Radharaman vaidya-achary hajari dwivedi ka alokparv 13 in Hindi Book Reviews by राजनारायण बोहरे books and stories PDF | राधारमण वैद्य-भारतीय संस्कृति और बुन्देलखण्ड - 13

Featured Books
  • એઠો ગોળ

    એઠો ગોળ धेनुं धीराः सूनृतां वाचमाहुः, यथा धेनु सहस्त्रेषु वत...

  • પહેલી નજર નો પ્રેમ!!

    સવાર નો સમય! જે.કે. માર્ટસવાર નો સમય હોવા થી માર્ટ માં ગણતરી...

  • એક મર્ડર

    'ઓગણીસ તારીખે તારી અને આકાશની વચ્ચે રાણકી વાવમાં ઝઘડો થય...

  • વિશ્વનાં ખતરનાક આદમખોર

     આમ તો વિશ્વમાં સૌથી ખતરનાક પ્રાણી જો કોઇ હોય તો તે માનવી જ...

  • રડવું

             *“રડવુ પડે તો એક ઈશ્વર પાસે રડજો...             ”*જ...

Categories
Share

राधारमण वैद्य-भारतीय संस्कृति और बुन्देलखण्ड - 13

आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का ‘‘आलोक पर्व ’’

राधारमण वैद्य

परम्परा, लोक और शासन समन्वित संस्कृति विवेचन

आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी बहु प्रतिभा के धनी थे, उनका अवदान मध्यकालीन साहित्य और साधना का विश्लेषण, हिन्दी साहित्य के इतिहास को देखने की एक नई दृष्टि, सिद्ध-नाथ कवियों का विवेचन, अभिनव उपन्यास लेखन, ललित निबंधों की चिन्तन युक्त, माधुर्य-सम्पन्न देन, गहन समीक्षा शैली और सम्पूर्ण भारतीय संस्कृत वाङमय का पुनर्पाठ माना जाता है, जिस सबकी स्पष्ट झलक इस विवेच्य पुस्तक ‘‘आलोक पर्व” में है। उनके समस्त लेखन पर समग्र दृष्टि डाली जाए तो बिना किसी अतिश्योक्ति के मानना पड़ेगा कि उसमे सागर तुल्य ज्ञान की गहराई और असीम क्षितिज समान विस्तार है, उनका इसी पुस्तक में डाँ0 गोपीनाथ कविरत्न के सम्बन्ध में उनका कथन उनके स्वयं के लिए भी उतना ही सार्थक और सटीक है। वे कहते हैं, ‘‘शास्त्रीय ज्ञान उनके लिए केवल बुद्धि विलास नहीं है, वे उसमें रचे हैं, जिससे किसी पाठक के चित्त में उनके प्रति कोई वितृष्णा उत्पन्न न हो।’’

इस संकलन में अधिकांश लेख संस्कृत-साहित्य पर आधारित है, जिनसे हम जैसे मात्र हिन्दी साहित्य से परिचय रखने वालों को एक नया आलोक और नई दृष्टि मिली, ‘‘अंधकार से जूझना शीर्षक आलेख में द्विवेदी जी स्पष्ट कहते हैं कि ‘‘अंधकार के सैकड़ों परत हैं। उनसे जूझना ही मनुष्य का मनुष्यत्व है। यही दृष्टि की ही विशेषता है कि दीपावली के लक्ष्मी पूजन को और लक्ष्मी की उपासना को ज्ञान पूर्वा क्रिया परा’’ कहते है। इसे वह ज्ञान द्वारा चालित और क्रिया द्वारा इच्छा और क्रिया के रूप में ‘‘त्रिपुटी कृत जगत’’ और इसकी मूल कारण भूता शक्ति को त्रिपुरा बताते हैं। इस प्रकार शाक्त मार्ग का लक्ष्य अद्वैत, नामक लेख में शाक्त आगमों के अधोमुख त्रिकोण को स्पष्ट करते हुए बताते हैं। कि प्रतिभास होता हुआ जगत-प्रपंच करते हुए भिन्न धरातलों पर अहंता और इन्न्ता, नाद और बिन्दु, इच्छा और क्रिया, गति और स्थिति, काल और स्थान और भौतिक विज्ञान के ‘‘कटिनुश्रम और क्वैंटम एक ही शक्ति के दो रूपों में विभाजित नाम हैं। वे श्रद्धा और निष्ठा को ज्ञान की अनुगामिनी हो जाने पर गलत दिशा में मुड़ने और ले जाने का खतरा महसूस करते हैं वे दर्शन को स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि अनेक प्रकार की विचार धाराओं का क्रमवद्ध सहारा लेना दर्शना है और यही जीवन के नियामक विश्वास और आचरण का रूप लेने पर ‘‘धर्म’’ तथा जीवन के कल्याण के लिए ठोस रूप में अभिव्यकत होने पर ‘‘कला’’ कहलाने लगता है। इस तरह बड़े परिभाषिक और पेचींदा विषयों को हजारी प्रसाद जी सुबोध बना देते हैं। ’

