ganv ki talash - 2 in Hindi Poems by बेदराम प्रजापति "मनमस्त" books and stories PDF | गांव की तलाश - 2

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गांव की तलाश - 2

गांव की तलाश 2

काव्‍य संकलन-

वेदराम प्रजापति ‘’मनमस्‍त’’

- समर्पण –

अपनी मातृ-भू के,

प्‍यारे-प्‍यारे गांवों को,

प्‍यार करने वाले,

सुधी चिंतकों के,

कर कमलों में सादर।

वेदराम प्रजापति ‘’मनमस्‍त’’

-दो शब्‍द-

जीवन को स्‍वस्‍थ्‍य और समृद्ध बनाने वाली पावन ग्राम-स्‍थली जहां जीवन की सभी मूलभूत सुविधाऐं प्राप्‍त होती हैं, उस अंचल में आने का आग्रह इस कविता संगह ‘गांव की तलाश ’में किया गया है। यह पावन स्‍थली श्रमिक और अन्‍नदाताओं के श्रमकणों से पूर्ण समृद्ध है जिसे एक बार आकर अवश्‍य देखने का प्रयास करें। इन्‍हीं आशाओं के साथ, आपके आगमन की प्रती्क्षा में यह धरती लालायित है।

वेदराम प्रजापति - मनमस्‍त -

7- गाम्‍य श्री -

सरल नाम है गांव, जहां जनता भी भोली।

लज्‍या के परिधान, पहन सज्‍जनता चोली।

मेहनत के भण्‍डार, अन्‍नदाता कहलाते।

ईमानों की छाप, अमित आदर्श सुहाते।

भोले इतने मिलैं, दुहैं-बिन बछड़ा-गैया।

जब चाहो तब दुहौ, फिकर नहीं इनको भइया।।

शिक्षा का नहीं ओर, मगर ज्ञानी हैं सारे।

चर्चा-वेद-पुरान, करत, स्‍मृति से प्‍यारे।।

अंधकार से दूर, नहीं अंधियारा प्‍यारा।

बिन दीपक के दिखै, इन्‍हें अन्‍दाजा न्‍यारा।

संझा दीपक वारि, प्रेम से करते व्‍यारी-

प्रभू नाम को रटत, करत सोने की तैयारी।।

समय-साथ सो जांय, जगैं जब चिडि़यां बोले।

करवट बदलैं कई, भोर ही आंखें खोलैं।।

कस के मेहनत करत-नहीं, फुरसत ही पावैं।

शहर बहुत कंजूस, गांव को ठग ले जावैं।

मेहमानी का ठांब, प्‍यार के बदत चौंतरा।

साफ, स्‍वच्‍छ हैं द्वार लगत जहां रोज बौंखरा।।

हुक्‍कन की घन घोर, न्‍याय पीढ़ी चौपालें।

काका ने कह दई बात, नहीं टलती-टालें।

दहरीं स्‍वागत करत, लिपीं गोबर से नौनीं।

चौक पोतनी पुरत, लगत सब, नौनी-नौनी।।

इतना सारा काम, साल भर, चुकै न भाई।

सुख का है संसार, सभी मनमस्‍त दुहाई।।

8- प्राकृतिक सुखधाम -

गांवों के हैं नाम, प्राकृतिक सुखधाम।

जहां विधाता ने लीला कीं, बनकर राधा – श्‍याम।।

मुनियां, सुनियां, भूरी, सूरी, भोरईं करत सफाई।

ग्‍यानों, ध्‍यानो और चिरौंजी, चाकीं रहीं चलाई।

पलिया, कलिया और बसन्‍ती, दौर खिरक में जावैं।

मुन्‍नी, मथरो, कला, केशरी, गोबर पाथत गावैं।

गोवर्धनबाबा, कर जोड़त तुम हो तीरथ-धाम।।

रमियां, रती, रतौंधी रज्‍जो, किशनो, कुब्‍जा-बोली।

मिरचीं, मका नींदबे जानौं, बहिना सुनो गपोली।,

माया, मिसरो जल्‍दी चल भईं, मित्‍ता, भर्ता बांटें।

सगुना, सगुन साध कर आई, गोरी शिर धर मांटे।

बड़ी सदौसी, सज गयीं सुल्‍ला, खेत दूर और काम।।

धरैं घास कौ बोझ आ रहीं, कृषकन की प्रिय- प्‍यारीं।

पानी खींच रही कुअलन से, देखो ये पनिहारी।

सिर पर जैर, चलत गज-गामिनी, आपस में बतियातीं।

झूलन पर, झूलत हैं हिलमिल, पावस-गीत सुनातीं।

प्रात: से चहल-पहल ओर जब तक होती शाम।।

गैमारे – गइयन कूंलेकर, झुंझरी-तला, चराबैं।

धौरी, घूमर, कजरी टेरत, श्‍यामा, श्‍याम सुहाबै।

कहां गुलाली ओर मुंहपाटन, कबरी कित कूं जावै।

सुन्‍दर, शुरभी और छदम्‍मो सुरंग, बतासी आवै।

कारी, मोरई, मुण्‍डी, मैढ़ी बन्‍डी बोलो राम।।

9- हिलमिल चलते गांव -

सर्दी में नहिं सर्द, नहीं गर्मी में गर्मा।

सुध-दुख एक समान, काटते अपने कर्मा ।

हानि-लाभ को झेल, बिना चिंता के रहते।

हिल-मिल काटो समय सदां यौं ही तो कहते।

