कहानी
स्वेटर के फंदे
सूरज अस्ताचल की ओर बढ़ते हुए अपनी लालीमा के निशान नीलगगन पर छोड़ रहा था। ऐसा लग रहा था मानो किसी सुहागिन के हाथ से सिंदूर की भर्ती हुई डिबिया छूट गई हो। पंछियों के झुंड घरों को लौटने लगे थे। कतारबद्ध उङ़ते हुए पंछी समाज को एकजुटता, भाईचारे और शांति पूर्ण सह अस्तित्व का संदेश दे रहे थे पर इन सबसे अनभिज्ञ समाज अॉफिस, दूकानों, स्कूलों में अभी भी बेपरवाही से अपने अपने कार्य में पूरी तरह व्यस्त थे। उनको न कुछ सीखना था न सीखाना.....जीवन की आपाधापी, पैसों का गणित, सबसे आगे निकल जाने की चाहत उनको इस लायक ही कहां छोङती है कि वो पंछी, पेङ, नदी, पर्वत से कुछ सीख सकें। प्रकृति से बङी पाठशाला कोई नहीं..... जितना चाहो उससे लेते रहो बस शर्त इतनी सी है कि आपका मन निर्मल हो....आपमें उदारता हो.....प्रेम हो....और सीखने की समझने की ललक भी....।
बगीचों में बच्चे जिस, मस्ती के साथ खेलने, झूला झूलने व फसलपट्टियों से फिसलने, गिरने, पङने और उठने में व्यस्त थे वो देखते ही बनता था। शहर से दूर गाय, बैलों के गले में बजती हुई घंटियां वातावरण में मिठास घोल रही थी। बछङ़े अपनी मां के साथ चलते हुए बीच-बीच में रंभाने का स्वर करते हैं तो गाय उन्हें चाट-चाट कर अपना ममत्व भाव जता रही थी। दूर कहीं को चरवाहा मीठे से गीत की धून "आ जा ओ राधा रानी तुझको पुकारे कान्हा की प्रीत....मैं तो जानूं ना जग की रीत....गाकर वातावरण को रसीला बना रहा था।
पर इन सबसे बेखबर सोसायटी के गार्डन में बैठी श्यामा के मन में अजीब सी उथल-पुथल मची थी। उसके हाथ स्वेटर बुन रहे थे पर मन....मन न जाने किस दुनिया में यहां-वहां भटक रहा था। उल्टे सीधे फंदे बुनते-बुनते उसकी कलाइयां दुखने लगी थी और दिमाग दुखने लगा था राधिका के बारे में सोचते सोचते....।
राधिका तूने ऐसा क्यों किया .... श्यामा बुदबुदाई और उसकी आंखों में हल्की हूं नमी उतर आई। उसने स्वेटर एक तरफ रखने के लिए सृलाइयों की ओर देखा तो पाया कि स्वेटर के बीच के कुछ फंदे गिर गये थे। उसे खीज सी होने लगी, अब इन फंदों को फिर से उठाकर स्वेटर के साथ सहेजना होगा।
सहेजना क्या इतना आसान होता है.... जिंदगी को सहेजते सहेजते जिंदगी हाथों से निकल जाती है....बंद मुट्ठी खुल जाती है....
