Introduction or identity card (satire) in Hindi Comedy stories by Alok Mishra books and stories PDF | परिचय या पहचान पत्र (व्यंग्य)

Featured Books
Categories
Share

परिचय या पहचान पत्र (व्यंग्य)



परिचय या पहचान पत्र



एक दिन बेचारे शर्मा जी से हमारी मुलाकत एक चैराहे पर हो गई। बेचारे वो... और उनकी बेचारगी का कारण यह है कि वे इस युग में भी सभी काम नियमानुसार करने पर विश्वास रखते है। उनके जैसे लोगों को आजकल लोग दकियानूस, लकीर का फकीर और ना जाने किन-किन नामों से बुलाते है। शर्मा जी खाते-पीते विभाग में शासकीय सेवक है परंतु उन्हे कोई पसंद नहीं करता। लोग उन्हे पसंद करें भी तो क्यो ? जिस विभाग में चपरासी तक कार से चलने की स्थिति में हो, वहाॅ शर्मा जी आज भी सायकल पर चल कर उपेक्षा झेल रहे है।


शर्मा जी आज कुछ परेशान से दिखे सो हमने पूछ ही लिया ‘‘आज आप कवि सम्मेलन में पिटे हुए कवि जैसे क्यों लग रहे है?’’ वो भी स्त्रोता की तलाश में घूमते कवि की तरह ही सुनाने के ही मूड में थे अतः बोलने लगे ‘‘मिश्रा जी मैं कहाँ रहता हूॅ, आपको मेरा घर मालूम है क्या?’’ मैं बोला - ‘‘हाॅ....हाॅ क्योें नहीं ...... मैं तो आपके घर आया भी हूॅ.....न।’’ वे बोले ‘‘पर मुझे नहीं मालूम मैं कहाॅ रहता हूॅ??’’ मैं आश्चर्य में पड़ गया। शर्मा जी का फिर से दिमाग तो नहीं चल गया। अरे साहब आप और हम यह सिद्ध नहीं कर सकते की हम पागल नहीं है लेकिन उनके पास यह प्रमाण पत्र है कि वे पागल नहीं है। वैसे भी जब उनका दिमाग खराब होता है तो वो बहुत बड़ा टीका लगाते है। आज टीका नहीं है याने दिमाग ठीक है। मैं बोला - ‘‘हुआ क्या ?’’ वे बोले "मिश्रा जी आजकल शक्ल, सूरत और चेहरे से बड़ी पहचान, वो छोटे-छोटे कागज के टुकडे है जिन्हे परिचय-पत्र कहते है।"


हमने कहा ‘‘हम समझ नहीं पाए।’’ वो बोले ‘‘हमने सभी तरह के परिचय-पत्र बनवा लिए है। सब एक साथ जेब में भी नहीं आते.... हमें लगता है कुछ सालों बाद परिचय-पत्रों के लिए भी एक थैला अलग से रखना पड़ेगा। खैर.... हमारी समस्या ये है कि एक परिचय-पत्र के अनुसार मेरे मकान में पूरा का पूरा मोहल्ला रहता है, बताओं मिश्रा जी मेरे घर में इतने लोग खड़े भी नहीं रह सकते जितने उसके अनुसार रह सकते है। एक अन्य परिचय-पत्र के अनुसार तो मैं और मेरी पत्नी तो अलग-अलग मोहल्ले में रहते है। एक परिचय-पत्र के अनुसार मैं अपनी पत्नी का पति ही नहीं हूॅ।’’ मैने उन्हे रोका और बोला ‘‘सुनिये.... सुनिये.. ये सब लोग सुन रहे है हर किसी के साथ ऐसा ही है फिर आप क्यों परेशान हो रहे हो।’’


वे बोले मिश्रा जी ‘‘इससे पहचान की विश्वसनियता समाप्त होती है। परिचय-पत्र विश्वसनियता के लिए है या..’’ मैं बोला ‘‘तो सुधरवालो।’’ वो बोले ‘‘एक हफ्ते से इसी चक्कर में घनचक्कर बना फिर रहा हूॅ। एक को सुधारना होता है तो दूसरे को देखते है, दूसरे के लिए तीसरे को फिर हम दूसरे और तीसरे को सुधरवाने में लग जाते है।’’ वे बोले जा रहे थे ‘‘अब तो स्थिति यह है कि अपने पर्स में हमेशा ही कुछ पासपोर्ट साइज की फोटो ले कर घूमना होता है कि कब कौन किस नए परिचय के लिए फोटो मांग लेगा।’’ हम बोल पड़े ‘‘एक दो परिचय-पत्र सुधरे क्या?’’ वे बोले ‘‘सारा काम ठेकों पर है ऐसे ठेकों को कोई देखता ही नहीं। गलत हो या सही उन्हे काम करना है शायद गलती सुधार हेतु कोई पैसा ही न हो इसलिए सुधार...... सुधार...... नहीं।’’


हमारी नजरों के सामने परिचय-पत्र बनाने वालों की लम्बी कतार सामने गई। हर कोई आज बहुत सारे परिचयों का मोहताज है। उसे लगता है कि कहीं कोई परिचय छूट न जाए। फिर मुझे डरबन में परिचय-पत्र जलाते और अंग्रेजों से पिटते गाॅधी जी दिखने लगे।





आलोक मिश्रा