Human beauty in the poems of Kalidas in Hindi Fiction Stories by Dr Mrs Lalit Kishori Sharma books and stories PDF |  कालीदास के काव्यों में मानवीय सौन्दर्य निरूपण 

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 कालीदास के काव्यों में मानवीय सौन्दर्य निरूपण 

कालिदास के काव्यों में मानवीय सौन्दर्य निरूपण
( अ ) मानवीय सौन्दर्य
( ब ) पुरुष पात्र तथा तद्गत सौन्दर्य
( स ) नारी पात्र तथा तद्गत सौन्दर्य
( द ) गुण एवं शारीरिक सौन्दर्य
मानवीय सौन्दर्य
मानव सौन्दर्योपासक प्राणी है । उसकी सौन्दर्य उपासना में मानवीय सौन्दर्य का स्थान सर्वोपरि रहा है । यही उसकी सौन्दर्य वृत्ति पर सबसे अधिक प्रभाव डालता है । काव्य जगत के लिये भी मानवीय सौन्दर्य ही प्रेरणा का एक अखण्ड स्रोत रहा है । काव्य विभिन्न मानवीय सौन्दर्य चित्रणों की चित्रशाला है , जिसमें प्रकृत्यादि का सौन्दर्य वर्णन भी मानवीय सौन्दर्य - वर्धन हेतु ही चित्रित किया जाता है । मानवीय सौन्दर्य ही कवि के लिये सर्वाधिक आकर्षण की वस्तु है । वैसे तो उस परम सौन्दर्यमयी उस अनन्त सत्ता का लावण्यमयरूप सृष्टि के कण - कण में विखरा हुआ है और भावना एवं कल्पना लोक का चितेरा कवि उस निखिल सौन्दर्य के स्पन्दन से आप्लावित होकर नितनूतन भावनायें संजोता रहता है , तथापि मानवीय सौन्दर्य मूक होने पर भी मुखर है , पंगु होने पर भी गतिमान है , जो अपनी चेतना के परिणामस्वरूप हृदतन्त्री के तारों में एक मधुर झंकार उत्पन्न कर देता है ।

विधाता ने मानव को जब निर्मित किया , तब वह स्वतः नहीं जानता था कि वह क्या से क्या करने जा रहा है । उसने सौन्दर्य के अनन्य उपकरणों को एक साथ रखने का प्रयास किया और अंत में उसमें अपना अंश और रख दिया । यही कारण है कि मानव में हमें कोकिल की वाणी , केकी का नृत्य , चकोर का प्रेम , चन्द्रमा की शीतलता , सूरज का तेज और सुमनों की मसृणता एक साथ दिखाई दे जाते हैं । जो कि प्रकृति के प्रतीक हैं तथा अन्य सौन्दर्य के रूप तो मानवोद्भूत ही हैं । ठीक ही तो कहा गया है कि ईश्वर की सृष्टि रचना में सम्पूर्ण सौन्दर्य में ही सुषमा के बीच मानव ही उसका सर्वोत्कृष्ट रूप कहा जा सकता है ।

“ सुन्दर है विहग , सुमन सुन्दर ,
मानव तुम सबसे सुन्दरतम्
निर्मित सबकी तिल सुषमा से ,
तुम निखिल सृष्टि में चिरनिरूपम || -

पुरुष और नारी दोनों ही इस संसार में सौन्दर्य के महान आगार हैं । यदि नारी के कोमल रूप का सौन्दर्य मन को आकर्षित करता है तो पुरुष का कठोर रूप भी सौन्दर्य का भावन करने वाला होता है ।

विश्व का कोई भी साहित्य मानवीय सौन्दर्य से अछूता नहीं है । लोक व्यवहार और कला दोनों में ही मानवीय सौन्दर्य अत्यधिक महत्व का है ।कवि कुलगुरू कालिदास द्वारा वर्णित दुष्यन्त शकुन्तलादि सम्पूर्ण पात्र कवि की मानवीय सौन्दर्य वृत्ति के ही सुन्दर परिचायक है ।

कालिदास मूलतः सौन्दर्य के कवि हैं । सत्यं शिवम् सुन्दरम् के समस्त बहुमूल्य मणिरत्न कालिदास की रचनाओं में एकत्र सन्निविष्ट हैं महर्षि अरविन्द का कथन है कि वाल्मीकि , व्यास एवं कालिदास प्राचीन भारतीय इतिहास की अन्तरात्मा के प्रतिनिधि हैं और सब कुछ नष्ट हो जाने के बाद भी इनकी कृतियों में हमारी संस्कृति के प्राणतत्व सुरक्षित रहेंगे ।

कालिदास ने सौन्दर्य का आ - कंठ एवं आप्राण आस्वादन किया था । उन्होंने अपने काव्य में जीवन की अग्नि को सौन्दर्य के स्वर्ण कलश से आवेष्टित कर दिया है । कालिदास सौन्दर्य सागर के सम्पूर्ण आवर्त विवर्तौं में पाठक अथवा भावुक को निमज्जित कराकर , उसे शिवं के पुनीत आदर्श लोक की ओर मोड़ देते हैं और अन्ततः लौकिक प्रेयस के ऊपर पारलौकिक प्रेयस का अमर संदेश सुना जाते हैं । कवि की दृष्टि में सौन्दर्य दैवी - विभूति है जो मानव और प्रकृति दोनों में समान रूप से भास्वर हो रही है । कालिदास रूप - सौन्दर्य से सर्वत्र ही प्रभावित रहे हैं और नारी सौन्दर्य का संस्पर्श मानो उनकी हृदय तन्त्री के सम्पूर्ण तारों को एक साथ झंकृत कर देता है । नारी देह का सौन्दर्य ही प्रकृति के विभिन्न रूपों में प्रतिबिम्बित है और जो सौन्दर्य प्रकृति की नानारूपिणी छबियों में व्याप्त होकर विश्व को अपनी सम्मोहिनी शक्ति द्वारा मोहे हुये है । वही सौन्दर्य नारी रूप में प्रस्फुटित होकर विश्व को आकृष्ट किये हुये है । यही कारण है कि कवि की दृष्टि नारी रूप में प्रकृति जगत का अनुसंधान करने लगती है । और प्रकृति चित्रण में नारी सौन्दर्य से अनुप्राणित हो जाती है । उनकी नायिका स्तनरूप फूलों के गुच्छे के भार से झुकी हुई नवीन रक्तिम कोपलों वाली चलती फिरती लता ही है ।
शकुन्तला के सौन्दर्य में भी प्रकृति की छवि किस प्रकार शोभित हो रही है

" अधर किसलय रागः कोमलविटपानुकारिणी वाहु !
कुसुमिव लोभनीयं , यौवननंगेषु संनध्वम् " !! – ( 1 )

इसके लाल ओठ लता की कोपलों के सामन शोभते हैं , दोनों भुजायें बृक्ष की कोमल शाखाओं के समान जान पड़ती हैं और उसके अंगों में खिला हुआ नया यौवन लुभावने फूल के समान भासित होता है । कुमार सम्भव में वसन्त शोभा के श्रृंगार - सौन्दर्य का वर्णन इस प्रकार किया गया है । -

" वसन्त की शोभा रूपी स्त्री ने भौंरे रूपी अंजन से अपना मुँख चीत लिया है , मस्तक पर तिलक के फूल का तिलक लगा लिया है और आम के नव किसलय रूपी अपने अंगों को प्रातः कालीन सूर्य की कोमल लालिमा से रंग लिया है ।

कालिदास भलीप्रकार अवगत हैं कि मानव सौन्दर्य को अलोकिक करने वाली प्रभा उसी व्यापक प्रभा की अंशभूत है जिससे विश्व के सम्पूर्ण पदार्थ सौन्दर्यान्वित हो रहे हैं ।

सम्पूर्ण विश्व में विखरे हुये सौन्दर्य का पुंजीभूतरूप ही हमें कालिदास की नायिकाओं में दिखाई देता है - शकुन्तला के शरीर और विधाता के रचना कोशल को देखकर यही जान पड़ता है कि उन्होंने संसार की सम्पूर्ण सुन्दरता को संकलित कर तथा उसे चित्त में स्थापित कर शकुन्तला की मन द्वारा सृष्टि की और तब उसमें प्राण डाले । इसी कारण वह स्त्रीरत्न कोई अनन्य साधारण रचना प्रतीत होती है ।

कुमार सम्भव में भी पार्वती के सौन्दर्य को देखकर ऐसा जान पड़ता है कि संसार का सम्पूर्ण सौन्दर्य ब्रह्मा एक स्थान पर देखना चाहते थे , इसीलिये उन्होंने उपमा योग्य सभी वस्तुओं को यत्नपूर्वक एकत्र कर तथा यथास्थान उन्हें सजाकर पार्वती को बनाया है । ( 2 )

नव यौवन ही सौन्दर्य का अनुप्राणक धर्म माना गया है । कालिदास के अनुसार “ यौवन शरीर रूपी लता का नैसर्गिक श्रृंगार है , मदिरा के समान ही को मतवाला बनाने वाला है तथा कामदेव का बिन फूलों वाला वाण है – ( 3) यौवनावस्था के कारण पार्वती के शरीर में भी उभार आ गया है । - ( 4)

कालिदास ने स्त्री - सौन्दर्य को एक विशिष्ट परिवेश में चित्रित किया है । उनकी सौन्दर्य दर्शिनी दृष्टि के अनुसार मानव मन को आश्चर्याणव में डाल देने वाले सौन्दर्य की उत्पत्ति वसुधातल से नही हो सकती । -

मानव सौन्दर्य के आधार प्रेम के पारखी कवि कालिदास ने प्रेम के क्षेत्र में वह कौशल दिखाया है कि उनकी नई सूझ को देखकर विश्व दंग रह गया और मानव हृदय को वह आँख मिली , वह चेतना मिली , जो आज भी मानव जीवन का सार है । विरही यक्ष ने अपने मेघ से अपनी आकुल प्रिया के लिये कुछ संदेश कहा वह संदेश क्या था , प्रेमकातर प्राणी का तारक मंत्र था । उस संजीवन संदेश का सार है " धैर्य धारण करना और आशा के सहारे विरहकाल को व्यतीत करना।-

आज का मानव प्रेम के पक्ष में अपना कुछ भी तर्क क्यों न दे कालिदास का अपना सिद्धांत तो यही है - कहते हैं , कुछ लोग अवश्य कहते हैं कि भोग के अभाव में स्नेह ध्वस्त हो जाता है किन्तु उनसे कहे कौन ? अरे सच्ची बात तो यह है कि इस प्रकार का जमा हुआ स्नेह प्रेम का पुंज बन जाता है । तपस्वी जानते ही नहीं कि प्रेम का रसायन विरह के पुटपाक में ही सिद्ध होता है वस्तुतः है भी यही । प्रेम भोग का नहीं , योग का नाम है । तभी तो कुमार सम्भव में कवि ने डट कर कहा है ।(5)

प्रेम और पति को युगपत् तप की एकनिष्ठा से ही प्राप्त किया जा सकता है । मानव जीवन का सौन्दर्य इसी में है । मानव के लिये कालिदास का यही चिर सन्देश है । वह साधना ही क्या जो साधक और साध्य को एक न कर दे , तभी तो कालिदास जैसा कवि अर्धनारीश्वर की कल्पना कर सका । इस तप के कारण सती शिव की अर्धागिनी बन सकी ।

रूप की निन्दा तो अवश्य हुई परन्तु तप की अग्नि से तपकर निखरे हुए उस रूप कन्चन को सत्कार भी कितना प्राप्त हुआ । पार्वती सजी नहीं कि उन्हें प्रिय के पास पहुँच जाने की व्यग्रता हुई ।

इस प्रेम के प्रसाद से शिव के वेश में भी परिवर्तन हो गया । भला शिव के इस सुन्दर रूप को देखकर कौन कह सकता है कि प्रेम की पुरी में रूप का राज नहीं है ? शिव पर प्रेम का ऐसा गहरा रंग चढा कि खंग में अपना रूप देखने लगे । शिव के रूप सौन्दर्य को देखकर पुर सुन्दरियाँ सोचने लगी कि शिव ने कामदाह नहीं किया । नहीं , वह तो लाज के मारे स्वयं ही चल बसा । देखिये कवि की वाणी में -

प्रेम के क्षेत्र में रूप का अपना अनोखा ही महत्व है । पार्वती के रूप सौन्दर्य को देखकर ही ब्रह्ममचारी शिव ने कहा था ( 6 )

