tahzib in Hindi Children Stories by padma sharma books and stories PDF | तहजीब

Featured Books
Categories
Share

तहजीब

तहजीब

शहर के प्रसिद्ध सिनेमा हॉल के सामने भीड़ जमा थी। सम्पूर्ण देशवासियों के प्रतीक के रूप में हर वर्ग, हर पेशे तथा हर धर्म के लोग यहाँ उपस्थित थे। इतना अधिक जनसमुदाय तो शायद किसी पूजा-स्थल पर भी जमा न होता होगा। इसी भीड़ में एक लड़का इधर-उधर घूम रहा था। नंगे पैर, फटी-सी शर्ट, और उस पर भी मैले-कुचैले दाग लग रहे थे। उसके बाल बिखरे हुए थे और उम्र यही कोई बारह-चौदह के आस-पास होगी। एक हाथ में सिगरेट लिए था। मुँह से इन्जिन के समान धुआँ उगलता हुआ अपने आपको किसी डॉन से कम नहीं समझ रहा था। एक नवविवाहित जोड़े को देखकर सहसा उसकी आँखों में प्रसन्नता की लहर दौड़ गई।

अगले ही क्षण वह हाथ में टिकट लिए उस जोड़े के सामने खड़ा था, वह बोला-बाबूजी टिकट चाहिए, तीन हैं मेरे पास । साहब जो कुलीन घर के दिखाई पड़ रहे थे, बोले-लेकिन हमें तो दो ही चाहिए।
वह बोला, ठीक है तीसरे से मैं देख लूँगा । चाहिए हों तो बात कर लेना नहीं तो शाम तक यों ही खड़े रहना।

साहब ने लाइन पर अपनी दृष्टि डाली वहाँ राशन की कतार से भी लम्बी कतार लगी थी। लोग-बाग एक दूसरे को धक्का दे जल्दी आगे पहुँचकर टिकट प्राप्त करने की होड़ में थे। उन्हें लगा कि यदि यही स्थिति रही तो लज्जित होकर वापस लौटना पड़ेगा। इधर लड़का सोच रहा था कि ये अभी नये शादी-शुदा है और देखने में तथा पहनाव, बनाव-शृंगार से भी अच्छी पार्टी लग रही है।

इन परिस्थितियों में वह आदमी अपनी बीवी को बिना पिक्चर दिखाये वापस तो ले नहीं जाएगा और इधर भीड़ टिकट न मिलने की सूचना देकर आशाओं पर पानी फेर रही था।
इसी अन्तर्द्वन्द्व में वह लड़का सिगरेट का
धुंआ उगलता हुआ उन लोगों के आस-पास चक्कर लगाने लगा।

