Pal Pal Dil ke Paas - 7 in Hindi Love Stories by Neerja Pandey books and stories PDF | पल पल दिल के पास - 7

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पल पल दिल के पास - 7

भाग 7

जाऊं किस ओर?

अभी तक आपने पढ़ा की एक्सीडेंट में मयंक की मृत्यु के बाद नियति की मां उसे अपने साथ ले कर आती है।

सास नीना देवी को नियति की शक्ल भी देखना गँवारा नहीं होता। पर बहन के समझाने पर उसे घर में कुछ दिनों के लिए रहने देने को राजी हो जाती हैं। नीना देवी के नियति से चले जाने को कहने पर अनायास ही नियति की मां के मुंह से निकल जाता है की, "पर बेटी तू जाएगी कहां…?" नियति को मां के इस वाक्य से बहुत ठेस पहुंचती वो दुखी होकर कहती है की वो कहीं भी चली जायेगी । उन पर बोझ नहीं बनेगी। नियति की मां खुद को कोसती है की ये उन्होंने क्या कह दिया..?

अब पढ़े आगे।

नीना देवी अब ज्यादातर वक्त मिनी को अपने साथ ही रखने की कोशिश करती। उनका प्रयास रहता की नियति दिखे ही ना मिनी को। क्योंकि जब भी नियति मिनी को दिख जाती फिर उसे रोकना मुश्किल होता। आखिर नियति मां थी मिनी की। एक छोटी साल भर की बच्ची अपनी मां से दूर कैसे रह सकती है…? नियति को देखते ही किसी भी हालत में जब तक वो नियति के पास न पहुंच जाती चुप नही होती। नीना खुद को सब के सामने क्रूर सास साबित नहीं होने देना चाहती थी इस लिए उस वक्त तो मिनी को नियति के पास जाने देती, पर शांता को सब काम से परे सिर्फ मिनी को ही संभालने की जिम्मेदारी सौंप दी थी। अब शांता केवल मिनी की देख भाल करती। उसके काम दूसरे नौकर देखते थे। खामोश नियति को इन सब बातों का खयाल भी नहीं था कि उसकी सास क्या कुछ प्लान कर रही है उसके खिलाफ।

वो अपने दुख के साथ अकेली ही लड़ रही थी। एक अनचाही रिक्तता जो उसके जीवन में अमावस की रात सी छा गई थी। उसने उसे कुछ भी सोचने समझने लायक नहीं छोड़ा था। नियति तो बिलकुल बुत सरीखे हो गई थी। कहां क्या हो रहा है…? कौन क्या कह रहा है…? उसे किसी भी बात का कोई अहसास नहीं रह गया था। जब मां ले जाकर बाथ रूम में खड़ा कर देती वो नहा लेती। जो कुछ भी मां पहना देती पहन लेती। मां को शांता जो कुछ लाकर देती। मां ही उसके मुंह में दो चार कौर जबरदस्ती डाल देती।

दिन दुख के हो या सुख के बीत ही जाते है। ना ही सदैव अच्छे दिन रहते है ना ही सदैव बुरे दिन। ये बात अलग है की सुख के दिन जल्दी बीत जाते है, उनके गुजर जाने का पता ही नही चलता। जैसे समय को पंख लगे हो और वो हवा के रथ पर सवार हो उड़ गया हो। पर.. दुख के दिन…! वो बहुत ही मुश्किल से बीतते है। उन्हें तो काटना पड़ता है। एक एक पल, एक एक मिनट एक एक सदी के समान होता है। हर पल का गुजरना दिल पर भारी पड़ता है। मद्धम मद्धम ही सही बीत तो दुख के दिन भी जाते हैं। वही नियति के साथ भी हुआ। दिन बीत गए। धीरे धीरे तेरहवीं का दिन भी आ गया। सारे कर्मकांड धीरे धीरे निपट गए। बस अब तेरहवीं की आखिरी विधि बाकी थी। सुबह से ही घर में चहल पहल हो रही थी। जो भी रिश्तेदार सुनता भले ही वो दूर का था पर सभी आए थे। इस दुख की घड़ी में सभी इष्ट मित्र पड़ोसी अपनी संवेदना प्रकट करने आ रहे थे। हिंदू धर्म की यही विशेषता है की मृत व्यक्ति की आत्मा की शांति के लिए जो कर्मकांड करवाया जाता है, उसकी तैयारी में व्यक्ति कुछ दिन के लिए गम कम महसूस करता है। मजबूती में ही सही पर सारी व्यवस्था उसे करनी ही पड़ती है। जो व्यक्ति चला गया है इस दुनिया से सदा के लिए, उसके लिए करने का मौका कोई भी गवाना नहीं चाहता। चाहे उसे मिले न मिले पर अपनी संतुष्टि के लिए घर के लोग सब कुछ करते है। ये सारे कर्म पूरे कर जाने वाले के प्रति अपना प्यार, अपना समर्पण व्यक्त करते है।

