Charlie Chaplin - Meri Aatmkatha - 46 in Hindi Biography by Suraj Prakash books and stories PDF | चार्ली चैप्लिन - मेरी आत्मकथा - 46

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चार्ली चैप्लिन - मेरी आत्मकथा - 46

चार्ली चैप्लिन

मेरी आत्मकथा

अनुवाद सूरज प्रकाश

46

आखिरकार सिटी लाइट्स पूरी हो गयी। अब सिर्फ संगीत रिकार्ड किया जाना ही बाकी था। आवाज़ के बारे में एक अच्छी बात ये थी कि मैं संगीत को नियंत्रित कर सकता था। इसलिए मैंने स्वयं संगीत रचना की।

मैं रोमानी और भव्य संगीत रचना करना चाहता था ताकि वह मेरी कॉमेडियों में ट्रैम्प के चरित्र के ठीक उल्टा जाये। मेरा ये मानना है कि भव्य संगीत मेरी कॉमेडियों को एक भावनात्मक आयाम देता है। संगीत अरेंजर शायद ही इस बात को कभी समझ पाये। वे चाहते थे कि संगीत मज़ाकिया हो। लेकिन मैं उन्हें समझाता कि मैं कोई प्रतिस्पर्धा नहीं चाहता। मैं चाहता हूं कि संगीत गरिमा और सौन्दर्य का ही हिस्सा बन कर आये, वह संवेदनाओं को अभिव्यक्त करे, जिसके बिना, जैसा कि हैज़लिट कहते हैं, कला का कोई कर्म पूरा ही नहीं होता। कई बार कोई संगीतकार मुझसे बहस करता और संगीत के आरोह और अवरोह की बंधी हुई सीमाओं की बात करता, तो मैं उसकी बात बीच में ही काट कर उसके सामने आम आदमी की राय रख देता, जो भी है संगीतात्मकता है, बाकी सब पैबंद है। अपनी एक या दो फिल्मों का संगीत तैयार कर लेने के बाद मैं किसी कन्डक्टर की संगीतबद्ध की गयी रचना की तरफ व्यावसायिक नज़रिये से और यह जानने के लिए देखने लगा कि संगीत रचना में बहुत अधिक आर्केस्ट्रा तो नहीं आ गया है। यदि मुझे पीतल वाले वाद्यों में और काष्ठ के वाद्यों में बहुत ज्यादा धुनें मिलतीं तो मैं कह देता,"यहां पीतल कुछ ज्यादा ही घनघना रहा है या काष्ठ वाद्य कलाकार कुछ ज्यादा ही व्यस्त हैं।

इससे ज्यादा रोमांचकारी और आल्हादक और कोई चीज़ नहीं होती जब आप पचास वाद्य यंत्रों के आर्केस्ट्रा पर तैयार की गयी अपनी फिल्म की धुनों को पहली बार सुनते हैं।

जब आखिरकार सिटी लाइट्स की संगीत रचना को फिल्म में पिरो लिया गया तो मैं उसका भाग्य जानने को बेचैन था। इसलिए बिना किसी घोषणा के हमने शहर से बाहर के इलाके में इसका एक प्रिव्यू रखा।

ये बहुत भयानक अनुभव था। वजह ये थी कि हमारी फिल्म आधे भरे हुए सिनेमा हॉल के परदे पर दिखायी जा रही थी। दर्शक एक ड्रामा देखने आये थे न कि कॉमेडी और वे पिक्चर के आधी चल जाने तक अपनी घबराहट से उबर नहीं पाये। कुछ हँसी के पल थे, लेकिन कमज़ोर। और इससे पहले कि फिल्म पूरी हो पाती, मैंने बीच के रास्ते से कुछ छायाओं को बाहर की तरफ जाते देखा। मैंने अपने सहायक निर्देशक को टहोका मारा,"लोग तो फिल्म छोड़ कर जा रहे हैं!"

