Let's go for a walk somewhere... 9 in Hindi Travel stories by राज कुमार कांदु books and stories PDF | चलो, कहीं सैर हो जाए... 9

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चलो, कहीं सैर हो जाए... 9



ढलान से उतरना काफी आसान व सुखद लग रहा था । दायीं तरफ यात्रियों की सुरक्षा के लिए मजबूत तारों की जाली का दिवार सा बना दिया गया था । बायीं तरफ जहाँ भी पत्थर खिसकने की संभावना थी वहाँ सुरक्षा की दृष्टि से आवश्यक इंतजाम किये गए थे ।

संकरा रास्ता भी पर्याप्त महसूस हो रहा था । कभी कभी घोड़ों के आने से ही दिक्कत हो रही थी । दायीं तरफ गहरी खाई और खाई में नीचे तक कई किस्म के बडे बड़े पेड़ नजर आ रहे थे । कभी कभार हेलीकाप्टर का शोर वातावरण में हलचल मचा जाता ।

भरी दुपहरी के बावजूद हमें धुप का बिलकुल भी अहसास नहीं हो रहा था । बीच बीच में पेड़ों की छांव में लोग बैठे आराम करते भी नजर आये । पेड़ों की छांव में तो वातावरण ऐसा लगता जैसे किसी वातानुकूलित कमरे में बैठे हों । इतनी शीतलता होती । हम लोग भी कहीं कहीं बैठते आराम करते आगे बढ़ते रहे ।

लगभग एक घंटा हो चुका था हमें भैरव घाटी से चले । बीच में ही फौजियों की एक चौकी भी नजर आई । वहाँ से सांझी छत का हेलीपैड भी दिख रहा था ,जो अभी भी काफी दूर था । यात्रियों को लेकर उडान भरते और उतरते हुए हेलीकॉप्टरों को लोग कुतूहल से देख रहे थे और आगे बढ़ रहे थे ।

अब अर्धक्वारी ही हमारी अगली मंजिल थी । चलते चलते लगभग दो घंटे हो चुके थे । दोपहर के दो से कुछ अधिक का वक्त हो रहा था । अब हमें भूख लग रही थी सो वहीँ मार्ग में एक निजी होटल देखकर हम लोग होटल में घुसे । लेकिन वहाँ भोजन की बजाय सिर्फ नाश्ते की चीजें ही उपलब्ध थी । आगे शायद यह भी न मिले यही सोचकर हम लोगों ने बिस्किट व कुछ पकौड़े वगैरह खाकर ही अपनी क्षुधा शांत की और आगे बढे ।

वहाँ से थोड़ी ही देर में हम लोग सांझीछत पहुँच गए । यहाँ हेलीपैड के सामने ही छोटी सी खाली जगह थी जहाँ कुछ लम्बी बेंचें रखी हुयी थी ।कुछ यात्री इन कुर्सियों पर बैठ कर आराम फरमा रहे थे । कोई विशेष जल्दी में हम लोग भी नहीं थे । अतः एक जगह खाली कुर्सी देखकर हम लोग भी बैठ गए ।

सामने ही मंदिर प्रशासन द्वारा संचालित यात्रियों को ठहरने के लिए सस्ते दर पर कमरे उपलब्ध कराने के लिए भवन बना हुआ था । उसके बगल में ही दवाखाना भी दिख रहा था ।

थोड़ी देर बैठकर हम लोग पुनः आगे बढे । उतरते हुए कदम स्वतः ही तेजी से उठ रहे थे । नजदीक ही घने पेड़ पौधे और हरियाली लपेटे पहाड़ के नजदीकी हिस्से काफी नयनाभिराम दृष्य उपस्थित कर रहे थे वहीँ इसी पर्वत श्रंखला की दूर नजर आ रही चोटियाँ उजाड़ बंजर सी नजर आ रही थीं । उन चोटियों पर विशाल चीड के वृक्ष भी काफी छोटे नजर आ रहे थे जो ऐसा आभास करा रहे थे जैसे किसी गंजे के सर पर बेतरतीब उगे इक्का दुक्का बाल ।

अनुमान के विपरीत बड़ी तेजी से हम लोग लगभग चार बजे ही अर्धक्वारी पहुँच गए । अर्धक्वारी पहुँच कर सबसे पहले हम लोगों ने गर्भजुन के दर्शन के लिए अपना नंबर आने की संभावना के बारे में पता लगाया । पूछताछ करने पर पता चला कि हम लोगों का नंबर रात्रि तीन से चार के लगभग आ सकता है ।

