atit ke galiyaare se in Hindi Adventure Stories by कलम की रानी books and stories PDF | अतीत के गलियारें से

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अतीत के गलियारें से

नींद कोसों दूर हैं आज, अतीत के गलियारे मै खड़ी जो हूँ, अतीत के पल चाँदनी रात मै आँखो के सामने नृत्य कर रहे हैं... और मै मूक दर्शक की भाँति खड़ी हूँ l आज का सारा मंजर मुझे अतीत की गलियों मै धकेलने की साजिश कर रहा है मानो l दिन को भाग- दौड़ करती ये दुनिया रात को कितनी वीरां, सुनसान सी हो जाती हैं, कितनी खामोसी पसर जाती हैं चारों और, सच मै कितनी शान्ति हैं, सुकूँ हैं इस सन्नाटे मैं... l कितना कुछ बदल जाता हैं वक्त के साथ, पर मै आज भी वही खड़ी हूँ... वक्त बदला, जगह बदली, लोग बदले... ना जाने मै क्यू नहीं बदल पा रही... क्यू इस बदलती दुनिया का हिस्सा नहीं बन पा रही... शायद मै वो बचपना मन से निकाल ही नहीं पा रही हूँ, कितना सुकूं था बचपन मै, सुकूँ बचपन मै ही होता है, बाद मै तो इंसान जिम्मेदारियों के बोझ तले दब सा जाता हैं, तभी हर कोई बचपन तलाशता हैl मैंने जब से होश संभाला हम चार भाई- बहन थे, ननिहाल मैं ही रहते थे, बहुत बड़ा परिवार था नानाजी का l मेरी माँ की थोड़ी दिमागी हालात सही नहीं थी, इसलिए हम ननिहाल मै ही रहते थे नानी की छत्र- छाया मैं, वही पले- बढ़े l नानाजी के परिवार की माली हालात इतने अच्छे नहीं थे l मेरी माँ और आठ भाई- बहन थे l दो मामा थे एक मामा बचपन से कम दिमाग के थे l पर स्थिति जैसे भी रही हो हमारा लालन- पालन अच्छे से हुआ l अपने दादा के घर हम नहीं गए, दादी हिटलर की प्रतिमा जो थी l खैर जो भी हो , हमारा बचपन था बड़ा अच्छा , आजकल बच्चो की तरह वीडियो- गेम या मोबाइल या फिर टीवी की रंगीन दुनिया से कोसों दूर था l हमारी अपनी ही दुनिया थी, जँहा हम खुल के धम्मा- चौकड़ी मचाते और बचपन को जीते थे l हम बच्चो की बहुत बड़ी गैंग थी, सवेरे से लेकर शाम तक हम ना थकते थे, कभी इधर तो कभी उधर बचपन को जीते थे l रात को नानी से कहानियाँ सुनते थे, और नींद की आगोश मैं समा जाते थे l दूसरे दिन फिर वोही उद्धम् शुरू हो जाता l गांव की दुनिया किसी स्वर्ग से कम थोड़ी होती हैं, हरे भरे खेत थे पास मै नहर थी, पेड़- पौधों की दुनिया थी, स्कूल भी कभी- कभार दर्शन को जाते थे l गर्मियों में हर कोई पतंग , झूले झूलते रहते थे,अलग अलग सिक्के और माचिस के कवर हम खोजते थे l तरह तरह कि कलाकारी करते रहते थेl बचपन भी ना जाने कब पंख लगा के उड़ जाता हैंl जैसे- जैसे बड़ी हुई दुनिया के जाल मैं खुद को उपेक्षित सा पाया l

मेरी माँ थोड़ी दिमाग से कम थी तो कभी भी किसी से भी लड़- झगड़ लेती थी, मुझे बहुत बुरा लगता था l पिताजी के घर माँ बहुत कम जाती थी, बेचारे मेरे नानाजी इतने बड़े परिवार के बोझ तले दबे रहते थे l हकीकत की दुनिया बचपन की दुनिया से बहुत अलग होती हैं l बचपन मैं हम बेफिक्र, दुनिया दारी से बेखबर होकर जीते हैं l बड़े होने पर फिक्र और दुनिया दारी की खबर मै जीते हैं l इतने बड़े परिवार मै अपने घर की भी कमी महसूस हुई, और पापा की भी l पापा से हमारा कोई वास्ता नहीं था, ना उन्होंने हमारी कभी कद्र की ना कभी प्यार किया l अपने घर भी नहीं ले गए l नफरत सी होने लगी थी मुझे उनसेl आजतक बड़ी खुश अल्हड़ लड़की थी जो आज वोही उदास, उखड़ी- उखड़ी सी रहने लगी थी, लेकिन इतने बड़े परिवार मैं किसे वक्त था की कोई मेरा भी हाल जानता l बस , यूँही समय गुजर रहा था और मै एकाकी होती जा रही थीl किसे दोष दू उस भगवान को जिसने मेरी माँ को थोड़ा पागल बनाया या उस बाप को जिसने हमारी परवरीश नहीं की l ना सपने थे ना अपने थे, बस थे तो भगवान से शिकायतों के पिटारे थे l आज ना जाने कितने साल पीछे अतीत मै खड़ी हूँ, कभी - कभी यादों मैं गुम होना भी सुकूँ देता है l अकेला आदमी अक्सर यादों के झरोखें मै ही झूल रहा होता है l आज मै एक अच्छी जिंदगी जी रही हूँ पर कुछ पुरानी बातें तन्हा कर जाती हैं, चैन छीन ले जाती हैंl