Kailash Mansarovar - Those Amazing Unforgettable 16 Days - 4 in Hindi Travel stories by Anagha Joglekar books and stories PDF | कैलाश मानसरोवर - वे अद्भुत अविस्मरणीय 16 दिन - 4

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कैलाश मानसरोवर - वे अद्भुत अविस्मरणीय 16 दिन - 4

चौथा पड़ाव

सागा

अब शुरू हुआ कठिन सफर । समुद्र तल से ऊंचाई क्रमशः बढ़ती जा रही थी और ऑक्सीजन कम होती जा रही थी इसलिए हमें हर रोज एक शहर में एक रात काटना जरूरी था ताकि हमारा शरीर उस क्लाइमेट से अक्लाइमेट हो जाए और हमें तकलीफ कम हो । हम में से किसी ने अपने हाथ में कपूर बांध रखे थे तो किसी ने गले में लटकाए हुए थे । जहाँ भी सांस लेने में तकलीफ होती वहाँ हम झट से कपूर सूंघ लेते । और हाँ, एल्टीट्यूड सिकनेस मतलब ऊंचाई पर होने वाली परेशानी से बचने के लिए डाईमोक्स नाम की दवा खाते ताकि शरीर में वाटर रिटेंशन न हो ।

ठंड बढ़ गई थी और कपड़ों का अंबार भी । अभी वॉर्मर पहनने की जरूरत नहीं पड़ी थी । हम सबका ऑक्सीजन लेवल तो चेक होना शुरु हो ही गया था । एक छोटी सी स्टैपलर जैसी मशीन सृजन हम सब के अंगूठे में लगाता और शरीर में मौजूद ऑक्सीजन की मात्रा और हार्ट रेट उसकी स्क्रीन पर फ्लैश होने लगते । अब तक लगभग सभी का ऑक्सीजन लेवल 80 से 90 के बीच था । मेरा भी । जिसका ऑक्सीजन लेवल 80 से कम था उसे तुरंत पानी पीने के लिए कहा जाता था। पानी पीते ही ऑक्सीजन लेवल बढ़ जाता । लेकिन जैसे-जैसे ऊंचाई बढ़ती जा रही थी वैसे-वैसे भूख कम होती जा रही थी । साथ ही वॉटर रिटेंशन से होने वाले सर दर्द से बचने के लिए डायमॉक्स टेबलेट लेनी भी यहाँ से शुरू करनी पड़ी थी ।

कैलाश परिक्रमा से 4 दिन पहले और 4 दिन बाद तक डायमॉक्स लेना जरूरी था फिर भी हमारे एक साथी ने यह टेबलेट नहीं ली थी । हालांकि इस टेबलेट से मेरा पेट खराब-सा रहने लगा था लेकिन सर दर्द से और अत्यधिक ऊंचाई में शारीरिक श्रम करने के कारण दिमाग और फेफड़ों में जमा होने वाले पानी से तो पेट खराब होने का विकल्प उचित था।

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शिगात्से से फिर से बस ने 35 से 40 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार से चलना शुरू किया । मैं सबसे आगे कि सीट पर बैठी थी तो मैं बार-बार स्पीडोमीटर की ओर देख लेती । बाद में पेमसि ने बताया कि टूरिस्ट बस की गति सीमा ही 40 किलोमीटर प्रति घंटा है । यदि स्पीड बढ़ती है तो ड्राइवर को चालान भरना पड़ता है... तब समझ आया कि क्यों ड्राइवर कभी-कभी नाके पर उतरकर चीनी अफसर को कुछ पैसे देता था ।

शिगात्से से सागा का सफर बहुत लंबा था । हम सुबह 8:00 बजे चले तो रात 7:00 बजे सागा पहुँचे । रास्ते में प्रकृति के सौंदर्य को देखते, पहाड़ नदियाँ, हरी-हरी घास, याक को चराते चरवाहे… सब ने मन मोह लिया । लेकिन हमे ल्हासा के बाद एक भी पेड़ दिखाई नहीं दिया । जाने यहाँ की जलवायु में कुछ अलग था या कोई और बात थी ।