शरीर शीथिल हो जाता है..... और आंखें भावशून्य... सारा जीवन रेत की तरह सरक जाता है... सांसें का इकतारा मौन हो जाता है.... माटी, माटी में मिल जाती है.... चिता पर लेटा हुआ इंसान कहां समझ पाता है कि सहेजते-सहेजते उम्र के इस मोड़ पर उसने क्या खोया, क्या पाया.... समझदारी का दंभ भरने के बावजूद कहां समझ पाते हैं कि कौन अपना कौन पराया...जीवन के महासंग्राम में हम सब कुछ जीत कर भी हार जाते है....भूत भविष्य और वर्तमान सब कुछ थराशाई हो जाता है। पर जब तक जीवन है सहेजना भी जरूरी है। कभी रिश्ते नाते, कभी स्वास्थ्य, कभी पद , कभी पैसा, कभी नाम तो कभी शोहरत..... तो कभी भोगा हुआ अतीत....और इन सबसे अलग भविष्य के नामुराद शानदार सपने... कभी न पूरी होने वाली ख्वाहिशों का अंबार...।
हालांकि जिंदगी की जरूरतों के आगे किसी की नहीं चलती। इन्हीं जरूरतों के चक्कर में घनचक्कर बना इंसान पूरा जीवन सुख-सुविधा जुटाने... परिवार को पालने पोसने में अपनी तमाम सांसें एक ऐसे हवनकुंड के हवाले कर देता है जिसकी आग कभी नहीं बुझती। हवनकुंड की समीधा जलाते-जलाते कब वो स्वयं राख हो जाता है उसे पता ही नहीं चलता। जिंदगी को हंसी खुशी से जी लेना भी बस अपने अपनों के सहारे हो पाता है जिनके अपने साथ है वे इस दुनिया के सबसे खुशनसीब इंसान हैं वर्ना दौलत, शोहरत, पद प्रतिष्ठा दिखावे की जिंदगी ही दे पाती है व्यक्ति उपर से मुस्कुराता है पर दिल हर पल रोता है....। इन सबसे बेखबर हर बंदा सपने देखता है। सपने पूरे हो या न हो पर एक बंद दरवाजा खुलने की चाहत में सदैव सपनों की घंटी बजाता ही रहता है.... आशा का दीपक जलाए ही रखता है....।
सपनों का ख्याल आते ही श्यामा ने गर्दन झटकी। कोई सपना ही न हो तो जिंदगी कितनी सपाट और स्थिर हो सकती है पर इन सपनों के बिना जीवन का मजा ही क्या होगा....सपने हैं तो राग है,रंग है, साज है, श्रृंगार है, भावनाएं हैं, प्यार और विश्वास है और यही तो जीवन का आधार है। जीने की तङफ पैदा करते हैं सपने....काम करने की लगन जीजिविषा देते हैं सपने.... वर्ना जीवन तपते हुए रेगिस्तान से ज्यादा क्या है.... उसके सोचने का क्रम कुछ ओर चलता कि तभी तीन- चार हंसती खिलखिलाती हुई आवाजें उसके पास आ गई।
श्यामा ने गरदन उठाकर देखा, सोसायटी की पांच छः महिलाओं की आकृतियां अब उसे अपने आस-पास साफ़-साफ़ नज़र आ रही थी। उसने हाथ में पकङ़ी सलाइयों को ऊन में खोंसकर एक तरफ रख दिया और सहज होने की कोशिश करने लगी पर सहज होने की कोशिश में कुछ ओर असहज हो गई।
वो महिलाएं अब उसके आस-पास जमा हो गई थी । श्यामा ने देखा उनके चेहरे चंचल स्मित लिए अर्थ पूर्ण अंदाज में चमक रहे थे। उससे पहले कि वो कुछ बोलती एक ने तीर छोड़ा- श्यामा तुझे तो पता ही होगा की राधिका घर छोड़कर कहां भाग गई है...। वैसे प्रश्नकर्ता के मुखमंडल पर कहीं जिज्ञासा का कोई भाव नहीं था,थी तो दर्प में चूर एक ऐसी हंसी जो श्यामा को भीतर ही भीतर तिरोहित कर रही थी।
