तुम कौन हो?
तुम कौन हो?
किया है कभी
प्रयास जानने का,
किया है कभी ,
स्वयं से प्रश्न कभी कि
तुम कौन हो?
गुम हो तुम
गुमशुदा
गुमराह हो
सदियों के तुम
हो महज वपूधारी ही।
जानो कैसे?
तुम कौन हो?
गुरु ही है जो
तुम को बतावें
पर गुरु से भी तुम
अंजान हो।
क्या राह है?
जाना कहां?
इसका तुम्हें है
बोध कहां।
तुम जान लो
इन जनम में
अगले जनम
का क्या पता?
तुम बून्द हो
सागर की एक,
सागर है ईश्वर
का रूप यहाँ,
तू हो विलीन
सागर में जब,
तब गहराई का
तुम्हे बोध हो।
आनंद है
जो सबसे बड़ा
न उससे तुम
वंचित रहो,
जाना नहीं
तुम्हें हिमालय
हृदय में अपने
ध्यान दो।
वो निराकार
सर्वव्याप है
हर कण में जो
आप्त है
न मंदिर में
न मस्जिद में
अपने हृदय के देश में।
वो है तुझमें
तू है उनमें
पर तुम अभी
अनजान हो
बातों से ना
मान लो
अनुभव से उसको
जान लो।
तुम जान लो
पहचान लो
तुम कौन हो?
तुम कौन हो?
नन्दलाल सुथार "राही"
(10)
(तुम्हें इक तो जाना है।)
जन्म जो लिया तुम्हें इक दिन तो जाना है
कोई ना तेरा नहीं कोई ठिकाना है
इस जगत की रोशनी में, तू क्यों खोया रहता है
बहती है गंगा, तुम्हें भी उसमें जाना है।
कर रहा क्या काम तू, जरा देख अपने आप को
सर्व का सम्मान कर , तू छोड़ अहंकार को
धन व बल से क्या मिलेगा, क्या पायेगा भगवान को
भक्ति की इक बूँद ले ले, जाएगा अभिमान तो।
वासना से ही ढका है, ज्ञान तो भीतर पड़ा है
तू भटकता फिर रहा है, मंदिरो में खोजता है
अब भी देख निज आत्मा को, क्यों देह के पीछे पड़ा
काया का है जलना, बस तेरा कर्म ही रह जाना है।
नन्दलाल सुथार"राही"