"मेरे जिस्म को गर्म करती यह रजाई,बईमानी लग रही थी,हार रही हूँ खुद से,मेरा प्यार क्या है मैं उससे कुछ करती भी हूँ की नहीं,बेबस हो गयीं हूँ।जनवरी के इस महीने में जब मैं रात को एक बजे यहाँ सो रहीं हूँ,जहाँ बगल में टेबल पर हीटर रखा है,कमरा इतना गरम है की मुझे अपने तलवे रजाई से बाहर करने पड रहे है।
सौरभ घर के बाहर वाले गली में बाइक पर बैठा हुआ होगा,मेरे इतंजार मे,की मैं स्टेशन जाऊंगी तो "सी ऑफ" करने के लिए ।प्यार करती हूँ मैं उससे,हाँ कहा तो यही है "आई लव यु" ,अगर यहीँ प्यार होता है,तो क्या मेरा देह इस आराम को स्वीकार कर पाता"नहीं न" फेक कर रजाई सब कुछ जमाने का ताना बाना भूल ,शीत में उसके पास नहीं चली जाती ,यहीं तो होगा बगल में गली के थोड़ा आगे।
पर मुझे कहाँ हिम्मत है,"प्यार यही है ,यह प्यार तो नही है"
फिर भी अक्सर रात में फोन रखते समय,क्यो मैं सोचती हूँ,दिमाक में ,काश कोई टॉपिक और उग जाता,थोड़ी देर और किसी बहने यह हँसी ठिठोली ,शर्म ,गुस्सा ,प्यार मेरे चेहरे पर आते रहते,बात करने के लिए बात करना नही,बात सुनने के लिए बात करना। यही वह भी सोचता है,फिर भी मन की गठरी न मैं खोल पाती,न वह।"
यहीँ सारी बाते सोचते,खगोलते,उलट पुलट करते,नींद उसमे आ गयी या वो नीद में आ गयी,उसको उसका पता नही चला, नदी के भीतर बीना हरकत डूबने जैसा कुछ ।
अचानक उठी,बहुत अचानक रजाई फेका,बिस्तर से पैर नीचे कर,चप्पल खोजने लगी,चप्पल पहन कर ,मम्मी के कमरे का दरवाजा धीमे से धकेल कर ,अंदर गुप अंधेरा,दरवाजा खुलने से बरामदे के लाइट का ,हल्का
सा रेख,भीतर कमरे मे "वह" और रोशनी संग संग पहुचे। मम्मी करवट उसके उल्टा कर के लेटी हुईं थी,तकिया के बगल टटोल कर देखा,मोबाइल नहीं मिला।
"खीज गयी दिव्या" उसे रुलाई सा महसूस हुआ,अगर मोबाइल मिल जाता तो वह,सौरभ को एक टेक्स्ट तो डाल देती।
दिव्या को सुबह 6 बजे ट्रैन से बनारस जाना है,फिर वह पता नहीं कब आएगी,आज आखिरी है,उसका इस शहर में,आज उससे एक बार सौरभ को देखना है,एक आखिरी बार,शायद"
इधर सौरभ जो सोचा था,की वह रात को बाइक लेकर निकलेगा और फिर घर खबर कर देगा की "आज रात वह अजीत के घर रहेगा",वह रिश्तेदार आने के वजह से नही कर पाया। जब घर से निकलने को हुआ,तभी आ गए थे।
दिव्या को मैसज ,वह रात में ही कर,दिव्या का रिप्लाई आया था
,"यह क्या नाटक है,स्टेशन पर देख लेना समझे ,घर नहीं आना है"
अब अगर दिव्या आ कर देख लेगी,तो क्या सोचेगी,कि सौरभ बस भौकाल ले रहा है, आया नही,बस फेक रहा है"
दो बज गए मगर क्या हासिल आगर इस समय सौरभ चाभी लेकर बाइक को बाहर करेगा,तो पापा सटर खुलने की आवाज से आ कर उसे जाने से रोक लेंगे।
घर वाले कहाँ उसे समझते है,कहाँ समझ सकेंगे,अरे वह छोटा थोड़ी न है कितने लोगो को वह चराता है,और उसके पिता जी उसे अभी बझड़ा समझते है।
बहुत देर तक वह रजाई में ,बस अंगड़ाई लेते सोचता रहा,तरकीब,तरकीब कैसे दिव्या को देखा जाए,कैसे दिव्या के भावनाओ पर एक परत और चढ़ाई जाए "वह उससे कितना प्यार करता है" एक परत और ज्यादे।
क्या किया जाए,कैसे किया जाए,इस सवाल को लेकर उसका दिमाक सब संभावनाओं को जोड़ रहा था।
फोन उठा कर वह अजीत को डायल किया,
"नमस्कार,अजीत मिश्रा आपका फोन जल्द की उठाएंगे कुछ देर लाइन पर बने रहें...... द परशन यु आर कॉलिंग इस नॉट अंसवरिंग द कॉल ,प्लीज ट्राई आफ्टर सम टाइम"
तीन बार जवाब यही आया,
पर तीनो बार कॉलर ट्यून के खत्म होने के बाद लगा, की फ़ोन उठ गया
मगर फिर वहीं
"द परसन यु आर कॉलिंग............"