प्रतिष्ठित परिवार था मयंक का। शहर में उनका बड़ा नाम था। गिने चुने सम्मानित परिवारों में उनकी गिनती होती थी। इस कारण हर व्यक्ति मयंक को श्रद्धांजलि देना चाहता था। आने जाने वालों की लाइन सी लगी थी सुबह से। मयंक की मुस्कुराती हुई सुंदर सी फोटो लगी थी। हर आने वाला फूल चढ़ा कर श्रद्धांजलि देता। पास ही बैठी नीना सब का आभार व्यक्त करती, इस दुख की घड़ी में साथ देने के लिए।

सब से अलग थलग एक कोने में सफेद साड़ी में लिपटी नियति सर झुकाए बैठी थी। उसकी बड़ी बड़ी आंखों में तैरता आसूं रुकने का नाम नहीं ले रहा था। मयंक की फोटो पर फूल चढ़ाने के बाद जब आने वाले की निगाह नियति पर जाती तो उसकी भी आंखे नम हुए बिना नहीं रह पाती। अभी कुछ समय पहले ही तो सभी ने उसे लाल जोड़े में सजी संवरी देखा था। मयंक के साथ बैठी लजाई सकुचाई सी सबका अभिवादन कर फिर नजरें झुका लेती। आज उसे सब किस रूप में देख रहे थे।

अपनी पहाड़ सी जिंदगी नियति कैसे काटेगी? ये सवाल सब के मन में उथल पुथल मचा रहा था। साथ ही नीना का खुद से दूर नियति को बिठाना सब के मन में सवाल उत्पन्न कर रहा था कि नीना और नियति के मध्य सब कुछ सामान्य नही है। इस दुख की घड़ी में जब दोनो सास बहू को एक दूसरे का सहारा बनना चाहिए, दोनो के बीच एक खाई सी महसूस हो रही थी।

मिनी अबोध बच्ची इन हालातो से बे खबर दादी की गोद में बैठी थी। नियति को देख बार बार मचल जा रही थी, मां की गोद में जाने को। पर नीना उसे बड़े जतन से नियति के पास जाने से रोक ले रही थी। ज्यादा जिद्द करने पर मिनी को शांता के साथ बाहर भेज देती। शांता कुछ देर उसे बाहर घुमा कर बहला देती फिर नीना को सौप देती। पर नीता बहन के नाराजगी को नजर अंदाज कर नियति का साथ दे रही थी। नियति भी नीता मौसी के संबल से खुद को हालत का सामना करने के काबिल बना रही थी। सुलझे विचारों वाली नीता बहन के सोच के विपरीत हर कदम पर नियति का साथ देने का निर्णय कर चुकी थी। पहले तो उसकी कोशिश होगी कि जीजी नियति के साथ कुछ भी गलत ना करें। पर अगर वो नहीं मानती है तो वो नियति के साथ खड़ी रहेगी।

मयंक की तेरहवीं बीत गई। काफी समय रुकना पड़ा था रिश्तेदारों को। अब वो जल्दी से जल्दी अपने अपने घर वापस जाना चाहते थे। कुछ तो उसी दिन चले गए। जो बचे थे वो भी सुबह से जाने की तैयारी में लगे थे। नियति की मां भी वापस घर जाना चाहती थी। नीना की जलती हुई निगाहों का सामना वो बस नियति के कारण कर रही थी। वो भी अब चली जाना चाहती थी। हर बात पर नीना की व्यंग पूर्ण बाते सुनकर वो अपमानित हो रही थी।

लगभग सभी लोग चले गए थे। केवल नीता, चंचल और नियति की मां ही बचे थे। नियति की मां ने भी अपने जाने की तैयारी कर ली। उनकी इच्छा थी की कुछ दिन नियति और मिनी को अपने साथ ले जाए। थोड़ा सा चेंज हो जायेगा। फिर वो वापस आ जायेगी। पर उनके हाव भाव देखकर वो ये हिम्मत नहीं कर सकी। सारा अपमान भूल कर नियति की मां निकलते वक्त उनसे विदा लेने गई। आखिर वो एक बेटी की मां थी। अपनी समधन और अपने बेटी की सास के आगे झुकने में कोई बुराई नहीं थी। ना ही वो इससे छोटी हो जाती। यही सब सोच कर नियति की मां नीना देवी के पास जाकर हाथ जोड़ कर नम्र शब्दों में बोली, "बहन जी …! मैं अब जा रही हूं। मुझसे जो भी भूल हुई हो आप माफ़ कर दीजिएगा।" कह कर हाथ जोड़े आसूं लिए आंखों में जाने लगीं।

