Know where those days went in Hindi Short Stories by Suvidha Gupta books and stories PDF | जाने कहां गए वो दिन

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जाने कहां गए वो दिन

ज़्यादातर परिवारों में यह तो हम प्रायः सभी से सुनते ही रहते हैं कि आजकल रिश्तों में, वह पहले वाली मिठास कहां रह गई। लोग एक दूसरे के घर आना जाना पसंद ही नहीं करते। एक दूसरे को बुलाना पसंद नहीं करते। आज मेरे लेख का विषय इसी से संबंधित है।

एक घटना मुझे याद आ गई। एक बार मैं अपनी मित्र आरती के साथ पार्क में सैर कर रही थी। पार्क के एक कोने में माली का छोटा सा कच्चा घर था। घर क्या, बस कच्ची ईंटों का एक छोटा सा कमरा था। छत को भी तरपाल और लकड़ियों से ढक कर बनाया हुआ था। उसी में उसका पूरा परिवार रहता था। उस दिन हम दिसंबर की आधी दोपहर यानी करीब तीन बजे पार्क में सैर कर रहे थे। मैं और आरती अपनी बातचीत में पूरी तरह डूबे हुए थे। तभी अचानक से ही बहुत तेज़ हंसने और खिलखिलाने की आवाज़ें आईं। हमने देखा, पार्क के बीचों-बीच करीब पन्द्रह-बीस पुरुष और महिलाएं, माली के परिवार के साथ बैठे हुए हैं और साथ ही कुछ छोटे-बड़े बच्चे खेल रहे हैं।

खुशी का माहौल, खूब जमा हुआ था। उनमें से कुछ पुरुष, पार्क की दीवार के साथ-साथ, कोई... हरी सब्जी उगी हुई थी, वह काट रहे थे। पालक या बथुआ तो नहीं था, कुछ और ही था। पास में ही महिलाएं उसको धो-धोकर साफ करके, बारीक-बारीक काट रहीं थीं। फिर गेहूं और मकई का आटा, उस हरी सब्जी में मिलाकर, परांठे का आटा गूंथा गया। माली के कमरे के बाहर एक अंगीठी रखी हुई थी। अब उस पर परांठे बनने शुरू हो गए। मैं और आरती पार्क में चक्कर लगाते हुए, यह सब नज़ारा देख रहे थे। अब हमारा ध्यान अपनी बातों से हटकर, माली के रिश्तेदारों पर केंद्रित हो गया था। परांठे के साथ-साथ प्याज़ और हरी मिर्च भी थी और धीरे-धीरे सब रिश्तेदारों को यही खाना, अखबार पर रख कर, दिया जाने लगा।

सब इतने आनंद से खा रहे थे कि जैसे कोई छप्पन भोग खा रहे हों। खाने के साथ-साथ जो अपने सुख-दुख की बातों का रस ले रहे थे, वह तो देखते ही बनता था। ना बीते कल की कोई परेशानी, ना आने वाले कल की कोई फिकर और ना ही मेहमान-नवाजी का कोई तामझाम। सच! दिल में कहीं ईर्ष्या तो जरूर हुई कि असल जिंदगी का मज़ा तो यह लोग ले रहे हैं, हम तो यूं ही बेकार की बातों में पड़े रहते हैं, लोग क्या कहेंगे? पड़ोसी-रिश्तेदार क्या कहेंगे? इसी में सारी जिंदगी निकाल देते हैं। सच में, ऐसा निर्मल, दिल को छू लेने वाला आनंद, बहुत मुद्दत के बाद देख रही थी।