राधिका घर छोड़कर चली गई तो इसमें श्यामा का क्या कसूर है....? क्या जानना व समझना चाहती है ये विलक्षण महिलाएं....? क्या इन्हें राधिका का घर छोड़कर जाने का मलाल है....या फिर इनके लिए राधिका का घर छोड़कर जाना बातें बनाने का एक अनछुआ टॉपिक.....। कम से कम कुछ दिनों के लिए तो सास बहू, किटी पार्टी, फैशन, सीरियल, बच्चों के पचङ़ों के बोरिंग टॉपिक से छुटकारा मिलेगा। कैसे सब आपस में चटकारे ले लेकर बातें कर रही है
श्यामा को वितृष्णा सी होने लगी। लगा जैसे उबकाई आ जाएगी....कैसी विचित्र सोच है इनकी... किसी का घर उजङ गया और इन्हें हंसने से ही फुर्सत नहीं है।
श्यामा के होंठ कुछ कहने के लिए कंपकंपाए पर आवाज हलक में ही अटक गई। उसे लगा उसका गला प्यास के मारे सूख रहा है। उसने पास पङ़ी पानी की बोटल खोलकर ठंडे पानी से गला तर किया तो याद आया, उसे ये महंगी बोटल भी तो राधिका ने भेंट की थी। हां तब वो कहीं घूमने गई थी आते हुए उसके लिए ये गीफ्ट लाई थी।
राधिका जब भी कहीं जाती उसके लिए कुछ न कुछ अवश्य लेकर आती। श्यामा लाख मना करती पर वो नाराज़ होने का नाटक करते हुए श्यामा की हथेलियों को अपनी हथेलियों में कसकर पकड़ लेती। कहती- इस भरी दुनिया में एक तुम ही हो जिसे मैनें अपनी सहेली माना है क्या इतना भी हक नहीं है मेरा.... कहते-कहते राधिका की आंखों में नमी उतर आती और श्यामा को न चाहते हुए भी उसका लाया उपहार स्वीकार करना पड़ता।
श्यामा और राधिका की दोस्ती का किस्सा भी निराला ही है। हुआ यूं कि किसी सामाजिक संस्था ने 'फ्रेंडशिप डे' के उपलक्ष्य में एक विशेष सेमिनार का आयोजन किया था जिसमें श्यामा को बतौर वक्ता और राधिका को विशेष अतिथि के तौर पर आमंत्रित किया गया था। दोनों मंच पर साथ-साथ बैठी थी लिहाजा कुछ औपचारिक बातों के दौरान यह पता चला कि श्यामा जिस साधारण सी बिल्डिंग में छोटे से फ्लैट में रहती है ठीक उससे थोड़ा आगे बङ़े से बंगले 'गुरु आशीष' की मालकिन है राधिका। जहां वो अपने नौकर-चाकरों की फौज के साथ रहती थी।
श्यामा श्याम वर्ण, साधारण रंग रूप पर उन्नत कद काठी की महिला जिसे अपने बौद्धिक व्यक्तित्व पर गर्व था। स्वाभिमान की चमक उसके काले रंग के साथ कस्तुरी की तरह थी जिसमें महकते हुए वो अपनी कमियों को एक ही झटके में नजर अंदाज कर देती थी। श्यामा के पास न रूप, न रंग, न सौंदर्य और न ही पैसों से प्राप्त होने वाली सुविधाएं ..... हां सुंदर सपने अवश्य थे । पर वो किसी भ्रमजाल में नहीं थी। उसे पता था की उसके ज्यादातर सपने बस सपने ही रहने वाले हैं इसके बावजूद सपनों का जादू उसे हमेशा उसे कल्पनाओं के आकाश में ले जाता.... जहां होती थी वो और उसके सपने.... इसी के सहारे वो जिंदगी की तमाम कङवाहट भूल जाती थी।