निश्चित ही इस रूप का पापवृत्ति से कोई नाता नहीं है । उसका सम्बन्ध शील से है । सदाचार के अभाव में रूप अभिशाप बन जाता है । शिव को भी पार्वती के शील का साक्षात्कार तब होता है जब उनके कान में पड़ा " अल विवादेन - यथा श्रुतस्त्वया

शिव ने काम का नाश तो सुलभता से कर दिया परन्तु जब गहरी कामवृत्ति से पाला पड़ा तब “ भावेकरस ” मनः का रहस्य खुला । इस रूप , शील और काम की त्रिकुटी में जो योग जगा वही प्रेम योग्य है । कालिदास का कुमार सम्भव वस्तुतः इसी प्रेमयोग का काव्य है । पार्वती के प्रयत्न से शिव लौह की भांति उनकी ओर खिंच गए । उमा भी एक ही चुम्बक निकली कि शिव सा लोहा झक मार कर ललक उठा और उसके चुम्बन में ऐसा लीन हुआ कि किसी की सुधि नही रही । प्रवृत्ति की जीत हुई निवृत्ति पर । रागवान की विजय हुई सत्तावान पर । श्रृंगार विजयी रहा ज्ञान पर । इसी विजय के फलस्वरूप उस कुमार का जन्म हुआ जिसकी अधीनता में संसार के लिये उप्लव व धूमकेतु स्वरूप तारक का वध हुआ आज भी संसार को उप्लव से बचाने हेतु ऐसे ही प्रेमयोग की आवश्यकता है ।

रति का रोष के साथ गहरा लगाव है । रति मीठी तो रोष सलोना है । सृष्टि दोनों के अनुपात से चलती है । शिव - पार्वती का संयोग भी दोनों से सिक्त है । अनन्य प्रेम अनन्य अधिकार चाहता है । प्रेम विधि का कर्मकाण्ड का बन्धन कब मानता है । धर्म प्रेम को साथ लेकर चलता है पर प्रेम धर्म के बन्धन को नहीं मानता । वह सदैव स्वच्छन्द रहना चाहता है । यही मानव इतिहास है । किन्तु कालिदास के प्रेम ने यह सब होते हुए भी मर्यादा का उल्लंघन नहीं किया । पार्वती को शिव के प्रेम प्रसंग पर पिता का ध्यान आता है तो शिव को प्रिया प्रसंग में संध्या वन्दन का । अनुशासन व विधि की यह प्रतिष्ठा ही प्रेम को सर्वथा स्वच्छन्द होने से बचा लेती है और हमारे सामने प्रेम का वह आदर्श रूप प्रतिष्ठापित होता है , जो कभी भी वासना से धूमिल नहीं होता । इस प्रेम में वासना का स्वच्छ विलास ही नहीं , ज्ञान का गम्भीर उल्लास भी है । -

कालिदास ने सौन्दर्य का ऐसा वर्णन किया है वैसा अन्यत्र दुर्लभ है । “ सौन्दर्य ही सत्य है और सत्य ही सौन्दर्य कीट्स के इस सिद्धान्त की व्यावहारिक परिणति कीट्स की कविता में उतनी नहीं मिलती जितनी कि कालिदास की कविता में l

कालिदास जाने अनजाने सौन्दर्य के माध्यम से ही सत्य तक पहुँचने में विश्वास करते थे , यहाँ तक कि दोनों को अभिन्न मानते थे तभी तो सचराचर सृष्टि में निहित सौन्दर्य को अपनी रचनाओं में इतनी कुशलता के साथ उतार पाये हैं । कालिदास ने मालविका और उर्वशी - " अस्थाः सर्ग विघौ पुराणो मुनिः के शारीरिक सौन्दर्य के वर्णनों को शकुन्तला के और यक्षिणी के चित्रों में पराकाष्ठा पर पहुंचा दिया है । शकुन्तला के अनिन्द्य सौन्दर्य को बिना सूधा हुआ पुष्प , तथा बिना छेदन किए हुए रत्न के समान अछूता बताया है ।- ( 7 )

कालिदास न केवल सौन्दर्य वर्णन करने में कुशल हस्त हैं अपितु उनका अपना सौन्दर्य दर्शन भी है , जो उनके सभी काव्यों में दृष्टव्य है पर कुमार संभव और मेघदूत में वह अपने चरमोत्कर्ष पर पहुँचता हुआ " रघुवंश " में ऐसा उदात्त हो गया है कि कहीं एक जगह केन्द्रित न होकर समस्त कृति का ही सौन्दर्य हो गया है ।
कालिदास का सौन्दर्य दर्शन है - " प्रियेषु सोभाग्यफलेषु हि चारूता " । तभी तो पार्वती का शारीरिक रूप सौन्दर्य व्यर्थ है , निष्फल है , यदि शिवत्व की प्राप्ति न हो । अन्तःकरण की ज्योति से आलोकित सौन्दर्य की महत्ता प्रत्येक को स्वीकार करनी ही पड़ती है - " यदुच्यते पार्वति पापवृत्तये न रूपमत्यव्यभिचारित द्वच शरीर और आत्मा के समन्वित सौन्दर्य की विजय का यह अपूर्व चित्रण है जब शिव पार्वती को चिरसंगिनी के रूप में स्वीकार करने को विवश हो जाते हैं और तब हुआ यह कि -

तप से पवित्र पार्वती की सुन्दरता के सामने शिव को भी झुकना पड़ा और झुक जाने पर " आज से मैं तुम्हारा दास हूँ यह उसे कहना पड़ता है जिसने अपनी तीसरी आँख के उन्मेषमात्र से कामदेव को भस्म कर डाला था ।
अपने सौन्दर्य दर्शन के प्रति आश्वस्त कवि मेघदूत में विरहिणी यक्षिणी का वर्णन करता हुआ कहता है -
ब्रह्मा की सबसे बड़ी कारीगरी यह है।

रघुवंश में भी इन्दुमती का वर्णन , जगज्जननी न बताकर भी कुछ ऐसे व्यक्तित्व के साथ चित्रित किया है जिसकी सुन्दरता उसकी सम्पूर्णता में होती है जो उनकी उक्तियों द्वारा संवेदित है -

कालिदास ने पुरुष के उस सौन्दर्य का वर्णन किया है जो भारतीय मूर्तिकला में दृष्टिगोचर है । बालकों की सुन्दरता का चित्र भी यत्रतत्र दृष्टव्य है और इस मानव जगत के तदनुरूप सुन्दर परिवेश का तो ऐसा सुन्दर वर्णन किया है जिसके बिना सौन्दर्य का चित्रण अधूरा ही रह जाता है ।


" पुरुष पात्र तथा तद्गत सौन्दर्य "

साहित्य में पात्रों का भी अपना विशेष महत्व है । पात्रों के शील - स्वभाव , आचार - विचार , लोक व्यवहार और अवस्था एवं प्रकृति की विभिन्नता एवं विविधता की पृष्ठभूमि में ही काव्य की कथावस्तु परिपल्लवित होती है । देश - काल और परिस्थिति के आलोक में मानव का जीवन - पुष्प विकसित होता है । उसका सौरभ और रस तो उसी पात्र में छलकता है , तभी काव्य - रस आस्वादय होता है । रूप और रस की रंगभूमि में ये पात्र ( नायक , नायिका आदि ) ही तो होते हैं , जो उसे प्राण देते हैं गति देते हैं और सहृदय की रसानुभूति योग बनाते हैं । कवि कालिदास के दुष्यन्त - शकुन्तला आदि पात्रों का कवि कल्पित - जीवन , केवल कवि की कला दृष्टि की ही सृष्टि नहीं है . अपितु उस पर समग्र जातीय जीवन की सामाजिक , धार्मिक और सांस्कृतिक चेतना का भी प्रभाव है ।

पात्रों का महत्व असाधारण है । उनको प्रस्तुत करने की कला और भी असाधारण होती है । महाकवि कालिदास इस कला में निपुण हैं । उनके साहित्य - विश्लेषण से ऐसा अनुभव होता है कि भारत जैसे विशाल राष्ट्र के विभिन्न अंचलों में रहने वाले , नाना रूप - रंग वेशभूषा , शील - स्वभाव , आचार - व्यवहार और अवस्था एवं प्रतीक की दृष्टि से विभिन्न और विविध नर - नारी के लोक - जीवन को देखा - परखा था । उनके पात्रों के चरित्र की कल्पनाओं , सात्विक विभूतियों , महतीय उदात्ताओं के मूल में लालित्य और सौन्दर्य की प्रेरणा सदा वर्तमान रहती है ।

नायक साहित्य जगत का वह केन्द्र है , जहाँ से जीवन की किरणों का आलोक फूटता है , जिसमें बीरता का दर्पित तेज भी होता है , तो प्रभात का मंद मधुर आलोक भी और चन्द्रकिरणो की उर्मिलस्निग्ध ज्योत्स्ना भी इन्द्रधनुष की सतरंगी सुख - दुःख मिश्रित छवि उसमें आलोकित होती है और वह नायक दुःखों पर विजय पाता हुआ सुख और आनन्द की ओर बढ़ता है । वह जीवन के आनन्द रस से ही अनुप्राणित रहता है । इसी आनन्द के अनुसंधान की मंगल यात्रा में जीवन के चरण चिह्न चरित्र के रूप में अंकित होते हैं । चरित्र एक प्रकृति के आधार पर आचार्य भरत ने नायकों को उत्तम , मध्यम , अधम - तीन प्रकार का बताया है । जितेन्द्रियता , ज्ञान , नाना शिल्पों में कुशलता , दाक्षिण्य , नाना शास्त्रों में सम्पन्नता , गम्भीरता , उदारता , धीरता और त्याग के गुणों से सम्पन्न दोनों ही उत्तम प्रकृति का लक्षण हैं । लोक - व्यवहार में चतुरता , शिल्प और शास्त्र में व्युत्पन्नता , विज्ञान और मधुरता से युक्त होने पर मध्यम प्रकृति होती है । स्त्री वाणी , दुःशीलता , पिषुनता , मित्रद्रोह , अकृतज्ञता , आलस्य , नारियों के प्रति चंचलता , कलह - प्रियता , पाप , पर द्रव्यापहारिता और क्रोध का भाव अधम प्रकृति के लक्षण कहे गए हैं ।

कालिदास के ग्रन्थों में भी नायकों के विभिन्न मनोविकारों का उत्तम विश्लेषण किया है । उनकी रची हुई स्मणीय सृष्टि में कश्यप , कण्व और दुर्वासा जैसे परस्पर भिन्न स्वभाव के महर्षि , कौरस के समान निःस्पृह ब्राह्मण , दुष्यन्त , दिलीप . रधु , राम ऐसे कर्तव्यपरायण राजर्षि अज और यक्ष जैसे पत्नी वियोग से छटपटाने वाले प्रेमी जीव , अग्निमित्र और अग्निवर्ण के समान विलासी राजा , हरदत्त और गणदास के समान कलानिपुण परन्तु परस्पर सहिष्णु नाट्याचार्य गौतम , माणवक और माढव्य ऐसे तीन तरह के विदूषक और भोलेपन से सिंहशावक के दाँतों को गिनने वाले सर्वदमन से लेकर स्वपराक्रम से यवनों को पराजित करके अश्वमेध के अश्व को वापिस लाने वाले वायुमित्र तक छोटे बड़े राजकुमार दीख पड़ते हैं । दक्षरूपककार धनंजय के अनुसार नायक को विनीत ( नम्र स्वभाव का ) , मधुर स्वभाव वाला , त्यागी , अपने कार्यों में कुशल , प्रियम्बद ( प्रिय बोलने वाला ) , प्रजा के प्रति अनुराग करने वाला , शक्ति सम्पन्न तथा स्थिर प्रवृत्ति का होना चाहिये । वह बुद्धि सम्पन्न , उत्साह , स्मृति एवं प्रज्ञा सम्पन्न कला कुशल , शूरवीर , विक्रमी . तेजस्वी एवं शास्त्र चक्षु ( शास्त्रों का ज्ञाता ) भी होना चाहिये ।

कालिदास के काव्यों एवं नाटकों के नायक भी एक ओर बलिष्ठ भुजाओं वाले , शक्ति सम्पन्न , विक्रमी , उत्साही व शूरवीर दिखाई देते हैं तो दूसरी ओर उनका जीवन त्याग , तपस्या , माधुर्य व लोकानुराग से परिपूर्ण है ।