साले को पता चल गया होगा,,,,,की उसको बाइक के लिए फोन कर रहें है
घर्रर्रर्रर्ररर.....घर्रर्रर्ररर...घर्रर्रर्रर......
अजीत का फोन है,
"हेलो,सो रहा है क्या अभी"
"हाँ,अभी तक दो बजे रात को कुँवारे हिंदुस्तानी यही करते है"
"अच्छा,सुनो….."
"सुन भाई,बस कहीं चल नहीं सकता"
"अरे बाबा प्लीज यार,पेट्रोल भरवा लेना,शाम को पार्टी पक्का बाबा,तुमको कहना नहीं पड़ेगा"
"अरे,भोसड़ी के इतना इनवेस्टमेंट कहीं और किये होते तो रे रियाना नही पड़ता"
सौरभ को लगा की अजीत उसके पास बाइक न होने पर ताना मार रहा था
"अच्छा,चल चलो भाई आज वह बनारस जा रही है,फिर पता नहीं क्या होगा,भाई कब देख……"
"तुमको साले,वहीं रंडी लेकर जाएगी,नहीं सुधरोगे तो"
सौरभ के सीने में खच से लगा यह बात,मगर वर्तमान परिस्थिति इसकी नहीं थी ,उसका दीदार,उसके इज्जत से ज्यादे जरूरी था
"यार गरियायो न,आओ जल्द"
"15 मिनट"
"ह्म्म्म"
अजीत आया,टाइम पर ,लेकिन लेट हो गया सौरभ से ही,उसके पापा जी फ्रेश होने लगे,इस कारण गेट वह खोलता तो पक्का वह पकड़ा जाता,इसी लिए वेट किया
"हाँ भाई चलो" -सौरभ कहा
"हाँ,परधानमंत्री बैठ गइन,चलो,भोसड़ी के मैं नहीं चलाऊंगा ,जान लो,हाथ बर्फ हो गया है"
लाओ साले ,हटो पीछे,जल्दी से"
बाइक दिव्या के घर के थोड़ा पहले रुक गयी,4:30 सुबह के
कोहरा नही ,हवा था,बयार ,ठंडा ,गलन लिए हुए,हवा की उंगलियां,पत्तो को सहलाती,पत्तो पर इकट्ठा हुये ओस गिर जाते नीचे टप.....टप.....टप,.....टप,.....टप
गलन से जम गया था,शरीर,शरीर के अंदर दिमाक
"गाड़ी तुम,आगे लेकर जाओ,हम अभी आते है"
अजीत थोड़ा आगे ,जहाँ छोटी सी मंदिर थी,वही जा कर रुका
सौरभ ,दिव्या के घर के बाहर आ कर ठहरा,भूरा गेट,बाउंड्री के अंदर एक मंजिला इमारत,सफेद से और नीले में।
इस घर के अंदर वह आज तक गया नही,पर इस घर के आस-पास इस घर के सामने,इस घर के आगे वाली गली में उसकी कितनी शामे कटी हैं,दिव्या इस टाइम पर ट्यूशन जाती है,इस पर मार्किट जाएगी ,एक इंसान के होने से इस घर के एक एक ईट से वह प्यार करता है,उसमे लगी एक एक सीमेंट,बालू के कण को।
दिव्या के घर के बाए तरफ एक घर और था जिसके बीच पतली सी गली थी,गली नहीं बल्कि नाली के लिए छोड़ा हिस्सा,जहाँ से पानी आ कर,मोहल्ले के मुख्य नाली में बह जाता।
उसी नाली के तरफ दिव्या की खिड़की थी और उससे अगर दिव्या अभी घर पर होगी तो वह उससे मिल भी लेगा नहीं तो मिलने की नोबत फिर मिले, न मिले,सौरभ पहले तो जिझका कैसे जाए,यह कोई रास्ता है,साँप,बिच्छी कही न निकलने लगे,जाने किसका किसका टट्टी पिसाब लिदर पिदर,और कहि कोई ताड़ लिया तब
असमंजस हमेशा सबसे भयावह,सबसे डरवाने नीतिजा इंसान के सामने ला ला कर धरता रहता है,कितना कठिन लगता है उस समय किसी नतीजे तक पहुचने पर।