इसके विपरित राधिका का चांदनी सा दुधिया रंग, जिसमें तराशा हुआ सुधङ़ बदन, काली बङी-बङी आंखें, ब्यूटी पार्लर से तराशी हुई धनुषाकार भोहें, पतले खूबसूरत होंठ, लम्बी कद काठी। भगवान ने शायद उसे फुर्सत में बनाया था। कीमती साङ़िया व महंगे हीरे के लोंग पहने वो इतनी आकर्षक व्यक्तित्व की महिला थी कि जहां से भी गुजरती लोग बस पलकें उठाकर देखते रह जाते पर उसकी आंखें सदैव उदासी से आपूर्त रहती। वो बहुत कम हंसती ....जब भी हंसती उसकी उदासी को ओर गहरा कर जाती। भीतर छुपे हुए दर्द से नकाब धीरे-धीरे सरकने लगता था।
तमाम विरोधाभाषों के बावजूद राधिका और श्यामा की दोस्ती गहरी थी।
श्यामा को वो मुलाकात बराबर याद हो आई। जिसमें उसे विशेष संबोधन के लिए आमंत्रित किया गया था। श्यामा ने फ्रेंडशिप डे पर लगभग पैंतीस मिनट भाषण दिया। लिखने और बोलने पर श्यामा का नैसर्गिक अधिकार रहा। उसका भाषण प्रभावशाली, रोचक व जागरूकता पैदा करने वाला था जिसका प्रमाण थी उसके बैठने पर बजने वाली तालियां....।उसके बैठते ही राधिका ने उसके आगे पानी की बोतल सरका दी तो वो मानों कृत्य कृत्य हो गई। लगातार बोलने से उसके कंठ सूख रहे थे। उसने पानी पीकर राधिका को धन्यवाद दिया तो राधिका ने उसका हाथ अपने हाथ में पकङकर कहा - क्या मुझे अपनी सहेली बनाना पसंद करोगी।
फ्रेंडशिप डे के मौके पर पूछे गए इस सवाल का जवाब हां के अलावा कुछ हो ही नहीं सकता था। उसने पूरी गर्म जोशी के कहा- अरे क्यूं नहीं, मुझे तुम्हारे जैसी सखि पाकर प्रसन्नता होगी।
फिर तो दोनों रोज-रोज मिलने लगी। श्यामा के पास जहां बोद्धिक संपदा थी वहीं इसके विपरित राधिका के पास आर्थिक संपदा पर इससे दोनों की दोस्ती में कोई फर्क नहीं पड़ा।
दोनों में घंटों बातें होती, साथ शॉपिंग करती पर अपनी-अपनी पॉकेट के अनुसार। श्यामा कभी घर के लिए, कभी बेटी दिव्या के लिए, तो बेटे मोहित, तो कभी पति के लिए कुछ न कुछ खरीदती उसके बाद ही वो स्वयं के लिए सोच पाती। उसके पति बैंक के अधिकारी थे पर बंधी बंधाई इनकम और भविष्य की चिंता में श्यामा बेहद किफायती शॉपिंग करती, जबकि राधिका को किसी की चिंता नहीं करनी थी। उसे सिर्फ खुद के लिए खरीदना होता था। उसका पर्स हमेशा पैसों से ठसाठस भरा रहता।ऊपर से अलग अलग बैंकों के क्रेडिट, डेबिट कार्ड.... राधिका कभी महंगे कपड़े तो कभी महंगी ज्वैलरी खरीदती तो श्यामा उसे टोकती, भविष्य के लिए बचत करने को कहती। राधिका हमेशा फीकी सी हंसी हंस देती या फिर कहती - ये तो मन बहलाव का साधन है मेरी जान, तुम कहोगी तो नहीं खरीदूंगी पर मैं क्या करूं.....इसके अलावा मेरे पास है ही क्या....पति संदैव अपने व्यापार में उलझे रहते हैं। उन्होंने तो समय , प्यार, अपनापन सबकी कीमत मुझे दौलत से तोलकर पूरी कर दी है। बेटा अभी पांच साल का है पर उसे लायक बनाने के चक्कर में हॉस्टल भेज दिया है। अब कहां दिल लगाऊं, कहां दिन बिताऊं...