धीरे-धीरे ऐसे ही आधा घण्टा गुजर गया। उस लड़के को भी कोई ग्राहक नहीं मिला और साहब को भी कोई दूसरा टिकट वाला नहीं पट । पाया।
तब कोई व्यवस्था न देखकर इन साहब ने उससे ब्लैक में टिकट खरीद लिया।
पिक्चर का पहले वाला शो अभी चल रहा था, उसके छूटने में काफी समय था।
कुछ न सूझा तो पूछने लगे-पढ़ते हो। वह बोला-हो आठवीं पास हूँ।
उन्होंने पूछा, आजकल क्या कर रहे हो? उसने कहा अभी पढ़ाई छूटी हुई है तांगा चलाता हूँ।
उन्होंने आगे पूछा-घर में कौन-कौन हैं?
उत्तर मिला-कोई नहीं बस मैं और एक बूढ़ा बाप है।
साहब ने देखा-न तो उसे बोलने का ढंग था और न खड़े होने की तमीज है।
बस किसी पिक्चर में देख लिया होगा कि धर्मेन्द्र या अमिताभ बच्चन की शर्ट में चार जेबें थीं तो वह उसके शरीर पर चारखने की चौखट के समान दिखाई दे रही थीं। जिनमें से किसी का बटन टूटा था तो किसी का कवर गुलटाइयाँ खा रहा था। कॉलर में मैल जमा था। कुछ रुककर उन्होंने पूछा-पिक्चर कब देखना शुरू की?
वह थोड़ा नागवारी का भाव चेहरे पर लाकर बोला, एक बार बस्ती के दोस्त जबर्दस्ती ले आए थे। उसके बाद तो बस चस्का पड़ गया।
उन्होंने अपने आपसे कहा-'वातावरण संस्कारों के निर्माण में नींव के पत्थर का काम करते हैं। ' पूरे शरीर का मुआयना करने के बाद वे बोले-"तुम्हारे पास चप्पलें नहीं हैं, ढंग के कपड़े नहीं हैं, इन पैसों से पिक्चर न देखकर इन सबका इन्तजाम भी तो कर सकते हो? "
वह कुछ सोचते हुए बोला-"बाबू जी जन्म से ही कोई बुरा नहीं होता जब हालात पैदा हो जाते हैं तो इन्सान अपने आपको उनमें ढालने के लिए मजबूर हो जाता है । जब ये पैसे घर पहुँचते हैं, तो बाप शराब के लिए मार-मार कर छीन लेता है। इससे अच्छा तो यह है कि अपुन अपनी मस्ती में ही ये पैसे उड़ायें। अब तो बाबूजी एक बार रोटी खाये बिना रह सकते हैं, एक दिन पिक्चर देखे बिना नहीं रह सकते।"
वह कहता जा रहा था और वे सोच रहे थे कि हालात इन्सान को कहाँ तक पंगु बना देते हैं। जब वह अपनी सुख-सुविधाओं का लाभ नहीं उठा पाता तो वह बर्बादी पर उतर आता है।
बातों ही बातों में पता चला कि वह सातवीं बार इस पिक्चर को देखेगा। वह अपना नाम राजू बतला रहा था।
पता नहीं क्यों वे साहब जो मिस्त्री साहब के नाम से प्रसिद्ध थे, इस लड़के से प्रभावित हो गए थे। उसे एक छोटा-सा कार्ड देते हुए बोले-राजू, यह मेरे घर का पता है-जब भी जरूरत हो आ जाना।
उन मिस्त्री साहब को अपने ऊपर मेहरबान होते देखकर उसके अन्दर सोया हुआ इन्सान जाग पड़ा।
वह ज्यादा लिए हुए रुपये वापस करने को उद्यत हो गया लेकिन उन्होंने लेने से इन्कार कर दिया।
पिक्चर का पहले वाला शो छूट चुका था दूसरे शो के सभी लोग हाल में अन्दर जाने लगे।
पिक्चर शुरू हुई। गाना आने पर राजू अपनी आदत के अनुसार सीटी बजाने लगा
तब साहब ने उसे घूर कर देखा तो सकपका गया। उनका राजू पर इतना प्रभाव पड़ा कि वह इंटरवल में ही पिक्चर छोड़कर चला गया।
एक शाम मिस्त्री साहब ऑफिस से पैदल लौट रहे थे।
उस दिन मिस्त्री साहब की कार गैराज में सुधरने पड़ी. थी और ऑटो टैक्सी की हड़ताल थी। इसलिए वे पैदल ही जा रहे थे। रास्ते में घर तक आने का कोई साधन नजर नहीं आ रहा था।
यकायक उन्हें एक तांगा जाता दिखाई दिया तो उन्होंने उसे आवाज लगाई।