"हो सकता है वे टायलेट के लिए जा रहे हों।" वह फुसफुसाया।

इसके बाद मैं फिल्म में अपना ध्यान केन्द्रित नहीं कर पाया। बल्कि इस बात का इंतज़ार करने लगा कि जो लोग उठ कर बाहर गये थे, वापिस आते हैं या नहीं। कुछ पलों के बाद मैं फुसफुसाया,"वे लोग वापिस नहीं आये हैं।"

"कुछ लोगों को ट्रेन पकड़नी होगी," सहायक निर्देशक ने जवाब दिया।

मैं इस भावना के साथ थियेटर से बाहर आया कि मेरी दो साल की मेहनत और बीस लाख डॉलर गये पानी में। जिस वक्त मैं थियेटर से बाहर आया तो थियेटर का प्रबंधक लॉबी में खड़ा था। उसने मेरा अभिवादन किया,"ये बहुत अच्छी है।" उसने मुस्कुराते हुए कहा, और बात पूरी करते करते एक और जुमला जड़ दिया,"अब मैं देखना चाहता हूं कि आप सवाक फिल्में बनायें और पूरी दुनिया इसी बात की राह देख रही है।"

मैंने मुस्कुराने की कोशिश की। हमारा स्टाफ थियेटर से बाहर सरक आया था और इस समय दीवारों से सट कर खड़ा था। मैं भी उनमें जा मिला। रीव्ज़, मेरे मैनेजर ने हमेशा की तरह गम्भीर बने रहते हुए मेरा अभिवादन किया और अपनी आवाज़ को लय ताल में बांधते हुए बोला,"काफी अच्छी चली। नहीं क्या! मैंने सोचा, ये देखते हुए कि - -।" उसका अंतिम शब्द स्पष्ट ही उसका शक जाहिर करता था लेकिन मैंने विश्वास के साथ सिर हिलाया।

"जब पूरा थियेटर भरा होगा तो ये महान फिल्म होगी। हां, बेशक एक आध कट करने की ज़रूरत पड़ेगी।" मैंने अपनी तरफ से जोड़ा।

अब तूफान की तरह परेशान करने वाला ये ख्याल हमारे सामने मंडराने लगा कि अब तक हमने पिक्चर बेचने की कोशिश ही नहीं की है। लेकिन इस बात को ले कर मैं बहुत ज्यादा परेशान नहीं था क्योंकि मेरे नाम का सिक्का अभी भी बॉक्स ऑफिस पर सफलता की गारंटी है, इस बात की मुझे उम्मीद थी। जो शेंक, हमारे युनाइटेउ आर्टिस्ट्स के अध्यक्ष ने मुझे चेताया कि वितरक मुझे उन्हीं शर्तों पर पैसा देने के लिए तैयार नहीं हैं जिन शर्तों पर उन्होंने द गोल्ड रश उठायी थी। और कि बड़े सर्किट अपने हाथ बांधे, इंतज़ार करो और देखो का रुख अपनाये हुए थे। इससे पहले ये होता था कि जब भी मेरी कोई नयी फिल्म आती थी तो वे दिल खोल कर दिलचस्पी लिया करते थे। अब उनकी दिलचस्पी में वो गर्मजोशी नहीं थी। इसके अलावा, न्यू यार्क में शो करने के लिए समस्याएं उठ खड़ी हुईं। मुझे ये बताया गया था कि न्यू यार्क के सभी थियेटर पहले से ही बुक हो चुके थे। इसलिए मुझे अपनी बारी का इंतज़ार करना पड़ेगा।

न्यू यार्क में मात्र एक ही थियेटर उपलब्ध था। ये भीड़ भाड़ वाले इलाके से काफी हट कर ग्यारह सौ पचास की बैठने की क्षमता वाला जॉर्ज एम कोहन थियेटर था और इसे सफेद हाथी समझा जाता था। देखा जाये तो ये सिनेमा घर भी नहीं था। मैं सात हजार डॉलर प्रति सप्ताह पर चार दीवारें किराये पर ले सकता था और इसके लिए आठ सप्ताह के किराये की गारंटी देनी होती, और बाकी सारी चीजों का इंतज़ाम मुझे खुद करना होता। मैनेजर, कैशियर, सीटें दिखाने वाले, प्रोजेक्टर चलाने वाले, स्टेज संभालने वाले और बिजली वाले साइन बोर्ड और प्रचार। अब चूंकि मेरे खुद के बीस लाख डॉलर दांव पर लगे हुए थे, और वो भी मेरा खुद का धन, मैंने सोचा ये पूरा जूआ भी क्यों न खेल कर देख लिया जाये और मैंने हॉल किराये पर ले लिया।

