jb arthi hil uthi in Hindi Women Focused by Ranjana Jaiswal books and stories PDF | जब अर्थी हिल उठी

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जब अर्थी हिल उठी

मामी की मौत की खबर हम सभी पर गाज की तरह गिरी थी। तीस वर्ष की उम्र में ही एक हँसती-खेलती औरत अकारण मर गई। हुआ ही क्या था उन्हें। अच्छी - भली तो अपनी दूसरी सन्तान की कामना लिए शहर के नामी नर्सिंगहोम में दाखिल हुई थीं। आपरेशन द्वारा दूसरा पुत्र उत्पन्न हुआ। सबके साथ मैंने भी मिठाई खाई थी। पर दूसरे ही दिन उनकी हालत बिगड़ गई। हीमोग्लोबिन घटकर पाँच पर आ गया था। वे प्रारम्भ से ही रक्ताल्पता की शिकार थी, इसलिए डॉक्टर ने दूसरे बच्चे को गिरा देने की सलाह दी थी। मामी तैयार थीं। बड़ा बेटा अभी मात्र डेढ़ साल का था। पर स्त्री को अपनी कोख के बारे में भी निर्णय लेने का अधिकार कहाँ देता है यह समाज? मामा नहीं माने थे, उन्हें तो दो बेटों का पिता बनने का गर्व हासिल करना था,पर जिससे पुत्र होना था,उसकी परवाह भी नहीं करते थे। अक्सर उनसे लड़ते-झगड़ते। मामी दुखी होकर पूरे-पूरे दिन बिना खाए-पिए रोती रहती। हम लोग उन्हें बार-बार समझाते कि ऐसी हालत में अपना ख्याल रखेँ,पर दुखी मन किसी की नसीहत कब मानता है? परिणाम सामने था। बच्चा तो खैर स्वस्थ था, पर वे काफी कमजोर हो गई थीं। ऑपरेशन के बाद उनकी हालत बिगड़ने लगी, तो डॉक्टर ने खून चढ़ाने की व्यवस्था की, पर उनकी हालत यथावत बनी रही,ऊपर से नित्य-क्रियाएँ बाधित हो गई,जिसके समाधान के लिए डॉक्टर ने कई नलियों का प्रयोग किया। जब नलियां डाली जा रही थीं ,मामी जिबह किए जा रहे जानवर की तरह चीख रही थी। नवजात शिशु को माँ के दूध का अमृत-तुल्य प्रथम स्त्राव तक नहीं मिला। मामी की दो बड़ी बहनें अपना घर-परिवार छोड़ कर उनकी सेवा में लगी थी। रिश्तेदारों और मित्रों का मेला-सा लगा हुआ था। मामा सबसे खर्च का रोना रो रहे थे। उन्हें मामी की जिंदगी से ज्यादा अधिक पैसा लगते जाने की चिंता थी। अक्सर वे मामी के सामने ही लोगों से हिसाब गिनाने लगते। कई बार हम लोगों ने डाँटा भी कि मरीज के सामने ऐसी बात मत करें।पर मामा कब मानने वाले थे? अवसर देखते ही शुरू हो जाते। एक बार तो यहाँ तक कह दिया कि 'अस्पताल में इतनी औरतें मर जाती हैं,पर ये हमें बर्बाद करने पर तुली हैं।’ मामी ने बताया कि प्रसव के लिए आते समय भी मामा लड़े थे। 'प्रसव में ही मर जाती तो छुट्टी मिलती।’ न जाने मामा की कैसी काली जीभ थी कि मामी की हालत बिगड़ती ही जा रही थी। अन्तत: डॉक्टर ने जबाब दे दिया कि 'अब केस मेरे बस के बाहर हो गया हैं |आप किसी बड़े सर्जन के पास ले जाएँ। मेरा काम बच्चा पैदा कराना था, करा दिया।’ डॉक्टर के इस तरह हाथ खींच लेने और दो टूक जबाब से मेरा मन सुलगने लगा। जी तो चाहा कि इस कोमलांगी सुन्दर डॉक्टर को दो-चार लातें रसीद करूं। डॉक्टर के कर्तव्य से पीछे हट जाते हैं आज के डॉक्टर। पैसे के लालच में सामान्य केस को जटिल बना देना,हर गर्भवती को अपने नर्सिंग होम में ही आने की सलाह, अपनी निर्धारित दुकान से ही दवा लेने की हिदायत।लालच का अन्त नहीं। अब तो बिना ऑपरेशन के बच्चे पैदा कराने का मानो चलन ही उठता जा रहा है। आने वाली सदी में बच्चे कुदरती ढंग से पैदा होने की आदत भूल जाएँगे। डॉक्टर को ये भी चिन्ता नहीं होती कि मरीज कहाँ से इतना पैसा लाएगा? ऊपर से केस बिगड़ने पर हाथ खींच लेते हैं। इनकी शरण में आया मरीज स्वस्थ होकर घर लौट ही जाएगा, इसकी भी गारंटी नहीं रही। मामी ही कहाँ लौट पाई घर? वे शहर के नामी नर्सिंगहोम में ले जाई जाती रहीं। पहले आई.