अब हम लगभग 16000 फीट की ऊंचाई पर आ चुके थे । हवा भारी होने लगी थी। पूरा पहाड़ी रास्ता था। कभी भी बारिश और ओले बरसने लगते थे । फिर भी लेंड स्लाइड की चिंता किये बगैर हम बढ़ते चले ।

हमारी बस जिस रास्ते से जा रही थी उस पर हमें कई गांव लगे । रास्ते के दोनों ओर लगभग 50-50 घरों की बस्तियाँ थीं । सारे घर एक जैसे थे । कम ऊंचाई की, मिट्टी की दीवारें, कहीं-कहीं पक्की दीवारें भी थीं । सामने की दीवार पर खिड़कियाँ जिस पर अंदर से पर्दे डले हुए थे । हर घर के सामने एक छोटा-सा आंगन था ।

''प्रकृति की गोद में बसे यह कस्बे कितने सुंदर हैं'' यह सोचते हुए हम आगे बढ़ रहे थे । बरसात ने चारों ओर मनोरम दृश्य खींच दिया था । लेकिन जब हमने उन घरों को ध्यान से देखा तो सभी घरों के सामने कुछ जली हुई गाड़ियाँ, जली हुई दीवारें, जले हुए परदे दिखाई देने लगे । और गौर से देखा तो हर घर पर ताला डला हुआ था जो उस मनोरम प्राकृतिक सौंदर्य को मुँह चिढ़ा रहा था ।

हमारी बस आगे बढ़ती जा रही थी । थोड़ी ही दूरी पर फिर वैसा ही एक कस्बा मिला । वही 50-100 घर, खिड़की पर पर्दे लेकिन यहाँ भी घर-घर पर काले ताले ।

इन कस्बों से दूर जाते ही खुले मैदान थे । जहाँ बहुत सारी याक हरी-हरी घास चर रही थीं । लेकिन हमें यह समझ नहीं आ रहा था कि सारे गांव खाली क्यों हैं? हम सब आपस में चर्चा कर ही रहे थे कि तभी हमारे गाइड पेमसि ने उन खाली घरों का रहस्य उजागर किया ।

जब चीन ने तिब्बत पर हमला कर उसे अपने अधिपत्य में लिया था तब चीन ने इन भोले-भाले तिब्बतियों पर जबरन अपना राज थोपने का प्रयास किया । जिन तिब्बती परिवारों ने इसे बिना कुछ विरोध किए स्वीकार कर लिया उन्हें जान से हाथ तो न धोना पड़ा लेकिन उनसे उनकी सभ्यता, उनकी संस्कृति, यहाँ तक कि उनकी भाषा भी छीन ली गई और जिन्होंने इसका विरोध किया उन्हें वहीं-के-वहीं मार डाला गया । बर्बरता से उनके वाहन जला दिए गए, साथ ही उन लोगों को भी जिंदा जला दिया गया और जो इनमें से बच गए... वे यहाँ से कहीं दूर पलायन कर गए लेकिन उन घरों में आग के निशान आज भी मौजूद हैं। साथ ही कई घरों पर ताले डले हैं।

उन खाली विरान घरों को देखकर हम सबका मन उदास हो गया लेकिन हमारी बस आगे बढ़ती रही और हम नियत समय पर सागा पहुँच गए ।

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अब हम लगभग 17000 फीट की ऊंचाई पर पहुँच चुके थे। रात भी हो चली थी। अपने-अपने कमरों में जाने से पहले ही हम सब ने खाना खाया और एक गहरी नींद लेने कमरों में पहुँचे । लेकिन सोने से पहले हमने वसुधा दादी के कमरे में इकट्ठा होकर भजन गाए और हनुमान चालीसा का पाठ किया । उस सात्विक माहौल में बड़ी मीठी नींद आई ।

दूसरे दिन सुबह जल्दी उठ कर हम अपने अंतिम पड़ाव दारचिन के लिए निकल पड़े ।

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