आऊऊऊऊऊ........वउ्क...........भउ....भउक
सौरभ की नजर आवाज के तरफ गयी,गली के कुत्ते थे। सर्दियो का वह समय जब घड़ी की सुई,माहौल को रात और सुबह के बीच में लटकाई हो,उस समय मोहल्ला किसी योगी के भाती समाधि में रमा लग रहा था,और इस आवाज से जैसे किसी ने मोहल्ले को छेद दिया।
उसने कुत्ते को मारा नही,एकदम नही,क्यो की प्रेजेंट ऑफ माइंड से कोई भी यह जानता है,सर्दियो में जब लोग इंसानों के भोकने से नहीं उठना चाहते है,तो यह तो कुत्ता था।
उसने देखा,अजीत के पलसर के बैक लाइट की दो स्ट्रिप लाल लाल जल रही है। उसने वही से फोन कर के लाइट ऑफ करवा,स्वयं के आउटगोइंग से ,जल्दी न लौटने के लिए,स्वयं गारी सुन ली या सुन्ना पड़ा।
अभी यह असमंजस,जाएं गली में,या न।टाइम 5:10,जो करना है जल्दी, आकर लौट जाना एक पछतावा रह जाए,कुछ छूट जाने का पछतावा।
सकरी नाली वाली गली,आदमी सीधा भी नही जा सकेगा,गलन के मौसम में चप्पल पहन कर इटो के बने दाएं किनारों पर दाएं तलवे को धर कर,और बाएं किनारे बाएं पैर के तलवो को दीवार के पैरेलल रख,शरीर को भी दीवार की ही दिशा में टेढ़ा कर वह चल रहा था,गुप अंधेर जूठे खाने,प्लास्टिक,कपड़े धोने के बाद का पानी और अन्य नाली में बहती गंदगी,बदबू की पतली पतली रेखाएं,उसको मिचली आने लगी। सास को वह रोकता,फिर घुटन के बाद छोड़ता।नाली के दोनों तरफ दीवार पलस्तर नही थे,ईट बस जडे हए,उन्ही से उसको सहारा लेना पड़ता
"पच" की आवाज के साथ एक अजीब सिरहन उसके बाए पैर से मस्तिष्क में लहर गयी,दर्द के चीख को भीच कर हाथ पीछे वाले दीवार पर "धम्म..." से मारा।
उसका बाया पैर नाली और नाली की किनारे से लगकर छील गया था,क्या करें दर्द पीना पड़ा,झुकने का जगह नही,की देखे,तरस आ रहा था खुद पर,वह जिस सफर पर गया था वहाँ खुदगर्जी नहीं होती,इसको इश्क़ कहते है।
चलते चलते दिव्या की खिड़की आ गयीं,लाइट से रोशनी खीडकी के शीशे पर ठिठकी थी।सौरभ खिडकी के शुरू होने के पहले ही रुक गया,खिडकी के उसपार कौन-कौन हो यह सोच कर।शीशे की खिडकी,रोशनी जिस तरफ ज्यादे रहता उसी तरफ दिखता,बाहर से अंदर देख सकते थे।
सौरभ गला आगे बढ़ा कर देखने लगा,कमरे के सामने वाले हिस्सा,दरवाजा बन्द था,वह सन्न रह गया "अब क्या होगा,दिव्या चली गयी क्या?"
थोड़ा और आगे बढ़कर झांकने पर कोई भी नही दिखा,खिडकी के साथ रखा था बैग,एक कुर्शी पर कुछ कपड़े रखे हुए,और वह दिव्या के थे,तथा एक ट्रॉली बैग बेड पर ।
"आहह्" सौरभ को चैन मिला"मतलब नही गयीं"
कल शॉपिंग के सामानों के फ़ोटो में यह भी था।
इस बैग की फोटो जब उसने भेजी ,उसी फ़ोटो में बैग के बगल दिव्यां की ब्रॉ भी फोल्ड कर रखी थी।
सौरभ ने रिप्लाई दिया,
"क्या साइज है"
"लार्ज"
"अभी तो मुझे तुम,छूने भी नही दी हो,लार्ज साइज कैसे हुआ"
"मतलब???"
