काव्य संकलन ‘‘बेटी’’ 7
(भ्रूण का आत्म कथन)
वेदराम प्रजापति
‘‘मनमस्त’’
समर्पणः-
माँ की जीवन-धरती के साथ आज के दुराघर्ष मानव चिंतन की भीषण भयाबहिता के बीच- बेटी बचा- बेटी पढ़ा के समर्थक, शशक्त एवं साहसिक कर कमलों में काव्य संकलन ‘‘बेटी’’-सादर समर्पित।
वेदराम प्रजापति
‘‘मनमस्त’’
काव्य संकलन- ‘‘बेटी’’
‘‘दो शब्दों की अपनी राहें’’
मां के आँचल की छाँव में पलता, बढ़ता एक अनजाना बचपन(भ्रूण), जो कल का पौधा बनने की अपनी अनूठी लालसा लिए, एक नवीन काव्य संकलन-‘‘बेटी’’ के रूप में, अपनीं कुछ नव आशाओं की पर्तें खोलने, आप के चिंतन आंगन में आने को मचल रहा है। आशा है-आप उसे अवश्य ही दुलार, प्यार की लोरियाँ सुनाकर, नव-जीवन बहारैं दोगे। इन्ही मंगल कामनाओं के साथ-सादर-वंदन।
वेदराम प्रजापति
‘‘मनमस्त’’
पुरूष में पौरूष भरैं वह, सत्य पथ पर चल पड़े।
झूठ के कोरे ववण्डर, भूलकर भी नहीं गढ़े।
मानवी की राह रचने, चल पड़े यह सोचकर-
है विकाशों की कहानी, सब पढ़े अरु सब बढ़ें।।176।।
कभी भी डरती नही हम, तुम्हीं तो थी डरातीं।
ओ! लली बाहर न जाना, चुड़ेलैं खा जातीं।
लें पकड़ बाबा तुम्हें वहाँ, जान अवला सुनो तो-
इस तरह भय का ही दरिया, हृदय में ही बहातीं।।177।।
भागकर छुप जाओ घर में, बाहर होता शोर है।
आंखें मीचे बैठे रहना, ववण्डर घनघोर है।
नहीं अकेली कभी भी, ताल नदिया जाओगी-
चूड़िय़ाँ पहनो, घरैं रहो, कहनि इतनी मोरि है।।178।।
खून का पानी किया तुम, उन पिशाची चाल में।
किस तरह भय को भरा है, ठूँसकर इस खाल में।
बस, ढहाती ही रहीं तुम, मंजिलों को इस तरह-
काँपता है आज भय भी, बैठकर इस भाल में।।179।।
नहीं पढ़े इतिहास तुमने, क्या लंक में सीता डरी?
सिंहनी सी ही दहाड़ी, हुँकार उसने थी भरी।
ओ! निलज्जी, दुष्ट, कायर, राम को नहीं जानता-
एक दिन निश्चय जलेगी, गर्व की यह नर्सरी।।180।।
याद थे अब तक सिया को, मातु के यौं रूप वचन।
वीर है मेरी दुलारी, बामु कर, देखा जो धनु।
सिंहनी थी लाड़ली वह, स्यार से डरती कभी-
मातु पौरूष जगाती है, पौरूषी स्तम्भ बन।।181।।
इस तहर की नारियों से, हैं भरे इतिहास भी।
पौरूषी थी माँ भरत की, क्या नही विश्वास भी?
सिंह के नथुने पकड़कर, दाँत जिसने थे गिने-
सच, भरत-भू मातु तुम हो, कुछ समय की दास भी।।182।।
स्वयं को भूला तुम्हीं ने, यह तुम्हारा भूल है।
बन गई अवला तुम्हीं हो, झेलती क्यों शूल है?
