confusion in Hindi Biography by Priya pandey books and stories PDF | उलझन

Featured Books
  • प्रेम और युद्ध - 5

    अध्याय 5: आर्या और अर्जुन की यात्रा में एक नए मोड़ की शुरुआत...

  • Krick और Nakchadi - 2

    " कहानी मे अब क्रिक और नकचडी की दोस्ती प्रेम मे बदल गई थी। क...

  • Devil I Hate You - 21

    जिसे सून मिहींर,,,,,,,,रूही को ऊपर से नीचे देखते हुए,,,,,अपन...

  • शोहरत का घमंड - 102

    अपनी मॉम की बाते सुन कर आर्यन को बहुत ही गुस्सा आता है और वो...

  • मंजिले - भाग 14

     ---------मनहूस " मंज़िले " पुस्तक की सब से श्रेष्ठ कहानी है।...

Categories
Share

उलझन

उलझन, असल में मैं जब भी इस शब्द को सुनती हूं तो मुझे लगता है किसी ने मानो मेरे सामने आईना रख दिया हो... उलझन और मेरा गहरा नाता है, मेरे पास केवल कुछ दिन ही तो होते हैं जिनमें मैं निश्चिंत सो पाती हूं, इन दिनों सही और गलत के बीच फसी हुई हूं... दिल जो करने को कह रहा है वो गलत है ये जानते हुए भी वही करना चाहती हूं, करती जा रही हूं... रोज सोचती हूँ कि अब बस, आज से खुद को रोक लेना है लेकिन ठीक उसी दिन और तेजी से गलती की ओर कदम बढ़ा देती हूं... मुझे डर है कि कहीं मेरी उलझन मुझे किसी ऐसी जगह न ले जाए जहां से वापस न आया जा सके, मैं वहां नहीं जाना चाहती यहीं खुद को रोक लेना चाहती हूं, अपने फैसले पर अड़ी रहना चाहती हूं... मेरी उलझन को मैं किसी के जीवन का धोखा नहीं बनने देना चाहती, मुझे यही रुक जाना है...

यकीन मानिए इस बार इस उलझन की न तो मैं वजह हूं न ही इसमें मेरी कोई गलती है लेकिन सजा सबसे ज्यादा मुझे मिल रही है... सजा से ज्यादा तकलीफ... तकलीफ दो तरह के हैं एक कि जो हुआ है उसकी, दूसरी बिन गलती की सजा की... खैर मुझे इस दौर से गुजरना ही होगा... सही क्या है मैं जानती हूं, सच क्या है मैं लगभग वो भी जानती हूं बस नहीं जानती तो ये कि इन दिनों मेरा सकून कहां है? उसे वापस कैसे लाया जाए? जानते हुए भी खुद को गलती करने से कैसे रोका जाए? मैं अपने आप के लिए क्या ऐसा करूं की मेरी उलझन खत्म हो और मेरा सकून मुझे वापस मिल जाए🌺

मैं जिस उम्र में हूं, शायद इस उम्र में हर कोई इसी उलझन को पार करता होगा, इसी तरह से चीजें सोचता होगा, कई बार नाकाम होता होगा, हार भी जाता होगा और फिर उठ खड़े होने की हिम्मत भो दिखाता होगा... इसे पार कैसे किया जाए मैं नहीं जानती... सही गलत के बीच हर वक्त फसे रहना, बस यही सोचना मेरे लिए किसी सजा से कम नहीं है... मैं कुछ नया सोचना चाहती हूं कुछ नया करना चाहती हूं, चाहती हूं कि पूरी दुनिया बदल जाए या मैं लेकिन इन दोनों में से किसी के भी बदलाव की कोई उम्मीद मुझे नज़र नहीं आती.. खुद को बदल पाना संभव होता तो शायद मैंने सबसे पहले वही किया होता और दुनिया अब तक कौन ही बदल पाया है... मैं खुश हूं या दुखी उलझन इसके बीच भी है... बच्चों की तरह सिसक कर रोना है या खिलखिला कर हसना उलझन इसके बीच भी है... लेकिन इन सब के अलग एक उम्मीद है.. उम्मीद की उस किरण की जो अपने प्रकाश से सब कुछ साफ कर देगी, उस किरण के बाद शायद उलझन जैसे शब्दों को मैं मानने से ही इनकार कर दूंगी... मैं ये जानती हूं कि जितना सच ये है कि रोज सूर्योदय होगा उतना ही सच ये भी है कि उम्मीद की वो किरण जरूर आएगी, शायद थोड़ा समय लगे, बेचैनी और बढ़े लेकिन वो आएगी जरुर...