह बहुत ज्यादा बीमार है।”

ठुनठुनिया सुनकर जैसे सन्न रह गया। उसने मानिकलाल से कहा तो पहले तो वह सकपकाया, फिर एकदम ममतालु होकर बोला, “जाओ, जरूर जाओ। यहाँ का तो जैसे भी होगा, मैं सब सँभाल लूँगा। तुम्हारी बूढ़ी माँ को तुम्हारी कहीं ज्यादा जरूरत है!”

मानिकलाल के हाथ में नोटों की थैली थी, जो अभी-अभी नवाब अलताफ हुसैन ने दी थी। उसमें पूरे पाँच हजार रुपए थे। वह थैली ठुनठुनिया को पकड़ाकर मानिकलाल बोला, “ठुनठुनिया, जा, घर जाकर माँ की सेवा कर। पगले, माँ से बढ़कर इस दुनिया में कोई और नहीं है। पैसे की चिंता न करना। और जरूरत हो तो लिखना। मैं चिट्ठी मिलते ही भेज दूँगा...!”

ठुनठुनिया ने नोटो की वह थैली ली और अपना संदूक झटपट तैयार किया। उसी में सब कुछ रखकर संदूक हाथ में ले लिया। मास्टर जी के पीछे-पीछे चल दिया।