पुरुष - सौन्दर्य - चित्रण में भी कालिदास को सहज गुणों से उत्पन्न सौन्दर्य ही अधिक आकृष्ट कर सका है । उनके पुरुष – पात्रों में सहज गुण शोभा , विलास , माधुर्य , गाम्भीर्य , स्थैर्य , तेज , ललित एवं औदार्यादि के दर्शन होते हैं l

रघुवंश में पुरुष - सौन्दर्य को बड़ी कुशलता के साथ चित्रित किया गया है । रघुवंश के लोग जीवन पर्यन्त पवित्रतापूर्वक जीवन व्यतीत करने वाले थे , फल की प्राप्ति तक कर्म करने वाले थे । ( अर्थात् विघ्न आने पर बीच में ही कार्य को न छोड़ने वाले ) समुद्र पर्यन्त पृथ्वी पर राज्य करने वाले एवं स्वर्ग तक रथ की पहुँच वाले थे । – ( 9 ) वास्तव में कवि के पुरुष पात्र केवल पृथ्वी तल के ही सौन्दर्य नहीं है अपितु वे अपनी तेजस्विता से स्वर्ग लोक तक को आलोकित करने वाले हैं । “ विक्रमोवंशीयम् ” का नायक पुरूखा भी नाटक के प्रारम्भ में ही सूर्यमण्डल से लौटते हुए बताये जाते हैं । राजा दुष्यन्त भी दैत्य – संहार हेतु देवराज इन्द्र की सहायतार्थ स्वर्ग तक आरोहण करते हैं । इन्द्र का सारथि मातलि कहता है कि हे राजन् इन्द्र के लिये अजेय देव्य समूह का अब निश्चित ही आपके द्वारा संहार किया जायेगा क्योंकि रात्रि के जिस अंधकार को सूर्य नष्ट नहीं कर सकता , उसे चन्द्रमा ही दूर करता है । -

कालिदास की दृष्टि में आश्रम व्यवस्था का विधान पुरुष की चारित्रिक उन्नति हेतु वांछनीय है । रघुवंश के आदर्श चरित्रों का विश्लेषण करते हुए कवि कहता है कि वे शैशवास्था में ही सम्पूर्ण विद्याओं का अभ्यास कर लेने वाले थे , युवावस्था में भोग की अभिलाषा रखने वाले , वृद्धावस्था में मुनियों की भांति जीविका रखने वाले एवं अन्त में योगाभ्यास के द्वारा अपने शरीर का त्याग कर देने वाले थे । - ( 10 ) रघुवंश के नायक भारतीय संस्कृति के अनुसार प्रतिदिन यज्ञाहुति देने वाले एवं याचकों का सम्मान करने वाले कहे गए हैं साथ ही उनमें अपराधानुसार दण्ड – व्यवस्था करने की भी क्षमता विद्यमान है । प्रत्युत्पन्नमति सम्पन्न वे उचित समय पर सावधान रहकर अपनी कार्यकुशलता का भी परिचय देते हैं । -

शास्त्रों के अनुसार दान की सफलता सत्पात्र में ही बतायी गई है । कालिदास भी दान की इसी श्रेष्ठता को स्वीकार करते हैं । रघुवंशी लोग भी सत्पात्र को दान देने के लिये ही धनका संचय करते थे , अप - व्यय करने हेतु नहीं ऐसा प्रतीत होता है कि कवि वह रघुवंश के उत्थान , पतन का ही नहीं , अपितु मानव जाति के अभ्युदय – पतन का वर्णन कर रहा है , मानो वह संदेश दे रहा है कि तब मानव के अभ्युदय का समय था , जब हम तपस्या को प्रधान ऐश्वर्य समझते थे , और आज , जबकि हमारा विनाश समीप है , भोगविलास के उपकरणों का अंत नहीं । भोग की अतृप्त अग्नि सहस शिखाओं में भड़क रही है और आंखों में चकाचौध कर रही है ।

ऐश्वर्य के साथ त्याग का और प्रेम के साथ तपस्या के मिलन में ही मानव जीवन की सार्थकता में कालिदास विश्वास करते हैं । रघुवंश एवं कुमार सम्भव दोनों ही महाकाव्यों में कवि ने यह दिखाने का प्रयत्न किया है कि त्याग और भोग के सामंजस्य से ही जीवन चरितार्थ होता है । एकान्त वैराग्य आसुरी शक्ति का दमन नहीं कर सकता । भोग और वैराग्य के यथोचित सामंजस्य में जीवन का वास्तविक अभ्युदय सम्भव है । इसीलिये उनके सभी उच्चकोटि के नायक जीवन की आसुरी प्रवृत्तियों का दमन करने में सक्षम हो सके । रघुवंश जैसे महाकाव्य का प्रारम्भ राजोचित ऐश्वर्य वर्णन से प्रारम्भ नहीं होता । त्याग और तपस्या की प्रतिपूर्ति राजा दिलीप तपोवन में प्रवेश करते हैं तथा समुद्रपर्यन्त वसुन्धरा पर शासन करने वाले राजा अविकल निष्ठा और संयम के साथ तपोवन को धेनु - सेवा में लग जाते हैं । - ( 11 ) जिस प्रकार पृथ्वी , जल , तेज , वायु , आकाश - ये महाभूत पदार्थ ही हुआ करते हैं । उसी प्रकार उन पांचतन्त्रों के बने दिलीप भी उन्हीं के समान अपने गुणों का उपयोग परोपकाराय ही किया करते थे । परोपकारिता का इससे बड़ा प्रमाण और क्या हो सकता है ।

कुमार सम्भव में भी कवि ने यह चरितार्थ किया है कि त्याग के साथ ऐश्वर्य का और तपस्या के साथ प्रेम का मिलन होने पर ही स्त्री प्रेमधन्य हो सकता है । जो प्रेम केवल शारीरिक आकर्षण पर निर्भर होता है , वह क्षणस्थायी होता है । जब तक वह बन्ध्य है , निष्फल है । शिव के जीवन में भी भोग और वैराग्य का अनूठा सामंजस्य है । बिना कठिन तपस्या के किसी महान फल को प्राप्त करना सम्भव नहीं है । कुमार सम्भव में भी इसी के परिणाम स्वरूप उस शौर्य का जन्म हो सका , जिसके द्वारा मानव का सब प्रकार की पराजय से उद्धार हो सका । जिस रघु ने उत्तर - दक्षिण - पूर्व - पश्चिम के सारे राजाओं को अपने तेज से पराजित किया और समस्त पृथ्वी पर एक छत्र राज्य स्थापित किया जिसके नाम से रघुवंश को गौरव मिला । वह अपने पिता - माता की तपःसाधना का ही धन था और जिस भरत ने अपने वीर्य वल से चक्रवर्ती सम्राट होकर भारत को अपने नाम से धन्य किया , उसके जन्म पर प्रवृत्ति - समाधान का जो कलंक पड़ा था उसे कवि ने तपस्या की अग्नि में ही जलाया है , एवं दुःख के अश्रु जल से धोकर ही निखारा है।

रवीन्द्रनाथ ठाकुर के शब्दों में " इसीलिये त्याग आवश्यक है । यह त्याग अपने को रिक्त करने के लिये नहीं , अपने को पूर्ण करने के लिये होता है । हमें समग्र के लिये अंश का त्याग करना है , नित्य के लिये क्षणिक का , प्रेम के लिये अहंकार का , आनन्द के लिये सुख का त्याग करना है । इसीलिये उपनिषद् में कहा गया है - तेनत्येक्तेन भुंजीथा त्याग द्वारा भोग करो , आसक्ति के द्वारा नहीं ।

रघुवंश में वर्णित विभिन्न पुरुष पात्रों के चित्रण द्वारा ऐश्वर्य के उत्थान पतन का जो अंकन किया है , उसका विश्लेषण , करते हुए प्रतीकात्मक रूप में हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कहा है कि - " प्रभात शान्तिपूर्ण होता है , पिंगल जटाधारी ऋषि- बालकों की तरह पवित्र होता है । मोती की तरह स्वच्छ , सौम्य आलोक लेकर वह शिशिर स्निग्धा पृथ्वी पर धीरे - धीरे उतरता है , और नवजीवन भी अभ्युदय - वार्ता से वसुधा को उद्बोधित करता है । उसी तरह कवि के काव्य में तपस्या द्वारा प्रस्थापित राजमाहात्म्य ने स्निग्ध तेज और संयत वाणी से महान् – “ रघुवंश " के उदय की सूचना दी । विभिन्न वर्गों के मेघ जाल से आविष्ट सन्ध्या अपनी अद्भुत रश्मियों से पश्चिमी आकाश को क्षण भर के लिये ज्योतिर्मय बना देती है , लेकिन देखते ही देखते विनाश का दूत आकर उसकी सारी महिमा का अपहरण करता है और अंत में शब्दहीन , कर्महीन , अचेतन अंधकार में सब कुछ विलीन हो जाता है । उसी तरह काव्य के अन्तिम सर्ग में भोग वैचित्र के भीषण समारोह में " रघुवंश " का नक्षत्र ज्योतिर्लीन हो जाता है ।

ऐसा रघुवंश जिसका प्रारम्भ एक छत्र राज्य करने वाले शासकों से होता है।-

स्त्री सौन्दर्य के समान ही पुरुष सौन्दर्य चित्रण में भी कवि ने विस्तृत वर्णन की अपेक्षा चुने हुए शब्दों द्वारा विश्व – स्वीकृत सौन्दर्य को निखारने का प्रयत्न किया है । विभिन्न देशों में भले ही पुरुष - सौन्दर्य में भिन्नता रही हो परन्तु कालिदास ने जिस कुशलता से सौन्दर्य अंकन किया है उसमें किसी के द्वारा ननुनच करने की गुंजायश नहीं है । अभिज्ञान शाकुन्तल के सप्तम अंक में सर्वदमन ( भरत ) का अत्यन्त सुन्दर चित्र अंकित किया गया है , जिसमें बालगत स्वभाव – सारत्य , अस्फुट वाणी का माधुर्य , अनिमित्त हास्य तथा धूलि धूसिरित आकृति का समन्वित सौन्दर्य व्यक्त हुआ है ।

नटखट बालक भरत को देखकर राजा दुष्यन्त अपने उद्गार प्रकट करता है कि बिना किसी कारण ही हँसी से किंचित दिखाई पड़ने वाली कली के समान दाँतों से सुशोभित , अस्पष्ट अक्षरों के कारण सुनने योग्य तोतली बोली बोलने वाले और गोद में बैठने के लिये मचलते हुए पुत्रों को गोद में लेकर जो उनके शरीर को धूल से मैले हो जाते हैं , वे भाग्यवान पुरुष धन्य हैं । (12 ) ऐसे बाल मधुर सौन्दर्य पर भरत के छोटे से कोमल हाथ को प्रातःकालीन अरूणिमा से चमकने वाले , अंधखुली पंखुड़ी वाले कमल की उपमा दी गई है ।
दुष्यन्त के सुगठित , सशक्त और स्वस्थ शरीर में पुरुष के पुरुष सौन्दर्य के दर्शन होते हैं । कविकृत रघुवंश तो मानो पुरुष सौन्दर्य के श्रेष्ठ नमूनों की अनुपम चित्रशाला है । पुरुष के आकृति सौन्दर्य चित्रण में कवि ने विविध अवयवों की दृढ़ता सुगढ़ता , तेजस्विता विशालता तथा मनोहरता पर बल दिया है । तथा शक्ति और पराक्रम को पुरुष - सौन्दर्य का आवश्यक तत्व माना है । रघुवंश में राजा दिलीप के अन्दर पुरुष - सौन्दर्य के सम्पूर्ण गुणों का समावेश दिखाया गया है । - चौड़ी छाती वृषभ के समान सुबलिष्ठ कन्धे शाल के समान ऊँचाई वाली लम्बी भुजायें , अपने कार्यों को करने में समर्थ देह , साक्षात पराक्रम की प्रतिमूर्ति , ऐसा प्रतीत होता है मानो दिलीप के रूप को विधाता ने पूर्ण समाधिस्थ होकर संजोया हो।