सी.यू फिर आई सी. सी. यू.। दूसरे डॉक्टर ने कहा -इन्हें सेप्टिक हो गया हैं। फिर से ऑपरेशन करना होगा। तीसरे ने कहा- पेट में मवाद भर गया है, जल्द ऑपरेशन न हुआ, तो शरीर में जहर फैल जाएगा। मामी का चेहरा इस कदर काला पड़ गया था कि पहचानी नहीं जाती थी। होंठ सूख गए थे। बीस दिन हो गये थे प्रसव हुए, पर उन्हें पानी की एक बूंद भी नहीं दी गई थी। हम जब भी जाते, वे पानी के लिए गिड़गिडा़तीं ,पर डॉक्टर ने पानी देने से मना कर दिया था। मामी की हालत देखी नहीं जाती थी।
चारों तरफ नलियां ही नलियां...ग्लूकोज पर वे जिन्दा थीं। नियत दिन डॉक्टर ने ऑपरेशन किया पर पेट खोलते ही घबरा गया। अन्तड़ियाँ सड़ रही थीं। उसने पेट ढँक दिया। हमने पूछा- ऑपरेशन सफल हुआ।तो बोला-’सब ईश्वर के हाथ में है।’ हम समझ भी नहीं पाए। मामी उस दिन ठीक दिख रही थीं। बोल-बतिया रही थीं, पर रात होते-होते उनकी हालत बिगड़ने लगी। साँस लेने में तकलीफ होने लगी। ऑक्सीजन दिया जाने लगा। वे अपने बड़े बेटे सोनू से मिलना चाहती थीं। एक लड़का घर दौड़ाया गया। मामा सोनू के साथ घर पर ही सोते थे। लड़के ने बताया-'सोनू से मिलना चाहती हैं।’ मामा बोले-इतनी रात को ठण्ड में लेकर नहीं आएँगे। बोल देना सुबह आएगा।’ मामा क्या जानते थे कि वह रात मामी की जिन्दगी की अन्तिम रात थी? मामी कोमा में जाते-जाते सोनू की तरफ चुम्बन उछालती रहीं, मानो वह उनके सामने हो और फिर सब कुछ खत्म हो गया।
मामी मर गई। कौन था उनकी मौत का जिम्मेदार? क्या वह डॉक्टर, जिसने उनका ऑपरेशन किया था और कुछ ऐसी भूल कर दी, जिससे उन्हें सेप्टिक हो गया था कि मामा, जिन्हें पत्नी से ज्यादा पैसे की फिक्र थी ,जबकि दवा और इलाज का खर्च उनका बैंक भर देता था या फिर उनके ससुराल वाले, जो उनकी बिगड़ती हालत के बारे में सुनकर भी नहीं आए|वे तब आए , जब मामी की मौत की खबर भेजी गई।
बड़ी अभागी थीं मामी|किशोरावस्था में प्रेम हुआ, जो जवानी में प्रगाढ़ हुआ ,पर विवाह के नाम पर प्रेमी माँ के आंचल में जा छिपा । उसमें इतना साहस ही नहीं था कि परिवार और समाज का विरोध कर उन्हें अपना सके। वे पहली बार टूटीं....कुछ संभली तो मामा से विवाह हुआ। वे पूरी निष्ठा से उनकी सेवा करती रहीं ,पर मामा का अपनत्व, प्रेम, विश्वास कभी न पा सकीं। मामा ने मामी को अनगिनत दुख दिए। शादी के नौ साल बाद भी बच्चा न हुआ तो यह अत्याचार और बढ़ गया।
ससुराल वाले तो नाखुश थे ही ,पति भी उनका अपना न हो सका था। वह तो उन्हें कभी का छोड़ दिया होता ,पर मामी की गृह कुशलता, लोकप्रियता और सुस्वादु व्यंजनों का लोभ उसे रोक लेता। मामा बैंक आफिसर होने के साथ-साथ बेहद स्मार्ट थे, जबकि मामी स्थूल, साँवली और साधारण चेहरे वाली थीं। पर उनका रहन-सहन, पोशाक, उचित सज्जा उन्हें स्मार्ट की श्रेणी में ला खड़ा करता। वे अपने आन्तरिक सौन्दर्य, मृदु-व्यवहार, प्रगतिशील विचारों से सबको अपनी ओर आकृष्ट कर लेती थीं। मामा में कई बुरी आदतें थीं। कहते हैं कि मामी उनके जीवन की सौंवीं लड़की थीं। उन्होंने अपने मित्रों से शर्त रखी थी कि निन्यानवें लड़कियों को हासिल करने के बाद ही विवाह करेंगे। मामी सब जानते हुए भी चुप रहती थीं। शादी के बाद भी मामा की बिगड़ी आदतें सुधरी नहीं। मामी शाकाहारी होते हुए भी उनके लिए मांसाहारी व्यजंन पकातीं। बर्फ, गिलास लाकर रखतीं और वे शराब पीकर मामी को गन्दी-गन्दी गालियाँ देते।
