physical beauty and aesthetic qualities in Hindi Fiction Stories by Dr Mrs Lalit Kishori Sharma books and stories PDF | शारिरिक सौंदर्य तथा सौंदर्येधायक गुण

Featured Books
Categories
Share

शारिरिक सौंदर्य तथा सौंदर्येधायक गुण

शारीरिक सौन्दर्य तथा
सौन्दर्याधायक गुण
( अ ) बाह्रय सौन्दर्य एवं आभ्यान्तर सौन्दर्य
( ब ) सांस्कृतिक अलंकार ( सत्वज गुण ) हाव , भावादि
( स ) प्रसाधन- आभूषण , वस्त्र , पत्ररचना , लेप , गन्ध माल्य , सुगन्धित द्रव्य , केश विन्यास , स्नान , जलक्रीडा आदि ।
( द ) बाहय सौन्दर्य सहायक - संगीत , नृत्य , नाट्य चित्रकला , अदि ।

बाहृय सौन्दर्य एवं आभ्यान्तर सौन्दर्य

सौन्दर्य मानव जीवन का सर्वस्व है । कली में अन्तर्निहित मधुमास के समान प्रत्येक मानव की अन्तरात्मा में भी सौन्दर्य छिपा रहता है । महाकवि कालिदास सौन्दर्य के कवि है सच तो यह है कि कालिदास ने सौन्दर्य का जैसा वर्णन किया है , वैसा अन्यत्र दुर्लभ है । “ सौन्दर्य ही सत्य है और सत्य ही सौन्दर्य है कीट्स के इस सिद्धांत की व्यावहारिक परिणति कीट्स कविता की अपेक्षा कालिदास की कविता में अधिक हुई है । कालिदास जाने - अनजाने सौन्दर्य के माध्यम से ही सत्य तक पहुँचने में विश्वास करते थे । यहाँ तक कि दोनों को अभिन्न मानते थे , तभी तो सचराचर सृष्टि में निहित सौन्दर्य को अपनी रचनाओं मे इतनी कुशलता के साथ उतार पाये है ।

कालिदास के अनुसार रमणीयता सौन्दर्य का एक आवश्यक धर्म माना गया है । कवि की यह धारणा , कीट्स की मान्यता “ एक सुन्दर वस्तु हमेशा आनन्ददायक होती है " - से भी अधिक गम्भीर एवं व्यापक है । क्योंकि रमणीयता मे ही आनन्द की चरमावस्था व्यंजित है ।
सौन्दर्य के बाहय एवं आंतरिक दोनों ही पक्ष कवि की लेखनी से निखर उठे हैं । " कालिदास ने दोनों ही रूपों का समन्वय करने का प्रयल किया है न तादृशा आकृति विशेषा गुणविरोधिनी भवन्ति । कहकर कवि ने सौन्दर्य के शारीरिक एवं आभ्यान्तर दोनों ही रूपों को एकाकार कर दिया है ।

बाहय सौन्दर्य बाहय सौन्दर्य के अंतर्गत नर - नारियों के बाहरी रूपाकर्षण , अंगभंगिमा अलंकरण , नाना प्रकार की चेष्टाओं , वस्त्र - सज्जा , मुद्राओं एवं वचः सौन्दर्यादि को समाविष्ट किया जाता है । नारी का कोमल कमनीय गात, पुरुषों का पुष्ट पेषल शरीर एवं शिशु - सुलभ तुतलाती वाणी या मनमोहक चेष्टाओं को देखकर मानव - मन रूपी भ्रमर इस रूप सौन्दर्य में निमश्रित हो जाता है ।

सौन्दर्य और माधुर्य के कवि कालिदास के काव्य में मानव - सौन्दर्य विशेषकर नारी - सौन्दर्य अपनी चरमपराकाष्ठा पर पहुँच गया है । कवि का मन नारी - सौन्दर्य वर्णन में अत्यधिक रमा है । इन्होंने नारी शरीर को देखा और बहुत निकट से देखा है । तभी तो कवि की लेखनी से नारी सौन्दर्य का इतना अनूठा चित्रांकन सम्भव हो सका है ।

कालिदास की शकुन्तला ब्रह्मा की सृष्टि में सौन्दर्य की एक अनुपम कृति है । उसके रूप - सौन्दर्य को देखते ही राजा दुष्यंत कहते है कि - ब्रह्मा ने सबसे पहले शाकुन्तला के रूप में मानस कल्पना की होगी । उस समय उसके चित में सौन्दर्य का उफान सा रहा होगा । उसने चित्र को पूर्ण समरूप या समाहित किया होगा । फिर उसने पुराने चौदह रत्नों से भिन्न नये स्त्री रत्न की सृष्टि की होगी , ऐसा प्रतिभात होता है । चूंकि एक ओर मैं उसके मनोहर रूप को देखता है और दूसरी ओर विधाता का अपार सामर्थ । ( 1 )

कालिदास ने नारी - सौन्दर्य को सदैव महिमा मण्डित ही देखा है इसका मुख्य कारण उनकी यही निसर्ग सौन्दर्य दर्शिनी दृष्टि है । भारतीय धर्म साधना में देवी - देवताओं के किशोर रूप का ही ध्यान किया जाता है - " वयं कैषोरकं ध्यायेत ' । चूँकि इसी अवस्था में शरीर और मन में आदया शक्ति विधाता की आदि सिसृक्षा का श्रेष्ठ विलास अपनी चरम सीमा पर आता है । शोभा का अनुप्राणक धर्म यौवन ही माना गया है । इसी अवस्था में अंगों से सौष्ठव उत्पन्न होता है । कालिदास ने भी इसी किशोरावस्था को अंग यष्टि का असंमृत मण्डन , ( अयत्नसिद्ध सहज अलंकरण ) मद का अनासव साधन ( बिना मदिरा के ही मदमस्त बना देने वाला सहज मादक गुण ) और प्रेम देवता का बिना पुष्प का वाण कहा है । ( 2 ) सत्कुल में जन्म , सुन्दर शरीर , अनायास प्राप्त ऐश्वर्य तथा नवयोवन इससे बढ़कर तपस्या के फल की कल्पना नहीं की जा सकती । इसी बात का उल्लेख कालिदास ने कुमार सम्भव में किया है । आदि विधाता के कुल में जन्म , त्रिलोक सौन्दर्य के समान उदय हुआ शरीर , बिना अन्वेषण के प्राप्त हुई समृद्धि का सुख और नवीन वय ( चढ़ती जवानी ) इनसे बढ़कर तुम्ही बताओ , तपस्या का फल और क्या हो सकता है । (3)

कालिदास के काव्य कालिदास ने नवयौवना सम्पन्न नारी की अनुपम शोभा एवं सौन्दर्य का महिमा मण्डित वर्णन कर उसे सहृदय . हृदयगोचर बना दिया है । इसीलिये उभरे हुए वक्षस्थल पर झूमते हुए हार , चाहे वे शरत् कालीन चन्द्रमा की मरीचियों के समान कोमल मृणाल - नाल के बने हों , या मुक्ताजाल ग्रंथित हेमसूत्र से गढ़े हुए से , श्रोणिविम्ब को मण्डित करने वाली मेखला , हंसरूनानुकारी नूपुर , स्तनाषोक , अपांग वलय , और मृणालवलय , उन्हें पसन्द हैं , क्योंकि वे सुवृत्त कलाइयों की शोभा को निखार देते है । लाक्षारस और लहरदार किनारी उन्हें रूचिकर है , ताम्बूल राग , सिन्दूर राग , धम्मिलसार ( जूड़ा ) आदि इसलिये वर्णनीय है कि चतुरस शरीर के उभार को , बाहय सौन्दर्य को और अधिक खिला देते है । प्रेम का देवता इस नवयौवन शाली शरीर में निवास करके इसके बाह्य सौन्दर्याकर्षण मे चार चाँद लगा देता है । काम का प्रादुर्भाव होते ही नेत्रों में मदिरा की ललिमा छा जाती है , चंद्रलता समा जाती है । कुचों में कठोरता आ जाती है । कटि क्षीण हो जाती है । जघन प्रदेश पोन ( मोटा ) हो जाता है , सभी अंगों में एक अनूठा सौन्दर्य समा जाता है । ( 4 )

राजा दुष्यंत को भी योवनगर्विता शकुन्तला के अधर किस - लय के समान रक्तिम आभा वाले , भुजाएँ कोमल विटप सदृश तथा उसका यौवन सौरभरस से पूरिपूर्ण प्रसून सदृश लुभावना प्रतीत होता है । (5) अंग , प्रत्यंगों के सुन्दर गठन व यथोचित सन्निवेष हो तो सौन्दर्य है । श्रीमद रूप गोस्वामी के शब्दों में " अंग प्रत्यंगकानां या सन्निवेषोयथोचितम् । संश्लिष्ट संधिबंध स्यात् सौन्दर्यामितीर्यते । ( 6 )

यह शारीरिक गठन स्त्री तथा पुरुष दोनों में भिन्न - भिन्न प्रकार से सौन्दर्य का प्रतीक माना जाता है यदि सारंग नयन , केकी ग्रीवा , उन्नत मुरोज , क्षीण कटि , हरिणी सी चाल , वीणा सी सुरीली व मधुर आवाज आदि का समन्वित रूप नारी सौन्दर्य का सृजन करता है तो दूसरी और बलिष्ठ भुजा , विपरीत वक्ष , उन्नत भाल प्रदेश , वृषी - स्कन्ध , गरजती हुई ललकार , शौर्य समन्वित तेजादि जो कठोर होने पर भी पुरुष के रूप में एक अपूर्व सौन्दर्य का सृजन करती है । शिशु सौन्दर्य मानवीय सौन्दर्य की नूतनता का प्रतीक है , अतः मानवीय सौन्दर्याकर्षण में यह सर्वाधिक प्रभावशाली होता है । शिशुओं की प्यारी - प्यारी बातें एवं बाल - सुलभ चेष्टाएँ आदि अपने सौन्दर्य में मानव मन को सस्नेह सुध - बुध खोकर निमग्न हो जाने के लिये बाध्य कर देती है । कालिदास के काव्य में मानव के इन तीनों रूपों के बाहय सौन्दर्य का अनूठा चित्रण प्रस्तुत किया गया है ।
मानवीय बाहय सौन्दर्य तो हमारी बाहय इन्द्रियों के माध्यम से हमारे अन्तर्गत में एक गुदगुदी पैदा कर देता है और वही स्थित् सौन्दर्य की सृष्टि में महत्वपूर्ण होता है । मानवीय बाहय सौन्दर्य इतना व्यापक है कि विश्व के सम्पूर्ण कला जगत में वही मुखर हो उठा है ।