समुद्र के किनारे रूपी कंकन की तरह वहार दीवारी वाली , समुद्र रूप खान वाली एवं अन्य राजाओं द्वारा अजेय पृथ्वी पर एकछत्र राज्य करने वाले ( 1 ) राजा दिलीप की सेना तो छत्र - चामर के समान केवल शोभा बढ़ाने वाली सिद्ध हुई । क्योंकि प्रयोजन तो केवल दो से ही सिद्ध होते थे - एक तो शास्त्रों में पेनी बुद्धि से और दूसरे धुनष पर चढ़ी हुई प्रत्यचा से - पराक्रमी राजा दिलीप प्रजा की भलाई के लिये ही उनसे कर उसी प्रकार ग्रहण करते थे जिस प्रकार कि सहस्र गुणा करके वापिस बरसाने के लिये ही सूर्य पृथ्वी से जल ग्रहण करता है - ( 14 ) रंज्यति इति राजा ' अर्थात् जो प्रजा का रंजन करने अथवा प्रसन्न रखने के कारण ही राजा कहलाता है । यह लोकोक्ति राजा दिलीप पर यथार्थरूपेण सत्य घटित होती है । उनका लोकरंजन इस सीमा तक पहुँचा हुआ था कि नम्रतादि की शिक्षा देने आपत्तियों में रक्षा करने एवं भरण पोषण करने के कारण वे अपनी प्रजा के पिता थे उनके वास्तविक पिता तो केवल जन्म देने के कारण हुये । -रघु यौवना – वस्था में प्रवेश करते ही " विनय की दृष्टि से लघु होते हुये भी शारीरिक दृष्टि से अपने पिता दिलीप को भी पीछे छोड़ देते हैं । -रघु में विनय और वीरता , नम्रता तथा तेजस्विता और शिष्टता तथा दुर्धमता - इन विरोधी गुणों का सुन्दर समन्वय है । श्रीराम के रूप सौन्दर्य में रमणीयता का चरमोत्कर्ष होने के कारण ही दशरथ उनका नाम राम रखते हैं । -उन के सौन्दर्य - निरूपण में भी कवि ने कान्ति , भास्वरता , सुकुमारता और अनूठेपन आदि गुणों को समाविष्ट किया है । इन्दुमती स्वयंवर के अवसर पर पंक्तिबद्ध रंगमंचों पर समासीन राजकुमारों के मध्य उन मेघ पंक्तियों में विदयुत के सदृश - तथा कल्पद्रुमों के मध्य पारिजात के समान सुशोभित थे।- तथा जिसके सौन्दर्य का अद्भुत प्रभाव सभी को मंत्रमुग्ध कर देता है । उनके सौन्दर्य को देखकर नागरिकों की दृष्टि सब राजाओं को छोड़कर उस राजा पर ही उस प्रकार टिक गई जिस प्रकार भौरे , फूले हुये वृक्षों को छोड़कर तीव्र गन्ध वाले हाथी के गण्डस्थल पर पहुँच जाते हैं । – ( 15 ) कवि के नायकों की नम्रता व शिष्टता की शोभा भी दुर्घष वीरता व पराक्रम से ही होती है तथा भोग की शोभा योग से होती है । कुमार सम्भव में जहाँ शिव को , पार्वती के साथ अनेक प्रणय केलि का वर्णन किया है वहीं दूसरी ओर शिवजी को सर्वज्ञ , निष्काम , निरीह तथा सर्वशक्तिमान कहा गया है । वे गीता के उस आदर्श श्रेष्ठ पुरुष की तरह हैं , जो लोक - संग्रह के लिये सब मर्यादाओं का पालन करता है । वे देव हितार्थ तारकासुर के संहारार्थ ही प्रणय – सूत्र में बँधना स्वीकार करते हैं ।

ब्रह्मचारी द्वारा वर्णित शिवस्वरूप पूर्ण योगी का रूप है । उनके अनुसार शिव भस्म लपेटते हैं , दिगम्बर रूप धारण करते हैं , जटाजूट एवं हड्डियों के आभूषणों से सुशोभित होते हैं । उनके इस योगो रूप को देखकर कामदेव भी भयभीत हो जाता है । परन्तु ठीक इसके विपरीत विवाह के समय हिमवान के नगर की रमणियों द्वारा वर्णित शिव का रूप पूर्ण माधुर्य - सम्पन्न है उनका सौन्दर्य चरमावस्था की सीमा को स्पर्श करता हुआ दिखाई पड़ता है । वे उनके सौन्दर्य को देखकर कहती हैं कि सुकुमार शरीर वाली हमारी राजकुमारी ने ऐसे वर के लिये जो दुष्कर तप किया वह ठीक ही था , क्योंकि यदि कोई नारी इसकी दासी भी बन सके तो सौभाग्य की बात है , फिर इनकी पत्नी के तो कहने ही क्या ? वास्तव में उनके प्रसन्न चेहरे को देखकर वे नारियाँ विश्वास ही न कर सकी कि इनके क्रोध से कामदेव भस्म हुआ होगा । उनका विचार था कि इनके सुन्दर रूप को देखकर उसने स्वयं ही आत्महत्या कर ली होगी । रूप को देखकर दूसरा रूपवान ग्लानि के मारे मरमिटे - इससे बढ़कर रूप सौन्दर्य की पराकाष्ठा और क्या हो सकती है ।

कालिदास के नायक पराक्रम , दुर्घषता , साहस , शूर - वीरता तेजस्विता आदि शक्तिशाली गुणों में सभी को पीछे छोड़ देते हैं साथ ही उनमें सज्जनता , सौहार्द्रता , दयालुता और प्रेम आदि कोमलता – प्रधान गुणों के भी दर्शन होते हैं । रघुवंश में इन्दुमती की अकाल मृत्यु पर विरही अज का हृदय विदारक विलाप किस सहृदय को द्रवीभूत नहीं कर देता । वह पत्नी वियोग में विलाप करता हुआ देव को ही उलाहना देने लगता है कि इन्दुमती का हरण कर उसने उसका क्या नहीं छीन लिया , क्योंकि वह तो उसकी गृहिणी , विश्वस्त सचिव , सखी तथा ललित कलाओं में उसकी प्रिय शिष्या - सभी कुछ थी।– ( 16 ) उसके विलाप को सुनकर लता वृक्ष के मानो आँसू बहने लगते हैं । -

प्रिया के अभाव में अज का संसार सूना हो जाता है । उसका धैर्य टूट जाता है , प्रेम नष्ट हो जाता है , गाना बन्द हो जाता है , ऋतुयें उत्सव शून्य हो जाती हैं , भूषण पहनने का प्रयोजन ही समाप्त हो जाता है और शय्या भी शून्य हो जाती है।-
मेघदूत का यक्ष भी प्रिया - विरह में व्याकुलता की सीमा की पराकाष्ठा पर पहुँचा हुआ दिखाई देता है । विरह में क्षीण होने के कारण उसकी कलाई में पहना हुआ स्वर्ण वलय हाथ से गिर पड़ता है । -अश्रुपूरित नयनवाले विरही यक्ष का दुःख , आषाढ़ के प्रथम मेघ खण्ड को देखकर और भी अधिक आर्द्र हो उठता है । ऐसा क्यों न हो - वर्षाकालीन मेघों की उमड़ती हुई प्रथम घटाओं को देखकर सभोग - सुख - सुलभ व्यक्तियों का हृदय भी अधीर हो उठता है तो फिर उनके हृदयों का तो कहना ही क्या जो दूर होने के कारण अपनी प्रिया की आर्लिंगन आशा से वंचित है।- “ कामार्ता हि प्रकृति कृपणाष्चेतनाचेतनेषु ' – वाली उक्ति के अनुरूप ही जड़ और चेतन का विचार किये बिना ही वह विरही कामी यक्ष धूमः ज्योति सलिल व मरूत के संयोग से बने मेघ को अपना संदेश वाहक बनाकर अपनी प्रिया के पास सान्तव संदेश भेजने का उपक्रम करता है।- ( 17 ) वह अपनी पराधीनता के प्रति विवश है अन्यथा ऐसा कौन होगा जो वर्षाकाल में अपनी प्रिया की उपेक्षा करेगा ।

वास्तव में सम्पूर्ण मेघदूत विरही यक्ष के विरहाकुल हृदय से निकली हुई दीर्घ निःश्वासों का काव्य है । सम्पूर्ण काव्य यक्ष की विरह व्यथा से आप्लावित है ।

" मालविकाग्निमित्रम् " के नायक अग्निमित्र भी मालविका के विरह में कामोतेजित दिखाई देते हैं । प्रिया के दूर रहने पर शरीर का क्षीण होना तो स्वाभाविक है परन्तु सदैव हृदय में निवास करने पर भी हृदय का उसके वियोग में मिलन के लिये तड़पना कुछ अनूठी बात है । अग्निमित्र भी इसी परिताप से तपित है । - पुरूवा भी अपनी प्रिया उर्वशी के वियोग में पागल गजराज के समान सम्पूर्ण प्रकृति से उसका पता पूछता हुआ दिखाई देता है । प्रकृति के विभिन्न रूपों में वह अपनी प्रिया की चाल , नेत्र , वाणी , केश , रूपादि के सौन्दर्य को बिखरा हुआ पाता है । नदी को देखकर उसे ऐसा प्रतीत होता है कि उसकी प्रियतमा उर्वशी ही उससे रूठकर नदी रूप में परिणत हो गई है । -

कवि चूड़ामणि कालिदास ने मानव के ऐश्वर्यमय रूप , पराक्रमी - रूप , कामी एवं विरही सभी रूपों का जैसा अनुपम चित्रण प्रस्तुत किया है वैसा विश्व साहित्य में अन्यत्र दुर्लभ है ।

धन्य है , मानव - मन के कुशल पारखी कालिदास का साहित्य व उनके पात्र विश्व की अनोखी वस्तु है ।

" जिसकी वाणी ऊँच - नीच , निर्बन्ध कलुश को लाँघ गई ।
अपने मधुर स्नेह रस जल से , दुर्जनता को बाँध गई ।।
ऐसी धारा बही कि जिसने , भू को स्वर्ग बनाया ।
तू ने ही ओ अमर - पुत्र विष से अभी बहाया ।। "

" नारी पात्र तथा तद्गत सौन्दर्य '

नारी पात्र काव्य की प्राणवाहिनी धारा है , जिसमें जीवन का मर्म स्पर्शी मधुर रस लहलहाता रहता है । इस जीवन - रस के पान के लिये ही नायक अपने प्राणोत्सर्ग के लिये तत्पर रहता है । कवि अपनी काव्य - कला के चरम सौन्दर्य की कोमल सुकुमार सृष्टि करता है और प्रयोता नारी के द्वारा ही अपनी नाट्य कला के परम उत्कर्ष को स्थापित करता है । वस्तुतः नारी ही सुख की मूल , त्रिभुवन का आधार और त्रैलोक्यरूपा के रूप में भी शैवागमों में प्रशंसित रही है । ( 18) आचार्य भरत ने भी नारी को सुख का मूल तथा काम - भाव का आलम्बन माना है । - परन्तु भरत ने नारी - सौन्दर्य में उसके अंग - सौन्दर्य के साथ ही शील - सौजन्य , आचरण की पवित्रता तथा जीवन की प्रकृति और अवस्था को विशेष महत्व दिया है । रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने भी बड़ी मधुर कल्पना द्वारा नारी प्रतिमा सौन्दर्य को सजाया , संवारा है । ( उन्होंने उसे सम्पूर्ण सृष्टि का प्रेरणा स्रोत बताकर महिमा मण्डित किया है । -

आचार्य भरत ने नारी सौन्दर्य का सृजन करने वाले कुछ अलंकारों का भी उल्लेख किया है । इन अलंकारों द्वारा नारियों के विविध भावों और सुकुमार भाव - भंगिमा आदि का प्रेषण भी होता है और अनिर्वचनीय सौन्दर्य का सृजन भी । ये अंलकार भावरस के आधार होते हैं । सात्विक भाव मानव मात्र के मन में संवेदन रूप में व्याप्त है । परन्तु वह देहाश्रित है देह के माध्यम से उन सात्विक भावों की अभिव्यक्ति होती है । इन सात्विक विभूतियों के दर्शन उत्तम स्त्री-पुरुषों में होते हैं ।