इस बीच रीव्ज़ ने लॉस एंजेल्स में हाल ही में बने एक नये थियेटर में सौदा कर लिया। चूंकि आइंस्टीन दम्पत्ति अभी भी वहीं पर थे, और उन्होंने पहला शो देखने की इच्छा व्यक्त की लेकिन मुझे नहीं लगता कि उन्हें इस बात का रत्ती भर भी गुमान होगा कि वे क्या देखने जा रहे हैं। प्रीमियर से पहले वाली रात उन्होंने मेरे घर पर खाना खाया फिर हम सब शहर की तरफ चले। मुख्य गली कई मौहल्लों तक भीड़ से अटी पड़ी थी। पुलिस कारें और एम्बुलेंस की गाड़ियां भीड़ में से रास्ता बनाने की नाकाम कोशिश कर रही थीं। भीड़ ने थियेटर के साथ वाली दुकान के शीशे तोड़ दिये थे। पुलिस की टुकड़ी की मदद से हमें किसी तरह से फोयर तक पहुंचाया गया। इन पहली रातों से मुझे कितनी कोफ्त होती है! व्यक्तिगत तनाव, खुशबुओं, अलग अलग किस्म के इत्रों की मिली जुली गंध, इन सबका असर उबकाई लाने वाला और नसें तड़काने वाला था।

मालिक ने थियेटर बहुत खूबसूरत बनाया था लेकिन उन दिनों के अधिकांश वितरकों की तरह वह फिल्मों के प्रदर्शन के बारे में बहुत कम जानता था। फिल्म शुरू हुई। क्रेडिट टाइटल दिखाये गये, पहली रात को होने वाला शोर शराबा हुआ। आखिर पहला सीन खुला। मेरा दिल जोर जोर से धड़कने लगा। पहला दृश्य कॉमेडी का था जिसमें एक मूर्ति का अनावरण दिखाया गया था। लोग हँसने लगे। फिर ये हँसी चीखने में बदल गयी। उनकी नस अब मेरे हाथ में थी। मेरी सभी शंकाएं और डर हवा में काफूर की तरह उड़ गये। अब मैं रोना चाहता था। तीन रीलों तक लोग हँसते ही रहे। और मैं खुद अपनी शिराओं में दौड़ते रक्त में घुली उत्तेजना में उनके साथ साथ हँस रहा था।

तभी एक बहुत ही वाहियात घटना घट गयी। अचानक ही ठहाकों के बीच फिल्म रोक दी गयी। हॉल की बत्तियां जल गयीं और लाउड स्पीकार पर एक आवाज़ उभरी,"इस शानदार कॉमेडी को आगे बढ़ाने से पहले हम आपके कीमती समय में से पांच मिनट चाहेंगे और इस खूबसूरत नये थियेटर की विशेषताओं के बारे में कुछ बताना चाहेंगे।" मैं अपने कानों पर विश्वास ही न कर सका। मैं पागल हो गया। मैं अपनी सीट से कूदा और बीच वाले रास्ते पर दौड़ा,"कहां है वो हरामजादा? सूअर का पिल्ला मैनेजर, मैं उसे जान से मार डालूंगा।"

दर्शकगण मेरे साथ हो लिये और जमीन पर पैर पटकने और शोर मचाने लगे जबकि वह मूरख थियेटर के गुणगान करने में ही लगा रहा। अलबत्ता, जब दर्शकों ने हो हल्ला करना शुरू कर दिया तो उसने अपनी भाषणबाजी बंद की। एक और रील चलने के बाद ही ठहाके फिर से हॉल में गूंजने लगे। ऐसी परिस्थितियों में मेरा ख्याल है, पिक्चर ठीक ठाक चली। अंतिम सीन में मैंने देखा, आइंस्टीन साहब अपनी आंखें पोंछ रहे थे। इस बात का एक और सबूत कि वैज्ञानिक भी ठीक न हो सकने वाले संवेदनशील प्राणी होते हैं।