कवि मूर्धन्य कालिदास भी मानव रूप के इस बाहय— सौन्दर्य के प्रभाव से अछूते न रह सके । वे इस तथ्य से भली - भाँति परिचित थे कि यौवनावस्था का मादक स्पर्श पाकर ही मानव का बाहय रूप सौन्दर्य अपनी उस चरम सीमा पर पहुंचा देता है , जबकि वह प्रथम दर्शन में ही किसी भी सहृदय को प्रेमातुर बनाकर विकलता की अवस्था पर पहुँचा देता है । पार्वती ने भी अपनी शैशवास्था समाप्त कर धीरे - धीरे आयु के उस भाग में पदार्पण किया , जो देह रूपी लता का स्वाभाविक श्रृंगार है जो मदिरा न होकर भी मन को मतवाला बना देता है , और जो फूल न होता हुआ भी कामदेव का तीखा तीर है । तब उस नवयौवन से उनका शरीर ऐसा खिल उठा , जैसे तूलिका से रंग भर देने पर चित्र खिल उठता है या सूर्य की रश्मि स्पर्श से कमल का फूल खिल उठता है । (7)

" अभिज्ञान शाकुन्तलम् ' की नायिका शकुन्तला की देह यष्टि में भी यौवन का सन्निवेष होने पर उसका रूप सौन्दर्य कुसुम सदृश लुभावनादि बन जाता है । और यौवन रूप लावण्यशलिणी उर्वशी के अनुपम सौन्दर्य को देखकर ही पुरूरवा को तो ब्रह्मा की सृष्टि रचना में ही सन्देह होने लगता है । चूंकि इतना श्रेष्ठ रूप उस वृद्ध तापस ( ब्रह्मा ) की रचना नहीं हो सकता । उसका सृष्टा तो स्वयं चन्द्रमा या श्रृंगार रस के देवता कामदेव ही हो सकते है । ( 8 )

नायिकाओं के शारीरिक सौन्दर्य में कवि को , क्षीण कटि ( पतली कमर ) व उदर पर बनी रेखाएं अधिक आकर्षक कर सकी है । पार्वती जी का नखशिख वर्णन करते हुऐ वे कहते है कि उनकी कमर पतली थी , नव यौवन उभार पर था पेट पर बनी तीन रेखायें ऐसे प्रतीत हो रही थी मानो कामदेव के चढ़ने के लिये नवयौवन ने वहाँ नसेनी लगा दी हो । ( 9 ) शारीरिक सौन्दर्य की सुकुमारता व कोमलता का अनुपम वर्णन पार्वती के चरण - सौन्दर्य में देखा जा सकता है । उनके चरण इतने सुकुमार थे कि पृथ्वी पर धरते ही उनके नरवों से अरूणमाभा फूट पड़ती थी और जब वह चलती थी तो उनके लाल चरणों की कांति के पड़ने से ऐसा प्रतीत होता था मानो स्थान - स्थान पर स्थल कमल खिल उठे हों । उनके लाल होठों पर छिटकी हुई मीठी मुस्कान की धवलिमा ऐसी प्यारी लगती थी जैसे लाल कोपलों में सफेद फूल खिला हो या चमकदार मूंगों के बीच में मोती जड़ा हो । पहले रात होने पर , निवास के लिये सुषमा जब चन्द्रमा में जाती थी , तो वहाँ पर कमल की कोमलता और सौरभादि से वंचित हो जाती थी , और दिन में कमल में आने पर उसे चन्द्रमा के सुखों से हाथ धोने पड़ जाते थे , किन्तु पार्वती के मुख में स्थान पाकर उसे दोनों सुख एक साथ मिल गए ।

सौन्दर्य के कवि कालिदास को सौन्दर्यान्वेषणी दृष्टि विश्व के सभी रूपों में सौन्दर्य खोज ही लेती है । धन्य है सौन्दर्य - सुषमा के धनी कवि तुझे धन्य है ।

आभ्यान्तर सौन्दर्य - सौन्दर्य की झांकियों नित्य सुलभ है । जीवन व्यापार के दैनिक क्षेत्र में सौन्दर्य सुषमा के मोहक चित्र दृष्टिगत होते है । चक्षु अपने लिये रूप का आलम्बन बड़ी शीघ्रता से खोज लेते है । सुन्दर दृश्य पदार्थ या मानव रूप को देखते ही नेत्र उधर तेजी से दौड़ जाते हैं । मन भी वहाँ सूत्र की भाँति खिंचा चला जाता है । परन्तु मन की दशा सुखद होने पर भी वह वहाँ सौन्दर्य भोग में लीन हो सकता है , अन्यथा उसे वहाँ से निराश होकर लौट आना पड़ता है । मानव की यही जन्मजात सौन्दर्य भावना भोले शिशु की सहजानुभूति , किशोर की स्वपनिल कल्पना बन युवक के मैंसल प्रदेश में रमण करती हुई , वृद्ध के चिन्तन का विषय बन जाती है ।

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने भी सौन्दर्य का सम्बन्ध अन्तः करण से ही स्वीकार किया है - सौन्दर्य बाहर की कोई वस्तु नहीं , -मन के भीतर की वस्तु है । सौन्दर्य की पूजा हेतु प्रत्येक मानव के पास अपना एक ' मन मंदिर है । कौन किस प्रकार के सौन्दर्य देवता को , किसी निश्चित समय में स्थान देगा , इसका कोई पूर्वानुमान नहीं । इसीलिए मानव को केवल , प्राणों से प्यारी अपनी प्रियतमा ही सुन्दर नहीं लगती प्रत्युत वह सौन्दर्य का दर्शन पल्लव गुम्फित पुष्पहास में , पक्षियों के पक्षजाल में , सिन्दूराभ सान्ध्य दिगंचल के हिरण्य मेखला मण्डित मेघ - खण्ड तुषारावृत्त में तुंग गिरि - शिखर में , चंद्र किरण से झलझलाते निर्झर और न जाने कितनी वस्तुओं में वह सौन्दर्य की झलक पाता है । ( 10 ) क्योंकि ये वस्तुएँ उनके मन में सुखद अनुभूति उत्पन्न करती है । टालस्टाय ने अपनी पुस्तक ' "कला क्या है" में सौन्दर्य का विश्लेषण करते हुये लिखा है कि भावना मन में सौन्दर्य चित्रों के कलेवर को सजाती है , मनुष्य के मानसिक जगत की इस मनोहारिणी भावना के स्पर्श से सौन्दर्य का सृजन हो जाता है , रूप की सृष्टि हो जाती है । भावना का व्यक्तिगत रूप में आविर्भाव ही सच्चा वास्तविक सौन्दर्य है ।

परन्तु अंतःसौन्दर्यशील दया , नम्रता स्नेह , वात्सल्य , क्षमा , औदार्य आदि की अमित सृष्टि में समान सौन्दर्य दृष्टि में देखा जाता है , यही कारण कि अंतः सौन्दर्य अपेक्षाकृत अधिक महप्वपूर्ण होता है ।

बाहय सौन्दर्य वासनात्मक इच्छाओं की परिपूर्ति करता है । अंतः सौन्दर्य की भावना उदात्त सौन्दर्य की परिपुष्टि करती है । उदात्त भावनाओं से समन्वित प्राणी किसी रमणीय के मसृण कपोलों की लालिमा एवं उन्नत उरोजों पर रीझने की अपेक्षा नारी के शील आदि पर अधिक रीझेगा ।

कवि कालिदास भी अंतस्तल के सौन्दर्य को ही सर्वोपरि मानते हैं । उनकी सुदृढ़ मान्यता है कि शारीरिक सौन्दर्य या बाहय रूपाकर्षण के पीछे हृदय भी सुन्दर होना आवश्यक है या यों कहें कि आंतरिक गुणों के अभाव में बाहय रूप मात्र को सौन्दर्य ही नहीं कहा जा सकता । क्योंकि रूप का सम्बंध कभी पापवृत्ति से नहीं होता । इसलिये उनके सभी श्रेष्ठ पात्र रूपवान होने हुए भी उनके चरित्र का विकास अरण्य व तपोवन के वातावरण में ही सम्भव हो सका है और तभी उनका अन्तःरूप अग्नि में तपे कंचन के समान निखर सका है । प्रेम का परिष्कार आवश्यक है , पार्वती , सीता , शकुन्तला सुदक्षिणा जैसी रूपवान नारियों का प्रेम रूपी कंचन भी विरह की अथवा तप की अग्नि में तपकर ही खरा निकला है । पार्वती अपूर्व सुन्दरी थी । उनके रूप सौन्दर्य को देखकर ऐसा प्रतीत होता था मानो विधाता ने विश्व के समग्र सौन्दर्य को एकत्र कर एक स्थान पर देखने की लालसा से ही सम्पूर्ण सौन्दर्य सामग्री को संजोकर पार्वती का निर्माण किया । पार्वती का यह निसर्ग ललित रूप है । रति को भी लजाने वाले पार्वती के ललित रूप को देखकर कामदेव को भी एक सहारा मिला , कुछ आशा बँधी । उसने पार्वती के रूप का सहारा लेकर अपना फूलों का बाण सँभाला । ध्यानावस्थित शिव का हृदय क्षण भर के लिये चंचल हो उठा , किन्तु यह स्थिति अधिक समय तक न रह सकी । पार्वती का सारा रूप मदन का सारा पराक्रम और वसन्त का समूचा आयोजन तपस्वी के एक भ्रूक्षेप में डहगया । देवता लोग आसमान से शिव के क्रोध संवरण हेतु कातर प्रार्थना करने लगे ' हे प्रभु क्रोध को रोको ' परन्तु जब तक उनकी वाणी वायुमण्डल का भेदन भी न कर पायी उसके पूर्व ही समाधिनिष्ठ शिव की नयनाग्नि से काम का देवता भास्मावशेष बना दिया गया । पार्वती ने अपने निसर्ग ललित सौन्दर्य को व्यर्थ समझा और उस रूप की निन्दा करती हुई उसे तपस्या की अग्नि में तपाकर और भी अधिक उज्ज्वल तथा अमोघ बनाने में लग गई । क्योंकि वैसा अलौकिक पति एवं उस प्रकार दिव्यप्रेम तपस्या के बिना भला कैसे मिल सकता है ।

रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने लिखा है कि - ' तपोवन में सिंह - शिशु के साथ नर - शिशु का जैसा क्रीडाकौतुक है , वैसे ही उनके काव्य - तपोवन मे योगी और ग्रही के भाव समन्वित है । काम की कारसाजी ने उस सम्बन्ध को विछिन्न करने की चेष्टा की थी । इसी से कवि ने उस पर बर्जनिपात करके तपस्या द्वारा कल्याणमय गृह के साथ अनासक्त तपोवन का पवित्र सम्बन्ध फिर से स्थापित किया है । कवि ने आश्रम की नींव पर गृहस्थ धर्म का मंदिर प्रस्तुत किया है और कामदेव के हठात आक्रमण से नर - नारी के पवित्र सम्बन्ध का उद्धार करके उसे तपः पूत और निर्मल योगासन के ऊपर प्रतिष्ठित किया है । भारतीय शास्त्रों में स्त्री - पुरुष का सयंत सम्बन्ध कठिन अनुशासन के रूप में आदिष्ट है और वहीं कालिदास के काव्यों में सौन्दर्य के उपदानों से सुसंगठित हुआ है । वह सौन्दर्य भी , कल्याण से उद्भासित है , गम्भीरता की ओर से नितांत व एकाकी और व्याप्ति की ओर से विश्व का आश्रय स्थल । वह त्याग से परिपूर्ण , दुःख से चरितार्थ और धर्म से सुख निश्चित है । ( 11 )