"अरे,पिक में बैग के बगल जो रखा हुआ है उसके बारे में"
पिक देखने के बाद उसका रिप्लाई था
"माखनचोर,इतना बड़ा बैग नही दिख रहा मगर वह दिख गया चरित्रहीन"
पैर में चोट,आड़े टेढ़ा खड़ा शरीर,सास लेने में कंजूसी करता उसका फेफड़ा,फिर भी एक हल्की मुस्कान उसके होठो पर थिरक गयीं,कुछ प्यार घुल गया था उसके अंदर।
वह अपने में ही खोया हुआ देखा की कमरे में कुछ हरकत होई,वह सरक के खिडकी के किनारे आया।
उससे किनारे रहा नहीं गया,धीरे से फिर उचक कर देखा दिव्यां थी। शायद ब्रश वगेरा कर के अभी हीटर के सामने बैठी थी।
मम्मी के शाल से लिपटी हीटर के सामने बैठी ,हाथ पैर सेकती । ठंड में उसका सफेद चेहरा इतना मॉसूम लग रहा था,किसी बच्चे सा,उसपर अभी धुल के पुछाया हुआ। सादी केवल "दिव्या" ,न काजल न लिप बाम,न कुछ ,केवल सफेद धुला हुआ कोमल चेहरा।
सौरभ के दिमाक में बीता दिन,एक रील से घूम गया। एक हफ़्ते पहले फोन पर बात करते उसके भाई ने उसको पकड़ लिया था।जब उसने सौरभ से पूछा तो वह साफ साफ सब बात दिया,"हम एक दूसरे को लाइक करते हैं,दो साल से हम एक है,प्लीज भइया दिव्या को कुछ मत करिएगा,प्लीज मैं प्रोमिश करता हूँ,आज के बाद कभी नहीं उसको फ़ोन करूँगा,पर दिव्या को मत कुछ करिएगा ,मैं हाथ जोड़ता हूँ" पर उसका भाई नही माना उसने दिव्या के पापा से सब कुछ कह दिया,सौरभ के पास गुंडे लेकर आया,दिव्या का स्कूल छुड़वा के प्राइवेट फार्म भरवाया,और अब BHU के इंटरेस्ट की तैयारी के लिए ,उसको बनारस लेकर जा रहा है,बुआ यहाँ।
इसी सब को सोचते सोचते उसका मोबाइल वाइब्रेट होने लगा,जिसपर उसने हड़बड़ा कर साउंड लो वाला बटन दबा कर साइलेंट कर फ़ोन जेब से निकाला, देखा अजीत का फोन है
"हेलो"
"बाबा एक बात बोले,पेला जाओगे ,वह लड़की नहीं काम आएगी,बेटी चोद शीत गिर रहा है,आना है आओ नाही तो झाट मत आओ,हमको भइया आदमी से कंकाल नही बनना है।
"रखो भोसड़ी के"
फोन को काटने का ,इस झुंझलाहट के साथ काटने का दो वजह था,एक तो यह दम घोटु बदबू, दूसरी दिव्या अब कपड़ा चेंग करने जा रहीं थी।
सौरभ के पास अब दो ऑप्शन थे,एक तो वह खिड़की पर नॉक करके दिव्या से मिल ले,एक यह की वह कुछ न करें,बस उसको देखता रहे,जैसी वह है,जैसी वह होने वाली है।
औरत का शरीर देखने की,मर्द की स्वभाविक चाह,उसको शर्म भी हो रही थी पर वह हारा था इतने पीढ़ियों के मानव सभ्यता के आगे,और स्वयं के शारीरिक भावनाओ से। मानव सभ्यता में भूख के बाद के सबसे तेज़,और उत्तेजक भाव है काम,डिजायर,उसके भीतर जाग गया,वह कुछ नहीं करेगा बस देखेगा,अपने दिव्या को।
खीडकी की इस तरफ एक मर्द की आँखे,उसके भीतर बहने वाला भावनाओ का वेग,जो कई सदियों से स्वयं को तृप्त करना चाह रहा है,पर नही कर पा रहा और अपनी प्यास को वह पीढ़ी दर पीढ़ी भेजता जाता है,अपने बेटे में,बेटा अपने बेटे में,नाती में परनाती में,यह प्रवाह होता जाता है। एक लहर नियति के द्वारा उस भाव को जगा देता है,जैसे आज।
खीडकी के इस तरफ था एक नारी का कोमल देह,जो उसकी सबसे बड़ी संपत्ति तथा सबसे बड़ी विपत्ति ,जिसको बचाना भी है,जिसको सजाना भी है,जिसपर गर्व भी है,जिसपर शर्म भी है,जिसकी अपनी एक भाषा अलग,जो पता नहीं कब किससे कैसी बात करती हों,कब किसे कैसा निमंत्रण देती हो। उसका एक अगल संविधान है,जहा पहुच कर मानवविज्ञान,मनोविज्ञान,दर्शन,धर्म सबके मुह में मिट्टी भर जाती है,सब चुप हो जाते हैं। वही देह थी,दिव्या की भी।