अगले दिन समीक्षाओं का इंतज़ार किये बिना मैं न्यू यार्क के लिए चला क्योंकि पहले प्रदर्शन से पहले मेरे पास सिर्फ चार ही दिन थे। जब मैं पहुंचा तो ये देख कर मेरे होश उड़ गये कि पिक्चर का ज़रा सा भी प्रचार नहीं किया गया था। सिर्फ औपचारिक घोषणाएं और मामूली सा प्रचार ही किया गया था- "हमारा पुरान दोस्त एक बार फिर हमारे सामने" और इसी तरह की कमज़ोर लाइनें ही आयी थीं। इसलिए मैंने अपने युनाइटेड आर्टिस्ट्स स्टाफ को कड़वी घुट्टी पिलायी,"संवेदनाओं की परवाह मत करो। उन्हें जानकारी दो। हम एक ऐसे थियेटर में फिल्म दिखा रहे हैं जो पिक्चर हॉल नहीं है और आम रास्ते से हट कर है।"

मैंने आधे-आधे पेज के विज्ञापन लिये, और उन्हें न्यू यार्क के सभी महत्त्वपूर्ण अखबारों में एक ही फांट साइज में प्रकाशित कराया -

चार्ली चैप्लिन

कोहन थियेटर पर

सिटी लाइट्स में

सारे दिन की दरें 50 सेंट और एक डॉलर

मैंने अखबारों पर 30000 डॉलर अतिरिक्त खर्च किये और थियेटर के आगे लगाये जाने के लिए बिजली वाला एक साइन बोर्ड किराये पर लिया और उस पर 30000 डॉलर खर्च किये। हमारे पास समय बहुत कम था और हमें बहुत काम करना था। मैं सारी रात जागता रहा और फिल्म के प्रोजेक्टशन के प्रयोग करता रहा, फिल्म के आकार के बारे में माथा पच्ची करता रहा और उसमें आयी खामियों को ठीक करता रहा। अगले दिन मैं प्रेस से मिला और उन्हें बताया कि मैंने ये मूक फिल्म क्यों और किसके लिए बनायी है।

युनाइटेड आर्टिस्ट्स के स्टाफ सदस्य मेरे प्रवेश शुल्क को ले कर शंका में पड़े हुए थे क्योंकि मैं सीधे सीधे एक डॉलर और पचास सेंट वसूल कर रहा था जबकि सभी सिनेमा हॉल शुरुआती प्रदर्शनों के लिए महंगे स्टालों के लिए पिचासी सेंट और पैंतीस सेंट लिया करते थे जबकि वे सवाक फिल्में दिखा रहे थे और फिल्म के शुरू में कलाकारों का शो भी होता। मेरा मनोविज्ञान इस प्रमुख तथ्य पर काम कर रहा था कि ये मूक फिल्म थी और इसीलिए इसकी कीमत बढ़ाये जाने की ज़रूरत थी। और अगर जनता पिक्चर देखना चाहती है तो उन्हें पिचासी सेंट और एक डॉलर के बीच के फर्क नहीं रोक पायेगा। इसलिए मैंने समझौता करने से इन्कार कर दिया।

प्रीमियर में फिल्म बहुत अच्छी गयी। लेकिन प्रीमियर तो आगे के बारे में कोई संकेत नहीं देते। आम जनता ही तो मायने रखती है। क्या वे मूल फिल्म में दिलचस्पी लेंगे। ये ख्याल आधी रात तक मुझे जगाये रहे। अलबत्ता, सुबह मुझे हमारे प्रचार प्रबंधक ने जगाया, और मेरे बेडरूम में ग्यारह बजे धड़धड़ाता हुआ घुसा,"साहब, आपने तो कमाल कर दिया! क्या हिट जा रही है! आज सुबह दस बजे से ही जो लाइनें लगनी शुरू हुई हैं वे सारी गलियों को घेरे हुए हैं और सारा ट्रैफिक रुका पड़ा है। कम से कम दस पुलिस वाले ट्रैफिक नियंत्रण में लगे हैं। लोग हैं कि किसी तरह से भीतर घुसना चाहते हैं। आपको देखना चाहिये कि वे किस तरह से हो हल्ला कर रहे हैं!"

