Fatigue of body or of mind? in Hindi Fiction Stories by Dr Mrs Lalit Kishori Sharma books and stories PDF | थकान तन की या मन की?

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थकान तन की या मन की?

जीवन में प्रत्येक व्यक्ति सफलता की मंजिल तक पहुंचना चाहता है और इस मंजिल तक पहुंचने में उसके सहयोगी होते हैं उसका तन और मन। सामान्यतः प्रत्येक व्यक्ति सफलता प्राप्ति हेतु अपने शरीर को ह्रष्ट पुष्ट और ताकतवर बनाकर शारीरिक रूप से पूर्ण सक्रिय तो हो जाता है परंतु मन को चावल बनाना भूल जाता है परिणाम यह होता है कि शारीरिक रूप से पूर्णत: मेहनत करने पर भी सफलता की मंजिल उस से केवल कुछ कदमों की दूरी पर ही छूट जाती है और वह उसके निकट पहुंच कर भी उसे प्राप्त नहीं कर पाता।

ऐसे अवसरों पर मानव भूल जाता है कि तन तो केवल एक रथ के समान है और उसको चलाने वाला होता है सारथी रूपी मन । जब मन रूपी सारथी थक जाता है उसका संबल टूट जाता है आत्मबल कम हो जाता है तब उसके अधीन रहने वाला यह तन रूपी रथ भी थक कर रुक जाता है और हार मान बैठता है। कहा भी गया है

मन के हारे हार है मन के जीते जीत।

यदि हमारा आत्मबल मजबूत है हमारे इरादे बुलंद हैं तो हम बिना थके बिना शारीरिक थकान महसूस किए ही अपनी मंजिल तक पहुंचने में कामयाब हो जाते हैं। मन की इच्छाशक्ति के बलबूते पर ही व्यक्ति बड़े से बड़ा और कठिन से कठिन कार्य करने में सफल हो जाता है। सामान्यतः देखा जाता है कि एक शारीरिक रूप से शक्ति संपन्न व्यक्ति भी मन की इच्छा शक्ति से कमजोर होने पर छोटे से काम में भी शीघ्र ही थक कर हार मान बैठता है जबकि दूसरी ओर मन की शक्ति से अथवा आप वालों से सुदृढ़ व्यक्ति शारीरिक रूप से कमजोर होने पर भी कठिन काम करने में भी ना तो थकान ही अनुभव करता है और ना हार ही मानता है। सच ही तो है

यह लड़ाई जोकि
अपने आप से मैंने लड़ी है।
यह पहाड़ी पैर क्या चढ़ते
इरादों में चढ़ी है ।


वस्तुतः बात यह है कि जैसे ही हमारी इच्छा शक्ति कमजोर हुई हमारा आत्मबल कम हुआ मन थका वैसे ही हमारे शरीर की सभी इंद्रियां भी शिथिल हो जाती हैं और व्यक्ति हार मान बैठता है। अतः यह अटल सत्य है कि शारीरिक थकान के पीछे मन की थकान ही मुख्य कारण होती है। शारीरिक थकान दिखती है परंतु मन की थकान देखने कि नहीं अपितु अनुभव करने की चीज है। मनोवैज्ञानिक भी किसी सफलता प्राप्ति में मन की दृढ़ इच्छाशक्ति का महत्व तथा हार में मन की थकान को ही प्रमुख कारण मानते हैं।


वैदिक काल से लेकर आज तक सभी ऋषि मुनि संत महात्मा दार्शनिक शिक्षा शास्त्री मनोवैज्ञानिक बुद्धिजीवी सभी इसी बात पर बल देते आए हैं । मन की दृढ़ इच्छाशक्ति से तो ईश्वर को भी प्राप्त किया जा सकता है परंतु मन के थकते ही या मन से हार मानते ही व्यक्ति जीती हुई बाजी भी हार जाता है। मन की इच्छा शक्ति बुलंद होने पर मानव तो क्या परिंदे भी साहस से कह सकते हैं

