उसका नाम मनीषा मोटी या मोटी मनीषा बिल्कुल न पड़ता अगर कक्षा में मनीषा नाम की दो लड़कियां न होती.
वैसे यह बात भी सच थी कि वह कक्षा में सबसे मोटी लड़की थी.
मोटी मनीषा थी बड़ी मस्त. खाना, गाना और सुस्ताना तीनों में सबसे आगे.
किसी भी सहेली का टिफिन का डिब्बा उससे छूटता नहीं था.
पता नहीं सच है या झूठ, पर कहते हैं एक बार स्टाफ रूप में जाकर वह म्यूजिक टीचर का पिज्जा भी खा आयी थी.
उस दिन के बाद ही उसकी सहेलियों को पता चला था कि मोटी मनीषा गाती भी है.
हुआ यूं कि म्यूजिक टीचर ने उसे स्टाफ रूम से निकलते देख लिया था और फिर उन्होंने कक्षा में आकर पूछ लिया था-
मेरे टिफिन बॉक्स से पिज्जा निकल कर कहीं चला गया है. तुमने उसे कहीं जाते तो नहीं देखा?
यह सुनते ही मोटी मनीषा तुरंत खड़ी हो गयी थी और सूरदास के प्रसिद्ध गीत-मैय्या मैं नहीं माखन खायो’ की तर्ज में ऊंचे गले से गाने लगी थी-
‘‘ टीचर मोरी मैं नहीं पिज्जा चुरायो ,
कक्षा के साथी सब हैं बैरी, जबरन मुझे फंसायो,
तू बोले तो मैं मुंह खोलूं... सूंघ लियो जाए.’’
उसके जोर-जोर से रोने जैसे गाने ने कक्षा ही नहीं आसपास की कक्षाओं को भी हैरान कर दिया था. और सब एक स्वर में बोल उठे थे-मोटी मनीषा चुप हो जा, चुप हो जा!
मगर मोटी मनीषा के मस्ती के दिन फुर्र हो गए जब स्कूल में एक स्पोर्ट्स टीचर आयी.
पहले ही दिन खेल की घंटी में मनीषा को ऊंघते देख उन्होंने कहा, ‘‘ आज से तुम स्कूल के बैंड में ड्रम बजाओगी.’’
मनीषा घबराकर बोली थी, ‘‘ टीचर मैं क्यों?’’
टीचर का जवाब था, ‘‘ क्योंकि इतना भारी ड्रम कोई दूसरा नहीं उठा सकता. और इसे बजाने के लिए ताकत चाहिए, जो तुम्हारे पास है.’’
स्पोर्ट्स टीचर के आने के बाद स्कूल में खेल की गतिविधियां काफी बढ़ गयी थी. पढ़ाई में तो स्कूल का पहले से ही नाम था.
मगर खेल-कूद में मनीषा को जरा भी दिलचस्पी नहीं थी. इसलिए स्पोर्ट्स टीचर ने उसे भी अटपटे काम सौंप रखे थे. जैसे कि सीटी बजाना, फुटबॉल में हवा भरना, रस्सी कूद की रस्सी को पकड़ना, लोहे का गोला, भाला संभालना , मैदान में चूने की मार्किंग करना.
और सबसे मुश्किल काम था शाम की प्रैक्टिस के बाद सभी खिलाड़ियों को नाश्ता बांटना और खुद भी सिर्फ़ एक नाश्ते से गुजारा करना.
दिन गुजर रहे थे. लड़कियों के खेल में सुधार आ रहा था.
दूसरी तरफ इतनी भागदौड़ से मोटी मनीषा का वजन भी घट रहा था.
इधर स्पोर्ट्स टीचर एक बात और गौर कर रही थी. मनीषा लोहे के गोले या भाले को उठा कर स्पोर्ट्स रूम तक नहीं ले जाती है, बल्कि मैदान से फेंकते-फेंकते ले जाती है.
हॉकी और फुटबॉल की टीम में गोल कीपर का काम भी वह अच्छा कर रही थी.
और फिर ट्रायल के दिन एक चमत्कार हुआ. स्पोर्ट्स टीचर ने मनीषा को भी गोला फेंकने के लिए बुलाया और मनीषा ने सबसे दूर तक गोला फेंका. जिस पर सबसे ज़्यादा ताज्जुब उसे ही हुआ.
स्पोर्ट्स टीचर ने सिर्फ़ मुस्कराकर कहा, ‘‘ आज से तुम्हारा नाश्ता डबल. तुम गोला फेंकने में स्कूल की तरफ से भाग लोगी, सो रोज जगकर प्रैक्टिस करो.’’
इस तरह सुस्ती का दूसरा नाम मोटी मनीषा अब स्कूल की एक खिलाड़ी बन गई, जो तीन-तीन प्रतिभागिताओं में भाग ले रही थी.
सचमुच उसे अब खेलों में मजा आ रहा था.
फिर आया जिला स्कूल खेल प्रतियोगिता का सप्ताह.
पहले दो दिन में उनके स्कूल की लड़कियां दौड़, वॉलीबाल, कबड्डी और बास्केटबॉल में कुछ खास नहीं दिखा सकी. मगर तीसरे दिन से स्कूल का नाम आने लगा. और इसकी शुरूआत हुई मोटी मनीषा के गोला फेंक प्रतियोगिता में पहले पुरस्कार के साथ. भाला फेंक में भी उसे दूसरा पुरस्कार मिला. इससे स्कूल में एक जोश आ गया, फिर दूसरी लड़कियों ने भी आत्मविश्वास के साथ खेलना शुरू कर दिया.
आखिरी दिन उनका स्कूल कुल सतरह पुरस्कारों के साथ चौथे स्थान पर रहा. यह एक संतोषजनक स्थिति थी.
और सुनो, इसके बाद मोटी मनीषा का नाम बदलकर खिलाड़ी मनीषा हो गया था.
अब मनीषा सोच रही थी कि उसे अगले साल स्कूल का स्पोर्ट्स कैप्टन बनना है.
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