आचार्य हजारी प्रसाद जी के साहित्य के अध्ययन में कई स्थलों पर लगता है कि उन्हें लोक, लौकिक परम्पराएँ शास्त्र से अधिक प्रभावित करती हैं। आगम यद्यपि शास्त्रों में ही मानता प्रापत है पर वे हैं लोक प्रसूति द्विवेजी जी के मन में इन आगम शास्त्रों के प्रति बड़ी निष्ठा व श्रद्धा है, क्योंकि वे मानते हैं कि इन शास्त्रों ने भी मनुष्य को बहुत ही महत्वपूर्ण जीवन दर्शन दिया है। वे वैष्णव धर्म की अपेक्षा लोक-धर्म अधिक मानते हैं, उनके मतानुसार हिन्दी साहित्य के लोकगीतों में इनका प्रवेश वल्लभाचार्य से बहुत पहले हो गया था। इन गीतों का विकसित और सुसंस्कृत रूप सूर सागर के अंतर्गत विद्यमान हैं। वे लिखते हैं कि ‘‘अन्य सभी अशास्त्रीय या लोक धर्मो- बौद्ध, जैन यहाँ तक कि उपनिषदों के धर्म की भाँति इसकी जन्मभूमि भी बिहार, उड़ीसा और बंगाल के प्रान्त हैं। बल्लभाचार्य या चैतन्य देव प्रभति ने इस लोक धर्म को शासत्र सम्मत रूप दिया।’’

‘‘मध्ययुगीन भारतीय संस्कृति और हिन्दी’’ शीर्षक लेख में द्विवेदी जी कहते हैं कि ‘‘साहित्य का अध्ययन बहुत बड़ी चीज है। पर हिन्दी में उपलब्ध साहित्य का मूल्य केवल साहित्यिक नहीं है वह हमारे हजारों वर्ष के सांस्कृतिक, सामाजिक और धार्मिक साधनों के अध्ययन का सबसे बहुमूल्य और सबसे विशाल साधन है’’ अतः वे इसी निबंध में शोधार्थियों को नई दिशा बताते हुए कहते हैं कि विशाल बौद्ध और जैन मतों की क्रम परिणिति, स्मार्त और पौराणिक मतों का सर्वग्रासी रूप, शाक्त, पाशुपत, और भागवत धर्म साधनाओं की परिणिति का अध्ययन अब भी नहीं हुआ है।’ इस प्रकार वे साहित्य की बारीकियों को स्पष्ट भी करते हैं और उन क्षेत्रों की ओर इशारा भी करते चलते हैं जहाँ अभी कदम बढाना शेष है और जहाँ प्रवेश करना भी उन जैसे सामर्थ्यवान, बहुपठित और स्पष्ट दृष्टि रखने वालों की भी हिम्मत हो सकती है।