थकान और नींद हम सभी पर भारी पड़ रही थी । यात्रियों के लिए बनाये गए तीनों भवन यात्रियों से ठसाठस भरे हुए थे । यात्रियों की अधिक संख्या ने बहुत अच्छी व्यवस्था को भी अव्यवस्था में तब्दील कर दिया था । इन तीनों भवन से लगा हुआ ही एक नवनिर्मित भवन जिसका नाम ‘शैलपुत्री भवन ‘ था । इसमें मामूली शुल्क पर ही रहने की सुविधा उपलब्ध थी । हमने वहाँ प्रयास किया और सौभाग्य से हमें डोरमेटरी में सभीके लिए जगह मिल गयी । सिर्फ सौ रुपये प्रति व्यक्ति के नाममात्र शुल्क में ही साफ सुथरा कमरा सुसज्जित बिस्तर और आगे शौचालय और स्नानघर देखकर हम लोगों ने माताजी को याद कर मंदिर प्रबंधन का धन्यवाद किया । अपना अपना सामान कमरे में रखकर अब हमने आगे का विचार किया और कमरे से बाहर निकले ।

भूख लगी हुयी थी और सामने ही मंदिर संचालित भोजनालय व अन्य निजी भोजनालय भी थे जहाँ लोगों की काफी भीड़ थी । हमारी पलकें भारी हो कर स्वतः ही ढंकने लगी थीं । भूख और नींद की जंग में जीत आखिर नींद की ही हुयी । खाने का विचार त्याग कर हम लोग सोने का विचार कर वापस कमरे में लौट आए ।
अपने बिस्तर पर जाते ही हम कब सो गए पता ही नहीं चला ।

अन्य दिनों में निंदिया रानी के आगोश में जाने के लिए हमें कई जतन करने पड़ते हैं लेकिन आज तो निंदिया रानी इतनी मेहरबान थी कि लेटते ही हमें अपनी आगोश में ले लिया । तब वक्त शाम के लगभग पांच बज रहे होंगे ।

नींद लग तो गयी थी लेकिन सोने से पहले मन में यह चिंता भी थी की अगर कहीं गहरी नींद में सो गए तो हमारा गर्भजुन का नंबर आकर कहीं चला न जाये । और यह कुदरती बात है कि गहरी नींद में भी मनुष्य का अवचेतन मन अपनी जिम्मेदारियों के प्रति सजग रहता है ।

शायद यही बात हो क्योंकि कुछ ही देर में नींद खुल भी गयी थी । मोबाइल में समय देखा । रात के नौ बजने वाले थे । आप सोच रहे होंगे मोबाइल में समय देखा ? जी हाँ अब हम मोबाइल की इस बहुआयामी प्रतिभा के जबरदस्त कायल हो गए हैं । मोबाइल ने ही अपनी प्रतिभा के दम पर लाखों लोगों की कलाई से उनकी घड़ियाँ उतरवा ली हैं । इतना ही नहीं अपनी जेब में डायरी और दो दो कलम रखनेवाले भी अब मोबाइल के अलावा कुछ भी नहीं रखते ।

समय देखते ही कहीं दुबका पड़ा भूख फिर कुलबुलाने लगा । नींद अब कमजोर पड़ रही थी सो भूख का जीतना तय ही था । उसी भूख के वशीभूत हम सभी उठे और स्नानघर की और बढे । कमरे में पानी का कोई इंतजाम नहीं था सो मुंह धोने के लिए स्नानघर के अलावा कोई विकल्प नहीं था ।

हाथ मुंह धोकर तरोताजा महसूस करते हम लोग निचे उतरे । सामने ही दर्शन के लिए चल रहा नंबर प्रदर्शित हो रहा था । वहाँ दिए गए एक नंबर पर पचास यात्रियों का समूह दर्शन के लिए प्रवेश पाता है । अभी 360 नंबर चल रहा था और हमारे पास 430 नंबर की पर्ची थी । इस लिहाज से लगभग 3500 यात्रियों के बाद हमारा नंबर आना था जिसमें काफी समय लगने की संभावना थी ।

यही सब कयास लगाते हम लोग भोजनालय की तरफ बढे । मंदिर प्रशासन की तरफ से संचालित भोजनालय समय से पूर्व ही बंद हो चुका था । शायद भोजन सामग्री ख़तम हो गयी हो ।

भोजनालय के सामने ही अन्य तीन निजी होटल थे । सभी यात्रियों से खचाखच भरे हुए थे । अफरातफरी का माहौल था । इन्हीं में से एक होटल में हम लोग घुसे । अन्दर सभी कुर्सियों पर लोग बैठे भोजन कर रहे थे । थोड़ी देर इंतजार के बाद कुछ लोग बाहर निकले और हमें बैठने की जगह मिली ।

इतनी भीड़ भाड़ में अपनी पसंद ढूँढना मुनासिब नहीं लगा सो वेटर ने जो उपलब्ध बताया वही मँगा क़र भोजन कर हम लोग बाहर निकले ।
दर्शन के लिए बोर्ड पर अभी भी वही नंबर प्रदर्शित हो रहा था । इस हिसाब से हमारा नंबर अब सुबह ही आएगा यह मानकर हम लोग वापस अपने कमरे में सोने चले गए ।

क्रमशः