वास्तव में दुःख में पला , त्याग और धर्म से सम्बन्धित आदर्श प्रेम ही कवि का अंतः सौन्दर्य है । कमल के समान कोमल पार्वती की प्रिय - प्राप्ति हेतु जेठ की दुपहरी में पंचाग्नितापन सा कठिन तप करते देख भला किसे आश्चर्य न होगा । उनकी कठोर तपस्या को देखकर बरसात की अंधेरी रातें , बिजलीरूपी अपनी आँखों से दयार्द्र हो आँसू बहाने लगती थी । तपस्या से तुष्ट शिव के द्वारा दर्शन दिये जाने पर पार्वती का अन्तः सौन्दर्य लज्जा परिवेष्टित हो गया । प्रिय का स्पर्श पाते ही उनके शरीर में कम्प उत्पन्न हो गया , वे पसीने से भीग गई और बढ़ते हुए उनके कदम जहाँ के तहाँ रूक गए । शैलाधिराज तनिया न आगे बढ़ सकी और न पीछे हट सकी तपःपूत सौन्दर्य ने योग पर विजय प्राप्त की और वह पार्वती उस भावैकरस की स्थिति को प्राप्त हो गई , जहाँ किसी के कहने सुनने की आवश्यकता ही नहीं । ( 12 ) शिव भी उनके अन्तः सौन्दर्य पर मुग्ध हुए बिना न रह सके और तादात्म भाव की स्थिति पर पहुँच कर उन्हें कहना पड़ा कि मैं तुम्हारा तपस्या द्वारा खरीदा गया दास हूँ । ( 13 ) आभ्यान्तर सौन्दर्य की चरम परिणति इससे अधिक बढ़कर और क्या हो सकती है ।

कविकुल गुरू कालिदास नारी - सौन्दर्य की सफलता प्रिय को प्रसन्न करने में ही मानते है । सखियों द्वारा जब पार्वती का श्रृंगार किया गया तब वह दर्पण में अपने ही सौन्दर्य को देखकर प्रियतम शिव के पास जाने की शीघ्रता करने लगी । प्रियतम को आकृष्ट करने वाला सौन्दर्य बाहृय , वासना पर आधारित केवल शारीरिक सौन्दर्य कदापि नहीं हो सकता । सहजगुणों से सम्पन्न आभ्यान्तर सौन्दर्य में ही वह शक्ति व क्षमता विद्यमान है , जो चुम्बक की भाँति प्रिय को अपनी ओर आकृष्ट करती है ।

मानव के अंतस में पुष्पित और पल्लवित होने वाला सहज सौन्दर्य प्रथम दर्शन में ही आकर्षण की वस्तु है । राजा दुष्यंत , निसर्ग कन्या शकुन्तला के अनुपम रूप लावण्य पर मुग्ध हो जाते है और आश्चर्य प्रकट करते हुए कहते है —

मानुषियों में रूप यह सम्भव है किस भांति ?
नहीं प्रकटती भूमि से प्रभा तरल यह करता ।। ( 14 )

ऐसे दैवी सौन्दर्य से युक्त प्रिया का मिलन सुगमता पूर्वक सम्भव नहीं है । उसकी उपलब्धि तो ' सौभाग्य ' से ही हो सकती है क्योंकि सौभग्यवान वही पुरुष है जिसे प्रिया चाहे । इसी सौभाग्य द्वारा दुष्यंत शकुन्तला के उस सहजरूप को प्राप्त कर लेना चाहता है जो बिना ( सूंघे हुये पुष्प सदृश , बिना छेदन किये हुये रत्न सदृश और बिना चखे हुये मधु के समान तथा बिना भोगे गये पुष्प के समान परम पवित्र है । इस पवित्रता की सृष्टि मन से ही सम्भव है , निश्चित ही शकुन्तला के सहज पवित्र सौन्दर्य की रचना भी विधाता की मानसिक कल्पना की ही देन है

कालिदास की उत्तम कोटि की सभी नायिकाओं का सौन्दर्य भौतिक धरातल से ऊपर की वस्तु है । मालविका को भी ' अनिंद्य सुन्दरी - कहकर उसके स्वाभविक अन्तः सौन्दर्य को ही स्पष्ट किया गया है । कवि की उर्वशी एक प्राकृत सुरभ्य कामिनी है । इसके हृदय में भावों की प्राकृत क्रीड़ा स्थली है । रवीन्द्रनाथ टैगोर ने इसके चिरनवीन सौन्दर्य से प्रभावित होकर लिखा है - '

हे पूर्ण विकसित सौन्दर्य वाली उर्वशी , युग - युग से तू संसार की प्रेयसी रही है , मुनियों ने समाधि भंग कर तपश्चर्या के फलस्वरूप तेरे चरणों का चुम्बन किया । तेरे कटाक्षों से घायल होकर त्रैलोक्य में योवनोद्रेक का विक्षोभ उत्पन्न हो गया , अन्ध समीर तेरे मादक सौरभ को चारों दिशाओं में फैलाता है , मधुपान से मतवाले भ्रमर के समान मनोमुग्ध कवि लोभी हृदय के साथ आनन्दातिरेक में अपनी स्वरलहरियाँ उत्क्षिप्त करता है ।

कवि की दृष्टि में सौन्दर्य वही है जो सहज चमकता है । इसीलिये वे सदैव ही सहज निरलंकृत सौन्दर्य के उपासक रहे है । ऐसा सहज सौन्दर्य अनवंध्य रूपेण सभी स्थितियों में शोभा का पोषण करता है- अहो सर्वास्ववस्थास्वधता रूपस्य ' अहो सर्वास्वस्थासु चारूता शोभापुष्पति । शकुन्तला की अक्लिष्ट कांति के सामने राजहंसो में पलने वाली रम्यांगनाओं का सौन्दर्य भी हतप्रभ हो जाता है ।

दूरीकृताः खलु गुणेरूदयानलता वनलताभिः

ऐसे अनुपम सौन्दर्य को कभी भी मण्डन की आवश्यकता नहीं होती । वास्तव में कवि द्वारा वर्णित महनीयता , श्रेष्ठता एवं कमनीयता के एक निश्चित धरातल और महनीयता की एक नियत छाप की आदयोपान्त रक्षा करता है । सब प्रकार का नुकीलापन एवं खुरदरापन सुकुमारता के साथ चिक्कन और मसृण बना दिया गया है ।

सात्विक अलंकार ( सत्वज गुण )

भारतीय सौन्दर्य भावना ने आभूषणों को आवश्यक नहीं माना है । सौन्दर्य हेतु सहजगुणों को ही महत्व प्रदान किया गया है । रूप , वर्ण , प्रभा , राग , अभिजात्य , विलासिता , लावण्य लक्षण , छाया और सौभाग्य को निखार देने में जो समर्थ हो वही वास्तव मे अलंकार है । भरत के नाट्यशास्त्र के अनुसार सुन्दरियों के भावरस प्रिय अलंकरण में तीन अंगज - ( हाव , भाव , हेला ) सात अयत्नज ( ये ईश्वर प्रदत्त होते है ) ( शोभा , कांति , दीप्ति , माधुर्य धैर्य , प्रागलभ्य , औदार्य ) और दस स्वभाविक ( लीला , विलास , विच्छिति विभ्रम , किलकिंचित , कुटमित , मभेदायित , विम्वोक , ललित , विहृत ) अलंकारों की चर्चा की गई है । कालिदास की सौन्दर्यमयी दृष्टि भी इन्ही सहज अलंकारों ही ओर रही है । बाहृय आभरणों को उन्होंने सौन्दर्य हेतु कभी आवश्यक नहीं माना । उनका कहना है कि आभूषण सौन्दर्य को जितना अलंकृत करते है , उतना ही वे स्वतः सौन्दर्य के संसर्ग से अलंकृत भी होते है अन्योन्यशोभाजननावभूव साधारणो भूषणभूष्यभावः ' ( 15) उर्वशी के रूप वर्णन में भी कवि का यही कहना है कि उसका शरीर आभरणों का भी आभरण है , श्रृंगार सामग्रियों का भी श्रृंगार है और उपमा की वस्तुओं को भी उससे उपमा दी जा सकती है ( 16 )

सौन्दर्यविधायक तत्वों में कालिदास कांति , दीप्ति एवं माधुर्य के अतिरिक्त लावण्य ' से भी प्रभावित है । शकुन्तला के सौन्दर्य को अक्लिष्ट कांति कहकर निखारा है (मोतियों में छाया की आंतरिक तरलता के समान ही अंगों में चमकने वाली वस्तु ही लावण्य कही गई है । यह लावण्य ही क्षणे - क्षणे नव आभा ग्रहण करता रहता है जिसकी पकड़ में बड़े से बड़े कलाकार भी असमर्थ सिद्ध होते है । यह लावण्य रेखाओं में बन्दी बनाकर चित्र में नहीं उतारा जा सकता है ।

पार्वती जी के नवशिख वर्णन में उनके हावभावादि का विश्लेषण करते हुये कवि कहता है कि ' जब पार्वती चलती थी , तो नखप्रभा ऐसी जान पड़ती थी मानो उनके कोमल चरण रक्तिमा का उद्गिरण करते हों और जब वे पैरों को उठा - उठाकर रखती थी , तब ऐसा जान पड़ता था मानो वे पग - पग पर स्थल - कमल उगाती जा रही हो । यौवन के भार से झुकी हुई जब वे हाव भाव से चलती थी तब ऐसा जान पड़ता था जैसे उनके बिछुओं से निकलने वाली मधुर ध्वनि को सीखने के लिये लुब्ध राजहंसों ने अपनी हावभरी चाल उन्हें पहले ही बदले में सिखा दी हो । उनके सम्पूर्ण शरीर को सुन्दर बनाने के लिये विधाता ने सुन्दरता की जितनी सामग्रियाँ एकत्र की थी , वे सब तो उनकी जांधों के निर्माण में ही समाप्त हो गई । अतएव शेष अंग को बनाने के लिये सौन्दर्य के और उपादान संचित करने में ब्रह्मा को अत्यधिक कष्ट उठाना पड़ा । '