हुआ वही जो सौरभ चाह रहा था,जिसकी रचना नियति ने कर रखी थी शाल बिस्तर को गर्म करने लगा,टॉप..जो अभी तक एक काया की छाया थी,वह जा कर कुर्शी के हाथ पर निराश,लावारिश हो कर लटक गयी।
सौरभ आज तक केवल उस देह वाली को जानता था,या उसके चेहरे को बस,पर चेहरे के नीचे जो था,एक दम अपरिचित,वह तो इस हिस्से की दुनिया को केवल मोबाइल के स्क्रीन में ,या तो अंडरगारमेंट्स के ऐड में,या कभी कभी मूवी में देखा था,पर आज वह हिस्सा कुछ अपना लग रहा था,जिसे उसने कितनी बार कल्पना की थी।
दिव्या को कई बार उसने उस दुनिया के बारे में याद दिलाई थी पर दिव्या हर बार बहाना बना कर,मजाक कर के उसे फिर इस लोक में खींच लाती।कितनी बार फ़ोन पर बोला उसने रात को,कितनी बार उसने ,गूगल पर या यूट्यूब पर ऐसे आर्टिकल पढ़े या वीडियो देखे
"ये करने से खुद लड़की,आपको sex के लिए ,बुलाएगी","50 text which makes your partner on"
पर सब खोखले, बईमानी।
दिव्या की ब्रा जो शायद पहले ब्लैक थी,अब पुरानी होकर ग्रे लग रही थी।पर उसमे तो कोई भराव वैसा था ही नही जैसा टी वी में होता है या वीडियो में। वहाँ तो कैसे कसे उभार वाले रहते है तो क्या अभी दिव्या में वह जवानी नहीं आयी है,अभी वह बच्ची है शायद । दिव्या के हाथ पीछे गयें कसा हुआ ब्रा जैसे दिन भर के तनाव से राहत पाया हो अब उसके दोनों कप बिस्तर से अपने अमानत को देख रहे है,जिसको अभी तक उन्होंने थाम रखा था। सफेद गोरी दूध सी काया के चेहरे पर जैसे दो शावली आँखे लाज से नीची हो गयीं हों,वो दिव्या के निप्पल थे।
ठंड में सकरी नाली में फसा,छीला पैर,फिर भी उस काया का प्रभाव सौरभ पर होने लगा था,इस गलन में भी उसके मस्तिष्क पर पसीने की बूंदे उगने लगी। गलन कुछ और था ठंड लग रही थी,पर पसीना था,शरीर में किसी लावे का प्रकोप कह सकते है जो अपने तपन को व्यक्त कर रहा हो।
दिव्या एक दूसरे क्रीम शेड की ब्रा जिसपर ,काले रंग के छीटे पड़े थे हाथ में ली कि तभी खीडकी से ठक ठक की आवाज आयी।
वह चौक पड़ी "यह क्या" कभी कभी दिन के वक्त वहाँ पर बिल्ली खीडकी के छाजे पर जा कर,छत की ओर चली जाती है। वहां आदमी आना दिव्या के लिए असंभव था,और सच वहाँ कोई आदमी जाने को सोच भी नहीं सकता बस एक दीवानापन यह कर सकता था,और कराया भी।
दिव्या खीडकी के पास आयीं,सौरभ अपना मोबाइल शीशे के पीछे से हिलाने लगा। दिव्या धक "यह कहाँ से"
ब्रा वापिस रख,बिन अपनी स्थिति को ध्यान दिए।
शायद कुछ नहीं चल पता है पता,शायद यह सब कपड़े लत्ते,यह रख रखाव इंसान को करना पड़ता है,किंतु इंसान हर भारी समय में अपने बाहरी आवरण भूल जाता है,वही दिव्या का हाल था।
वह जीव था ,न मानव,न लड़की बस जीव।
खीडकी धीमे से खुली,बाहर की गलन और बदबू धकेल कर चढ़ एक दूसरे के ऊपर कमरे में आ गए। जैसे बदबू को ठंड लग रही हो,और ठंड को बदबू आ रही हो,कमरा आराम दायक था दोनों के लिए।
सौरभ की आंखे देख रही थीं वह सबकुछ जो एक प्रेमी या एक मर्द के स्मृति को प्रभावित कर सकता है।दिव्या के आंखों में रोमांच,असमंजस ,खुशी ,कितनी सारी भावनाएं एक साथ खेल रही थी।
