soul... in Hindi Horror Stories by Saroj Verma books and stories PDF | रूह...

Featured Books
  • فطرت

    خزاں   خزاں میں مرجھائے ہوئے پھولوں کے کھلنے کی توقع نہ...

  • زندگی ایک کھلونا ہے

    زندگی ایک کھلونا ہے ایک لمحے میں ہنس کر روؤں گا نیکی کی راہ...

  • سدا بہار جشن

    میرے اپنے لوگ میرے وجود کی نشانی مانگتے ہیں۔ مجھ سے میری پرا...

  • دکھوں کی سرگوشیاں

        دکھوں کی سرگوشیاںتحریر  شے امین فون کے الارم کی کرخت اور...

  • نیا راگ

    والدین کا سایہ ہمیشہ بچوں کے ساتھ رہتا ہے۔ اس کی برکت سے زند...

Categories
Share

रूह...

बहुत पुरानी बात है यही कोई सन् १९७५ की,मैं ने उस साल शहर के काँलेज मे बी.ए. प्रथम वर्ष में एडमिशन लिया था,उस समय मेरे कस्बे से दो ही रेलगाड़ियाँ चला करतीं थीं, एक दोपहर में और एक रात में,मैं ज्यादातर रात वाली रेलगाड़ी से ही आना जाना पसंद करता था।।
दशहरें की छुट्टियाँ पड़ी,सारा हाँस्टल लगभग खाली हो चुका था और जो बचे खुचे लोग थे वे भी अपने अपने घर जाने का मन बना चुके थे,तो मैने सोचा मैं अकेला यहाँ क्या करूँगा, मैं भी रात की रेलगाड़ी से घर निकल ही जाता हूँ और काँलेज आने के बाद ये मेरा अकेले पहला सफर था क्योंकि जब मैं पहली बार आया था तब पिताजी मेरे साथ आए थे और मैने भी अपना सामान बाँधा फिर दिन में खाना खाकर सो गया वो इसलिए कि रात को सफर में जागना पड़ेगा।।
रात आठ बजे की रेलगाड़ी थी,मैस में खाना खाया फिर उसके बाद मैं ताँगे में बैठा और चल दिया स्टेशन की ओर,प्लेटफॉर्म पहुँचकर टिकट खरीदा और रेलगाड़ी के आने का इंतज़ार करने लगा,थोड़ी देर के बाद रेलगाड़ी भी आ गई , मैं उसमें बैठ गया,चूँकि मेरा रिजर्वेशन नहीं था इसलिए मैं जनरल डिब्बे में बैठा था और मुझे एक सीट भी नसीब हो गई बैठने के लिए,बस ऐसे ही ऊँघते ऊँघते करीब डेढ़ बजे रेलगाड़ी मेरे कस्बे के प्लेटफॉर्म पर जा खड़ी हुई,मैं ने अपना सारा सामान उतारा और चल पड़ा घर की ओर,क्योंकि वहाँ कोई भी रिक्शा ना दिख रहा था और ना ताँगा।।
एकदम अँधेरा ही अँधेरा,उस समय स्ट्रीट लाइट भी कम ही हुआ करतीं थीं,बस जगह जगह झुण्ड में कुत्ते भौंक रहे थें,मुझे थोड़ा डर लगा लेकिन तभी मुझे किसी अनजान शख्स ने पुकारा और पूछा____
बेटा रूको,कहाँ तक जा रहे हो?
मैने पीछे मुड़कर देखा तो कुर्ता पायजामा और सदरी पहने एक बुजुर्ग साइकिल हाथ मे लिए पैदल ही मेरी ओर चले आ रहे थे, मुझे बहुत अच्छा लगा और मन में सोचा चलो कोई तो मिला।।
वो तब तक मेरे पास आ चुके थे, मैने उनसे कहा...