षषांगनिर्माण विधौ विधातुर्लावण्य उत्पादय वासयत्नः ।

उन जांधों की तुलना दो वस्तुओं से की जा सकती है -एक हाथी की सूड और दूसरे केले के खम्बे से । लेकिन हाथी की सूड कडा होता है और कदली का वृक्ष शीतल होता है । अतः पार्वती की जाँधों के लिये कोई उपमान नहीं मिल सका । उन अत्यन्त सुन्दर अंगों वाली उमा के नितम्ब कितने सुन्दर रहे होगें , इसका अनुमान इसी से किया जा सकता है कि विवाह के बाद स्वयं शिवजी ने उन्हें अपनी गोद में रखा , जहाँ अन्य रमणियों की पहुँच कल्पनातीत है ।

पार्वती के शरीर के मध्यभाग का नितान्त ललित चित्रण कवि के द्वारा किया गया है ।- ( 17 ) नीवी को लाँधकर गहरी नाभि तक पहुँची हुई जो रोमों को नई उगी पतली रेखा बन गई थी उसे देखकर ऐसा जान पड़ता था मानो नीवी के ऊपर बँधी हुई उनकी मेखला के बीचों बीच जड़ा हुआ नीलम चमक उठा हो । उस नवयौवना के पेट पर जो तीन सिकुड़न की रेखाएँ पड़ी हुई थी उन्हें देख कर ऐसा आभास होता था मानो कामदेव को स्तनादि अंगों तक ऊपर चढ़ा ले जाने के लिए नवयौवन ने सुन्दर सोपान बना लिये हों ।

उत्पलाक्षी उमा के पाण्डु तथा प्रवृद्ध स्तन परस्पर इस प्रकार सट गये थे कि उनके बीच मे कमल का एक सूत भी समाया नहीं जा सकता था ' मृणालसूत्रान्तरमध्यलभ्यम् ' - भुजाएँ शिरीष के पुष्प से भी कोमल थी । गले में पड़ा हुआ व स्तनों पर लटका हुआ मौक्तिक हार उनके कंठ की शोभा बढ़ा रहा था और कण्ठ स्वयं भी उसकी शोभा बढ़ा रहा था । पार्वती का मुख तों चंद्र और कमल दोनों की शोभा को एक साथ धारण करता था । जब तक वे उत्पन्न नहीं हुई थी , तब तक चंचल शोभा वाली लक्ष्मी बड़ी दुविधा में पड़ी रहती थी , क्योंकि रात को जब वे चन्द्रमा में निवास करती थी , तब उन्हें कमल का आनन्द नहीं मिल पाता था और जब वे दिन में कमल में आ बसती थी . तब उन्हें चन्द्रमा का आनन्द नहीं मिल पाता था , लेकिन जब वे चन्द्र और कमल दोनों के गुणों से युक्त उमा मुख में आ बसी तब से उन्हें सुख दोनों का एक साथ मिलने लगा है ।- ( 1 ) पार्वती के रक्तिम ओठों पर फैली हुई मुस्कान की दीप्ति ऐसी सुन्दर लगती थी जैसे लाल कोपल में कोई श्वेत पुष्प रखा हो या फटे मूंगे की बीच में मोती जड़ा हो । उनकी मधुर वाणी अमृत की धारा के समान मीठी थी और कोयल की काकली को भी अवमानित करने वाली थी । उनकी बड़ी - बड़ी आँखों की चितवन आँधी से हिलते हुये नीले कमलों के समान चंचल थी । उसे देखकर यह पता नहीं लगता था कि यह कला उन्होंने हरिणियों से सीखा अथवा हरिणियों ने ही उनसे सीखा था । उनकी लम्बी तथा मनोहर भौंहे ऐसी लगती थी जैसे किसी ने तूलिका द्वारा उन्हें बना दिया हो । उनके सौन्दर्य को देखकर कामदेव ने अपने धनुष के सौन्दर्य पर गर्व करना छोड़ दिया था । उमा के सम्पूर्ण सौन्दर्य को देखकर ऐसा जान पड़ता था कि संसार के रचयिता ब्रह्माजी ने विश्व का समस्त सौन्दर्य एक स्थल में पुन्जीभूत देखने की इच्छा से , उपमा योग्य सभी द्रव्यों का प्रयत्नपूर्वक संचय कर तथा उन्हें भिन्न - भिन्न अंगों पर सजाकर , सुन्दरता की मूर्ति पार्वती का निर्माण किया था । (18)

लीला चतुरा पार्वती का रूप इतना अधिक सुन्दर है कि उनका न तो निरादर कर सकता है और न क्रोध ही कर सकता है ' अलभ्य शोकाभिभवेदयमाकृतिविमाननां सुभ्रू कुतः पितुर्गृह'- कवि ने यहाँ सौन्दर्य का धर्म बताया है नेत्र प्रसादन तथा चित्हरण । अर्थात सौन्दर्य नयनों को चमत्कृतकर दृष्टा के मनोराग पर आधिपत्य जमा लेता है और कठोर से कठोर व्यक्ति को भी अपना उपासक बना लेता है ।

सौन्दर्य अनुपमा पार्वती ने दर्पण में अपना मुख देखा , जब वे स्तब्ध रह गई और उस सौन्दर्य की सार्थकता के लिये महादेवजी से मिलने के निमित्त मचल उठी , क्योंकि स्त्रियों का श्रृंगार तभी सफल होता है जब वह प्रिय के नयनों का प्रसाद बन सके । - ( 19 ) रूप की माया से स्वयं रूप - स्वामिनी चकित थकित हो जाय , इससे बढ़कर रूप का प्रभाव और क्या हो सकता है ? रूपशालिनी उस रूप का औचित्य सिद्ध करने के लिये प्रियसनन्निकर्ष की उत्कण्ठा से उद्वेलित हो सके , इससे बढ़कर स्त्रीवेश की सफलता की कसौटी क्या हो सकती है ?

विक्रमोर्वशीय में उर्वशी की सुन्दरता को देखकर चित्रलेखा कहती है - अपि नामाहमेव पुरूरवा भवेयमिति अर्थात मैं चाहती हूँ कि मैं स्वयं पुरूरवा होती । नारी की नारी के प्रति यह प्रतिक्रिया निश्चित ही बड़ी विचित्र एवं लुभावनी है । नृत्य एवं दोहर के संदर्भ में मालविका का चित्रण भी सहृदयों के हृदय - हरण में अनुपम है । यहप्रिया के सौन्दर्य चित्र भी अत्यंत अभिराम है ।

कालिदास के अनुसार यह सम्पूर्ण सौन्दर्य की चरम परिणति है। शांति में ही सौन्दर्य की सम्पूर्णता है विरोध में नही । पार्वती के शांत सौन्दर्य का चित्रण कवि ने इस प्रकार किया है- मंगलस्नान से निर्मल शरीर होकर वर्षा के जलाभिषेक के अनन्तर प्रपुल्ल कशान्कुसुम धारण करने वाली पृथ्वी के समान शोभा देने वाली पार्वती ने पति से मिलने योग्य वसन धारण किया । ' पार्वती के इस शांत स्थिर - सौन्दर्य की प्रशंसा करते हुये श्री रवीन्द्रनाथ टैगोर कहते है- " इस मंगल कांति वाली निर्मल शोभा में , कैसी श्री , कैसी शांति और कैसी सम्पूर्णता है । इसमें सारी चेष्टाओं का अंत और समग्र वेश - भूषा का अंतिम परिणाम है । इसके बीच न तो इन्द्रसभा का प्रयास है , न कामदेव का कोई मोह है और न बसंत की कोई अनुकूलता । इस समय अपनी ही निर्मलता और मंगलता से आप ही अचंचल और आप ही सम्पूर्ण है ' बीच में ही न ययौ न तस्थौ की स्थिति को प्राप्त होने के परिणामस्वरूप प्रवाह प्रशांति को धारण करने वाली जिस उज्ज्वल स्थिर - शुभमंगल - मूर्ति के दर्शन होते है वह वास्तव में अनुपम है । कालिदास ने भीअपने काव्यरस प्रवाह को उसी स्वर्गमर्त्य व्यापिनी सर्वांग सम्पन्न शांति में मिलाकर उसका परिणाम महान बना दिया है

कालिदास की कोई भी नायिका ऐसी नहीं जिसके कि मुख कमल का लावण्य एवं भंगिमायें हृदय के भावों को वाणी प्रदान करने में असमर्थ हो । प्रेम के विशाल साम्राज्य में प्रथम प्रयास भावों का ही होता है , जिसे विभिन्न अंगविन्यास द्वारा ललित रूप प्रदान किया जाता है । शकुन्तला का प्रेम वाणी द्वारा प्रकट किये बिना ही उसकी मुखाकृति की विविध भंगिमाओं द्वारा प्रिय संवेदय बन गया था । सखियों के बीच वार्तालाप के समय यद्यपि वह राजा की बातों का प्रत्युत्तर नहीं दे रही थी राजा की और दृष्टि न होने पर भी वह अन्यत्र भी नहीं देख रही थी । इस प्रकार वह अपने कामभाव को न तो छिपा रही थी और न प्रकट ही कर पा रही थी । कवि ने विभिन्न स्थलों पर नायिकाओं के विविध हावभावों का सुकुमार चित्रण प्रस्तुत किया है ।

पार्वती भी शय्या पर शिव के साथ शयन करती हुई परांगमुखी होने पर भी प्रिय को आनन्दप्रदान करती थी । अलका की रमणियाँ प्रिय द्वारा नीवी बंध खोले जाने पर लज्जा से समिन्वत होकर मुट्ठी में चूर्ण भरकर शयनागार के मणि दीपकों को बुझाने का प्रयत्न करती है पर उनका यह प्रयास निष्फल ही होता है ।- ( 20 )

कालिदास की , नायिका - सौन्दर्य के विविध हावभावादि वर्णन मे एक विशेष भंगिमा जो सर्वाधिक प्रिय रही है वह है नायिका द्वारा किंचित रूकना और फिर किसी बहाने से एक झलक प्रिय के सौन्दर्य को निहारना । उनकी सभी नायिकायें इस भाव - प्रदर्शन की कला में सिद्धहस्त है । शकुंतला दुष्यंत से विदा लेते समय कुछ , आँचल के उलझ जाने का बहाना करके पुनः लौटकर प्रिय का दर्शन करती है ।

वास्तव में नित नूतन सौन्दर्य प्रेमी कवि कालिदास ने अपने काव्य में रसाद्र सात्विक अलंकार हाव भावादि के समन्वय से नायिका - सौन्दर्य में वृद्धि कर जिस अनूठे ढंग से रसोद्रेक को सहृदय रंजक बनाया है वह उनकी अपनी विशेषता है कही उन्होंने मन में उत्पन्न होने वाले भावरूप प्रेम का बीजारोपण किया है तो कहीं किसी सर्वांगसुन्दरी के रस भरे नयन , मद भरी चाल , धनुष सी तिरछी भौहों के मधुर देह विकार द्वारा उस प्रेमांकुर रूप भाव का प्रकटीकरण किया है तो कभी प्रेम की चरमावस्था पर पहुँचा कर प्रिय - मिलन की छटपटाहट या व्याकुलता को व्यक्त किया है । उन्होंने रमणियों को ' परिचित भूलता विभ्रमाण- कहकर सात्विक गुणों ( हावभावादि ) से सम्पन्न बताया है ।