"ये क्या नोटंकी है,कुत्वा" दिव्य ने कहा
"दुस्टिन कहिन की,हम ज़िन्दगी नोउटंकी बना दिए,और तुम्हे नॉटंकी लग रहा है यह सब"
"अरे .... कोई देख लेगा तब"
दिव्या को अभी होश आया की वह "topless" है
तभी सौरभ बोला
"हमने जो जो देखा कोई और क्या देखेगा मैम"
सौरभ ने आँख मारी
शर्मा के दिव्या ने शाल लपेट लिया,और भीगे आवाज में बोली
"सुनो बाबू...तुम जानते हो भईया कितना गुस्सा हैं....कहीं तुम्हे कुछ कर दिया तो क्या होगा,बताओ..तुम मुझे भूल जाओ प्लीज़"
सौरभ भी उसी तरह मासूमियत से बोला
"यार दिव्या सच बताऊँ....मैं तुम्हे भूल जाता पक्का....मगर अभी जो देखा वो कैसे भूलूं बताओ" हँस कर कहां
"मेहराव मत,कुछ नही होगा समझी"
शीशे के बाहर के तरफ ,एक लोहे की जाली नुमा खीडकी थी,जो खुलता था ,सौरभ का निगाह उस तरफ पहले ही गया था
उसने थोड़ा कोशिश की और वह भक कर के खुल गया।
"और सॉरी मम्मी का फोन नहीं मिल रहा था मैं तबसे छटपटा रही थी,अच्छा किये तुम आ गयें,बहुत अच्छा किये.... वैसे तुम कबसे बाहर हो"
"यही अभी आया अजीत के साथ...वह मंदिर के पास खड़ा है.....कब निकलोगी तुम...6:30 ना?"
दोनों कुछ देर कुछ नहीं बोलें या यूँ कहो एहसास था,आवाज नहीं था,दिव्या की आंखे भर आयीं ,एक कोने से नाक से सटते हुए आँसू पतली सी लकीर बना के उतरने लगी।
खीडकी से पूरा आदमी तो नहीं पर आदमी का हाथ या मुह जा सकता था।
आँख के इसारे से सौरभ ने उसे पास खींचा
माथे पर चूमा.... आँख बंद कर दिव्या ने इजाजत दी
एक एक चुम्बन दोनों भीगी आँखों के भी नसीब में आया
होठ को फिर भी माथा और आँख पराया लग रहें थे,होठ को होठ चाहिए
दोनों के होठ के किनारे टकराएं,सौरभ के दोनों किनारे दिव्या के निचले किनारों को मसलने लगें,दिव्या के ऊपर वाले किनारे अपने नीचे वाले किनारे पर हो रहें अत्याचार को नहीं देख सकें,ऊपर और निचला किनारा एक होकर,सौरभ के ऊपरी किनारे को मसलने लगें,अब बातें बस होठ की नहीं थी जीभ और समुचित मुँह पर आ गईं थी।अब सौरभ का होठ दिव्या का जीभ चूसना काटना मसलना,चुभलना मुह को जितनी क्रिया आती थी सबका प्रदर्शन कर के दिखया।
सौरभ ने मुह खींच लिया इसपार , कातर आँखे,प्यासी आँखे,तड़पती आंखे,चीखती आँखे,उफ्फ्फ हाय करतीं निःशब्द आंखे,एक दूसरे पर टिकी सहमी
दिव्या बेड पर पालथी मार कर बैठी थी,किस करते हुए उठना पड़ा था।
सौरभ ने पास खींच लिया शाल को,अपना हाथ एक स्तन के नीचे ले गया..दिव्या की आंखों ने डरते हुए माना किया,जैसे गलत समय गलत बात मुह से निकल जाती है।
निप्पल्स की भाषा अलग थी
"हाँ हमे यह चाहिए,बहुत जरूरी है,दे दो प्लीज"
अउच.....हम्ममम्ममम्म.... दिव्या सहमी सिसकी दबाव, मसलन,गुदगुदी,सिरहन,का शब्द अभी मानव सभ्यता ने नहीं खोजे है,इस लिए यह निहायत प्राकृतिक हैं...आहह...उम्म...सीईईई ऐसे ही प्राकृतिक
दिव्या किस करने लगी उसी ठंड में,बदबू में,सब कुछ में
"पट ……"
के आवाज के साथ सौरभ के दाई आँख पर कुछ चमका
"कौन है रे माधर.........."उसको चीख निकल गयी
सब शांत.....सन्न
होठ हटा,हाथ थमा,स्तन का कसाव रुका
....धड़कन बढ़ी
सौरभ देखा उसके पीछे वाले घर के बाउंडरी से,उसके ऊपर कोई टार्च दिखा है
खच...........