कैचिया क्या काटेंगी हमारे पर
हम पंखों से नहीं
हौसलों से उड़ा करते हैं


इतिहास के झरोखे से झांकने पर हमें अनेकों उदाहरण इसी मत की पुष्टि करते हुए दिखाई देते हैं । महाभारत युद्ध के समय मन की थकान अर्थात मन की इच्छा शक्ति कमजोर हो जाने के कारण ही अर्जुन जैसा महान विश्वविख्यात धनुर्धर भी अपने गांडीव को त्याग कर हताश हो गया था। बाद में श्री कृष्ण द्वारा मन की शक्ति प्रबल किए जाने पर उसी अर्जुन ने अन्याय के विरोध में खड़े होकर विजयश्री प्राप्त की। ठीक इसके विपरीत परिस्थिति में हम देखते हैं की अति सामान्य कहां जाने वाला एकलव्य गुरु द्रोणाचार्य द्वारा स्वीकार न किए जाने पर भी अपने मन की प्रबल इच्छाशक्ति के कारण ही अर्जुन से भी अधिक प्रवीण धनुर्धर सिद्ध हुआ। मन की इच्छा शक्ति ही हमारे संपूर्ण व्यक्तित्व का निर्माण करती है अन्यथा मन से हार मान लेने पर मानव स्वयं अपनी नजरों में ही गिर जाता है।

वास्तविकता यह है कि संपूर्ण विश्व का अस्तित्व ही हमारे मन के भावों पर ही निर्भर करता है। हमारे मन के सकारात्मक एवं नकारात्मक विचार ही उसके स्वरूप का निर्धारण करते हैं किसी भी व्यक्तित्व तथा किसी भी वस्तु के स्वरूप को समझने में हमारे मन के सकारात्मक अथवा नकारात्मक विचार ही सर्वोपरि होते हैं। आज तो न केवल मनोवैज्ञानिक अपितु वैज्ञानिक भी मन की शक्ति के कायल हैं क्योंकि चिकित्सा के क्षेत्र में अनेकों प्रयोग ऐसे किए जा चुके हैं जहां केवल मन की सकारात्मक सोच के कारण व्यक्ति के कटे हुए अंग पुनः बढ़ते हुए देखे गए हैं। साथ ही चिकित्सकों की ऐसी भी मान्यता है कि मरीज के मन की शक्ति प्रबल होने पर औषधियों की प्रभावशीलता भी बढ़ जाती है और बीमारी शीघ्र ठीक हो जाती है तथा मन की शक्ति कम होने पर बीमारी ठीक होने में अधिक समय लगता है तथा कभी नकारात्मक परिणाम भी मिलते हैं। तथा कुछ विशेष परिस्थितियों में अपवाद स्वरूप ऐसे प्रमाण भी मिलते हैं जहां मन की शक्ति अत्यधिक प्रबल होने के कारण व्यक्ति को एनेस्थीसिया दिए बिना ही ऑपरेशन संभव हो सका है। ऐसे अनेक व्यावहारिक प्रयोग इस बात की पुष्टि करते हैं कि थकान तन की नहीं अपितु मन की होती है।

मन की प्रबल इच्छाशक्ति के कारण ही हमारे ऋषि मुनि हजारों वर्षों तक बिना भोजन किए हुए पूर्ण स्वस्थ अवस्था में रहकर तपस्या में लीन रहते थे । बुद्धिमान शत्रु भी अपनी नीति में इसी सिद्धांत का प्रयोग करता है प्रबल एवं शक्ति संपन्न शत्रु को भी यदि आप जीतना चाहते हैं तो सर्वप्रथम उसका मनोबल कमजोर कर दीजिए उस पर विजय पाना अत्यंत सरल हो जाएगा।

शिक्षा के क्षेत्र में भी मन की शक्ति का प्रयोग कर बालक की उपलब्धता को बढ़ाया जा सकता है। बालक के मन में उत्साह होता है तो उसकी ग्रहण शीलता व कार्य क्षमता बढ़ जाती है उस समय उसे कठिन तथ्यों को भी दिखाए जा सकता है परंतु मन में उत्साह न रहने पर उसे सिखना घोड़े को जबरदस्ती पानी पिलाने के समान है मेरा अर्थक सिद्ध होता है इसीलिए शिक्षा नीति में अभिप्रेरण मोटिवेशन द्वारा बालक के मन को प्रेरित कर उसकी इच्छा शक्ति प्रबल बनाकर जिज्ञासा जागृत की जाती है जिससे वह ज्ञान पिपासु वन कर ज्ञानार्जन कर सके ।


उपर्युक्त अनेक उदाहरणों द्वारा यह स्वत: सिद्ध है कि थकान तन की नहीं मन की होती है व्यक्ति के मन की थकान है उसकी शारीरिक थकान के रूप में प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होती है। तन की थकान के मूल में मन की थकान ही सर्वोपरि कारण होता है।


इति