धर्म, नीति में पगे, सगा-सा, सबको जाने।

हिल मिल चलते गांव, नहीं अपनी, कोउ ताने।।

हृदय बना विशाल, झेलते वर्षा, सूखा।

बिन ब्‍यारी सो जांय, लगै नहीं, जैसे भूखा।।

फसलें करत तैयार, बहुत ही मेहनत करके।

रोग, आपदा झेल, हंसत से, आंसू भरके।

आंखों देखत ह्रास होत, सम्‍पत्ति अपनी।

सिर सहलाते रहत, समुझ माया ज्‍यौं सपनी।।

सुख, समृद्धि हेतु, सुनत आश्‍वासन झेला।

फिर भी रहते शान्‍त, कपत नहीं, इनका चोला।।

मेहनत कश बन रहत, देखते सब कुछ जावैं।

लोकतंत्र की बात, समझ थोड़ी कुछ आवै।।

शासन पोल-पवांय, चलावै अपने शासन।

भोला सबै बनाय, देत झूठे, आश्‍वासन।।

गांवन, सीधे समझ, जुगाली सबही करते।

खुद को चातुर मान, अश्रु घडि़याली, भरते।।

इकटक देखत सबन, जानकर सब कुछ प्‍यारे।

को सच्‍चे हम दर्द, और को – का, हत्‍यारे।।

मेहमानों की आब – भगत में, सदां लगे हैं।

चाहे कोऊ आए, लगत ज्‍यौं, अपए सगे हैं।।

10- आओ मेरे गांव –

जीवन करो सुकाय, आओ, देखो गांव।।

जीवन की कोयलिया गातीं, ऐसे पावन गांव।

खड़ा फसल में कृषक, कर रहा प्‍यार सभी से इतना।

अपनी रचना पर भगवन ने, प्‍यार बहाया कितना।

तन-मन-धन अर्पण है कर्तव्‍य, बस इतना बह जाना।

यह मिट्टी का तन, मिट्टी में मिला देऊं, यह माना।

मन मनमस्‍त बनाने वाले, प्‍यारे-भोले गांव।।

नदियां, झरने उज्‍जवल जल से, कल – कल गीत सुनाते।

जहां पपीहा और कोयल के, राग अनूठे पाते।

बने शिवालय आरती होतीं, रामायण अरू गीता-

सब समृद्धिवान, मन सांचे, कोई न मिलता रीता।

जहां प्रकृति भी सही रूप से, अपना पाती नाम।।

कुअला ऊपर रेंहट चल रहे, चुरमुर चुरमुर बोले।

जो जीवन को, जीवन दायक, राग बसन्‍ती खोलें।

छरर- छरर पानी हो बहता, घरियां भर-भर लावैं-

क्रम संसार यही है मित्रों, जीवन नांद सुनावें।

रीति भरीं, भरीं अरू रीति, धरो अगाड़ी पांव ।।

मक्‍का के भुट्टों को देखो, धन्‍य प्रभु की लीला।

जैसे मोती जड़े मांग में रंग बसन्‍ती पीला।

खीरा, ककड़ी, सूर्य मुखी संग, कृषक मनावै होली-

देखत सभी, खुशी हो मन में, लाता भरि भरि झोली।

कोदे, समां फिकार, फसल लख, खुशियों का अभिराय ।।

भरे हुए खलिहान धान्‍य से, मन कुबेर सकुचाई।

प्राकृतिक वैभव जहां आकर, मुक्‍त भाव से गाई।

हिलमिल करत परिश्रम, देखो-सच्‍ची जीवन गीता।

बरस रहा जहां जीवन-अमृत, जिसको सब जग पीता।

मन मनमस्‍त फूंस की कुटियां जिनको है विश्राम।।

11- झेलते दर्द गांव -

सब गांवों पर तुले, पढ़ाई चाहे लिखाई।

मनोरंजनों हेतु देत कर और उघाई।

गैर और सरकार, इन्‍हीं के द्वारें ठाड़ी।

बिन इनके नहिं चले, काउ की, नैंकऊ गाड़ी।

खलिहानों की खाल-खिंचत, देखी है इनने।

कितने सहे भूचाल, कहो देखे हैं, किसने।।

मेहनत की हर बूंद, ढलक यौं ही जाती है।

बोनी, पैंदावार, मोल-सी हो जाती है।

बनियों की बह तौल, जिसे भगवान न जाने।

कितनीऊं पौनी तुलै, तऊ ऊनी हो जावै।

औने-पौने तुलत, गरज और लाचारी में।

कमजोरी चर जात, सबै, साहूकारी में।।

लगे सालभर रहै, कुठीला रीते-रीते।

कर्ज नहीं पटपात, किसी के जीते – जीते।।

त्‍यौहारों की शान, अन्‍य - पूर्ति के लानें।

विकते – भूसा, पुआल, पशु भूंखे रह जानें।

मां धोती बिन पिता अंगौछा के रह जाता।

पत्‍नी साया हीन, कई – तऊ जुगत लगाता।।

मन समझाता तऊ, गांव के झेल अहाने।

देव, देवियां पूज, मनौती, कई, बहाने।

है इतना लाचार, बिना कुछ, घ्‍रहि चलाता।

रहा देखता सबै, उसे कोई, देख न पाता।

है इतना अनजान, लुटा जाता है दिन में।

समझु न पाता शीघ्र, सोचता यूं ही मन में।।