नीना देवी निर्विकार भाव से खड़ी थी। उन पर नियति की मां की बातों का कोई असर नही हो रहा था। जैसे उनके शब्द नीना देवी के कानों में जा ही नहीं रहे थे। पर तभी पास खड़ी चंचल ने नीना का कंधा दबा कर कुछ इशारा किया। नीना जैसे चंचल के छूने से होश में आई। जाती हुई नियति की मां को

"ठहरिए बहन जी" कह कर रोका। जाती हुई नियति की मां अभी कुछ कदम आगे ही जा पाई थीं। उन्हें लगा नीना देवी शायद उन्हें रोकेंगीं, या फिर नियति को ले कर कोई बात करेंगी । ऐसे ही कुछ सोचती हुई वो पलट कर नीना को देखा और वापस उनकी ओर आ गईं।

वो आदर सहित बोली "जी बहन जी"।

नीना देवी ठंडे, ठहरे हुए स्वर में कहा, "अपनी बेटी को नहीं ले जाएंगी!"

नियति की मां असमंजस में पड़ गई। उन्हें कुछ समझ नहीं आया नीना देवी के इस प्रश्न का मतलब। बस उनके मुंह से "जी… " ही निकला।

नीना देवी के इस वाक्य का अर्थ समझने में उन्हे कठिनाई हो रही थी। उन्होंने सोचा था नीना अभी गुस्से में है इस कारण नियति को घर में रखने से मना कर रही है। जब गुस्सा कम होगा तो वो नियति को स्वीकार कर लेंगी। कोई अपनी इकलौती बहू को ऐसे थोड़ी ना घर से बेघर कर देता है! पर अब उन्हें महसूस हो रहा था की उस दिन नीना देवी जो कुछ भी कहा था, वो सच कहा था। वो इतनी कठोर होंगी इसका नियति की मां को अंदाजा भी नहीं था।

नीना देवी को लगा की नियति की मां उनका भाव नहीं समझ पा रही हैं तो नियति की मां की शंका का अंत करते हुए बोली, "आप अपनी बेटी को अपने साथ ले जाइए। मैने उसे सिर्फ और सिर्फ मयंक की तेरहवीं तक ही रहने की इजाजत दी थी। वो ….अब बीत गई। मयंक की पत्नी से मेरा रिश्ता मयंक के जीवित रहते तक ही था। अब मयंक नहीं तो ये रिश्ता भी खत्म।"

नियति की मां धैर्य से नीना देवी की बात सुन रही थीं।

अपनी बेटी की खुशी की खातिर वो सारा मान अपमान कड़वे घूट की तरह निगल गई थी। पर बेटी का इस दुख की घड़ी में भी इतना तिरस्कार वो सह नहीं पाईं। एक तो खुद ही भगवान ने इतना घोर अन्याय उनकी बेटी के साथ किया था। उसे रोकना उनके वश में नहीं था। पर जो अन्याय नीना देवी कर रहीं थी, उसे तो वो रोक हीं सकती थी। एक निश्चय के साथ नियति की मां बोली, "बहन जी अपनी बेटी को ले तो मैं बेशक जाना चाहती थी। पर आपका खयाल करके कह नहीं पाई। पर जब आपको उसकी कद्र ही नहीं तो यहां उसे छोड़ने का क्या फायदा? बेटा आपको छोड़ कर चला गया, ये ईश्वर की मर्जी थी। पर बेटी की तरह खयाल रखने वाली बहू को घर से निकल कर खुद को अकेला करना आपकी मर्जी है। मैं आपकी इच्छा का सम्मान करते हुए अपनी बेटी और नातिन को अपने साथ ले जा रही हूं। ईश्वर से यही कामना करूंगी की आप को सद्बुद्धि दे।" कह कर नियति की मां नियति को लेने अंदर जाने लगीं। नियति वही दीवार के सहारे गुमसुम खड़ी सब कुछ सुन रही थी।

नियति क्या अपनी मां के फैसले से सहमत हो कर अपनी ससुराल से चली जायेगी…? या यहीं रुक कर नीना देवी के अन्याय का सामना करेगी? क्या नियति अपनी मां के साथ चली गई? नीना देवी ने क्या मिनी को भी नियति के साथ जाने दिया? आगे नियति क्या फैसला लेती है, पढ़े अगले भाग में।