" प्रसाधन "

मानव स्वभाव प्रारम्भ से ही अलंकार प्रिय रहा है । शारीरिक सौन्दर्य वृद्धि हेतु , उसे सजाने सँवारने हेतु वह निरन्तर विभिन्न प्रसाधनों का प्रयोग करता रहा है । ये प्रसाधन शारीरिक - सौन्दर्य सृजन के सहायक होते है । समय की परिस्थितियों व मानव मन की रूच्यानुसार इन प्रसाधनों में परिवर्तन होता रहता है । महाकवि कालिदास के समय में भी स्त्री - पुरुषों द्वारा विभिन्न प्रसाधनों का प्रयोग किया जाता था

आभूषण

कालिदास के ग्रन्थावलोकन से यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि तत्कालीन समाज के व्यक्ति विभिन्न आभूषणों को धारण करने के शौकीन थे । कवि ने इन आभूषणों के लिये आभरण - ( 1 ) , भूषण ( 2 ) , मण्डन- ( 1) . अलंकरणम्- ( 2 ) आदि शब्दों का प्रयोग किया है । (21) तथा अनगिनत प्रकार के आभूषणों की चर्चा की है । पुष्पाभरण ( 22 ) तो कवि को प्रिय रहे ही है । उनकी अधिकांश नायिकायें पुष्प के आभरण ही धारण किये हुये दिखाई देती है । परन्तु इसके साथ ही मणिजटित आभूषण स्वर्णाभूषण एवं मुक्ताभूषणों को भी धारण किया जाता था । मणियों में भी इन्द्रनील , महानील , मूंगा , वैदूर्य , मरकत , चन्द्रकांत , सूर्यकांत , हीरा आदि विभिन्न मणियों का प्रयोग किया जाता था ।

स्त्री एवं पुरुषों के आभूषणों में बहुत कुछ समानता थी । हार , अगूंठी , कुण्डल , अंगद , वलय आदि आभूषण स्त्री - पुरुष दोनों के लिये प्रचलित थे । कमर के आभूषण मेघला , काँची तथा पैरों में नूपुर केवल स्त्रियाँ ही धारण करती थी । वे पुष्पों के आभूषणों से भी अपने शरीर को अलंकृत करती थी । पुरुषों में विशेषकर राजा द्वारा ही किरीट या मुकुट को आभूषण रूप में धारण किया जाता था । विभिन्न अंगों में पहने जाने वाले आभूषणों के स्पष्ट प्रमाण कालिदास के काव्यों में उपलब्ध है ।

सिर के आभूषण - सिर के आभूषण के रूप में मुकुट , किरीट , शिखामणि चूडामणि , मौलि आदि के नाम उल्लेखनीय है । किरीट बड़े सम्राट धारण करते थे । मुकुट का स्थान शायद उससे कुछ निम्न था । शिखामणि के सामन्तों द्वारा धारण किया जाता था । चूड़ामणि के बीच में एक बड़ी मणिका होना अत्यंत आवश्यक था । शिवाजी के वैवाहिक वेशधारण करने पर चन्द्रमा उनका चूडामणि बन गया था । ( 23 ) शिखामणि पगड़ी में लगाने की मणिजटित कलंगी के समान था । मोलि किरीट से नीचे लगता था । रघु ने जिन राजाओं को पराजित किया था , उनके सिर के आभूषण का नाम मौलि बताया गया है । एक स्थान पर शिवाजी के सिराभूषण का नाम भी मौलि है । राम ने भी वनवास जाते समय , मौलिमणि को छोड़कर जटाजूट धारण किया था । अतः मौलि राजा होने से पूर्व भी धारण किया जा सकता था ।

कर्णभूषण - स्त्रियों के समान ही पुरुष भी कानों में आभूषण धारण करते थे । पुरुषों के कर्णाभरणों के लिये कुण्डल ( 24 ) एवं कर्णभूषण- शब्दों का प्रयोग हुआ है । स्त्रियाँ कर्णपूर कहा जाता होगा । कुण्डल स्वर्णमण्डित तथा रत्नजड़ित भी होते थे । इसे स्त्री पुरुष दोनों ही धारण कर सकते थे । यह गोल छल्ले के समान होते थे । कनक - कमल स्वर्ण निर्मित कमल की आकृति का आभूषण होता था । उत्तरमेध के ।। में कनक कमल के गिर जाने का प्रसंग आया है । अतः हो सकता है कि इसमें पेंच न रहकर काँटा होता होगा , जिसके कि गिर जाने का डर रहता था । स्त्रियाँ पुष्पों के अवतंस भी कान में धारण किया करती थीं । यह झुमके की तरह के होते होगें ।

कण्ठाभूषण - कण्ठाभूषण के रूप में स्त्री - पुरुष दोनों ही हार धारण करते थे । कवि ने हार से तात्पर्य मुक्ताहार ही ग्रहण किया है । रघुवंश में कुश की रानियों का हार जल - क्रीडा करते समय तथा उत्तरमेघ में पर्यक पर यक्षिणी के हार टूटने की कल्पना से प्रतीत होता है ये हार मोतियों के ही रहे होगें , जो आसानी से टूट सकते है । नायिकाओं के हारों के स्तनमण्डल से टकराने की बात भी , कवि ने अनेक स्थलों पर उल्लेखित की है । मुक्तावली - ( 1 ) , हारयष्टि - ( 2 ) , लम्बहार – ( 3 ) , निर्पोत हार - ( 4 ) , मुक्ताजाल - ( 5 ) आदि अनेक हार के प्रकारों का भी उल्लेख है । (25)

हस्ताभूषण - स्त्रियों के समान पुरुषों द्वारा भी हाथों में आभूषण धारण किये जाते थे । केवल अन्तर इतना था कि पुरुषों के आभूषण सादे होते थे परन्तु स्त्रियों के आभूषण मणि , धुर्धेरू आदि से युक्त होते थे । कालिदास के काव्य में अंगद , वलय , केयूर , कटक और अगूंठी ये पांच प्रकार के कराभूषणों का उल्लेख प्राप्त है । (26) अंगद ( 1 ) और केयूर - ( 2 ) भुजबंध के रूप में प्रयोग किये जाते थे । वलय जो पहुँची पर पहना जाता था । पुरुष केवल बायें हाथ में वलय धारण करते थे । - ( 3 ) कटक भी कड़े की भाँति एक आभूषण है । अंगुली में पहना जाने वाला आभूषण अँगूठी कहा जाता था । यह रत्न जटित , नामांकित तथा सर्प आदि के चित्रों से अंकित भी होती थी । दुष्यंत ने शकुन्तला को रत्नजटित तथा नामांकित अँगूठी ही दी थी । धारिणी की अंगूठी सर्पमुद्रित थी ।

कटि - आभूषण - स्त्रियों के कटि - आभूषण के रूप में मेखला का सर्वाधिक प्रयोग होता था यह स्वर्णनिर्मित ( हेम मेखला ) अथवा रत्न जटित ( मणि मेखला) होती थी । रषना का भी प्रयोग कटि - आभूषण - के रूप में था । यह धुर्धरूवाली होती थी क्योंकि इसमें बजने का गुण बताया गया है । ( क्वणितरषना ) । कांची का प्रयोग भी किया जाता था । इसको भी शब्दमयी बनाने हेतु धुर्धरू का प्रयोग किया जाता था । क्वणित कनक कांची का प्रसंग दिया गया है

चरणाभूषण - रमणियाँ पैरों में नूपुर धारण करती थी । नूपुर का अर्थ पायल से था , जिसे कन्यायें भी धारण कर सकती थी । ध्वनि इनका विशेष गुण है । मणिनूपुर तथा भास्वत कलनूपुर आदि शब्दों का प्रयोग कवि द्वारा किया गया है

पुष्पाभरण — कालिदास की नायिकायें विभिन्न ऋतुओं के अनुसार विविध प्रकार के फूलों से भी श्रृंगार किया करती थी ।

आभरण — मंजूषा — समस्त आभूषणों को रखने के लिये जिस पिटारी का उपयोग होता था , वह आभरण मंजूषा कहलाती थी ।

" वस्त्र "

किसी भी देश की सम्पन्नता का अंकन तत्कालीन समाज के वस्त्रों द्वारा किया जाता है । जिस प्रकार आज के युग में भारत की वेश - भूषा विश्व को प्रभावित कर रही है वैसे ही कालिदास - कालीन वस्त्र - सौन्दर्य भी अन्य देशों मे सम्मानित थे । उस समय वस्त्रों पर बेल बूटों से सजावट करने की प्रथा अधिक थी । पारदर्शी कपड़ों की भी प्रथा थी । इन पर छपाई आदि की कला इसी युग की महान देन है ।

कालिदास के ग्रंथों में आये वस्त्रों के नामों से यह पता नहीं लगता कि उस समय सिले वस्त्र पहने जाते थे या नहीं । दुकूल , उत्तरीय , अंशुक , उष्णीष , स्तनांशुक , स्तनपट्ट आदि नामों से यही व्यक्त होता है कि सिले हुये कपडे का चलन नही था । एक वस्त्र कमर से निम्न भाग को ढकने के लिये और दूसरा ऊपर के भाग के लिये प्रयोग होता था ये क्रमशः परिधान तथा उत्तरीय कहलाते थे । कूपसिंक - ( 1 ) तथा उर्ण - ( 2 ) शब्दों से ऐसा प्रतीत होता है कि शीतकाल में गर्म कपड़े भी पहने या ओढ़े जाते थे ।

सर्वांग सौष्ठव का प्रदर्शन ही तत्कालीन वेश - भूषा का लक्ष्य प्रतीत होता है । मालविकाग्निमित्र में परिव्राजिका का कथन सर्वागंसौष्ठवत्मिव्यक्तये विगत नेपथ्योः पात्रयों प्रवेषोस्तु ' - ( 3 ) इस बात का प्रमाण है । विभिन्न ऋतुओं में विभिन्न प्रकार की पोशाकें पहनी जाती थी । गर्मी में मलमल का तथा सर्दी में ऊनी व रेशमी कपड़ा प्रिय था । पुरुषों के कपड़ों में उत्तरीय तथा निम्न परिधान दो ही प्रमुख थे । स्त्रियों की पोशाक में उर्ध्ववस्त्र , अधोवस्त्र और दुशाला तीन वस्त्रों का उल्लेख है । ऋतुसंहार में ऊर्ध्व वस्त्र को स्तनाशुक भी कहा गया है । दूसरा अधोवस्त्र नीवी या नीवीबन्ध कहलाता था , जिसे आज घाँघरा कहा जा सकता है । ऊपर से दुशाला ओढ़ा जाता था । उत्तरप्रदेश की स्त्रियों में इस प्रकार के वस्त्र पहनने की प्रथा आज भी पाई जाती है । नव - वधू का ऊर्ध्ववस्त्र लालरंग का होता था , जो दूर से ही पहचाना जा सकता था । *