मेरी जान....तुम्हारे पास वक्त नहीं है और मेरे पास वक्त ही वक्त है....। राधिका की आंखों में नमी के साथ-साथ गहरी उदासी उतर आती, जिसका सामना करना श्यामा के वश में नहीं था।
धीरे-धीरे श्यामा ने उसे टोकना बंद कर दिया, क्यों कि वो जान गई थी कि राधिका के पास अजीब से खोखलेपन के सिवाय कुछ भी नहीं है। उसे न पति का प्यार मिला न ही बेटा पूरी तरह उसका है। पति में कुछ प्राब्लम थे राधिका की जुबान में वो लगभग नपुंसक.... इसलिए दूर भागता है अपनी पत्नी से.... बहाने बनाता है व्यापार के..... खैर..... टेस्ट ट्यूब बेबी की मदद से राधिका के बेटे को जन्म तो दिया पर अपना दिल नहीं दे पाई । गर्भावस्था के दौरान पति की बेरूखी के कारण उसे बेटे से कोई खास प्यार नहीं हो पाया। बस कोख में पाला भर उसे। जन्म के बाद शायद प्यार हो जाता पर बङ़े घर, बङी बातें.... पैदा होते ही आया के हाथों में....और फिर हॉस्टल.... राधिका पहले भी अकेली थी और अब भी अकेली....पति ने भी दुसरे के खुन को अपना नाम तो दिया पर प्यार नहीं दे पाया नतीजा पति-पत्नी के रिश्ता भी ठंडा ही रहा। पति-पत्नी का रिश्ता हमेशा संतान की मजबूत डोर से बंधा रहता है पर जब वही ना हो तो रिश्ते की उम्र छोटी हो जाती है।
कभी कभी जब राधिका अपने मन की बखिया श्यामा के सामने उधेङ़ने लगती है तो श्यामा सचमुच डर जाती है। उसे लगता है जिस रंग, रुप, धन, पद, पैसे को पाने के लिए वो हमेशा लालायित रहती है अब दूर से ही तौबा करती है। ना बाबा ना....उसे नहीं चाहिए ऐसी खोखली जिंदगी....। वो तो अपने छोटे से दबङ़े में ही बेहद खुश हैं। छोटा ही सही पर स्कून देने वाला घर , प्यार करने वाला पति, जिद और फरमाइश करने वाले प्यारे प्यारे, चंचल , नटखट बच्चे....।
श्यामा सोचती मेरे पास तो अपने भी है और सपने भी हैं। राधिका के पास तो न अपने हैं न सपने हैं.... कैसे जीते होगें वे लोग जिनके पास अपने और सपने नहीं होते.... श्यामा के मुख से बेचारगी भरी आह निकल जाती।
कभी कभी राधिका हताशा के क्षणों में कहती क्या फायदा ऐसे जीवन का श्यामा....मन तो करता है सब कुछ छोड़-छाड़ कर कहीं भाग जाऊं.....। कोई तो ऐसा कंधा हो जहां सर रखकर रो सकूं, अपने हृदय का बोझ हल्का कर सकू, प्यार दे सकूं , प्यार पा सकूं....।कहीं तो कोई होगा जो मुझे पसंद करे, प्यार करे, मेरी तारीफ करें, गुस्से में उलाहना दे, मेरे बनाए खाने को खाए , मीनमेख निकाले, .... किसी के बच्चे की सच्ची मां बन सकूं....वो जब शून्य में ताकते हुए ये सब कहती तो श्यामा भीतर तक कांप जाती। वो बात का सिरा जानबूझ कर कहीं ओर घूमा देती। कई बार बात करते-करते राधिका रो पड़ती तो बहुत मुश्किल से चुप करा पाती थी श्यामा।
श्यामा कहती नहीं पगली ऐसा नहीं कहते.... क्या कमी है तुझे....पर ऐसा कहते हुए एक- एक शब्द उसके गले में अटक जाते। राधिका को सांत्वना में जितने भी शब्द कहती खुद श्यामा को वो सब झूठ लगता पर उसके पास राधिका की समस्या का कोई माकूल समाधान भी तो नहीं था।
श्यामा ये भी तो नहीं जानती थी कि राधिका इस तरह एक दिन सचमुच चली जाएगी। काश! वो उसे रोक पाती ....उसके पति से बात कर पाती....उसे उसकी खुशी दिला पाती....सोचते-सोचते उसकी आंखें भीग गई।
