main to odh chunriya - 30 in Hindi Fiction Stories by Sneh Goswami books and stories PDF | मैं तो ओढ चुनरिया - 30

Featured Books
  • నిరుపమ - 10

    నిరుపమ (కొన్నిరహస్యాలు ఎప్పటికీ రహస్యాలుగానే ఉండిపోతే మంచిది...

  • మనసిచ్చి చూడు - 9

                         మనసిచ్చి చూడు - 09 సమీరా ఉలిక్కిపడి చూస...

  • అరె ఏమైందీ? - 23

    అరె ఏమైందీ? హాట్ హాట్ రొమాంటిక్ థ్రిల్లర్ కొట్ర శివ రామ కృష్...

  • నిరుపమ - 9

    నిరుపమ (కొన్నిరహస్యాలు ఎప్పటికీ రహస్యాలుగానే ఉండిపోతే మంచిది...

  • మనసిచ్చి చూడు - 8

                     మనసిచ్చి చూడు - 08మీరు టెన్షన్ పడాల్సిన అవస...

Categories
Share

मैं तो ओढ चुनरिया - 30

अध्याय 30

मेरी क्लास में सबसे पीछे की सीट जो कक्षा के कमरे के एक कोने में रखी रहती , हमेशा रिजर्व रहती थी । जहाँ बाकी सब लडकियाँ अपनी अपनी सीट के लिए भागती दौड़ती आती , लेट हो जाने पर अक्सर सीट छिन जाती , वहां वह कुर्सी हमेशा आने वाली का इन्तजार करती खाली पड़ी रहती । जब सब लड़कियां अपने बैग अपनी कुर्सी पर टिका कर प्रार्थना के लिए चली जाती , तब वह डरते डरते क्लास में आती । चुपके से कुर्सी पर बैठकर बस्ता गोद में लेती और पूरा दिन चुपचाप वहीं बैठी रहती ।. उसके बाद वहाँ से तभी उठती जब छुट्टी हो जाने पर सारी लड़कियां कमरे से निकलकर अपने अपने घर चली जाती । आधी छुट्टी में शारदा और शशि उसके लिए लायी हुई एक एक रोटी जरूर उसे देने जाती और वह दोनों हाथ फैलाकर रोटी लपक लेती । फिर वह रूखी रोटी बिना किसी अचार , सब्जी के बङे आराम से खा जाती । आधी छुट्टी में स्कूल की तरफ से नाश्ते में मुरमुरे या चने या कोई सस्ता सा फल मिलता जिसे हम कभी खाते कभी न खाते । यह बचा हुआ नाश्ता उसे मिलता और वह इसे अपनी ओढनी के छोर में बाँधकर पोटली सी लटका लेती । उसका न कोई साथी था न सहेली । दीवार के साथ सटी कुर्सी पर वह अपनी अधफटी किताबें लिए चुपचाप बैठी रहती ।
कक्षा परीक्षा में भी वह अपना लिखा खुद ही खङी होकर दीदी को पढ कर सुना देती और सुन कर दीदीजी अपनी कापी में उसके नम्बर लगा लेती जबकि हमारी कापियां वे अपने साथ ले जाती .। एक एक अक्षर पढ़ती । गलतियाँ ढूँढ कर लाल गोले लगाती । तब जा कर हमें नम्बर मिलते और नम्बरों से ज्यादा डांट मिलना पक्का तो था ही । छोटी से छोटी गलती पर भरपूर डाँट मिलती । जिनके लाल गोले ज्यादा लगे होते , उन नालायक लङकियों को फुट्टे से मार भी पङती । नौरती को कभी दीदी से मार नहीं पङी। हाँ कभी कभार डांट जरुर पङ जाती पर वह तो हम सबको पङती ही रहती थी । इसलिए मैं नौरती से मन ही मन ईर्ष्या करने लगी थी । अब इतने वी आई पी ट्रीटमैंट के बाद थोङी सी जलन तो बनती ही थी न । इसलिए मन ही मन उससे जलन होने लगी थी । हूँ क्या किस्मत है .। न सीट की चिंता । न टिफिन लाने की । न कापियां जचवाने की । कोई कुछ कहता ही नहीं महारानी को । मौज ही मौज है महारानी की .।