स्त्रियों की उत्तमता के दर्शन अंगों में सुकुमारता और लालित्य , मन में कोमलता और प्राणों में मधुरता और रसमयता के रूप में होते हैं । जबकि पुरुष की उत्तमता उसकी वीरता , उदात्तता , दृढ़ता और साहस में निहित है । स्त्री और पुरुष की शरीर रचना और मनः प्रकृति दोनों ही भिन्न - भिन्न है । स्त्री की जीवन प्रकृति के अनुरूप ही भरत ने उन बीस उलंकारों की परिकल्पना की है जो नारी जीवन के अन्तः और बाहय को सौन्दर्य , सुकुमारता , सलज्जता , पवित्रता और स्नेहशीलता की उज्वलता से विभूषित करते हैं । ये अलंकार केवल शरीर शोभा ही नहीं , अपितु वे प्राणों का मधुर गुंजन हैं , नारी के शील का परिष्कृत परिनिष्ठित रूप आचार्य भरत ने नारी की अंग रचना , मनः सौष्ठव और उसके आकर्षण रूप विन्यास एवं विलक्षण स्वभाव का विवेचन करते हुये यह भी स्पष्ट किया है कि नारी प्रकृति नितान्त स्वतन्त्र नहीं है । उसके जीवन सौन्दर्य पर इस विराट प्रकृति के , अन्य प्राणियों के रूपरंग और स्वभाव आदि का भी प्रभाव पड़ता है और उनके प्रभाव योग से ही नारी के जीवन सौन्दर्य को पूर्णता प्राप्त होती है । इसीलिये कोई मृग - सी सुकुमार एवं चंचल बड़े नेत्रों वाली होती है , कोई गौ की तरह पितृ देवार्चनरता , सत्यता और पवित्रता की धारा में धुली हुई तथा निरन्तर क्लेश सहने वाली , कोई गन्धर्व कन्या सी गीत , वादय और नृत्य में रत स्निग्ध नयनस्निग्ध - केश और स्निग्ध त्वचा वाली होती है , कोई देवांगना सी नीरोग , दीप्ति - शोभित , अल्पाहार प्रिया , और गंध - पुष्परता परम - रमणीय होती है , कोई मानवीय धर्म , कार्य और अर्थ में निरत चतुर , क्षमाशील , संतुलित अंगवाली , कृतज्ञ , अहंकार रहित , मित्रप्रिया एवं सुशीला होती है , और कोई बानर की सी अल्पतनु , प्रसन्न , पिंगलरोम वाली , छल करने वाली , किचिंत उपकार को भी बहुत मानने वाली और हठपूर्वक रति करने वाली होती है । - ( 19 )

आचार्य भरत के द्वारा नारी की इन विभिन्न प्रकृति के आधार पर ही उनके तीन भेद किये हैं उत्तम , मध्यम और अधम । कोमल हृदय स्मित पूर्वा भाषिणी , अनिष्ठुर , गुण वर्णन में निपुण , सलज्ज , विनयशील , मधुर , रूपवती , गुण - सम्पन्न , गंभीरधीर स्त्री उत्तम प्रकृति की होती है । मध्यम प्रकृति की नारी उत्तम प्रकृति की नारी से गुणों में किंचित ही न्यून होती है , पर दोष उसमें उत्पन्न होते हैं । कटु वचन , दुःशीलता , पिषुनता , अकृतज्ञता , आलस्य , पुरुषों के प्रति चंचलता , कलह - प्रियता - पाप पर द्रव्यापहारिता और क्रोध से युक्त अधम प्रकृति वाली होती है ।

कामशास्त्र में चार प्रकार की नायिकाओं का उल्लेख किया गया है . पद्मिनी , चित्रिणी , रागिनी , हस्तिनी । ज्योतिषशास्त्र और कामशास्त्र के अनुसार श्रेष्ठ नायिका में स्थूल शारीरिक सौन्दर्य सम्बन्धी बत्तीस लक्षण बताये गये हैं ( 1 ) नव - रत्न वर्ण ( 2 ) पादपृष्ठ - कछुऐ की पीठ जैसा ( 3 ) गुल्फ – गोलाकार ( 4 ) पैर की उंगली - अविरल ( 5 ) तलवा - लाल और शुभचिह्न युक्त ( 6 ) जंघा- गोल चढ़ाव उतारदार ( 7 ) जानु - सुडोल ( 8 ) ऊरू - अविरल ( 9 ) भग - पीपल पत्र जैसा ( 10 ) भग का मध्यभाग गुप्त ( 11 ) पेड़ - कूर्म पृष्ठवत् 12 ) नितम्ब - मांसल ( 13 ) नाभि – गम्भीर ( 14 ) नाभिका ऊपरी भाग - त्रिवली युक्त ( 15 ) स्तन - गोल और कठोर ( 16 ) पेट - मृदु , लोभरहित ( 17 ) ग्रीवा - कम्बुवत् ( 18 ) ओष्ठ - लाल ( 19 ) दाँत कुन्दवत् ( 20 ) वाणी - मधुर ( 21 ) नासिका सीधी ( 22 ) नेत्र – कज्जलवत् ( 23 ) भौंह – धनुषवत ( 24 ) ललाट अर्ध चन्द्रवत् ( 25 ) कर्ण कोमल ( 26 ) केश -नीले , सटकारे , सुकुमार ( 27 ) शीश - सुडौल ( 28 ) कलाई - गोल , कोमल ( 29 ) बाँह - सुडौल ( 30 ) मणिबंध - नीचे को दबा हुआ ( 31 ) हथेली – रक्त वर्ण ( 32 ) हाथ की उँगली – पतली सुडौल
इन सौन्दर्य - लक्षणों के विद्यमान होने पर भी नायिका को श्रृंगार करना आवश्यक माना गया है । श्रृंगार सोलह माने गये हैं ।

कालिदास नारी के अंग - प्रत्यंग के सौन्दर्य से भली - भांति परिचत थे । उनकी महिमा मण्डित नारी सौन्दर्य को देखकर ऐसा प्रतीत होता है मानो उन्होंने नारी को अत्यधिक निकट से देखा और परखा है ।

उन्होंने अपने ग्रन्थों में नारी पात्रों के केवल रूप - सौन्दर्य का ही वर्णन नहीं किया , अपितु अन्य गुण सौन्दर्य का भी चित्रण किया है । कुमार सम्भव के प्रथम सर्ग में पार्वती जी का वर्णन करते हुये कवि ने लिखा है कि “ पढ़ने लिखने की आयु में पहुँचते ही - पूर्व जन्म के संस्कारों के कारण उसमें सब विद्याऐं इस प्रकार अवतीर्ण होने लगी जैसे शरदागम से गंगा में हँस मालायें या रात होते ही हिमालय की दिव्य औषधियों में उसकी स्वाभाविक दिव्य ज्योति अवतीर्ण हो जाती है । - ( 20 ) और जब शैशव समाप्त कर उसने धीरे धीरे आयु के उस भाग में पदार्पण किया , जो देह स्त्री लता का स्वाभाविक श्रृंगार है , जो मदिरा न होकर मन को मतवाला बना देता है , और फूल न होता हुआ भी कामदेव का तीखा तीर है , तब उस नवयौवन से उसका सुडौल शरीर ऐसा खिल उठा जैसे तूलिका से रंग भर देने पर तस्वीर या सूर्य की किरणों के स्पर्श से कमल का फूल खिल उठता है । - ( 21 )

पार्वती जी के नरव - शिरव सौन्दर्य का वर्णन करते हुये कवि कहते हैं कि उनके चरण इतने कौमल थे कि पृथ्वी पर धरते ही उनके नखों से अरूण आभा फूट पड़ती थी और जब वह चलती थी तो उनके लाल चरणों की कान्ति के पड़ने से ऐसा प्रतीत होता था मानो जगह जगह पर स्थल कमल खिल उठते हों । - हाथी की सूंड और कदली स्तम्भ आकार में भले ही उसकी जाँघों के समान थे , किन्तु उनमें से एक तो खुरदरी तथा कर्कश और दूसरा एकदम बहुत ठंडा । इसलिये वे उनकी बराबरी नहीं कर सकते । उसकी कमर पतली थी और नवयौवन उभार पर था । उसके पेट पर पड़ी तीन रेखायें ऐसी प्रतीत हो रही थीं मानो कामदेव के चढ़ने के लिये नवयौवन ने वहाँ नसैनी लगा दी हो । उसकी बाहें शिरीष के फूल से भी अधिक सुकुमार थी जान पड़ता था मानो इसीलिये कामदेव ने पराजित होकर भी उन्हें कण्ठपाश बनाकर शिवजी को बन्दी कर लिया है । पहले , रात होने पर , निवास के लिये सुषमा जब चन्द्रमा में जाती थी , तो वहाँ पर वह कमल की कोमलता और सौरभ आदि से वंचित हो जाती थी , और दिन के समय कमल में आने पर उसे चन्द्रमा के सुखों से हाथ धोने पड़ते थे , किन्तु पार्वती के मुख में स्थान पाकर उसे दोनों सुखों की प्राप्ति एक साथ हो गई । - ( 22 ) उनके लाल होठों पर छिटकी हुई मीठी मुस्कान की धवलिमा ऐसी प्यारी लगती थी जैसे लाल कोपलों में सफेद फूल खिले हों या चमकदार मूंगों के बीच में मोती जडा हो । -उनका कण्ठ अत्यन्त सुन्दर था । उसमें से स्तनों पर लटका हुआ गोल गोल मोतियों का हार ही उसकी शोभा को नहीं बढ़ा रहा था , बल्कि उस कण्ठ में पड़ने से हार की भी शोभा बढ़ जाती थी । साधारण सुन्दर शरीर की शोभा आभूषण से बढ़ जाती है किन्तु असाधारण सुन्दर शरीर की शोभा उससे यदि घटती नहीं तो बढ़ती भी नहीं । बिहारी ने ठीक ही लिखा है सुन्दरी . तुम आभूषण पहनती हो उनसे क्या लाभ है ? वे तो तुम्हारे स्वाभाविक रूप पर दर्पण के दाग से दीखते है । कालिदास ने अपने विक्रमोर्वशीय नाटक में उर्वशी के सौन्दर्य का वर्णन करते हुये लिखा है कि - ‘ उसकी देह तो आभूषणों की भी आभूषण सजावट की सामग्री को भी सजा देने वाली और उपमानों की भी प्रत्युपमान है । उर्वशी को देखकर पुरूखा कहता है ' यह बेचारे उस बूढ़े तापस की रचना नहीं हो सकती , क्योंकि वेद पढ़ - पढ़ कर पत्थर हो गये महाठूठ खूसट मुनि के शिथिल हाथ भला ऐसे रूप का निर्माण कैसे कर सकते हैं ? उसके लिये तो , हो न हो कमनीय कान्ति वालें चन्द्रमा ने प्रजापति का स्थान ग्रहण किया होगा या श्रृंगार रस के देवता स्वयं कामदेव अथवा प्रचुर पुष्प सम्पत्ति वाले वसन्त ने इसकी रचना की होगी । ( 23 )
कालिदास की सभी नायिकायें अनूठे व अनुपम सौन्दर्य वाली हैं । उन्हें देखकर ऐसा आभास होता है मानो

" सँजोकर सभी सृष्टि की कान्ति ,
विधाता ने तुमको ढाला '

शकुन्तला असाधारण सुन्दरी थी । उसका जन्म भूतपूर्व राजा विश्वामित्र द्वारा अप्सरा मेनका के गर्भ से हुआ था । तभी तो उसे देखकर रूप विस्मित दुष्यन्त ने कहा था ।

“ मानुषियों में रूप यह संभव है किस भाँति । नहीं प्रकटती भूमि से प्रभा तरल यह कान्ति ।। "शकुन्तला के सौन्दर्य का वर्णन कवि ने नख - शिख शैली में नहीं किया अपितु इसके लिये उन्हें सूक्ष्म कल्पना का सहारा लेना पड़ा है । शकुन्तला के रूप सौन्दर्य का वर्णन विदूषक से राजा दुष्यन्त इस प्रकार करते हैं -
" अंकित कर वह रूप चित्र में फूंक दिये क्या उसमें प्राण ?
क्या लावण्य राशि ले , मन से किया विधाता ने निर्माण ?
विधि के वैभव और रूप वह दोनों पर देता हूँ ध्यान ,
तो दिखती स्त्रीरत्न सृष्टि वह मुझे और ही रूप निधान ।। –