वस्त्रों के प्रकार - वस्त्र चार प्रकार से बनाये जाते थे । प्रथम प्रकार वल्कल वस्त्रों का था , जो वृक्षों की छाल से बनाये जाते थे , जिन्हें तपस्वी धारण करते थे । द्वितीय प्रकार गूदे से बनाये गये वस्त्रों का था , जिसमें कपास भी शामिल थी । तृतीय रेशम से बने कपड़ों का था , जिन्हें कौषेय वस्त्र कहा जाता था और चतुर्थ प्रकार पशुओं के बालों से बने वस्त्रों का था , जो ऊनी वस्त्र थे । कवि के ग्रंथों मे आये वल्कल , कौषेय , क्षौम , दुकूल , अंषुक , पत्रोर्ण , उर्ण आदि नामोल्लेख से यह प्रमाणित है कि उस समय चारों प्रकार के वस्त्रों को पहनने का प्रचलन था ।

वस्त्रों के रंग – रघुवंश में आये ' मनोज्ञ वेशः ' - ( 1 ) शब्द से प्रतीत होता है कि तत्कालीन समाज के मनुष्य सुन्दर - सुन्दर वस्त्र धारण करने के शौकीन थे । ऋतु अनुसार एवं रूच्यानुसार विभिन्न रंगों के वस्त्र धारण किये जाते थे । वसंत ऋतु में कुसुमी रंग का दुकूल - कुंकुम के रंग में रंगी स्तनांषु धारण की जाती थी । (27) ग्रीष्म ऋतु में श्वेत - परिधान धारण किये जाते थे । शारदीय पूर्णिमा की रात में अभिसारिक नायिका के श्वेत वस्त्राभूषण धारण करके नायक से मिलने जाने का भी उल्लेख है । श्वेत में दुकूल और अंषुक दोनों प्रकार थे । - लाल रंग स्त्रियों का प्रिय रंग था । अपने जीवन के सरस दिनों में तथा श्रृंगार के सबसे सुन्दर क्षणों में वे इसे धारण करती थी-लाल रंग प्रेम का प्रतीक माना गया है । विक्रमोर्वषीय में उर्वशी के अंषुक में नीला तथा एक स्थान पर शकोदर श्यामवर्ण का भी वर्णन है कहीं - कहीं हरे रंग का भी उल्लेख किया गया है।- सांसारिक भोग - विलास को छोड़ देने पर काषाय रंग - के वस्त्र धारण किये जाते थे , जो त्याग के प्रतीक समझे जाते थे ।

अन्य वस्त्र — साधारणतः पहनने के वस्त्रों के अतिरिक्त एक स्थान पर बार बाण - शब्द का भी उल्लेख है जिससे पता चलता है कि शायद कोट का भी प्रचलन था । सिर पर पगड़ी भी बाँधी जाती थी इसके लिये कवि ने उष्णेष , अलकवेष्टन , सिरसावेष्ठन शोभिना , तथा षिरस्त्र जाल आदि शब्दों का प्रयोग किया है । चरणों में पादुका भी धारण की जाती थी । - ये सम्भवतः बाँस , तृण , पूँज , लकड़ी आदि की हों । अमीर लोग चाँदी , सोने की तथा रत्नजटिल पादुका भी धारण करते थे । इनके अतिरिक्त शप्यादि पर उत्तरच्छद ( बिछाने की चादर ) तथा उपचान ( तकिया ) का भी प्रयोग किया जाता था । वस्त्रों को सुगंधित करने का भी प्रचलन था ।

विभिन्न वेश - भूषा - कालिदास के ग्रंथावलोकन से विभिन्न प्रकार की वेश - भूषा का परिचय मिलता है । मनुष्य अपनी रूच्यानुसार , ऋत्यानुसार , वयानुसार , वेश - भूषा धारण करते थे । संयोग - विरहकाल , विवाह के समय तथा अन्य मांगलिक कार्यों के समय भी भिन्न - भिन्न वेश - भूषा धारण की जाती थी । अपने पद के अनुरूप भी वेश - विन्यास पृथक रहा करता था । राजपुत्र , द्वारपाल , यवन , मछुआरा , डाकू , शिकारी , राजा , तपस्वी , छात्र आदि के वस्त्रों में पर्याप्त भिन्नता पाई जाती थी । इस प्रकार विभिन्न वेश - भूषा मनुष्य में का सौन्दर्य और भी निखार पा जाता था ।

पत्र - रचना

कालिदास के ग्रंथावलोकन से पता चलता है कि तत्कालीन समाज में पत्र - रचना करने का भी प्रचलन था । (28) स्त्री और पुरुष दोनो ही मुख पर तथा शरीर के अन्य भागों पर भी पत्र - रचना किया करते थे । स्त्रियाँ अपने स्तनों पर पत्र - रचना करती थी । यह रचना गोरोचन तथा कुमकुम से की जाती थी । पत्र - रचना अन्जन से भी की जाती थी । अर्थात् पत्र - रचना के लिये काला , श्वेत तथा लाल रंगों का प्रयोग किया जाता था । पार्वती जी के शरीर पर विवाह के समय पत्र - रचना गोरोचन से की गई थी । रघुवंश में राजा अतिथि के राज्याभिषेक के अवसर पर मुख पर गोरोचन , चन्दन तथा अंगराग से पत्र - रचना की गई

लेप

कालिदास के समय में सौन्दर्य –वृद्धि हेतु शरीर पर विभिन्न प्रकार की ये सुगन्धित वस्तुओं द्वारा अवलेपन करने का भी प्रचलन था । कवि ने लेप अनुलेप आदि शब्दों का प्रयोग किया है । लेप चन्दन अंगराग , केसरादि से किया जाता था । वह भी श्रृंगार का ही एक अंग था । विरह के समय अनुलेप करना छोड़ दिया जाता था ।

चन्दन का लेप - शीतलता प्रदान करने तथा सौन्दर्य वर्धन हेतु चन्दन के लेप का प्रयोग किया जाता था । – चन्दन को कस्तूरी की सुगंधि में बसाकर सुगन्धित कर लिया जाता था । - अथवा प्रियंगु , कालीय , कस्तूरी और कुंकुम में मिलाकर सुगंधित अवलेप भी बना लिया जाता है । -काले अगरू में चन्दन मिलाकर भी अवलेप तैयार कर लिया जाता था । हरिचन्दन सितचन्दन तथा रक्तचन्दन तीन प्रकार के चन्दनों का उल्लेख किया गया है । इसमें हरि चन्दन तथा सितचन्दन का प्रयोग साधारण चन्दन की भाँति स्त्री पुरुषों द्वारा सौन्दर्य प्रसाधन के रूप में प्रयोग किया जाता था । रक्त चन्दन का लेप चोट पर किया जाता था

अंगराग का लेप — चन्दन की भाँति अंगराग का लेप भी शरीर पर किया जाता था । - इसे भी चन्दन की भाँति कस्तूरी से सुगंधित बना लिया जाता था । इसके प्रकार के रूप में सितांगराग , कालीयक , नीपरजांगराग आदि नामों का प्रयोग कालिदास के ग्रंथों में किया गया है । अनुसूया ने सीताजी के शरीर पर इतनी सुगंधित अंगराग लगाया था , कि फूलों से भोरें भी उड़उड़कर इधर ही आने लगे थे । -

अन्य अवलेप — चन्दन और अंगराग के अतिरिक्त अन्य प्रकार के लेपों का प्रयोग भी शरीर – सौन्दर्य , सिर दर्द दूर करने , ग्रीष्म काल में स्तन तथा मस्तकादि पर किया जाता था । अन्य अवलेपों में शुक्लागरू , केसर , प्रियंगु , कालीयक , कुमुकुमसिक्त , कस्तूरी , उम्मीर आदि अनुलेपों का उल्लेख किया गया है ।

गंध

पुष्पों की मादक गंध मानव मन को मस्त बना देती है । कालिदास को भी पुष्पों की गंध अतिप्रिय थी । अधिकाशतः उनके ग्रंथों में सुगन्ध युक्त पुष्पों का ही उल्लेख किया गया है । अपनी अनूठी व दिगन्त व्यापिनी सुगंध वाले पुष्पमन्दार , लोध , मौलसिरी आदि से कालिदास की नायिकायें अपना श्रृंगार किया करती थी । सुगन्धित होने के कारण ही शायद चन्दन कवि को सबसे प्रिय रहा है । कमल का पुष्प अपनी सुगंध व सौन्दर्य के कारण ही नायिकाओं की लीला साधन बना हुआ था । इस सुगंध प्रियता के कारण ही कमल के लगभग साठ नामों का उल्लेख किया है । सुगन्धित पुष्पों द्वारा चूर्ण भी बनाये जाते थे । कमल से बना हुआ चूर्ण अम्बुज चूर्ण कहलाता था । केसर चूर्ण , केतक रज । ( केवड़े के फूलों का पराग ) एवं कस्तूरी चूर्ण का प्रयोग केशों को सुवासित करने हेतु किया जाता था । लोघ्रचूर्ण का प्रयोग मुख को गौर वर्ण का करने के लिये प्रयुक्त किया जाता था

माल्य

सौन्दर्य के कवि कालिदास को प्रकृति तथा प्रकृति प्रसून माल्यादि भी अधिक रूचिकर रहे है । अनेक प्राकृतिक पुष्पों को उनकी लेखनी ने अमर बना दिया है । शारीरिक - सौन्दर्य हेतु गले में माला धारण करना कवि का प्रिय विषय रहा है । उनकी नायिकायें भी विभिन्न समयों पर विभिन्न पुष्पों की मालाओं से श्रृंगार करती थी । तत्कालीन समाज में स्त्रियाँ सिर में कुरवका . नव कदम्ब , नव केशर तथा केतकी के फूलों की माला धारण करती थी -तो कभी मधूक के फूलों की माला- शकुन्तला गले में कमल तन्तुओं की माला धारण करती थी ।-

कर्णिकार जिसे अमलतास भी कहा जाता है इसके फूलों को स्त्रियों अपने कानों में धारण करती थी । कुरवक भी कालिदास को अधिक प्रिय रहा है । इसे सुन्दरियों ने और भी आकर्षक बना दिया । इसका प्रयोग केश - श्रृंगार के लिये किया जाता था । इसके फूल लाल , नीले , पीले बहुरंगी होते है । शय्याघरों में इसकी मालायें सौन्दर्य हेतु लगाई जाती थी । मन्दार के पुष्षों की माला से भी केशों का श्रृंगार किया जाता था । अतिमुतलता जिसे मालती या माधवीलता भी कहते है , इसके फूलों का भी प्रयोग सौन्दर्य प्रसाधन के रूप में किया जाता था । समाज में पुष्पों का अधिक उपयोग होने के कारण ही कवि ने पुष्पों का काम करने वाले के लिये ' पुष्पलावी ' शब्द का प्रयोग किया है