"आ८८८८८८८८८८८८८८८८८८८"
सौरभ बाया हाथ से अपना बाया सिर कान के पास दबाया,वह बस ईटा जैसा कुछ देखा था
दिव्या सन्न एक दम उसको देख रही थी
"क्या हुआ बोल......"
एक हाथ से सौरभ ने इसारा किया
"जाओ अंदर"
"निकल साले हरामी" पीछे वाले बाउंडरी से आवाज आयी
एक पत्थर फिर लगा कंधे पर
"चोप्प मादरचोद,चोप्प सल्ले....." सौरभ चिल्ला कर रह गया
"अरे दुबे जी....रानी बिटिया को देखिए,....बियाह करिए....नहीं तो अभी तक तो मुह तक पहुचा है ......कहीं और ज्यादे रस न लेने लगे..जल्दी आओ भइया....देखो जरा"
देखते देखते,दो तीन और घर के लोग बाहर आने लगें,दिव्या के भइया पापा भी
"निकल मांदरचोद.....तेरी माँ का भो....... हे आ..."दिव्या का भइया सुदीप
सौरभ आया,टेढ़ा मेडा होकर। निकलते ही सुदीप ने सौरभ को चट से एक थपड़,रसीद कर दिया
बैकग्राउंड में वही पाडोसी किस्से का बखान कर रहा था,
"अरे हम ने होती तो मोहल्ला के मुह पोत जात,आज कल के लवंडे हवे की मादरचोद हवें"
"तेरी माँ का हटो मादरचोद,इतनी हिम्मत"
तमतमाया सुदीप बाल पकड़ कर सौरभ को घर के अंदर ले जा रहा था तभी दो पत्थर एक सुदीप के कमर पर,और एक उसके पास आ कर गिरा
"भाग जल्दी भाई ...भाग"
अजीत चिलाता हुआ पत्थर फेक कर बाइक पर बैठ कर मोड़ने लगा,झुक कर एक दो पत्थर और उठाया,सुदीप के पीठ पर कई पत्थर पड़े। सुदीप फिर भी सौरभ का बाल पकड़े हुए था,और गटे के अंदर कर उसे गेट बंद कर दिया। अजीत को भागना पड़ा।
सुदीप के पाप जो की धीर व्यक्ति थे,उन्होंने मामले और सुदीप को शांत करने की कोशिश की पर,बात अब बहुत बढ़ गया,सुदीप कैसे शांत हो
सौरभ का मुह छीला,कान के पास खून,कटने पिटने का हिसाब नहीं,हर बार उठ के बैठता,और हिमांशु हर बार कभी उसके नाक पर एड़ी से मारता ,कभी सीने पर तो कभी कहि पर।
बात सम्मान की थी,प्रतिष्ठा,जिससे किसी व्यक्ति को समाज की निष्ठा मिलती है। बहन जो घर की इज्जत होती है,भाई का काम जिसका रक्षा करना है,वही बहन उसकी राक्षता स्वीकार नहीं कर पा रही थी,उसने ढर्रा तोड़ दिया,बहुत भयंकर अपराध,अपराध नही पाप।
बहुत देर तक सुदीप ने सौरभ को देखा... कहा जाता है जब यदि आप किसी को देर तक देख ले तो उसके प्रति मोह आ जाता है।यहाँ सारा मनोविज्ञान पलट गया,गुस्सा बस गुस्सा क्रोध ,और बेबसी । क्यो की आप आदमी को मार ही सकते है,लेकिन मौत फुरसत दे देगी मारने वालों को या आप उसे तड़पा सकते हैं,हाथ पाव तोड़कर पर उसमे सब्र चाहिए,टाइम लगेगा तड़पाने में।
"उठो " -सुदीप
सौरभ खड़ा हो गया
"भइया आप मार डालो मुझे पर प्लीज़ भैया,दिव्या को मत कुछ करना"
"तुम बताओगे.........चल अंदर चल"
सौरभ सुदीप के पीछे पीछे गया,जहाँ दिव्या की मम्मी थीं और कमरे भर उनकी चूड़ियां बिखरी थीं,यही आवाज सुनकर सौरभ बाहर सन्न था
"आंटी प्लीज ,आंटी मेरी गलती थी,वह मुझे जाने को कह रही थी... पर मैं ही रुक गया"
दिव्या घुटने में मुह दबाएं रो रही थी,सौरभ की आवाज सुन कर मुह उठाया