अर्थात - दुष्यन्त एक ओर शकुन्तला के इस अनूठे सौन्दर्य को देखता है और दूसरी ओर ब्रह्मा जी की रूप निर्माण क्षमता पर विचार करता है तब ललनाओं में रत्न समान वह ( शकुन्तला ) कोई नई ही रचना प्रतीत होती है । प्रतीत होता है कि एक आदर्श सुन्दरी के रूप का कल्पना चित्र बना उसमें जान फूंक दी है या फिर विधाता ने ही पाँच भौतिक उपादानों अस्थि , भज्जा , माँस आदि के स्थान पर सौन्दर्य राशि को लेकर ( हाथों से नहीं ) अपने मानसिक व्यापार से ही उसकी रचना की है । कालिदास की इस सूझ की व्याख्या करते हुये बाण लिखते हैं कि मैं समझता हूँ कि प्रजापति ने चण्डाल जाति के स्पर्श से बचने के लिये , इसे , बिना छुये मन से ही बनाया है । नहीं तो लावण्य का ऐसा अछूतापन सम्भव नहीं । हाथों के लग जाने से तो सौन्दर्य की कान्ति म्लान हो जाती है । "

कालिदास कृत सौन्दर्य वदना शकुन्तला प्रकृति के प्रति अत्यधिक उदार एवं सहानुभूति परक दिखाई देती है । तभी तो पति - गृह को जाते समय कण्व ऋषि सम्पूर्ण प्रकृति के पशु - पक्षी , वृक्ष - लतादि से आज्ञा देने की बात कहते हैं – (24) जो तुमको पानी बिना पिलाये स्वयं पानी नहीं पीती थी , भूषणों की रूचि होने पर जो प्रेम के कारण तुम्हारी पत्तियों को तोड़ती नहीं थी , तुम्हारे पहले फूल निकलने पर जो आनन्द से उत्सव मनाया करती थी , वह शकुन्तला आज पतिगृह जा रही है आप सभी उसे अनुज्ञा दें । उस समय सभी तपोवन देवता और देवी उसको आशीर्वाद देती है । सभी के प्रति आत्मीय भाव रखने वाली शकुन्तला आज जा रही है , इसलिये सारा तपोवन दुःख से व्याकुल है । हरिणों के मुख से दर्भ कवल गिर पड़ते हैं । मोर अपना नाचना बन्द कर देते हैं । लतायें सूखे पत्तों के मिस आँसू ढाल रही है । शकुन्तला अपनी वनज्योत्स्ना नाम लतारूपी भगिनी से भेंट करती है । गर्भिणी मृगी जब बच्चा जने तब मुझे खबर देना ऐसी प्रार्थना वह कण्वऋषि से करती है ।

शकुन्तला स्त्रीजनित लज्जा से युक्त है । राजा को देखते ही उत्पन्न प्रेम विकार के कारण उसकी ओर आकृष्ट हो वह कामवश हो जाती है परन्तु उसने स्वाभाविक लज्जा के कारण अपना प्रेम अपनी सखियों को भी प्रकट नहीं किया । उनके पूछने पर भी वह “ सखियों तपोवन के रक्षक वे राजर्षि जबसे इन आँखों में आ बसे है ............ । " कहती कहती बीच में ही चुप हो जाती है । राजा से बोलना तो दूर रहा , वह उनके सामने खड़ी भी नहीं रह सकी । विदूषक के पूछने पर कि शकुन्तला ने कैसा बर्ताव किया था , राजा इस प्रकार वर्णन करता है - (25)

अन्तिम अंक में पुनः पहचान हो जाने पर पुत्र का हाथ पकड़कर राजा शकुन्तला से कहता है कि - " तेरे साथ भगवान मारीच ऋषि के दर्शन हेतु जाने की मेरी इच्छा है । " तब वह कहती हे कि “ आपके साथ गुरूजनों के सामने जाने में मुझे लज्जा लगती है । वास्तव में शकुन्तला विनयशील , सरल व भोली है ।

" शकुन्तला भी सीता के समान पतिवृता है । पति के बिना कारण छोड़ दिये जाने पर भी वह सदैव उसका चिंतन करती है और विरहिणी स्त्रियों के समान ही अपने दिन काटती है । अन्त में मिलन होने पर भी जब राजा पश्चाताप करता हुआ स्वयं को दोष देता है तब " मेरे किये हुये कार्यों से आप जैसे दयार्द्र भी मेरे ऊपर निष्ठुर हो गए " यह कहकर उसका समाधान करती है । वस्तुतः कवि ने शकुन्तला के रूप में स्वभाव , सद्गुणी एवं कतर्व्यनिष्ठ आदर्श हिन्दू - गृहणी का चित्र खींचा है ।

रघुवंश के छठे सर्ग में चित्रित पूर्वजन्म की अप्सरा राजकुमारी इन्दुमती भी कम सुन्दर नहीं है । जिससे विवाह की कामना कर , दूर दूर से इतने राजकुमार एकत्रित हुये वह अवश्य ही अभूतपूर्व सुन्दरी रही होगी । किन्तु कवि ने केवल इतना ही कहा है कि वह विधाता की असाधारण रचना थी । सैकड़ों नेत्रों ने उसे एकटक देखा और देखते ही उनके केवल शरीर ही अपने स्थान पर पडे रह गये , हृदय तो उस सुन्दरी की भूल भुलैया में खो गये । यहाँ पर कवि ने विश्व के प्रत्येक हृदय को पूरी छूट दे दी है कि वह अपनी कल्पना को आदर्श सुन्दरी के साँचे में इन्दुमति को ढाल ले । अतः कालिदास की इ न्दुमति केवल भारतीय सुन्दरी नहीं अपितु विश्व - सुन्दरी है । कालिदास द्वारा बनाये ये सौन्दर्य कभी पुराने नहीं पड़ सकते , इसीलिये इन पर माघकृत सौन्दर्य की वह परिभाषा खूब चरितार्थ होती है जिसमें कहा गया है कि सौन्दर्य वही है जो प्रतिक्षण नया ही नया झलकता है ।

मेघदूत में वर्णित यक्ष - पत्नी का रूप सौन्दर्य भी ऐसा अनूठा ही दिखाई देता है । मेघदूत के 19 वें पद में यक्ष अपनी पत्नी का सौन्दर्य वर्णन करते हुये मेध से कहता है कि - " वहाँ ( अलकापुरी वाले मेरे घर में ) तुम्हारी दृष्टि एक ऐसी दुबली पतली श्यामा युवती पर पड़ेगी जो भरी जवानी में होगी और जिसे देखकर तुम अवश्य ही कह दोगे कि विधाता की नारी सृष्टि में उसके जोड़ की दूसरी नहीं हो सकती । उसके दाँत हीरे की तरह और होंठ पकी कंदूरी जैसे होंगे । वह डरी हुई हरिणों की तरह चंचल नेत्रों से निहारती होगी और स्तनों के बोझ से जब वह कुछ आगे को झुककर धीरे - धीरे चलती होगी तो उसकी पतली कमर लचक जाती होगी । यहाँ पर भी कवि ने नायिका के मुख , आँख आदि अवयवों के आकार प्रकार या रूप रंग का निर्देश नहीं किया । सामान्य रूप से इतना ही कहा है कि उसका शरीर पतला है और उसकी जवानी उभार पर है । उसके दाँत चमकीले और होंठ लाल है । उसकी कमर पतली और वक्षपुष्ट है तथा कोई अन्य स्त्री सौन्दर्य में उसकी बराबरी नहीं कर सकती सम्भवतः संसार का कोई भी देश या समाज ऐसा न होगा जिसे इस प्रकार का नारी रूप स्वीकार न हो । अनार या हीरे से चमकीले दाँत हरिणी के से भोले नेत्र , पतली कमर , पुष्ट स्तन और उस पर चढ़ती जवानी किसे अच्छी न लगेगी ? (26)

यक्ष अपनी प्रियतमा के प्रत्यंग सौन्दर्य की प्रकृति को विभिन्न वस्तुओं में बिखरा हुआ देखता है । वह कहता है कि बातबात पर रूठ जाने वाली ऐ प्यारी , तुम्हारे शरीर की शोभा श्यामलता में , कटाक्षों की छटा , डरी हुई हरिणी की चितवनों में , मुखमण्डल की माधुरी , चन्द्रमा में और केशपाश की सुषमा , मयूर के लम्बे बर्ह में मिल जाती है । नदी की हल्की लहरियों में , तुम्हारे वाँके भ्रूविलासों का आभास भी देख पाता हूँ पर तुम्हारे सम्पूर्ण सौन्दर्य की उपमा कहीं अन्यत्र नहीं मिलती है ..

कुमार सम्भव में कालिदास ने सम्भवतः इसी को पूरा करने के लिये ही लिखा है कि ब्रह्मा जी के हृदय में यह कुतुहल उत्पन्न हुआ कि इन सब प्रसिद्ध उपमानों चन्द्रमा , नीलकमल , और विम्बाफल आदि को यदि एक जगह सँवार कर आदर्श रूप की रचना की जाये तो वह कैसा हो और मानो इसी निमित्त से उन्होंने पार्वती जी का निर्माण किया । इस प्रकार कवि अपने शब्द चातुर्य से सहृदय के चित्रपट पर ऐसे सौन्दर्य की रूपरेखा खींच देता है , जिनमें प्रत्येक पाठक अपनी रूचि तथा भावना का रंग भरकर उसे पूर्ण कर लेता है ।

मालविकाग्निमित्र की नायिका मालविका के रूप - सौन्दर्य का वर्णन करते हुये राजा विदूषक से कहता है कि . " तस्वीर में देखकर मैं समझा कि वह सचमुच इतनी सुन्दर न होगी , पर अब पता चला , कि इसका रूप चित्रित करने में तो चित्रकार ही असफल रहा । फिर उसके सौन्दर्य की प्रशंसा करता हुआ राजा मन ही मन कहने लगा कि .......... “ यह तो सिर से पैर तक एकदम सुन्दर है । बड़ी बड़ी आँखें , शरद के चाँद सा चेहरा , कन्धों के पास झुकी हुई बाहें , कड़े स्तनों से जकड़ी हुई सुन्दर छाती , सुधड़ कोखें , मुट्ठी भर की कमर , भारी नितम्ब और उभरी हुई उँगलियों वाले दोनों पैर मानो नाट्याचार्य की इच्छा के अनुरूप ही विधाता ने इसके एक एक अंग की रचना की है । एक तो मालविका अपूर्व सुन्दरी , फिर ललित कला में उसकी स्वाभाविक गति और सूझबूझ , उस पर भी गणदास जैसे कुशल आचार्य द्वारा प्रशिक्षण सबने मिलकर सोने में सुहागा सा कर दिया ।

कालिदास की अधिकांश नायिकायें कला - निपुण है । मालविका और इरावती नृत्यकला में निपुण है तो अनुसूया और प्रियम्बदा चित्रकला में निपुण दिखाई देती है । यक्ष पत्नी भी विरहकाल में वीणा बजाकर उस पर स्वरचित पद गाकर मनोरंजन करती है । इसके अतिरिक्त अन्य कुछ नायिकायें प्रकृति प्रेमी भी है । पार्वती , सीता , शकुन्तला तथा उनकी सखियाँ स्वयं ही आश्रम के वृक्षों में पानी देती व उनकी सेवा – सुश्रुषा करती है । यक्ष - पत्नी ने भी अपने घर के आँगन में एक छोटे से मंदार वृक्ष को , गोद लिये हुये बेटे के समान पाल - पोष कर बड़ा किया है । वसन्त ऋतु में अन्य वृक्षों के साथ अशोक में कलियाँ न आई देखकर धारिणी को अपार दुःख होता है तथा मालविका के चरणप्रहार द्वारा अशोक को पुष्प संभार देखकर वह आनन्द की लहर में स्त्रीस्वभाव सुलभ सपत्नी - मात्सर्य को भी भूलकर स्वयं ही मालक्किा के साथ राजा का विवाह कर देती है । ये कला निपुणता एवं प्राकृतिक प्रेम के गुण इन नायिकाओं के सौन्दर्य में चार चाँद लगा देते हैं ।

कालिदास की नायिकायें पशु - पक्षियों से भी निस्सीम प्रेम करने वाली है । निसर्ग - प्रेमी शकुन्तला ने , जन्म से ही मातृहीन दीर्धापांग नामक छोने को पुत्रवत् पालकर बड़ा किया था । यक्ष - पत्नी सन्ध्या के समय अपने भवन के आँगन में रत्नजटित स्वर्ण की लकड़ी पर बैठे हुये मोर को मधुर ताल रव से नचाया करती थी । पार्वती हरिणियों से इतना हिलगई थी कि वह उसके नेत्रों की लम्बाई की तुलना अपनी सखियों के नेत्रों से किया करती थी ।