मुझ पर सुख की, राहत की भावना तारी हो गयी और मैंने ब्रेकफास्ट मंगवाया और तैयार होने लगा। "मुझे बताओ, सबसे ज्यादा ठहाके किस सीन पर लगे थे?" पूछा मैंने, और उसने बारीकी से बताना शुरू किया कि कहां कहां लोग हँसे थे और कहाँ पेट पकड़ कर हँसे थे और कहां हँसते हँसते पागल हो रहे थे। आओ, और अपने आप देखो।" कहा उसने,"इससे आपका जी अच्छा हो जायेगा।"

मैं जाने में हिचकिचा रहा था क्योंकि कोई भी शै उसके उत्साह का मुकाबला नहीं कर सकती थी। फिर भी, मैं थियेटर में पीछे की तरफ भीड़ के साथ खड़े हो कर आधे घंटे तक फिल्म देखता रहा, लगातार जो ठहाके गूंज रहे थे, उनसे मुझे हर्ष मिश्रित राहत मिल रही थी। ये मेरे लिए काफी था। मैं संतुष्ट वापिस आया और चार घंटे तक न्यूयार्क की सड़कों पर भटकता रहा और अपनी भावनाओं को हवा देता रहा। बीच बीच में मैं थियेटर के पास से गुज़रता, और देखता, अभी भी चारों तरफ की सड़कों पर अंतहीन कतारें लगी हुई हैं।

फिल्म को गुमनाम लोगों की तरफ से भी बहुत अच्छी समीझाएं मिलीं।

1150 की क्षमता वाले हॉल से हमने तीन हफ्ते तक 80000 डॉलर प्रति सप्ताह की दर से कमायी की जबकि ठीक सामने वाली सड़क पर 3000 क्षमता वाले पैरामाउंट में सवाक फिल्म दिखायी जा रही थी और मॉरिस शैवेलियर स्वयं मौजूद थे, वहां कुल 38000 डॉलर प्रति सप्ताह ही निकल पाये। सिटी लाइट्स बारह हफ्ते तक चलती रही और सारे खर्च निकाल लेने के बाद 400000 डॉलर से भी ज्यादा का शुद्ध मुनाफा दे गयी। फिल्म उतारने का एक ही कारण था कि न्यू यार्क थियेटर सर्किट, जिन्होंने इसे अच्छी कीमत पर बुक कर रखा था, ये अनुरोध करने लगे कि वे नहीं चाहते कि उनके सर्किट में पहुंचने से पहले ऐसा न हो कि हर आदमी ने इसे देख रखा हो।

और अब मैं लंदन जाना चाहता था और वहां पर सिटी लाइट्स को लांच करना चाहता था। जब मैं न्यू यार्क में था तो द न्यू यार्कर के अपने दोस्त राल्फ बर्टन से बहुत ज्यादा मिला करता था, उन्होंने हाल ही में बालजाक की किताब ड्रॉल स्टोरीज़ का चित्रण पूरा किया था। वे सिर्फ सैंतीस बरस के थे और बेहद सुसंस्कृत और सनकी आदमी थे। उन्होंने पांच शादियां रचायी थीं। वे कुछ अरसे से हताशा में चल रहे थे और किसी चीज की ज्यादा खुराक ले कर खुदकशी करने की कोशिश भी की थी। मैंने उन्हें सुझाव दिया कि वे मेरे मेहमान के तौर पर मेरे साथ यूरोप चलें और इस बदलाव से उन्हें बेहतर महसूस होगा। इस तरह से हम दोनों ओलम्पिक में चले। ये वही जहाज था जिस पर मैंने इंगलैंड के लिए अपनी पहली यात्रा की थी।