कहाँ भोग्या? योग्या हो, सबल हो सबला तुम्हीं-
जाग कर जग को जगा दो, तुम्हीं तो जग मूल है।।183।।
भूलकर जब भेड़ झुण्डों, शेर का बच्चा पलेगा।
भूलकर निज की दहाड़ें, सिर्फ मैं-मैं ही करेगा।
जागकर, निज रूप देखो, कायरी को छोड़कर-
वीरता की तुम धुरी हो, विश्व तुमसे ही डरेगा।।184।।
दोष मानव का नहीं है, स्वयं को पहिचान लो।
बसवती मानव प्रकृति है, उसे भी तुम जान लो।
शासिका और शासिता की, वृत्ति का सब खेल है-
हो सजग, कल्याण जग हित, विश्व माँ हो मान लो।।185।।
जानकर इतिहास अपना, स्वयं को पहिचान लो।
नहीं रहीं कातर कभी भी, मातु, सच यह जान लो।
हो प्रसूता वीर-भू की, वीरता को मान दो-
विश्व को कुछ कर दिखादें, आज मन में ठान लो।।18़6।।
नहीं डरैं जीवन के रण में, आसमाँ को छू सकें।
वह सभी करके दिखादें, आसमाँ तब सब तकें।
बम्ब, एटम बम्ब हम, हम ही मिशायली रूप हों-
और इससे और आगे, के समय को छू सकें।।187।।
तीर और तलवार, भाले, हाथ की शोभा बनें।
वायुयानों, रायकेटों, की कहानी बन सकें।
हम समर सारंग धारैं, वीर लक्ष्मीं रूप हों-
रूप चण्डी, समर शौणित, खप्परों में भर सकें।।188।।
आसमाँ के छोर सारे, नाप लें कुछ क्षणों में।
रह न जाए कोई दुनियाँ, छान लें कुछ पलों में।
वीरता की ये कहानी, देवता भी गा रहे-
खलवली ऐसी मचा दें, घुमड़ते उन घनों में।।189।।
मेघ गर्जन से हमारी, गर्जनें विकराल हो।
दहल जाए दुश्मनी उर, हर कहीं भूचाल हो।
हम करें सीमा की रक्षा, बाँधकर हथियार सब-
तानकर सीना खड़ी हों, सिंहनी सा भाल हो।।190।।
मोड़ दैं हम एक क्षण में, दुश्मनों की चाल को।
पात्ता जैसा उड़ा देंगीं, दुश्मनों के पाल को।
लक्ष्य भेदी तीर होंगे, गोलियों के लक्ष्य भी-
बम, मिशायलों की न पूँछो, क्या करेंगे, हाल को।।191।।
बाँध लेंगी सप्त सागर, जहाजों के पाल में।
रूप होंगे उनके बहुत छोटे, ज्यौं खड़े हों ताल में।
भूल जाऐंगे मनुज अब, सेतु अनुपम राम का-
दूर नहीं है कोई लंका, मान लो इस हाल में।।192।।
हो विदेशी देश कोई, दूर नहीं है, पास है।
हम करैंगी एक दुनिय़ाँ, यह हमें विश्वास है।
सागरों की वह कहानी, दूर अब हो जाएगी-
दूरिय़ाँ घटती दिखेंगी, ले खड़ी हों, आश है।।193।।
जो ग्लोबों में दिखाया, वह नहीं अब दूर है।
बना लैं सबको पड़ौसी, यह हमारा नूर है।
बस हमें, कुछ और खुद में, योग्य तो हो जाने दो-
माँ तुम्हीं हो आश युग की, नहीं दुनिया दूर है।।194।।
रोज होते पाठ, युग की, बदलने तस्वीर के।
अर्चना और वंदना में भोग लगते खीर कें।
जागृत हो, नर विवेकी, हंस सी पहिचान हो-
भाग, कर दिखलाए जो अब, नीर के और पीर के।।195।।
नहीं हे कमजोर हम माँ, जाऐंगी हर ओर में।
विश्व में हम नहीं डरेंगीं, लड़ेंगीं हर ठौर में।
नहीं पीछे किसी मग में, बहिन-भाई कोई भी-
भेद सारे मैट दें हम, जागरण के भोर में।।196।।
जगरण की यह तुमुल ध्वनि, गीत ऐसा गाऐगी।