और एक दिन ये सब मन की बातें अपने से दो क्लास आगे वाली वीना दीदी को कह ही दीं तो उन्होंने कानों को हाथ लगा ईश्वर से माफ़ी माँगी । मुझसे भी आकाश की ओर हाथ जुडवा कर माफ़ी मंगवाई - पागल हुई हो क्या ? तभी ऐसी बातें सूझ रही हैं । कुछ जानती भी हो उसके बारे में । अरे वो मैला ढोते है न रमई और बिज्जू । उनकी बेटी है नौरती । ये तो प्रधानजी इसकी फ़ीस भर रहे हैं । बड़ी दीदी इसको पुरानी किताबें दिलवा देती हैं तो दो अक्षर पढ रही है । इसलिए स्कूल आ पाती है वर्ना माँ के साथ मैला ढो रही होती ।

सचमुच उस दिन अपनेआप पर शर्म आई । यह मैं क्या उल्टा सीधा सोच रही थी । घर आकर मैं सीधे मंदिर में ठाकुर जी के सामने गयी । हाथ जोङ कर माफी माँगी । मैंने ठाकुर जी का धन्यवाद दिया । नौरती के लिए अपने कुछ पुराने पेन पेन्सिल निकाले और सुबह उसे देते हुए सौरी बोला तो वो हैरान परेशान हो गई । उसकी आँखों में आँसू थे । -

क्या हुआ ?

कुछ नहीं । ऐसे ही । वो आदत नहीं है न ।

सचमुच तब कोई इन अछूत कहे जाने वाले लोगों से कोई व्यवहार नहीं रखता था । सभी घरों के पुरुष तो शौच के लिए बाहर खेतों में जाते थे । कुलीन घरों की परदा नशीन औरतों के लिए घर में बाहर की तरफ टट्टी बनी होती जिसमें औरते और बच्चे पाखाना जाते । एक ईटों का छोटा सा परदा । जिस में एक सलैब डली होती । उस सलैब के बीचोबीच एक बङा सा छेद जिसके नीचे कोई पुराना तसला रखा जाता । सुबह भंगिन आती । एक झाङू , एक बाँस का टोकरा और एक लोहे का कोई पतरा लिए शोर करती हुई – मलकिनी जरा बच्चों को भीतर तो लेलो । भंगिन आ रही है । घर की औरतें झपटती हुई आती , यदि कोई बच्चा गली में या दरवाजे पर खेल रहा होता तो झट से भीतर ले जाती । भंगिन तसले का सारा मैला अपने टोकरे में उलटती । वहाँ पहले से रखे पानी से टट्टी धोती । फिर गुहार लगाती । मलकिनी पानी दीजीए । मलकिनी बालटी में पानी लिए आती और दूर से ही पानी उछाल देती । पानी आधा जमीन पर पङता , आधा भंगिन पर । पर उन्हें उफ करते मैंने कभी नहीं देखा , भर सरदी में भी नहीं । उसके बाद वह अपना टोकरा सिर पर रखे निकल जाती किसी और घर में सफाई करने । बीस पच्चीस घरों में साफ सफाई करने के बाद वह घर जाती , नहा धोकर एक साफ टोकरा और पतीला या बाल्टी लिए बारह बजे फिर से लौटती । सुबह जिन घरों में सफाई की थी उन घरों में एक रोटी बँधी होती । मलकिनी आती । दूर से ही उसके टोकरे में रोटी उछाल कर डालती और बरतन में एक कटोरी सब्जी । त्योहार पर रोटी एक से दो हो जाती । इस तरह का नारकीय जीवन था इन भंगियों का ।
मेरा मन नौरती के लिए करुणा से भर गया । जब तब मैं अपने हिस्से की रोटी उसे खिला देती तो मन को बङी तसल्ली होती ।

नौरती मेरे साथ आठवी तक रही । उसके बाद उसका क्या हुआ , जानने का कोई साधन नहीं है .पर अपनी कापी से पढ़ कर कक्षा में खङी सुनाती वह मुझे आज भी सपने में दिख जाती है ।

बाकी कहानी अगली कङी में ...