‘‘लोक भाषा में सांस्कृतिक इतिहास की भूली बिसरी कड़ियाँ’’ नामक निबन्ध में द्विवेदी जी आर्येतर जातियों की स्थिति, उनका अस्तित्व भारत में आर्यो के पूर्व से मानते हैं। वे पौराणिक कथाओं में व्यक्त असुरों, दैत्यों, यक्षों, नागों, राक्षसों आदि का आर्यो से संघर्ष उनके अस्तित्व-रक्षा के प्रयत्न ही मानते हैं, उनके मतानुसार वह प्रयत्न भले ही असफल रहा हो पर उनकी भाषा, उनके विश्वास, धर्म-साधना और सामाजिक रीति-रिवाज ऊपरी आदि कलेवर में रक्षित रह गए। वे लिखते हैं-‘ आर्यभाषा ऊपर-ऊपर से आर्य बनी रहने पर उनकी भाषा से प्रभावित होती रही। उनके विश्वासों ने हमारी धर्म-साधना और सामाजिक रीति रिवाजों को हीं नहीं, हमारी नैतिक परम्परा को भी प्रभावित किया....धीरे-धीरे समूचा उत्तरी भारत आर्य भाषी तो हो गया पर आर्यभाषी बनी हुई जातियों के सम्पूर्ण संस्कार भी उनमें ज्यों के त्यों रह गए’’ वे कहते हैं कि ‘हमारी देशी भाषाओं का साहित्य-लिखित और अलिखित बहुत सी ऐसी बाितों को बता सकता है जो भारतीय संस्कृति को समझने की कुंजी पा सकते हैं।’

द्विवेदी जी का यह भी मानना है कि हिन्दी साहित्य के यथार्थ अध्ययन के लिए पड़ौसी साहित्यों-बंगला, मराठी, उड़िया, गुजराती आदि के साहित्य को जानना भी आवश्यक है। वे साहित्य की श्रेष्ठता को स्पष्ट करते हुए लिखते हैं कि जो साहित्य मनुष्य को उसकी समस्त आशा-आकांक्षाओं के साथ उसकी सबलताओं और दुर्बलताओं के साथ, हमारे सामने प्रत्यक्ष लेकर आ खड़ा कर देता है, वही महान साहित्य है।

द्विवेदी जी केवल पूर्व लिखित साहित्य के अध्येता नहीं थे और न अपनी मान्यताओं को जड़त्व से ग्रसित होने देते थे। उनमें वे अपने आप पास अन्य विद्वानों द्वारा किए जा रहे शोधों का भी अध्ययन मनन करके अपनी पूर्व मान्यताओं को गत्यात्मकता प्रदान करते रहते थे। उनका यह धर्म शब्द विषयक कथन देखिए-‘‘इधर हाल ही में पता चला है कि ‘‘धर्म’’ शब्द वस्तुतः आस्ट्रो एशियाटिक श्रेणी की जातियों की भाषा के एक शब्द का सांस्कृतिक रूप है। यह कूर्म या कछुए का वाचक है। डॉ0 सुनीत कुमार चाटुर्ज्या ने बताया कि दुल या दुली शब्द जो अशोक के शिलालेखों में भी मिलता है और उत्तरकालीन संस्कृत में गृहीत हुआ है और जो कछुए का वाचक है, आस्ट्रो-एशियाटिक भाषा का शब्द है। संथाल आदि जातियों की भाषा में यह नाना रूपों में प्रचलित है। इन भाषाओं में ‘‘ओम’’ स्वार्थक प्रत्यय हुआ करता है और दुरोम, दुलोम, दरोम का भी अर्थ कछुआ है। इसी शब्द का संस्कृत रूप धर्म है, जो सब कुछ व्यर्थ और भटकाऊ या उलझाऊ लगे। पर द्विवेदी जी इसके निष्कर्षो से धर्म पूजा जैसे जीवित मत, जो पश्चिमी बंगला व पूर्वी बिहार में अब भी प्रचलित है, की अनसुलझी गुत्थी को सुलझाते हैं।

हजारी प्रसाद द्विवेदी जी भारतीय साधना में प्रापत विराधाभास को भी निःसंकोच बताते हैं कि ‘‘रचनाकाल की दृष्टि से परवर्ती होने पर भी कभी-कभी पुस्तकें अत्यन्त पुरातत्व परम्परा का पता देती है। गोरक्ष सम्प्रदाय की अनुश्रुतियाँ, कबीर पंथ के गं्रथ, धर्म पूजा विधान यद्यपि रचना काल की दृष्टि से बहुत अर्वाचीन है। तथापि वे अनेक पुरानी परम्पराओं के अवशेष है। इस या इस प्रकृति के अन्य कथन ही उसमें प्रमाण हैं। पर इस कथित प्रवृत्ति अर्वाचीन को प्राचीन बताने या मानने की प्रवृत्ति को द्विवेदी जी भारतीय संस्कृति के विद्यार्थी के लिए हानिकारक मानते हैं।