विश्व की पहिचान होगी, सब जहाँ में छाऐगी।
नहीं होगा कोई अनपढ़, ज्ञान की इस धरा पर-
सुनहरी किरणों को लेकर, यहाँ ऊषा छाऐगी।।197।।
ज्ञान और विज्ञान की हम, खोज कर दिखलाऐंगीं।
इस धरा की धारिता में, कुछ नयापन लाऐंगीं।
आग यह विद्रोह की, आती यहाँ किस ओर से-
उस धरा पर शांति पग ले, खोजने हम जाऐंगी।।198।।
कौनसा है तत्व ऐसा, जो पिशाची रूप है।
सागरों में या धरा पर, अथवा कोई भूप है।
वनस्पतियों या पहाड़ों की, छिपा जो छाँव में-
खोजकर लाऐंगी उसको, कौनसा वह रूप है।।199।।
अथवा बहती वायु में ही, विक्रति है क्या कहीं।
सूर्य, तारा, तारिकों में, कोई दुषिता क्या कहीं।
है कहीं अज्ञात कुछ भी, लाऐंगी हम खोजकर-
मैटने विक्रति जहाँ की, जाऐंगी हम हर कहीं।।200।।
एकसा जब रक्त, धमनी, हड्डियों की ढार है।
श्वाँस की सरगम सभी कुछ, एकसी मनुहार हैं
आदमी की आदमी से, फिर कहो क्यों दुश्मनी-
पा रहा है भोज्य इकसम, जीत कैसी-हार है।।201।।
हम उसी विज्ञान पथ पर, चल पड़ेंगी नाज से।
विश्व के एकीकरण में, जुट रहीं है आज से।
पहुँचकर हम ही रहेंगी, विज्ञान के उस छोर पर-
नहीं जहाँ से कुछ भी आगे, मिलेंगी उस साज से।।202।।
आंऐं जो कितने भी संकट, चल पड़ी हैं, नहीं रुकेंगीं।
कोई कितना कहे कुछ भी, संकटों से नहीं झुकेंगीं।
हम अनूठीं बिजुलिय़ाँ है, जहाँ को रोशन बनाने-
ठान ली जो ठान मन में, उसे हम पूरा करेंगीं।।203।।
खेल भी दुनिय़ाँ हमारी, आसमाँ तक जाऐंगी।
खेल की तासीर अनुपम यह धरा अब पाऐगी।
मत देंगी सामने को, हार ही वह पाऐगा-
चैन तब-तक नहीं लेंगी, विजय नहीं हो जाऐगी।।204।।
है नहीं दुर्लभ कहीं कुछ, वीरता से हम भरी।
सभी कुछ हम ही करेंगी, बात यह कहतीं खरी।
कला को जाग्रत करेंगी, सोच हे यह हमारी-
हो किसी को विश्व का डर, विश्व से हम नही डरी।।205।।
हो अजंता, पचमढ़ी या, सिंधु घाटी की धरा।
बोलता खजुराहो गौरव, पाषाण जहाँ पर भी हरा।
देख लो स्तूप साँची, या ऐलोरा जाइए-
चलैंगी उससे भी आगे, कला की जहाँ है धरा।।206।।
वेद के भी भेद खोलें, क्या ऋचाऐं बोलती।
गूढ़ रहस्यों की जो संस्कृति, सामने आ डोलती।
मर्म गीता, वाइविल भी, गुरु वाणी जो क्या कहे-
आयतें कैसीं कुरानी मर्म क्या-क्या खोलतीं।।207।।
विश्व की सारी ही भाषा, होयगीं इस गोद में।
नहीं रहेगा कहीं छिपा कुछ, हम रहेंगी खोज में।
जो छिपा भू-गर्भ अन्दर, खोजकर दिखलाऐंगी-
इक नया विज्ञान देंगीं, जो छुपा इस सोच में।।208।।
गांधर्वी या अन्य विद्या, गाँऐंगी इस द्वार पर।
पास हमारे क्या नहीं है? नचेंगीं इस द्वार-घर।
विश्व का नव ग्लोब होगा, माँ तुम्हारी गोद में-
पुजौगीं हर द्वार घर-घर, लाड़ली के ओल पर।।209।।
एक प्रण केवल तुम्हारा, जन्म देना पढ़ाना।
बनेगा अनुपम धरोहर, इस धरा का अहाना।
मानवी गौरव पुजेगा, विश्व के उस छोर तक-
मन पाओगी सभी से, सब जहाँ में, कहाँ न।।210।।