ऋतु - अनुसार माल्य - कवि ने अपने ऋतु संहार में षट् ऋतुओं में प्रफुल्लित होने वाले विविध पुष्पों का वर्णन किया है । उसे यदि ' फूलों का कवि ' कहा जाये तो कोई अतिशयोक्ति न होगी । ग्रीष्म ऋतु में शिरीष पुष्पों से कानों को सजाया जाता था । इनका रंग हल्का पीला होता था । ये सब मंद एवं भीनी महक देते थे । वर्षा ऋतु में केश पाश को कभी पुष्पावर्तस से सुरभीकृत किया जाता और कभी वकुल और मालती के फूलों की माला अलंकृत किया जाता था ।- शरद ऋतु में भी मालती पुष्पों से केशों को सुशोभित किया जाता था । वसंत ऋतु में चम्पे के फूलों की माला तथा कुरवक के फूलों -का प्रयोग श्रृंगार प्रसाधन के रूप में किया जाता था । उर्वशी जूही और रक्त कदम्ब के पुष्पों से केश - शोभा बढ़ाती थी । नीप - पुष्प से सीमन्त अलंकृत किया जाता था । अशोक और नव मल्लिका के पुष्प भी केश - सौन्दर्य हेतु उत्तम समझे जाते थे ।

सुगंधित द्रव्य

कालिदास के ग्रंथावलोकन से ज्ञात होता है कि तत्कालीन समाज में विभिन्न प्रकार के सुगन्धित द्रव्यों द्वारा केश , वस्त्र , शय्या , कक्षादि सभी सुबासित करने का प्रचलन था । इसके लिये जिन सुगन्धित द्रव्यों का प्रयोग किया जाता था उनमें धूप अगरू एवं केशर प्रमुख थे । रमणियाँ अपने केशों को धूप द्वारा सुगंधित करती थी इसका प्रयोग वस्त्र व कक्ष को सुवासित करने के लिए भी किया जाता था ।

काला अगरू — धूप की भाँति इसका प्रयोग भी केश , वस्त्र व कक्ष को सुगंधित करने हेतु किया जाता था ।

केसर — इसका प्रयोग विभिन्न वस्तुओं को सुगंधित करने के लिये किया जाता था । इसकी सुगंध द्वारा अवलेपों को भी सुगंधित बनाया जाता था । इनके अतिरिक्त विविध पुष्पों द्वारा बनाये गये सुगंधित चूर्णो का भी उल्लेख किया गया है । इसमें केसर चूर्ण , केतकी - रज , अम्बुज रेणु , लोध्रप्रसवरज , कस्तूरी चूर्ण आदि प्रमुख है ।

केश - विन्यास

प्राचीन काल से ही भारतवर्ष में केशों को सँवारने की परम्परा रही है महाकवि कालिदास के युग में बालों को घुघुराला बनाने का प्रचलन सबसे अधिक था । ऐसे बालों को ' अलक ' कहा जाता था क्योंकि इससे मुख भरा हुआ प्रतीत होता था तथा अलंकार पहनने की आवश्यकता कम रहती थी । चूर्ण कुन्तल ' शब्द से ऐसा प्रतीत होता है कि केशों में किसी चूर्ण का प्रयोग भी किया जाता था । जिससे बालों में घुघुरालापन आ जाता था । रमणियाँ अपने केशों को स्नान काशाय ( शेम्पू ) से सुवासित करती थी । रघुवंश में राजा दिलीप की लटें लताओं के समान उलझने की बात से ऐसा लगता है कि स्त्री - पुरुष दोनों के ही केश लम्बे होते थे । चूँकि बाल तभी उलझ सकते है जबकि लम्बे हों । काले व चिकने बाल सौन्दर्य के प्रतीक समझा जाता था । बालों में तेल डालकर चिकना बनाया जाता था । केवल विरिहावस्था में बाल रूखे रखे जाते थे ।

स्त्रियाँ चोटी भी करती थी तथा जूड़े का भी प्रचलन था । विरहावस्था में केशों को सम्भवतः खुला रखा जाता था । संयोगावस्था के श्रृंगार की भाँति उन्हें तैल से चिकना तथा वेणी या जूड़ा बनाकर पुष्पों - आभूषणों से सुसज्जित नहीं किया जाता था इसीलिये केश उलझ जाते थे , जिन्हें स्वयं पति आकर सुलझाते थे । एकवेणी का अधिक प्रसंग है । इस शब्द से ऐसा आभास होता है कि दो चोटी भी की जाती होगी ।

कालिदास के समय केशों को पुष्पों व रत्नों से सुशोभित करने का प्रचलन अत्यधिक था । गर्मियों में काशायकल्क से केशों को साफ किया जाता था । वर्षा ऋतु में फूलों के गुच्छों से बालों को सजाया जाता था । शरद् काल में रमणियों अलकों को नवमालती की मालाओं से सजाती थी और ऋतुराज वसंत में पुष्पश्री से केश सजाये जाते थे । केशों को अगरू आदि सुगंधित द्रव्यों से सुवासित करने का भी प्रचलन था ।-

सीमन्त या माँग अथवा केश वीथी बनाने का भी प्रचलन था । इसे पुष्पों तथा आभूषण से सुसज्जित किया जाता था , जिसे सिरमौर कहा जा सकता है । केश विन्यास के विभिन्न प्रकारों में जूडापाश ( जूड़ा ) , कुटिल पट्टिया छत्तेदार केश रचना , मौली , वेणी - बंधन , केशपाश आदि का उल्लेख किया गया है । स्त्रियाँ काले अगरू , धूप , कस्तूरी आदि से बालों को सुगंधित भी करती थी ।

स्नान -

सौन्दर्य — प्रसाधन में सर्व प्रथम व आवश्यक तत्व स्नान है । स्वच्छ शरीर पर ही समस्त श्रृंगार सुशोभित होते है । कालिदास के काव्य में भी स्नान के उल्लेख प्राप्त होते है । शचीतीर्थ के जल में स्नान करते समय ही शकुन्तला की अंगूठी गिर गई थी- ( 1 ) धार्मिक दृष्टिकोण से भी स्नान किये जाते थे । तिथि विशेष पर गंगा यमुना के संगम पर स्नान होता था- ( 2 ) यहाँ स्नानकरने से पुण्य की प्राप्ति तथा पापों का क्षय होता है , ऐसा विश्वास था । तीर्थ स्थानों में नहाना एक धार्मिक कृत्य समझा जाता था । अमंगल निवारणार्थ सोमतीर्थादि स्थानों पर स्नान हेतु जाया जाता था । ( 3 ) वहाँ स्नान करने से सम्पूर्ण पाप धुल जाते है ऐसी धारणा प्रचलित थी । कण्व ऋषि भी शकुन्ता के ग्रह - शांति हेतु ही सोमतीर्थ स्नानार्थ गये थे । अतः तीर्थ नदी - किनारे ही बनाये जाते थे , जहाँ सामाजिक लोग भी विशेष समयों पर स्नानार्थ जाया करते थे । अनेक स्थानों पर , रानियों के स्नान करते समय उनके शरीर का अंगराग जल में धुल जाने व उससे जल सुवासित हो जाने का भी उल्लेख है इससे प्रतीत होता है कि नदी , सरोवरादि में स्नान किये जाते थे ।

जल क्रीड़ा

कालिदास के ग्रंथों में अनेक स्थान पर जल क्रीड़ा का उल्लेख किया गया है । रमणियाँ हस्त में पदमपत्र लेकर जल क्रीड़ायें किया करती थी । ग्रीष्म ऋतु में गृहदीर्घिका , दीर्घिका अथवा नदी में जल क्रीड़ा द्वारा मनोरंजन किया जाता था । ( 29 ) रानियों के स्नान करने से उनके शरीर का अंगराग नदी के जल में धुल जाता था , जिससे रंगबिरंगी नदी की धारा ऐसी शोभित होती थी जैसे बादलों से भरी संध्या ।- जल - क्रीड़ा के समय रमणियों के सुगंधित शरीर का स्पर्श पाकर जल भी महकने लगता था ।- उनके स्तनों पर लगा चन्दन यमुना के जल में मिलकर बहने लगता था , जिससे यमुना का सलिल ऐसा प्रतीत होता था , मानो वही पर उनका गंगा की लहरों से संगम हो गया हो- जल की उर्मियाँ ऊपर उठकर उनके नेत्रों से अंजन को धोकर मदपान के समय की लाली से उनके नेत्रों को भर देती थी ।- कानों से शिरीष के पुष्प खिसककर जल में तैरने लगते थे , जिन्हें देखकर मछलियों को शैवाल का भ्रम हो जाता करता था ।- जल - क्रीड़ा के समय रमणियों द्वारा थपकी देने से जल - राशि मृदंग के समान ध्वनित होती थी । वे परस्पर मुखों पर जल डालती थी तथा सोने की पिचकारियों से रंग छोड़ा करती थी ।-

बाह्य सौन्दर्य सहायक

सौन्दर्य - प्रिय एवं कला - मर्मज्ञ कवि कालिदास ने सात्विक , सुकुमार विभिन्न कलाओं को , नायक - नायिकाओं के पार्थिक ( बाह्य ) सौन्दर्य - सहायक या सौन्दर्य वर्धक उपकरण के रूप में चित्रित किया है । पार्थिव सौन्दर्य में कला ही चेतनता , सुकुमारता एवं लावण्य की सृष्टि करती है । दूसरे शब्दों में सौन्दर्य - सृष्टि अथवा भावनाओं की सजीव , साकार और मौलिक अभिव्यक्ति ही कला है । वस्तुतः संगीत नृत्य , वादय , चित्रादि कलाओं के संयोग से मानव - सौन्दर्य निखर उठता है ।

कालिदास की सभी नायिकाएं कला , निपुण हैं । संगीत , नृत्यादि में वे सिद्ध हस्त है । पुरुष -पात्र भी वादय , चित्रादि कलाओं के मर्मज्ञ प्रतीत होते है । यद्यपि कवि मानव के समक्ष गुणोद्भूत अंतः सौन्दर्य को महत्ता प्रदान करते है तथापि उस अंतः सौन्दर्य की झलक , जो मानव के बाह्य लावण्य मय अंगों के गठन में दिखाई देती है , विभिन्न सुकुमार ललित कलाओं के योग से द्विगुणित हो जाती है । ललित कला निपुण अपनी प्रिय शिष्या इंदुमती को खोकर अज व्याकुल हो जाते है ।- ( 1 ) अर्थात् अज की अपनी प्रिया के प्रति प्रेम व सौन्दर्याकर्षण का मुख्य कारण उसका कलानिपुण होना भी था । निश्चित ही कला की सुकुमारता मानव सौन्दर्य वृद्धि में सहायक सिद्ध होती है ।

