झूठ घर
उस डायरी में लेखक का कहीं भी नाम नहीं है, अन्यथा ‘झूठ घर’ का वह प्रत्यक्षदर्शी, बिन बुलाया मेहमान आज के सफल लेखकों में गिना जाना. लेखक बनना उसका उद्देश्य रहा हो, ऐसा भी जान नहीं पड़ता. हो सकता है, वह केवल घुमक्कड़ रहा हो.
उसने लिखा है घोड़ा पछाड़ पीले मोटे सांप ने उन दो भूवैज्ञानिकों का पीछा किया था और मुझे भी देख लिया था. इसलिए मैं उल्टी दिशा में बेतहाशा दौड़ता रहा था घंटों तक... और रास्ता भूल गया था.
तब रात के धुंधलके में दूर दिखाई दिया था वह मनहूस अष्टकोणीय घर.
घर को देखते ही प्यास से तड़फ उठा था न जाने क्यों. कदम उसी ओर बढ़ गए. आश्चर्य! दरवाजा खुला था. मेरे अंदर घुसते ही वह अपने आप बंद भी हो गया. अंदर सब साफ दिखाई देता था. पूरा घर खुशबू और बदबू से भरा था.समझ में नहीं आ रहा था कि सांस ली जाए या नहीं. पानी का जग समझकर जिसे उठाया, वह खरगोश में बदल गया. एक बार, तो बुरी तरह घबरा उठा. कहीं भूतों के डेरे में तो नहीं आ गया! यह तो बाद में पता चला था कि वह झूठ घर था और वहां ‘है’ और ‘नहीं है’ विपरीत अर्थ देते थे.
थक कर कुर्सी में बैठा तो लगा कुर्सी ऊपर उड़ती जा रही है और जल्दी ही छत तक जा पहुंचेगी. पर ऐसा नहीं हुआ-छत से एक निश्चित दूरी बनी रही. लैम्प की बत्ती तेज करनी चाही तो जिन्दा आदमी की तरह लैम्प चिल्ला उठा-‘ हाय! मार डाला’ हालांकि उसकी लौ तेज हो गई.
घबराकर दीवारों की तरफ देखा तो पाया कि वे कपड़े की तरह तनी थी और थर-थर कांप रही थी. उफ! वह समय भी कैसा खतरनाक था, निकल भागने के इरादे से दरवाजे की तरफ देखा तो पाया कि कहीं कोई दरवाजा ही नहीं है और मैं कांपती दीवारों के घर में कैद हूं. हारकर आंखें बंद कर देर तक कुर्सी पर पड़ा रहा-मालूम नहीं होश में या बेहोशी में.
फिर कई घंटों बाद ... भूख लगने पर रसोई घर में जा घुसा. एक तश्तरी में उबले अंडे थे. तुरंत ही दो अंडे निगल गया. उसके बाद थर्मस में रखी कॉफी को कप में उंडेलकर पी गया.
और यह मालूम हुआ कि जीवन की सबसे बड़ी भूल कर गुजरा हूं.
कॉफी पेट में जाकर ठोस चॉकलेट में बदल गई और स्पष्ट जान पड़ा कि उन अंडों से दो चूजे निकलकर चॉकलेट पर टूट पड़े हैं. ऐसा होना नामुमकिन था पर मेरा पेट इस कदर हिल रहा था कि नामुमकिन को भी मुमकिन मानना पड़ रहा था. थोड़ी ही देर में मेरी हालत ऐसी हो गई कि कमरे में चारों और चक्कर लगा रहा था-कुकड़ू-कूं.
... और सहन नहीं कर सकता था रसोईघर से चाकू ले पेट काटकर मुर्गी को बाहर निकालकर निर्ममता से उनका गला घोटने की सोच रहा था कि एक भद्दी खिलखिलाहट सुनकर चौंका. पीछे मुड़कर देखा लाल दाढ़ी और लंबी नाक वाला एक अजीब आदमी सामने खड़ा है. मुझे देखकर वह और जोर से हंसने लगा था. फिर एकाएक रोने लगा और जब मैंने ध्यान से देखा तब वह न तो हंस रहा था न ही रो रहा है बल्कि वह चुपचाप खड़ा है.
मेरा सिर भन्ना उठा. मुझे घबराया देख कर बहुत खुश हुआ और चिंघाड़ कर बोला, ‘चोर कहीं का, सारा माल गड़प गया! सोचता था झूठ बाबा अंधा है. बदमाश अभी तक ढीठ की तरह खड़ा है. यह नहीं कि झुककर पैर छूकर माफी ही मांग ले.....’’
हड़बड़ाकर तुरंत ही झुक पड़ा था पर उसके पैर? यह झूठ बाबा के पैर मुझे दिखाई नहीं दिए. वह बिना पैरों का था. शरीर हवा में लटका सा था. उसे बिना पैरों का कहने पर वह बेहद चिढ़ गया था और घूम कर अपने पैरों के अस्तित्व को सिद्ध करते हुए मुझे दो लात जमाई. इससे मैं झूठघर की छत को फाड़कर उड़ता हुआ दूर जा गिरा था.
अगले दिन अपने को जंगली लोगों की हिफाजत में पाया. कमर में इतनी चोट लगी थी कि महीने भर इलाज किया था उस सह्दय लोगों ने.
....... पर झूठघर की सच्ची कहानी पर उन्होंने भी विश्वास नहीं किया.
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