काफी इलाज, दवा-दुआ के बाद मामी को सोनू हुआ था। हमने सोचा उनके दुख के दिन गए |पर न जाने कहाँ से सन्देह का कीड़ा मामा के दिमाग में घुस गया कि सोनू उनका बेटा नहीं हैं। दिन भर वे सामान्य रहते पर रात को पी लेने के बाद मामी को बदचलन कहते। मामी रोकर रह जातीं। किसी से कह भी तो नहीं सकतीं कि पति उन पर शक करता है। वे जानती थी कि पति यदि पत्नी के चरित्र पर दोषारोपण करेगा, तो यह समाज पुरूष के ही पक्ष में खड़ा होगा। स्त्री का चरित्र पुरूष की बपौती जो है। अक्सर औरतें कहतीं-़’पति ने कुछ देखा होगा, तभी तो कहता हैं’। ससुराल के लोग कभी भी उनके पक्ष में न थे। वे सबसे अलग-अलग रहती थीं, क्योंकि सबसे अलग थीं। वे रिश्ते में मेरी ममिया सास लगती थीं। मेरे ससुराल के सभी लोग उनके पक्ष में थे। उनको अच्छी तरह जानते-समझते थे। यहीं आकर वे खुलतीं, अपना दुख-दर्द कहतींं पर हम भी विवश थे। मामा को समझाना मामी की शामत बुलानी थी। मामी अन्दर ही अन्दर घुटतीं पर ऊपर से हँसी का मुखौटा लगाए रखतीं। कितनी...कितनी तो लोकप्रिय थीं मामी| पास-पड़ोस हो या नाते- रिश्तेदारी, बच्चा-बच्चा उनका गुण गाता था। किसी को कुछ खरीदना हो, तो मामी! किसी की कोई समस्या हो,तो मामी! साज-सज्जा, पार्टी सबकी अच्छी जानकार थीं। सबसे उचित व्यवहार। कोई भी उनसे नाराज नहीं हो सकता था। हम उन्हें ’जगत-मामी’ कहते थे। बहुत-बहुत प्यारी थीं मामी...। लोगों की खुशी में खुश हो लेती, वरना मामा के अत्याचार तो उन्हें कभी का खत्म कर चुके होते।
हँसती-मुस्कराती, धारावाहिकों और फिल्मों पर बात करती मामी को अपने घर का बड़ा शौक था। अब तक वे किराए के मकान में थीं, पर उसे इस तरह सजा-सँवार कर रखतीं कि सब देखते रह जाते। उनके हाथों में तो मानो जादू था, जो कुछ भी बना देतीं, मजेदार हो जाता। मेरे ससुराल में हम बहुओं से ज्यादा सम्मान, प्यार वहीं पातीं। ससुर, पति, ननद, देवर सब उन्हें घेरे रहते थे। वे थीं भी तो ऐसी...शील और गुणों का अतुलित भंडार...। बड़ी मुश्किल से मामा को राजी कर हमने अपने घर के ठीक पीछे उन्हें मकान अलाट करवाया था। अपना घर...? मामी बेहद खुश थीं। प्रसव के बाद वे नए घर में आने वाली थीं। उनका सपना अपने घर को तरह-तरह से सजाने का था, जिसे आँखों में लिए ही वह चली गईं। घर...स्त्री का सबसे सुन्दर सपना !पर शायद अस्पताल में मौत से लड़ते वह जान गई थीं कि वह घर भी उनका अपना नहीं होगा। उनके पति का होगा। शराबी पति उस घर में भी उन्हें सताएगा। दूसरे बेटे को भी नाजायज कहेगा। खर्च का हिसाब माँगेगा...कोसेगा और फिर वही सब कुछ...। नहीं बेकार हैं जीना...इस तरह जीना। मामी की जीने की इच्छा ही मर गई थी। उनकी आँखें पीड़ा से भरी रहती और चेहरे पर जीवन-भर के दुख चिपक से गए थे। मैं उनके चेहरे, उनकी आंखों को पढ़ती फिर-धीरे से उनका हाथ दबा देती-’सब ठीक हो जाएगा।’ पर मैं भी यह जानती थी कि कुछ ठीक नहीं होगा...तब तक तो बिल्कुल नहीं, जब तक कि वे स्वयं तनकर खड़ी नहीं हो जातीं।
पर मामी के अन्दर साहस नहीं था। एक बार मैंने पूछा था-आप तो शादी के तुरन्त बाद ही मामा की आदतों को जान गई थीं। फिर तभी क्यों नहीं छोड़ दिया उन्हें?