कालिदास की ललनाकुलललामभूता उर्वशी भी अनिन्दय सुन्दरी है । वह देवों और मानुषी सम्प्रदायों का सम्मिश्रण है । भगवान भुवनभास्कर की उपासना से लौटे हुये पुरूखा अपने प्रथम मिलन में ही उर्वशी के रूप - सौन्दर्य की ओर चुम्बक के समान आकृष्ट हो जाते हैं । वह प्रथम दृष्टि में ही अपना मन खो बैठते हैं । भला ऐसा क्यों न हो ? उर्वशी कोई सामान्य सुन्दरी नहीं है । स्वयं पुरूरवा के शब्दों में उसका सौन्दर्य आभूषणों का भी आभूषण है , सौन्दर्य का प्रसाधन है तथा उपमानों का भी उपमान है । ( 28 ) तभी तो वह अपने उन्हीं अंगो को सार्थक मानता है , जिनका स्पर्श उर्वशी के अंग से हो गया है , इतर अंग तो पृथ्वी के भारस्वरूप है । रूप - सौन्दर्य के साथ ही उर्वशी शील - सौन्दर्य सम्पन्न भी है । उसके विलक्षण गुण सौन्दर्य व रूप के कारण ही रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने उर्वशी के लिये यह प्रशस्ति समर्पित की है -
" हे चिरयौवना उर्वशी ! क्या तू कभी नवकलिका अबोध- बालिका नहीं थी ? किसके तिमिरावृत पटल के नीचे बैठकर तूने मोतियों एवं मणियों से क्रीड़ा करते हुये अपना बचपन व्यतीत किया । समुद्र की लहरों के मन्द संगीत से आश्वस्त होकर तूने मणियों की आभा से चमकते हुये किस कक्ष में किसके साथ विद्रुम शैया पर अपने पवित्र मुख की मुस्कान से रंजित करते हुये शयन किया जिस क्षण जागकर तूने विश्व में प्रवेश किया , क्या तभी पूर्ण विकसित सौन्दर्य से समन्वित यौवन की धनी बन गई थी ? हे उर्वशी । युग - युग से तू संसार की प्रेयसी रही है , मुनियों ने समाधि भंग कर तपश्चर्या के फलस्वरूप तेरे चरणों का चुम्बन किया एवं तेरे यौवनोंद्रेक से त्रैलोक्य में विक्षोभ उत्पन्न हो गया , अन्य समीर तेरे मादक सौरभ को चारों दिशाओं में फैलाता है , मध्यपान से मतवाले भ्रमर के समान मनोमुग्ध कवि , लोभी हृदय के साथ आनन्दातिरेक में अपनी स्वर लहरियाँ उक्षिप्त करता है । जबकि तू झनझनाते नुपुरों एवं फरफराते आंचलों के साथ चपला सी चंचल भंगिमा में इतस्ततः घूमती है । देवताओं की सभा में , हे हिलती हुई तरंग उर्वशी . जब तू अत्यधिक उल्लास के साथ नाचती है , तब समुद्र के मध्य , लहरों का समूह ताल ताल पर नाचता है । तब शास्त्रों की शिखाओं में पृथ्वी के आँचल काँपने लगते हैं । तेरे कण्ठद्वार के समान नक्षत्र आकाश में टूट - टूट कर विखर जाते हैं । अकस्मात् मानव हृदय अपने को भूल जाता है और स्वतः नाचने लगता है । अकस्मात् क्षितिज पर तेरी मेखला टूट जाती है । आह तू कितनी उन्मुक्त एवं उद्दाम है ।

अब वह लौटकर नहीं आयेगी , नहीं आयेगी । वाले उर्वशी . ज्योति का कलाधर डूब गया । अस्ताचल के ऊपर अपना निवास बना लिया है । अतएव आज किसी चिरन्तन वियोग का उच्छवास पृथ्वी पर प्रसन्न माधवी समीर के साथ मिल जाता है । पूर्णिमा की रात में जब संसार प्रसन्न होता है , किसी सुदूर प्रदेश से आती हुई स्मृति वंशी बजाती है जो विक्षोभ उत्पन्न करता है , आँसू शीघ्रता से बाहर आ जाते हैं , तथापि अन्तरात्मा के उस क्रन्दन से आशा जगती है और जीती है । आह् अनियन्त्रित उर्वशी । - ( 29 )

कालिदास की उर्वशी एक प्रसन्नवदना रूपशलिनी सुन्दरी है । जिसके जीवन की प्रधान प्रेरणा प्रेम है " मदन जलु माँ नियोजति ' वह मूलतः एक प्राकृत सुरम्य कामिनी है वह देवलोक की सुन्दरी होते हुये भी देवांगना की औचपरिक गरिमा से दूर है । उसे हृदय में भावों की प्राकृतिक क्रीड़ास्थली है । मुख पर माधुर्य है । यदि वह स्वर्ग की अप्सरा है तो यह सोचा जा सकता है कि स्वर्ग पृथ्वी की ही ललित प्रतिच्छाया है ।

कालिदास के काव्य में नारी के केवल यौवन - सौन्दर्य का ही नहीं प्रत्युत उसके कन्या पत्नी एवं माता - तीनों ही रूप पूर्णरूपेण निखर उठे हैं । उनकी नायिकाओं में आदर्श कन्या , आदर्श पत्नी एवं आदर्श मातृत्व - भावना के दर्शन होते हैं । नायिका पहले माता - पिता के उमड़ते हुये वात्सल्य का विषय बनती है और बाद में मातृत्व का वरदान पाकर धन्य हो जाती हैं । कवि की सभी आदर्श नायिकाओं का सौन्दर्य अन्तस्तल का सौन्दर्य है । त्याग और तपस्या में तपकर ही उनका चरित्र कंचन के समान निखर सका है । इन श्रेष्ठ नायिकाओं के अतिरिक्त कवि ने जिन विलासवती नारियों की चर्चा की है । वे मादक अवश्य हैं परन्तु कालिदास के मन में उनके लिये कोई विशेष गौरवपूर्ण स्थान प्राप्त नहीं हो सका है । गौरव का स्थान उनके लिये है जो तपोवनों में पली हैं , संयम में बढ़ी है जिनका सौन्दर्य आन्तरिक सहज गुणों का सौन्दर्य है । उनकी नायिकाओं के चरित्र में , भारतीय सभ्यता संस्कृति का जो कुछ सर्वोत्तम हे , उसी का स्वर गूंज रहा है ।

" हर युग का ज्ञान कला देती रहती है ।
हर युग की शोभा स्त्री लेती रहती है ।
इन दोनों से भूषित - वेशित और मण्डित ।
हर स्त्री प्रतिमा एक दिव्य कथा कहती है ।।

गुण एवं शारीरिक सौन्दर्य

“ यत्राऽकृतिः तत्र गुणाः वसन्ति ” –

भारतीय विद्वानों के अनुसार सुन्दर आकृति में ही सुन्दर व श्रेष्ठ गुणों का निवास माना गया है या इस प्रकार कहें कि उत्तम गुणों से परिपूर्ण होने पर ही मानव सौन्दर्य में निखार आता है । सामुद्रिक शास्त्र के अनुसार – सुन्दर रूप में ही सुन्दर गुणों का निवास माना गया है । श्री हर्ष ने अपने नैषधचरित में राजा नल द्वारा हंस को कही उक्ति में भी इसी मत की पुनः पुष्टि की है । वे कहते हैं कि " सुन्दर रूप में सुन्दर गुणों का निवास होता है " , सामुद्रिक शास्त्र के इस निष्कर्ष के उदाहरण तुम्ही हो । कविमूर्धन्य कालिदास का भी यही विचार है कि रूप ( सौन्दर्य ) के साथ कभी भी पापवृत्ति अर्थात् कलुषित भावनाओं का समावेश नहीं होता । शारीरिक सौन्दर्य के साथ शीलादि गुणों का भी होना आवश्यक है । जिसका आत्म तत्व जितना पवित्र , निर्मल व शुद्ध होगा , उसके निवास के लिये उसे उतना ही सुन्दर शरीर मिलता है , या वह अपनी पवित्रता से शरीर को उतना ही सुन्दर व कान्तियुक्त बना लेता है । स्पेन्सर महोदय ने भी इस तथ्य को स्वीकार करते हुये कहा है कि " सत्य तो यह है कि जो आत्मा जितनी अधिक पवित्र तथा दिव्य प्रकाश से युक्त होती है , उसे अपने निवास के लिये यहाँ उतना ही सुन्दर शरीर मिलता है और वह उसे प्रसन्न मुद्रा तथा मधुर रूप से सजा लेती है , क्योंकि आत्मा ही वह साँचा है जो शरीर को अपने अनुसार ढाल लेता है।-

साधारण नारी और पुरुष में भिन्न - भिन्न कुछ सामान्य गुणों का होना आवश्यक माना गया है । जैसे नारी में यदि सुकुमारता , लज्जा , शीलता , मृदुभाषण , माधुर्यादि को सौन्दर्य के आवश्यक तत्व स्वीकार किया गया है तो दूसरी ओर शौर्य , वीरता , पौरुष , ओज , धीरतादि के द्वारा पुरुष - सौन्दर्य का मापन किया गया है । इसके साथ ही उदारता , परोपकार , सत्य अहिंसा , प्रेम , सहानुभूति आदि कुछ ऐसे सामान्य गुण हैं जो सम्पूर्ण मानव को सौन्दर्य वृद्धि में सहायक होते हैं ।

दशरूपककार ने नायक के गुणों का उल्लेख किया है । इन्हीं गुणों के कारण नायक नाटक में अन्य पात्रों की अपेक्षा श्रेष्ठता को प्राप्त होता है । सामान्यतः नायक को विनीत ( नम्र स्वभाव का ) , मधुर व्यवहार वाला त्यागी , दक्ष , प्रियम्बद ( प्रिय वचन बोलने वाला ) शक्ति सम्पन्न , कुशलवत्ता , निश्छल , प्रवृति का होना चाहिये । वह बुद्धि - सम्पन्न , उत्साह , स्मृति , प्रज्ञा , कला - कुशल , शूरवीर , विक्रमी , तेजस्वी , एवं शास्त्र - चक्षु ( शास्त्रों का ज्ञाता ) होना चाहिये । -

दशरूपककार धनंजय ने इसी संदर्भ में आगे नायक के आठ सात्विक गुणों का उल्लेख किया है । शोभा , विलास , माधुर्य , गाम्भीर्य , स्थैर्य , तेज , ललित एवं औदार्य आदि के आवश्यक गुण बताये गये हैं । आचार्य भरत ने भी “ नाट्यशास्त्र में नायक के इन्हीं आठ गुणों का उल्लेख किया है ।

1. दक्षता , शौर्य , उत्साह , अधम व्यक्ति एवं नीच वस्तु से घृणा , उत्तम गुणों से स्पर्धा को शोभा कहते हैं ।
2. धीर संचारिणी दृष्टि , वृषभ के समान सुन्दर गति , एवं मुस्कान युक्त वार्तालाप करने वाला नायक विलास गुण सम्पन्न कहा जाता है ।
3. बड़े - बड़े बिकारों अर्थात् युद्ध , संग्रामादि उपक्रमों के समय भी , अभ्यास के कारण , आकृति में कोमलता अर्थात् वाह्य मुद्रा में सुकुमारता बने रहने को ही माधुर्य गुण की संज्ञा दी गई है ।
4. अनेक विघ्न समूहों के रहने पर भी , धर्म अर्थ , काम , मोक्षादि शुभाशुभ फल देने वाले कार्यों में स्थिरता को ही धैर्य कहा गया ।
5. गाम्भीर्य नामक का वह गुण है , जिसके प्रभाव से , विकारोत्पत्ति का अवसर या कारण उपस्थित रहने पर भी विकार के प्रत्यक्षीकरण का अभाव रहता है।
6. स्वाभाविक एवं मधुर श्रृंगारपरक – श्रेष्टायें ही ललित नामक सात्विक गुण है।
7. दूसरे के द्वारा किये गये निन्दा , अपमानादि एवं प्राणनाश को भी सहन कर लेना तेज कहा गया है ।
8. शत्रु एवं प्रियजनों को जीवनपर्यन्त दान देना तथा सज्जनों का उपग्रह एवं प्रिय भाषण करना औदार्य कहलाता है ।