राधिका ने भी तो किसी से कुछ नहीं कहा। गहने, कपड़े, पैसे अपने साथ कुछ भी तो नहीं वे गई....शायद ऊब गई थी इन सबसे.... प्यार की भूख सिर्फ प्यार से मिटती है.... उसने सिर्फ एक छोटा सा खत लिखा था।
प्रिय श्याम
मैं जा रही हूं। अपना सुख, अपने सपने तलाशने। मुझे मत ढूंढना, मैं प्यार पाना और देना चाहती हूं इसलिए जा रही हूं। शादी के दस साल बाद ये कदम उठाया है पर आश्चर्य मत करना मैं मजबूर थी....मैं जीना चाहती हूं। इस सोने के पिंजरे में मेरा दम घुटता है। आप दूसरी शादी कर लेना, बेटे को प्यार...।
राधिका
राधिका चली गई पर बहुत से प्रश्न शहर भर में हवा के साथ-साथ तैर रहे हैं। कोई कहता पूराना प्रेमी होगा , कोई विदेश भागने का अंदेशा करता, कोई इसे श्यामशरण की छूट का नतीजा बताता तो कोई कहता खाली दिमाग शैतान का घर , कोई जमाने की आवारा हवा को दोष देता। सत्य से अनभिज्ञ श्यामा भी तो कहां जानती थी कि कहां गई होगी राधिका। जिसे अपनी सबसे प्यारी सहेली मानती थी उसे ही कहां बताया था कि कहां जा रही है वो, अगर बताया होता तो क्या वो जाने देती....? समाज , संस्कार, बेटे और पति की दुहाई देकर रोक नहीं लेती उसे। शायद इसीलिए नहीं बताया राधिका ने।
जाने किस हाल में कहां होगी मेरी सखी...., श्यामा ने एक लंबी नि: श्वास छोङ़ी।
जो गई है उसके लिए भी जाना क्या इतना आसान रहा होगा जितना दुनिया समझती है। सत्य उतना ही तो नहीं होता जितना दिखाई देती है। श्यामा अपने ही प्रश्नों के भंवर जाल में उलझ रही थी। उसे होश ही नहीं था कि सोसायटी की तमाम औरतें जो इस प्रश्न का उत्तर श्यामा से पूछने आई थी कि राधिका कहां भाग गई उसके पास ही जमी हुई आपस में हंसी ठठ्ठा कर रही थी। उन्हें कहां होश था कि वे यहां क्यों खङ़ी है सब की सब अपनी-अपनी किस्सागोई करने में मशगूल थी। उन्हें श्यामा की सोच से भी कहां मतलब था। मतलब था तो बस इतना कि इन्हें सारी कहानी पता चल जाए ताकि वे दो की चार और चार की आठ बनाकर इस चटपटे टॉपिक के चटकारे ले सके। खुद उनके भी घर कई कहानियां बनती होगी पर उससे बेखबर दूसरों की जिंदगी में ताक-झांक करती इन औरतों को शायद इस बात का अहसास भी नहीं कि जिसे चोट लगी हो उसे नमक की नहीं मरहम की जरूरत होती है। ये समाज का दुर्भाग्य ही है कि जलती हुई आग में एक लकङ़ी और डाल देने वाले लोग ही यहां बहुतायत पाए जाते हैं।
श्यामा धीरे से उठी और उस हुजूम को छोड़कर बाहर आ गई। दूर अस्ताचल में जाता हुआ सूरज सागर के आगोश में समा गया था।
श्यामा को दूर से अपना घर दिखाई दे रहा था। वो जल्दी जल्दी उस तरफ़ बढ़ गई। राधिका का बंगला पीछे छूट गया था। उसे याद आया घर जाकर उसे स्वेटर के फंदे भी उठाने हैं। उसने अपने हाथ में पकड़े हुए स्वेटर और ऊन के गोले को कसकर पकड़ लिया।
श्यामा ने की चाल तेज हो गई। वो सब भूलना चाहती थी। राधिका को..... राधिका के किस्से को....। वो अपनी डायरी से राधिका का किस्सा फाङकर फैंकना चाहती थी पर ये इतना आसान नहीं ।
वो बुदबुदाने लगी- राधिका तुम कहां हो.... तुम... तुम मकान छोड़कर गई हो, जिंदगी नहीं.... जहां भी जाओ अपना घर बनाना ... अपने सपनों का घर....और जी लेना पूरी शिद्दत से....।
श्यामा की चाल अब और तेज हो गई थी । घर पहुंचते- पहुंचते वो हॉफ रही थी पर उसे बहुत जल्दी थी....उसे स्वेटर के गिरे हुए फंदे जो उठाने थे।
डॉ पूनम गुजरानी
सूरत