पूर्वी एशिया के तीर्थ यात्रियों का स्वागत में आज की सभ्यता का भेद खोलते हुए अपने इस स्वागत भाषण में उन्होंने कहा- ‘‘पहले स्वार्थवाद में कुछ और-यही आज की सभ्यता का मूल मंत्र है। स्वार्थ भी कई हैं-व्यक्तिगत, वर्गगत, और राष्ट्रगत। इन स्वार्थो के संघर्ष में संसार पिस रहा है, मनुष्यता हनी जा रही है-नागनियाँ विषाक्त विश्वास से वातावरण को क्षुब्ध कर रही है। ऐसे समय क्या गति है ? द्विवेदी जी को बोधिसत्वों के पुण्य या शुभ संकल्पों में दृढ़ता से जमे रहने के सिवाय दूसरा रास्ता नहीं दिखता। बोधिसत्व की मैत्री भावना जिसका अनुवाद उन्होंने अपने इस भाषण में प्रस्तुत किया है, उसके भाग एक की पंक्तियाँ देखिए-‘‘इस दुःखमय नर लोक के- जितने दलित बंधनग्रसित, पीड़ित विपत्ति विलीन है। जो कठिन भय से और दारूण शोक से अति दीन हैं/ वे मुक्त हों निज बंध से/ स्वच्छंद हो सबद्वन्द्व से/छूटें दलन के फंद से/जीवन्त होंवे जो कि होने जा रहे/बलि, कुटिल भू कुंचित किसी के क्रोध्र से/आश्वस्त हों वे जो कि हों भवभीत/विषम विपत्ति के आक्रमण से/सबका परम कल्याण हो।

हजारी प्रसाद द्विवेदी की मान्यता के अनुसार मनुष्य अपनी आदम सहजात वृत्तियों को सुरूचिपूर्ण, संयत और कल्याणमुखी बना कर ही मनुष्य बना, नहीं तो पशु ही रह गया होता। उन्होंने इस्लाम के भारतीय इतिहास में प्रवेश को महत्वपूर्ण घटना मानते हुए उस स्थिति की ओर इशारा किया, जब उसकी मूल भावनाओं का भारतीय भावनाओं से मेल नहीं बैठता दिख रहा था, पर धीरे धीरे भारतीय मनीषियों ने समझौता की स्थिति उत्पन्न कर, दोनों धर्मो के मूल-तत्वों की खोज कर दोनों के भीतर सेतु निर्माण करने वाले साहित्य की रचना की, जिससे उत्सव-मेले, पोशाक-गहने, बातचीत-रीति-रस्म के भीतर से निकटता उत्पन्न हुई थी। दोनों के भीतर मिलाने वाले आध्यात्मिक तत्वों को ढूंढ निकाला गया था। अंग्रेजों ने आकर अपने स्वार्थ से प्रेरित हो विघटन के बीज बो दिए। आचार्य जी कहते हैं ‘‘भारतीय मनीषा ने गाँधी जैसे जनप्रिय व्यक्ति के द्वारा पुनः मिलन की ओर सक्रिय किया। उनका मानना है कि झटके खाने के बाद भी यह प्रक्रिया अपना काम किए जा रही है। ’’

इस प्रकार इस सत्ताइस आलेखों के पुष्प गुच्छ बहुत ही सुगन्धित हैं और हजारी प्रसाद द्विवेदी जी की सुरूचिपूर्ण और ज्ञानसम्पन्न लेखों से बहुत कुछ पाया जासकता है। उनके इस संकलन में भाषा शास्त्र, संस्कृति, इतिहास का दर्शन, साहित्य, ज्ञान, धर्म, विचारधारा, सामाजिक संरचना और उनका चमत्कारिक समाज शास्त्रीय विश्लेषण एक दूसरे में गुथे हुए हैं। वे जाति अथवा समूहवाचक शब्दों की व्युत्पत्ति, सामाजिक संरचना में उनके परिवर्तनशील स्थान, भाषा और सामाजिक संरचना के पारस्परिक सम्बन्धों के विश्लेषण के जादूगर हैं। परम्परा पर विचार करते हुए वे लोकाचार और शास्त्रीय परम्परा की निरन्तरता को दर्शाते चलते हैं। इत्यलम्

-0-