Ek Safar Aisa Bhi... in Hindi Comedy stories by Shwet Kumar Sinha books and stories PDF | एक सफर ऐसा भी...

Featured Books
Categories
Share

एक सफर ऐसा भी...

बात करीब बीस वर्ष पुरानी है। मैं अपने माता–पिता और छोटी बहन के साथ लोकल ट्रेन पकड़ दूसरे शहर को जा रहा था।

ट्रेन के जिस डब्बे में हम सब चढ़े थें, उसमें भीड़–भाड़ न के बराबर थी। इसलिए, चढ़ते ही हम सब अपनी मर्जी के सीट पर आकर बैठ गए। मैं भी खिड़की वाली सिंगल सीट पर जा बैठा।

हमलोगों के आसपास कोई न बैठा था। हालांकि, थोड़े आगे वाली सीटों पर कुछ लोगों की आवाजें सुनाई दे रही थी।

अपने तय समय पर ट्रेन खुली।

थोड़ी देर चलने के बाद, किसी छोटे से स्टेशन पर आकर खड़ी हो गई।

दो–तीन लोग डब्बे में चढ़ें और मां पापा के सामने वाली सीट पर आकर बैठ गए। उनमें से एक आदमी पान चबा रहा था, जिसके कारण आसपास के माहौल भी पान–पान हो गया था।

वैसे तो हमें पान से ज्यादा कोई परेशानी न थी और कभी–कभार पिताजी की पीठ पीछे दोस्तों के कहने में आकर एकाध खा लिया करता था। पर पिताजी को पान, गुटखे, बीड़ी, सिगरेट पीने वाले तनिक भी न सुहाते और वे उनकी गंध से भी दूर रहते थें ।

पिताजी के सामने वाली सीट पर बैठे उस यात्री द्वारा चबाया जा रहा पान और थोड़ी थोड़ी देर पर अपने सीट से उठ पास वाली खिड़की से बाहर फेंके जाने वाली उस चबाए पान की पीरकी मेरे साथ साथ मां और छोटी बहन के ध्यानाकर्षण का केंद्र बना था। कभी हमसभी पान चबा रहे उस महानुभाव के चेहरे को देखें तो कभी पिताजी के चेहरे पर उभरी चिंता और गुस्से की मिश्रित लकीरों को। जैसे–जैसे खिड़की की तरफ अपना मुंह बढ़ा वह चबाये हुए पान को उगलता, डर भी मेरे भीतर अटखेलियां ले–लेकर हिंडोले लेती।

तभी। एक अनहोनी हुई, जिसे न होना था। इसमें उस पान वाले सख्श की कोई गलती नहीं होगी, उससे भी गलती से ही मिस्टेक हो गया होगा!

बार–बार खिड़की की तरफ मुंह उठाकर चबा पान बाहर फेंकने से पिताजी के चेहरे पर उठ रही गुस्से की लकीरें शायद उस पान वाले इंसान ने पढ़ ली होंगी। इसलिए, थोड़ी देर से वह अपना मूंह बाहर नहीं कर रहा था , जिससे हमलोग भी थोड़े रिलैक्स महसूस कर रहे थें।

पर, कहां पता था कि उसने सारा पान चबाकर अपने मूंह में ही स्टोर कर रखा है।और जैसे ही अपने मित्रबंधुओं से कुछ बोलने को अपना मुखमंडल खोला, चबे हुआ पान की पीरकी उसके मुख से निकल पिताजी के चेहरे पर आ गिरी।

"हे भगवान! यह क्या कर डाला। अब तो खैर नहीं ।"–यह सब..... हमलोग नहीं, वह पान वाला यात्री सोच रहा था और डर से उसकी सिट्टी–पिटी गुम हो चुकी थी ।

इससे पहले कि उसके इस कृत्य पर हम सभी उसकी धुनाई कर देते, खुद से ही हाथ जोड़कर वह माफी की गुहार लगाने लगा तो हमलोगों से भी कुछ बोलते न बन पाया।

पर, पिताजी का चेहरा !

पिताजी के चेहरे पर चबाया हुआ पान बिखरा पड़ा था और गुस्से से तमतमाया हुआ उनका चेहरा पान के साथ और भी ज्यादा लाल दिख रहा था। उनके ही समीप बैठी मां और छोटी बहन कभी पिताजी का चेहरे को देखती तो कभी उस पान वाले यात्री के चेहरे पर उठी भय की उन लकीरों को। मां ने अभी पिताजी के चेहरे को साफ करने के लिए रुमाल निकाला ही था कि तभी उस पान वाले यात्री ने अपने जेब से रुमाल निकाल खुद से ही पिताजी के चेहरे को साफ करना शुरू कर दिया। जैसे–जैसे वह पिताजी के चेहरे को अपने रूमाल से साफ करने की कोशिश किए जा रहा था, पिताजी के गुस्से का पारा भी वैसे–वैसे बढ़ता ही जा रहा था।

मानो खूंटे में बंधी बकरी सामने खड़े शेर से अपनी जिंदगी की गुहार लगा रही हो, कुछ वैसी ही परिस्थिति रेल के उस डिब्बे में बन चुकी थी। पिताजी के बगल में ही बैठी मां और छोटी बहन अपना चेहरा दूसरी तरफ कर बिना मुस्काए न रह पा रहे थें। वहां पर उभर रही उस परिस्थिति से मेरी भी हंसी निकल गई और दूसरी तरफ मूंह किए मैं भी मुस्काए जा रहा था ।

पिताजी का चेहरा तो उस पान वाले इंसान ने अपने रूमाल से साफ कर डाला और रूमाल भी पिताजी को रखने का आग्रह किया, जिसपर पिताजी ने रूमाल उसके मुंह पर फेंक दिया।

उसके बाकी दोस्त कुछ भी नहीं बोल पा रहें थें और जल्दी से ट्रेन के अपने गंतव्य स्टेशन पर पहुंच जाने की ईश्वर से प्रार्थना कर रहें थें।

पिताजी के सामने चुप्पी साधे और अपना सिर झुकाए बैठे रहने के बाद भी वो तीनों यात्री सहज महसूस न कर पा रहें थें। थोड़ी ही देर बाद, तीनों वहां से खिसक लिए और उसी डब्बे के सबसे आखिरी में जाकर बैठ गए।

गंतव्य स्टेशन पर ट्रेन रुकने के बाद जब हमसभी उतरने लगें तो वे तीनों यात्री भी दिखे, जिन्होंने हमें देख अपना मूंह दूसरी तरफ घुमा लिया।

आज, इतने सालों बाद भी, जब वो किस्सा याद आता है तो हम सब मिलकर खूब हंसते हैं और पिताजी के चेहरे पर भी मुस्कान बिखर जाती है ।


। । समाप्त । ।