नाट्यशास्त्र में नायिकाओं के भी गुणों का उल्लेख किया गया है जिनमें तीन सात्विक , दस स्वाभाविक एवं सात अयत्नज बताये गये हैं । ये गुण उनके शारीरिक सौन्दर्योत्पादक होते हैं । आचार्य भरत ने स्त्रियों के विभिन्न गुणों , शील , स्वभावादि के आधार पर उनके 21 भेद किये हैं जिनमें से कुछ मुख्य निम्नलिखित हैं l

स्निग्ध एवं मृदुल अंगों वाली , रोगहीन , दीप्तियुक्त , दानशीला दीप्ति युक्त कम खाने वाली , अल्पस्वेदा , संभोगेच्छुका , सुगन्धित फूलों से अनुराग रखने वाली , मनोहारिणी सुन्दरी नारी देवशीलांगना कही जाती है ।

अधर्म और शठता में अनुरक्त , अत्यधिक क्रोध करने वाली , अत्यन्त निष्ठुर , मदय - मास - प्रिया , कलह - प्रिया , अत्यन्त मानिनी , चंचल , कठोर स्वभाव वाली , ईर्ष्या करने वाली एवं अस्थिर स्नेह वाली स्त्री आसुरी शीला कही गई है ।

सुन्दर नेत्रों वाली , सुपुष्पित नख और दाँतों वाली , सुखद अंगों वाली , स्थिर भाषिणी , अल्पसंतान वाली सम्भोग में रूचि रखने वाली , गीत नृत्य - वादय में अनुराग रखने वाली , कोमल , चिकने , चर्म , केश और लोचनों वाली स्त्री गन्धर्ववत्सा कही जाती है ।

जिसके सभी अंग विस्तीर्ण हों , नेत्र बड़े – बड़े और लाल हों , तीक्षण व कड़े रोमवाली , दिन में सोने वाली , ऊँचे स्वर में बोलने वाली , नखों व दाँतों से क्षत करने वाली , क्रोध , ईर्ष्या और कलह में अभिरूचि रखने वाली एवं रात्रि में भ्रमण करने वाली राक्षसशीला स्त्री कही जाती है ।

तीक्षण नासिका एवं दाँतों वाली , सुन्दर या कृस शरीर , लाल नेत्र , नीले कमल के समान वर्ण वाली , अधिक सोने वाली , अत्यधिक कोप करने वाली , तिरछी चाल वाली , चंचलवृति वाली बहुत मान करने वाली सुगन्धित पुष्पों तथा सुरा में रत रहने वाली स्त्री नागसत्वा कहलाती है ।

उग्र स्वभाव वाली , मदय एवं रसादि से अनुराग रखने वाली , बहुत सन्तानवाली , उदयानादि से अनुराग रखने वाली , चपला , बहु और शीघ्र बोलने वाली शाकुन ( पक्षी ) सत्ववाली स्त्री कही गई है ।

निन्दा – चुगली करने वाली , बालको को पीड़ा पहुँचाने वाली , रोगयुक्त अंगों वाली , न्यूनाधिक अँगुलियुक्त हाथों वाली , कर्कश बोलने वाली , मदयमांसादि से प्रेम रखने वाली पिशाचसत्वास्त्री कही गई है ।

सोते समय पसीने से युक्त अंगों वाली , मेधाविनी , मदय , गंध , आमिष में प्रीति रखने वाली , कृतज्ञता - ज्ञापन करने वाली अंगना यक्षशीला कही जाती है ।

मानापमान में सम रहने वाली , कठोर त्वक् वाली , कर्कशस्वरा , शठ , असत्य एवं कटु बोलने वाली , पीले नेत्रों वाली नारी व्यालसत्वा कही जाती है ।

सरल व्यवहार वाली , नित्य – निपुण , क्षमा - शीला , सुस्पष्ट विकसित अंगों वाली , कृतज्ञ , धर्मकामार्थ निरता , गुरूदेव द्विजप्रिया , अहंकार विहीना , सुहृत्प्रिया एवं सुशीला स्त्री मानुषसत्वा कही गई है ।

कालिदास मानव - सौन्दर्य हेतु सदैव सहज गुणों को ही आदर देते थे । इसीलिये उन्होंने आचार्य भरत द्वारा बताये गये , स्त्रियों के हाव - भाव , हेला , शोभा कान्तयादि एवं पुरुषों के शोभा , विलास , माधुर्यादि सहज गुणों को ही महत्व प्रदान किया है । वह रूप जो अनायास ही वर्ण , प्रभा , राग आभिजात्य विलासिता , लावण्य , लक्षण छाया और सौभाग्य को निखार देने में समर्थ हों , उसे ही वे वास्तविक गुण मानते थे । इन सहज गुणों के होने पर बाहरी आभरण हों तो भले , न हों तो भले ।

भारतीय शास्त्रों को मान्यतानुसार " समस्त अवस्थाओं में चेष्टाओं की रमणीयता ही माधुर्य है । जिस रूप में वह गुण होता है वह " मधुर ' कहा जाता है । कालिदास की शकुन्तला का रूप - सौन्दर्य भी इसी माधुर्य गुण से परिपूर्ण था । कालिदास ने कहा है कि ऐसी कौन सी वस्तु है , जो मधुर आकृतियों का मण्डन न बन जाय । कमल का पुष्प शैवाल से युक्त होने पर भी रमणीय बना रहता है । हिमांशु का काला धब्बा मलिन होकर भी शोभा का विस्तार ही करता है और मधुर आकृतिवाली रमणी शकुन्तला भी वल्कल वेष्टिता होकर और भी मनोज्ञ बन गई है।

कालिदास ने नारी सौन्दर्य को महिमा मण्डित देखा है । उन्होंने सदैव ही नायक नायिकाओं के किशोर रूप को ही अधिक उभारने का प्रयत्न किया है यही वह अवस्था है जब शारीरिक सौन्दर्य अपनी चरम सीमा का स्पर्श करता है । और मानव के सहज गुण निखर उठते हैं । हाव भावदि एवं शोभादि गुणों का अनुप्राणक धर्म यौवन ही माना गया है । राजानक ने भी अपनी पुस्तक " सहृदय हृदय लीला " में इसी बात को स्वीकार किया है कि यौवनावस्था में ही अंगों का सौष्ठव और विपुलीभाव आता है । एवं उनमें असमानता का प्रादुर्भाव हो जाता है । कालिदास ने भी इस यौवनावस्था को अगंयष्टि का असंभूत मण्डन ( अर्थात् अयत्नसिद्ध सहज अलंकरण ) , मद का अनासव साधन ( बिना मंदिरा के ही मदमस्त बना देने वाला सहज मादक गुण ) और प्रेम–देवता का विना पुष्प का बाण कहा है ।- (30)
असम्भ्रत मण्डन होने के कारण ही , यौवनावस्था में अंग - सौष्ठव उसी प्रकार खिल उठता है जिस प्रकार तूलिका से रंग भर दिये जाने पर चित्र का सौन्दर्य निखर उठता है या सूर्य को रश्भि स्पर्श से कमल का फूल खिल उठता है । यौवनावस्था के इस आकर्षण का अद्भुत रहस्य है प्रेम का सहज गुण । प्रेम ही वह पारस है , जिसका स्पर्श कर मानवके महनीय गुणों का विकास होता है । पवित्र प्रेम से समन्वित रूप कभी पापवृत्ति से कलुषित नहीं होता । पापवृत्ति की ओर उन्मुख होने वाला रूप वस्तुतः रूप है ही नहीं । राजानक ने दस शोभा विधायक धर्मों में प्रथम को रूप कहा है और अन्तिम को सौभाग्य । अर्थात् रूप का फल सौभाग्य प्राप्त करना ही है । " सुभग ” उस व्यक्ति को कहते हैं , जिसके अन्दर प्रकृत्या वह रंजक गुण होता है , जिससे सहृदय लोग उसी प्रकार स्वमेव आकृष्ट होते हैं जिस प्रकार पुष्प के परिमल से भ्रमर । ऐसे “ शुभग ” व्यक्ति के आन्तरिक वशीकरण धर्म को “ सौभाग्य ' कहते हैं । कालिदास ने " मेघदूत ” में सौभाग्य ” शब्द का प्रयोग इसी अर्थ में किया है । - कालिदास यह भी मानते हैं कि रूप - सौन्दर्य का वास्तविक फल “ सौभाग्य प्राप्त करना है । रूप बाह्य आकर्षण है और सौभाग्य कामना आन्तरिक । प्रिय का यह आन्तरिक आकर्षण ही रूप सौन्दर्य का फल है ।

कालिदास के काव्य की सभी आदर्श सुन्दरियाँ तपोवन के वातावरण में ही खिली हैं । प्रेम , शील , सेवा , त्याग , संयम ये ही उनके सौन्दर्या - धायक गुण एवं अंलकरण हैं , उन्हें स्वर्ण , मणि रत्नों आदि से सजाने की आवश्यकता नहीं है । उनका वास्तविक सौन्दर्य अन्तरतल का सौन्दर्य है । उनका वास्तविक तेज कष्ट या विपत्ति में ही प्रत्यक्ष होता है । उनका रूप सौन्दर्य प्रिय का आकर्षण प्राप्त कर अग्नि में तपे हुये कंचन की भांति दमक उठता है ।

कालिदास ने नायक - नायिका के संयत - संबंध को मंगल से आभरण सुसज्जित किया है । नारी का सौन्दर्य मंगल आभरण में ही अधिक निखरता है । अलकों से सुसज्जित पार्वती जी के मुख के सामने , भ्रमरों से घिरा हुआ कमल और मेघखण्डों से घिरा हुआ चन्द्रबिम्ब दोनों ही हतप्रम हो जाते हैं । विवाह के आभरणों से सजी हुई उमा की सहज शोभा वैसे ही निखर उठती है , जैसे तारों के निकलने पर रात जगमगा उठती है और विविध वागों के पक्षियों के आजाने से नदी जगमगा उठती है । इस मांगल्य वेश में सजी हुई पार्वती अपने सहज गुणों के कारण इतनी लावण्यमयी प्रतीत हो रही थी कि दर्पण में अपना मुँह देखते ही वह शिव के पास जाने को व्याकुल हो उठी , क्योंकि नारी के रूप की सफलता प्रिय के आलोकन का विषय बनने में ही है ।

हाव - भावादि का मधुर भंगिमाओं द्वारा प्रदर्शन , नारी की अपनी अनूठी विशेषता है । लज्जा एवं शिष्टता उसके आभूषण हैं । कालिदास के काव्य में भी अनेक स्थलों पर नायिकाओं के शिष्टता व लज्जापूर्ण व्यवहार तथा हाव - भावादि का बड़ा ही मनोहारी वर्णन किया है । उनकी नायिकायें , नायक की ओर अभिलाषा पूर्ण दृष्टि से देखने हेतु काँटा चुभने या वस्त्रादि के उलझने का बहाना कर पीछे मुड़कर साभिप्राय देखेन का अवसर प्राप्त कर लेती है । शकुन्तला व उर्वशी दोनों की ही यह गाथा है । उर्वशी की वैजयन्ती - माला लता की शाखा में उलझ गई थी और शकुन्तला भी दुष्यन्त से विदा लेते समय सखियों के संग जाती हुई , पैर में कुश का काँटा चुभने का एवं वृक्षशाखा से अपना बल्कल सुलझााने का बहाना करके प्रियतम की ओर एक दृष्टि निक्षेप करने का अवसर ढूढ़ लेती है । ऐसे अवसरों पर कवि द्वारा उनके प्रेमोत्फुल्ल नयनों की “ शोभा " तथा कटाक्ष - निक्षेप का बड़ा ही हृदयाग्राही वर्णन किया गया है । साथ ही नायिका की लज्जा शिष्टता प्रेमाभिलाषा सभी एक साथ मुखर हो उठते हैं ।

अशोक वृक्ष में दोहदेच्छा से पाद - प्रेक्षपण करने की क्रिया द्वारा भी कवि ने अनेक स्थानों पर नायिकाओं के शोभा , कान्ति , माधुर्यादि गुण एवं दीप्त होते हुये सौन्दर्य को निखारने का सफल प्रयत्न किया है ।