बस थोड़ा मनीहारी गली के आगें तक जाना है, लेकिन उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया बस वो मेरा चेहरा देखते रहे।।
तब वो हँसकर बोले,बेटा! जरा जोर से बोलो,मै ऊँचा सुनता हूँ।।
मैने कहा अच्छा....अच्छा...!तब मैने उनको एक बार और बताया कि मुझे कहाँ तक जाना है?
वे बोले...
कोई बात नहीं, मुझे भी थोड़ा और आगें तक जाना और तुम अपना कुछ समान साइकिल के कैरियर पर रख सकते हो,तुम्हारा बोझ थोड़ा हल्का हो जाएगा और फिर उन्होंने कहा कि वें साइकिल को ऐसे ही बहुत देर से घसीट रहे हैं ,पंचर जो हो गई, नहीं तो कब का घर पहुँच गए होते...
और तब मैने उनके साइकिल के कैरियर पर थोड़ा सामान रख दिया ,फिर उन्होंने मेरा परिचय पूछना शुरु किया...
तुम्हारा नाम क्या है बेटा? उन्होंने पूछा।।
मैने कहा ,जी!नन्दकिशोर!
मैं सदाशिव लाल,उन्होंने कहा।।
उन्होंने पूछा कि क्या तुम गिरधारी लाल के बेटे हो?
मैने कहा हाँ! लेकिन आप मुझे कैसे जानते हैं?
अरे,हमेशा तो देखा है तुमको, लेकिन शायद तुम्हें मेरी याद नहीं रही, वो बोले।।
मैनें कहा, हाँ!मुझे आप सच में याद नहीं हैं।।
और ऐसे ही बातें बातें करते करते मेरा घर आ गया,मैने उनसे कहा कि इस गली के अंदर मेरा घर है, अब मै चला जाऊँगा फिर मैने उनकी साइकिल से अपना सामान उतारा ,उनसे नमस्ते और धन्यवाद कहकर मुश्किल से दो कदम ही चला हूँगा कि मैने सोचा एक बार मुड़कर देखूँ कि वें कहाँ तक निकले...
मैं जैसे ही मुड़ा लेकिन वो वहाँ नहीं थे,मुझे कुछ अजीब सा लगा कि कोई कैसे अचानक से गायब हो सकता है? फिर मैने सोचा कि हो सकता है उनके पास साइकिल थी तो तेज रफ्त़ार से उस पर बैठकर निकल गए होंगें, लेकिन ऐसा कैसा हो सकता है साइकिल तो पंचर थी?
फिर मैने सोचा मैं क्यों अपने दिमाग पर जोर डाल रहा हूँ, चले गए होगें तो चले गए होंगें, मैं घर पहुँचा,देखा तो सभी उदास बैठे थे और पिताजी घर पर नहीं थे।।
मैने माँ से पूछा ,तो वो बोलीं कि पिताजी के एक दोस्त थे उन्हीं के यहाँ गए है,
मैने पूछा,इतनी रात को।।
हाँ,बेटा! वो अब नहीं रहे तो जाना ही पड़ेगा ना! माँ बोली।।
मुझे ये सुनकर थोड़ा बुरा लगा और मैने माँ से पूछा कौन थे, कहाँ रहते थे?
माँ बोली,आगें जाकर ही रहते थे,सदाशिव लाल नाम था उनका,आज दोपहर रेलगाड़ी की पटरियों के साइड से अपनी साइकिल लिए चले जा रहे थे,पीछे से रेलगाड़ी गुजरी,कान के बहरे थे इसलिए सुन नहीं पाएं और रेलगाड़ी टक्कर मारते हुए चली गई, उनका सिर वहीं जमीन पर पड़े बड़े से पत्थर से टकराया और वहीं उनके प्राण चले गए ॥
अब मैं बिलकुल सन्न था वो इसलिए कि जो मुझे अभी स्टेशन पर मिले थे तो क्या वो सदाशिव लाल जी की रूह.. थी।।

समाप्त__
सरोज वर्मा....