"सुनो भइया,वह मेरे लिए आया था.. ही इज नॉट योर प्रोपेर्टी,आई ऐम योर प्रोपेर्टी,उसे जाने दो जो करना है मेरे साथ,मुझे करो,और मार डालो मुझे... पर अगर उसे कुछ हुआ,तो मैं ना खुद को छोडूंगी न किसी को...जान लेना"
"कलमुँही,पैदा होते काहें नहीं चुप हो गयी,चोरी ऊपर से सीना जोरि....हराम खोर, मर जो" - रीता दिव्या की माँ
"सुदीप तुम चलो बाहर.. रीता तुम दिव्या को शांत करो...कुछ नहीं होगा...चिंता मत करो..बेटा अब से गलती नहीं होना चाहिए"-दिव्या के पापा
गुप अंधेरा था अभी तक एकदम सब तरफ...सब मरने मारने का नाम ले रहे थे,अभी को जीने ,बचाने का,माफ करने का बात हुआ और अंधेरे में चिंगारी आ गयी,इसी चिंगारी को सूरज बनाने के लिए सौरभ लपक गया
पैर पकड़ते हुए दिव्या के पापा के
"हाँ अंकल भइया को समझाइए न किसी को क्या मिलेगा,मार के मुझे या दिव्या को,और मैं कभी नहीं मिलूंगा"
घूरते सुदीप में हैवानियत आ गयी,अचानक वहीं बिस्तर पर रखा ब्रा उठाई ......मरोड़ कर .....सौरभ के गले में डाल..कस कर.....घसीटता हुआ.....खिंचने.....लगा.....और कसा......कुछ और.......सौरभ का गहुवन चेहरे पर खून चढ़ आया......वह सिर को ऊपर उठा पीछे के तरफ कुछ बोलने के लिए फटी आंखों से....(आंखों के रेशे लाल हो गयें थे) सुदीप को देखता हुआ हाथ जोड़ रहा था।
"भइया मत करो"- दिव्या
सुदीप,पागल हो गयें हो" -पापा
"अरे दाआदाआ ,जल्लाआद होई गे बा"-मम्मी
सब झाँपिला रहे थे,हिला रहे थे,चीख रहे थे पर सुदीप के कानो में गूज रहा था कुछ देर पहले सुना हुआ आवाज
"अरे दुबे जीईईई,रानी बिटिया को देखिएएएए जावन हो गयी है बियाह करिएए,नहीं तो अभी बस मुह तक पहुचा है,कहीं और ज्यादे रस ना लेने लगेए,जल्दी आओ भैया देखो जराआ"
सब चुप हो गयें,,सौरभ का हाथ हिलना.....चुप.....घर भर फर्श पर आँख फाडे मरे हुए सौरभ को देख रहें थे
सुदीप ब्रा को छोड़ा कर ,सौरभ को वैसे छोड़ दिया धड़ाक से सौरभ का सिर फर्श पर लगा...लाश लेट गया
"अब सुदीप दुबे,अब तुम देखना" दिव्या चीखी
सुदीप मुड़ा,बिन कुछ बोल डांटे,पकड़ दिव्या का गाला दीवार पर सटा दिया,दिव्या भइया को देख रही थी....सुदीप के आंखों में आँसू थे......कानो में वही आवाज......दिव्या की भी फटी आँखे....बरस रहीं...निः शब्द....सब शांत ....सब चुप....
माँ बाप देखते रहें,,क्या किया जाएं.....यह नही सोचे बस देखते रहें...
सुदीप चलते हुए बड़ बडा रहा था....क्या, यह नहीं पता....होठ चल रहें थे....खुद के लिए...
अपने कमरे में गया.... बंदूक निकाली एक आवाज हुई "थूहहहहहहह"
लाठी की तरह देह गिर गयी,सर के बीचो बीच गोली ,लाल गोल खून के छीटे
दोनों मिया बीबी एक दूसरे को देख कर फफक पड़े
अजीत पुलिस को इन्फॉर्म करने चला गया था,पुलिस का काम अब बचाना नहीं तफ्तीश करना था ,हुआ वह भी नगर जागरण में छपा भी "ऑनर किलिंग के बाद,भाई ने खुद को मारी गोली"
अब घर में रह गयें थे दिव्या के पापा ,दिव्या की माँ और इज्जत