जब तांगा पास आया तो वे चौक गए। तांगा वही लड़का राजू चला रहा था जो उस दिन सिनेमाघर में मिला था। वे उसके तांगे में बैठ गए, वे उसके हाल-चाल पूछना चाहते थे। उन्होंने कहा-"और राजू कैसे हो? आजकल क्या कर रहे हो? "
वह बड़ी ही निरीह वाणी में बोल उठा- "कुछ नहीं बाबू जी बस! तांगा चला रहा हूँ और पिताजी की मार खा रहा हूँ। "
उन्होंने बात को आगे बढ़ाते हुए कहा-"क्यों पिताजी की मार क्यों खा रहे हो? "
वह बोलने लगा, "बाबूजी एक बार ब्लैक में टिकट बेचने के जुर्म में पुलिस गिरफ्तार करके ले गई तब से वह काम तो छोड़ दिया केवल तांगा चला रहा हूँ। आजकल ऑटो और टैक्सी चलने के कारण तांगे से जाना कोई पसन्द नहीं करता क्योंकि सब लोग अपनी मंजिल तक जल्दी पहुँचना चाहते हैं। मेरी आमदनी कम होती है। इसलिए मेरे पिताजी मुझे मारते हैं। "
सुनकर मिस्त्री साहब को उस पर दया आई और उसके पिताजी पर क्रोध आया । ऐसा पिता किस काम का जो अपने बच्चे को पढ़ा-लिखाकर फर्ज पूरा करने के बजाय उसकी कमाई से शराब पीता है। प्रश्न भरी निगाहों से उसे देखते हुए उन्होंने कहा-"तुम कोई दूसरा काम करना चाहते हो तो कल मेरे घर आ जाना" इन्हीं बातों में उसकी रात कट गई । सुबह ही वह मिस्त्री साहब के यहाँ पहुँच गया उसको ।
देखकर वे खुश हो गए और बोले-"अच्छा हुआ तुम आज ही आ गए।" फिर उन्होंने समझाते हुए कहा कि "क्या तुम्हारी इच्छा नहीं होती कि। तुम भी अच्छे कपड़े पहनकर साफ-सुथरे रहो, लोग तुम्हें अच्छी नजरों से देखें, अच्छे बच्चे दोस्त हों। "
वह बोल उठा- "बाबूजी इच्छाएँ किस की की नहीं होती-लेकिन कोई चारा ही नजर नहीं आता।"
मिस्त्री साहब ने कहा-"तुम भी यदि चाहते हो कि एक दिन बड़े आदमी बनो, मेरी तरह सूट-बूट में रह सको। इसके लिए पहली चीज है!पढ़ाई और उसका इन्तजाम मेरे ऊपर है यदि तुम्हें मेहनत करना मंजूर हो तो। "
राजू की आँखों में आँसू आ गए। वह बोला-"बाबूजी मैं आपके घर काम करके आपका बोझ भी हल्का करूँगा। लेकिन पढ़ूँगा जरूर । मेरी आगे पढ़ने की तमन्ना मन में ही रह गई थी, आज दो-तीन साल यूँ ही बरबाद हो गए। आज आपने पढ़ने की लालसा फिर से पैदा कर दी है। "
मिस्त्री साहब बोले," मैंने पहले ही दिन तुम्हारे अन्दर एक अपूर्व प्रतिभा को पहचान लिया था। सुबह का भूला यदि शाम को घर वापस आ जाए तो उसे भूला नहीं कहते। जो हो चुका उसे भूल जाओ आगे की सोचो । इसके लिए एक शर्त है-तुम्हें अपनी गंदी आदतों को छोड़ना होगा। "
वह चरणों तक झुककर बोला-"बाबूजी आप जो बोलेंगे मैं वही करूँगा ।"

उसी दिन वह मिस्त्री साहब के आग्रह पर अपने पिता को उन्हीं की कोठी पर ले आया। वहाँ मिस्त्री साहब ने उन्हें भी समझाया और कहा "आप भी हमारे यहाँ माली का काम कर दिया करें तो आपको भी सुविधा हो जाएगी।"

उसके पिता ने मन में सोचा कि वह व्यक्ति मुझे बुलाकर काम देना चाहता है जबकि मैं तो बहुत खराब हूँ कोई मुझसे बात भी नहीं करना चाहता है। यह जरूर मेरा और मेरे बेटे का भला करना चाहता है। ऐसा सोचकर उसने भी सहर्ष स्वीकार कर लिया। वहीं पिछवाड़े की ओर उन्हें एक कमरा रहने के लिए मिल गया।

धीरे-धीरे मिस्त्री साहब राजू को सही रास्ते पर ले आए। उसे ढंग से उठना-बैठना, तमीज से बोलना तथा सलीके से रहना सभी-कुछ सिखा दिया और वह कल के गन्दे वातावरण से निकल कर आज जीने का नया सलीका सीख गया।
-----