मामी मुस्कुराई थीं....स्त्री की विवश मुस्कान...मानो कह रही हों-’आसान है क्या, इस पुरूष प्रधान समाज में पति-त्यक्ता स्त्री का सम्मान से जी पाना? कहाँ जाएगी ऐसी स्त्री? मायके वाले उतार फेंका बोझ फिर सिर पर लेंगे नही, नौकरी इतनी आसान नहीं। माना छोटी-मोटी नौकरी मिल भी जाए,तो क्या जीने देगा उसे यह समाज...?
स्त्री अकेली हो, तो पुरूष गिद्ध बन जाते हैं। कहाँ -कहाँ बचेगी स्त्री.....?’ मैंने कहा-’शराबी, अय्याश पति की गाली-मार से तो बेहतर होगा, अकेले रहकर संघर्ष करना़...।’ पर मामी परम्परावादी नारी थीं। समाज से टकराने, अकेली रहकर अभावग्रस्त जीवन जीने की कल्पना भी वह नहीं कर सकती थीं। वे सोचती थीं-अपनी सेवा, त्याग, प्रेम से वे मामा का हृदय परिवर्तन कर लेंगी ,पर ऐसा कुछ न हुआ। उन्होंने दुनिया का मन तो अपने गुणों से मोह लिया, पर उस निर्मम पुरूष का नहीं। मामी मामा से भयभीत रहतीं,करवाचौथ में उनकी पूजा करतीं। उनकी सेवा के लिए हमेशा प्रस्तुत रहतीं ,पर बदले में मार-गाली, गन्दे इल्जाम। धीरे-धीरे वे थक रही थीं, टूट रही थीं। फिर भी एडजस्ट किए जा रही थीं। अब तो बच्चा भी था, उनके साथ...उसमें ही सुख तलाशने में जुटी रहतीं...कितना प्यारा बच्चा था, जो भी देखता प्यार करता। मामी की मेहनत का परिणाम था वह। अब तो बोलने लगा था। मामी अब बच्चे के मोह में मामा के अन्याय सह रही थीं और यह मोह ही उन्हें मरने नहीं दे रहा था।
मैं अक्सर सोचती हूॅं ’स्त्री इतना सहती क्यों है? विद्रोह क्यों नहीं कर देती? किस सम्मान, किस प्रेम की उम्मीद में वह पुरूष के पास पड़ी रहती है।’ मामी विद्रोह करतीं तो जरूर इस जलालत भरी जिन्दगी से मुक्त हो गई होतींं। कम से कम मरती तो नहीं, पर नहीं...वे भी तो भारतीय स्त्रियों की तरह मानती रही थीं कि पति के घर से अरथी निकले। सुहागन मरना शुभ है। शास्त्र-सम्मत परम्परा है। सतीत्व है, भाग्य है। तो देखो, मामी का नसीब जाग उठा है। वे सुहागन मरी हैं। उन्हें दुल्हन की तरह सजाया जा रहा है। लाल जोड़ा,महावर,सिन्दूर,बिन्दी,चूड़ी.... कितनी सुन्दर लग रही हैं वे ,मानो सज-संवरकर सो रही हों। महिलाएँ उन्हें धन्य-धन्य कह रही हैं। सती-सावित्री, सीता की उपाधि लादी जा रही है मामी के प्राणहीन शरीर पर। जीवन भर जिन्हें जलाया,सताया,रूलाया गया, तमाम अशोभनीय उपाधियां दी गईं। आज उनकी प्रशंसा में कसीदे काढ़े जा रहे हैं।
मामी की अरथी उठाई जा रही थी।परेशान है उनका बेटा सोनू कि मम्मा को क्या हुआ है, वह चुपचाप सोई क्यों हैं? वह कितनी बार तो उन्हें आवाजें दे चुका। सुबह से भूखा है वह,कोई उसकी तरफ ध्यान नहीं दे रहा है। अरथी के उठते ही बताशे और पैसे फेंके जाने लगे हैं। सोनू चुपके से एक बताशा मुँह में धर लेता है, तभी एक जोरदार तमाचा उसके फूल से गाल पर पड़ता है। अरथी हिल उठती है, मुझे साफ-साफ मामी की चीख सुनाई पड़ती है।