( 1 ) संगीत - संगीत या गीत का स्वर नाद होता है । नाद पराशक्ति ब्रहम का प्रतीक है । इस नाद के अभाव में न तो गति होती है न स्वर ही । सम्पूर्ण विश्व ही नादमय है ।

विविध ललित कलाएं अपनी सुकुमारता एवं ललित्य के कारण नारी - सौन्दर्य को अधिक हृदय स्पर्शी बना देती है , इस बात से महाकवि कालिदास भलीभाँति परिचित थे ' मालविकाग्निमित्रम् ' में विदूषक द्वारा मालविका के सौन्दर्य के साथ ही संगीत - शिल्प निपुणता - का परिचय दिये जाने पर राजा उसे , विष में बुझे हुए कन्दर्प बाण की उपमा देता है । - अर्थात् मालविका का सौन्दर्य , संगीत के कारण विष - बुझे बाण के समान अधिक प्रभावशाली सिद्ध हुआ ।

' अभिज्ञान शाकुन्तलम् ' में भी संगीत की चित्राकर्षक शक्ति का अनेक स्थानों पर उल्लेख किया गया है । नाटक के प्रारम्भ में ही नटी द्वारा गीत प्रस्तुत किये जाने पर सारी सभा मुन्जमुग्ध होकर चित्र लिखी के समान हो जाती है । उसी प्रकार सूत्रकार का मन भी नटी को संगीत कला के प्रति आकर्षित हो जाता है । - विक्रमोर्वषीय में अपसराओं द्वारा मधुर तान से समन्वित गीत गाने की चर्चा की गई है । - ' मालविकाग्निमित्रम् मे सामान्य दासी वर्ग को भी संगीत कला निपुण बताया गया है । - जो माविका की संगीत सहकारिणी बनती है ।- यक्ष पत्नी का सौन्दर्य भी संगीत कला के माध्यम से कवि ने निखारने का प्रयत्न किया है । यह विरह काल में भी वीणा पर गाती हुई दिखाई देती है । उसका यह रूप निश्चित ही यक्ष के आकर्षण का विषय रहा होगा तभी तो वियोग के समय वह उसके संगीतज्ञ रूप का स्मरण करता है । कवि के विभिन्न पात्र संगीत का सूक्ष्म ज्ञान रखते थे (30), क्योंकि अनेक स्थलों पर संगीत के विभिन्न पारिभाषिक शब्द स्पद , ताल , लय , मूर्च्छना आदि का उल्लेख किया गया है । यक्ष - पत्नी घूघुरूदार कड़े वाले हाथों से ताल दे देकर मोर को नचाया करती थी कुमार सम्भव में किन्नर - गीतों में मूर्च्छना का उल्लेख किया गया है ) यक्ष , पत्नी विरहावस्था में स्वंय की बनायी हुई मूर्च्छना को भूल जाती है अभिज्ञान शाकुन्तलम् में हंसपदिका गीत में स्वर परिचय व वर्ण ज्ञान से भिज्ञ है ।- मालविका चतुश्पदी गीत के माध्यम से ही अपने हृदय को राजा के प्रति न्यौछावर कर देती है

( 2 ) नृत्य - नाट्यशास्त्र में दो प्रकार के नृत्य का उल्लेख है । उद्धत नृत्य ' ताण्डव ' और सुकुमार नृत्य लास्य के नाम से प्रसिद्ध है । ताण्डव का सम्बंध शिव से तथा लास्य का सम्बंध पार्वती की सुकुमार भाव - भंगिमाओं से है । शिव और पार्वती के क्रमशः ताण्डव और लास्य की उद्भावना में योग दिया , इसे कालिदास भी स्वीकार करते है।- कवि ने नृत्य के विभिन्न अंगों के माध्यम से नायिकाओं की सौन्दर्य वृद्धि करने का प्रयत्न किया है । अभिज्ञान शाकुन्तल के तृतीय अंक में नायिका शकुन्तला का गायन लास्य का उत्तम उदाहरण कहा जा सकता है । आश्रम की कुटिया में वह ' अनन्य मनसा विचिन्तयन्ती शकुन्तला आसीन ' नामक मुद्रा में बैठी हुई दिखाई देती है । हंसपादिका का गीत प्रच्छेदक का अच्छा उदाहरण है । मालविका के गीत में द्विमूढक लास्य के दर्शन होते है । रानी इरावृती भी नृत्य कला में दक्ष थी ।

नृत्य में विभिन्न भाव - भंगिमा द्वारा हाव भावदि का प्रदर्शन किया जाता है , जिन्हें स्त्रियों के सात्विक अलंकार बताया गया है । अलंकारों के समान ही नृत्य में इन विभिन्न हाव - मावादि के द्वारा नारी के सौन्दर्य मे दृद्धि होती है । कवि ने विभिन्न भाव - भंगिमाओं से युक्त चामर- नृत्य का भी अनेक स्थानों पर उल्लेख किया है । मालविका का छलिक नामक नृत्य भी हाव भाव से युक्त होने के कारण उसका सौन्दर्य सहायक बनता है । अपने नृत्यभिनय द्वारा ही मालविका ने हृदयानुराग को राजा के प्रति व्यक्त कर दिया था । - उसके नृत्य में अभिनय के साथ ही अंग सौष्ठव का अत्यंत हृदय स्पर्शी रूप प्रस्तुत किया गया है । उसका अंग सौष्ठव छन्दों के नृत्य की भौंति मधुर और अभिनय रागबद्ध है । भोगविलासी होने पर भी अग्निवर्ण का नृत्याचार्य होना उसके किंचत गुण - सौन्दर्य को निखारने में सहायक बन जाता है , क्योंकि वह नृत्यकला का ज्ञाता होने के कारण नटकियों की अशुद्धि ठीक कर देता था । जिससे उनके शिक्षक भी लज्जित -- हो जाते थे ।- नृत्य शोभा और सौन्दर्य की वृद्धि करने वाले है । आचार्य भरत ने भी इसका निर्देश अपने नाट्य शास्त्र में किया है । वे कहते है कि नृत्य प्रस्तुत करती हुई रंगमंच पर प्रवेश करती है तो वहाँ अपूर्व शोभा का प्रसार हो जाता है ।

( 3 ) वादय — गान के समुचित प्रयोग के लिये वादय प्रयोगों की नितांत आवश्कयता है । भरत के नाट्य शास्त्र में चार प्रकार के वादय यंत्रों का उल्लेख है ।- ( 1 ) तत् ( वीणा आदि ) - ( 2 ) जनवषय ( मृदंग , पटह् आदि ) ( 3 ) सुषिर ( वंशी , वेणु आदि ) ( 4 ) धन ( झाल , करताल आदि ) कालिदास की नायिकाएं गायन के साथ हर वादय यंत्र - मर्मज्ञ भी जान पड़ती है । यह वादन - कला मर्मज्ञता भी उनकी सौन्दर्य सहायिका ही सिद्ध होती है । यक्षिणी विरह काल में गोद में वीणा रखकर पति का गुणगान करती हुई दिखाई देती है ।- ( 4 ) वह भी जानती है कि वीणा के तारों के भीग जाने से उसकी ध्वनि में दोष उत्पन्न हो जाता है , इसीलिये आँसुओं से भीग जाने पर वीणा के तारों को पोंछ लेती है ।-

“ एओलियन हार्य ' नामक वीणा के तार पृथक 2 मोटाई के होते है । वत्स के चलने से इनमें पृथक् - पृथक स्वर निकलते है । कालिदास ने भी रघुवंश में नारद के वर्णन में इसी एओलियन हार्य का उल्लेख किया है । इसके तारों के कम्पन द्वारा उत्पन्न दिव्य संगीत को सुनकर इन्दुमती ने सदा के लिये आँखें बंद कर ली थी ।

कवि ने वंशी या वेणु , कीचक , तूर्य शंख आदि वादय यंत्रों का भी उल्लेख किया है । कीचक के रन्धों में हवा भरने से वह एओलियन हार्य या एओलियन लूट के समान दिव्य संगीत की ध्वनि उत्पन्न होती थी । दिलीप ने जब वन में प्रवेश किया तो उन्होंने वन देवताओं को उच्च स्वर से अपना यशगान करते तथा एओलियन लूट ( कीचक ) को उनके संगीत का अनुकरण करते हुए सुना । ( 2 ) मेघदूत में भी वायु द्वारा कीचक के ध्वनित होने का उल्लेख है ।- ( 1 ) पुत्र जन्मोत्सवादि पर दुंदभी , तूर्यादि की ध्वनि भी सौन्दर्य वर्धक सिद्ध होती थी ।-

( 4 ) चित्रकला - यह मानव को आंतरिक अभिव्यक्ति का सुन्दर माध्यम है । कालिदास के पात्र संगीत व नृत्यकला की भाँति चित्रकला मर्मज्ञ भी है । यह कला - प्रियता उनके सहज सौन्दर्य को और भी अधिक द्विगणित कर देती है । मालविकाग्निीमित्रम् में रानी का चित्रशालय में जाना उनकी चित्रकला मर्मज्ञता का परिचायक है । यह न केवल नारी पात्र - सौन्दर्य - सहायिका है अपितु चित्रकला कालिदास के पुरुष - पात्रों की सौन्दर्य गरिमा में भी वृद्धि करने वाली है । दुष्यन्त शकुन्तला के वियोग में मनोरंजनार्थ उसके चित्र को इतनी कुशलता के साथ अंकित करता है कि सानुमती उसे देखकर अपनी सखी शकुन्तला को प्रत्यक्षवत् अनुभव करने लगती है ।- दुष्यंत के द्वारा अंकित पृष्ठभूमि चित्र की सजीवता की द्विगुणित कर देती है । वह शकुन्तला के चित्र में मालिनी नदी , हंसों के जोड़े , मयूर , हरिणादि सभी बनाता है , यहाँ तक कि वह पेड़ों पर वल्कल टाँगना तक नहीं भूलता – यक्ष पत्नी विरहकाल में उसकी कृषता का अनुमान कर भावगम्य चित्र बनाती है।- यक्ष के द्वारा अपनी प्रणय कुविता पत्नी का चित्र बनाया जाना , - पार्वती द्वारा शंकर जी का चित्र बनाना- एवं पुरूरवा द्वारा उर्वशी का चित्रांकन किया जाना निश्चित ही इन पात्रों की चित्रकला प्रियता का द्योतक है ।

चित्रकला का प्रयोग गृहशोभा एवं वस्तु सौन्दर्य सहायक के रूप में भी किया जाता था । “ सदनसु चित्रवासु ' एवं ' सचित्रा प्रासादाः ' - आदि शब्दों के प्रयोग से स्पष्ट है कि घर की दीवारों को विभिन्न चित्रों द्वारा सजाया जाता था । द्वार पर लिखित शंख , वाद्य आदि के चित्र - भी गृह - शोभा वर्धक थे ।