हम क्या है ना, किसी ने अगर हमारे यहां आना हो तो उसका पूरा प्रोजेक्ट ही बना डालते हैं। सबसे पहले तो ब्रेकफास्ट लंच डिनर का थ्री, फ़ोर या फाइव कोर्स मेन्यू बनाएंगे। फिर बाजार भागेंगे कि यह सामान चाहिए, वह सामान चाहिए। फिर उसको बनाने में और घर ठीक करने के नाम पर सारी एनर्जी(ऊर्जा) लगा देंगे। जब तक रिश्तेदारों या अन्य कोई मेहमान के आने का समय होता है तो तब तक हम बिल्कुल थक कर चूर हो जाते हैं। फिर तो मिलने-जुलने का आनंद भूल कर, बस एक औपचारिकता सी निभाने में लग जाते हैं कि बस... कब खाना खिलाएं और कब मेहमान वापस जाएं। तो दोस्तों, ऐसा नहीं लगता कि मेहमान-नवाजी के भी कुछ नियम होने चाहिएं... जैसे
1.अगर हम किसी के घर मिलने या रहने जा रहे हैं तो मेज़बान और मेहमान दोनों को औपचारिकता से बचना चाहिए।
2. मिलना जरूरी है ना कि बेहिसाब खाना। खाने में सिर्फ एक ही चीज़ बनाएं, ताकि बनाने वाले को भी आसानी हो और खाने वाले को भी पचाने की दिक्कत ना हो।
3.बेकार के दिखावे से बचें। महंगी क्रोकरी में भी खाने का स्वाद वही रहता है। उसको संभालने में समय बर्बाद करने से बेहतर है, मेहमान के साथ ज़्यादा समय बिताएं।
4.अगर हम किसी के घर रहने के लिए गए हैं तो बहुत अच्छा होगा, हम रसोई के कामों में मेज़बान का हाथ बटाएं। इससे काम भी झटपट हो जाएगा और काम करते-करते, हमें बातचीत का भी अधिक समय मिलेगा।
5. मेहमान के आने पर अगर सारा काम महिला मेज़बान पर ही डाल दिया जाएगा तो निश्चित ही वह परेशान हो जाएगी। इसलिए पुरुषों को भी चाहिए कि ऐसे समय पर, वह रसोई में सहयोग करें। ऐसा भी देखने में आता है कि कईं रिश्तेदार या परिचित जो अपने घर में तो खूब जमकर काम करते हैं, पर दूसरे के घर में पानी का गिलास भी उठाकर नहीं पीते। यहां हमको यह समझना बहुत जरूरी है कि जब तक मेज़बान कंफर्टेबल (आरामदायक) रहता है, तभी तक मेहमान कंफर्टेबल हो सकता है। अगर हम सारे काम का बोझ मेज़बान पर ही डाल देंगे तो निसंदेह उसे दोबारा हमको बुलाने में हिचकिचाहट होगी।

8. आखिर में सबसे जरूरी बात। कभी भी दूसरे शहर में कोई भी पुराना मित्र, पड़ोसी या रिश्तेदार रहता हो तो उसकी अनुमति से, बजाए होटल में रुकने के, उसके घर पर ही रुकें। हो सकता है, आपको शायद होटल जैसी सुविधाएं ना मिलें, लेकिन अपने पुराने दिनों की यादों को फिर से जीने का इतना सुनहरा मौका, शायद आजकल की व्यस्त जिंदगी में दोबारा मुश्किल से ही मिले। इससे आप के रिश्ते और मज़बूत होंगें। हम जब भी कहीं, किसी भी वज़ह से दूसरे शहर में जाते हैं तो यह सोचते हैं कि छोड़ो, अपने जानकार को क्यों परेशान करना। समय होगा, तो मिल लेंगे, नहीं तो फोन कर लेंगे। हम यह नहीं देख पाते कि ईश्वर ने तो हमें सुनहरा मौका दिया था, इस जीवन की भागदौड़ से दूर अपने लोगों के पास बैठकर हंसने-बोलने का, जो कि हमने औपचारिकताओं के चलते गंवा दिया। फिर हम जिंदगी से बस यही शिकायत करते नजर आते हैं कि अब पहले वाली बात कहां रह गई, पहले लोग मिलते-जुलते थे, कितना आनंद आता था, कितना प्यार था।

सच ही है रिश्तों में प्यार हो, तभी रिश्ते दूर तक साथ देते हैं। ईश्वर की इतनी दया के बाद भी, हम बेकार की औपचारिकताओं में पड़कर, अपनों से मिलने का सच्चा सुख का अनुभव नहीं कर पाते। तो दोस्तों, अगर हम भी उस माली की तरह, बिना किसी दिखावे के जीवन जीने का प्रयास करेंगे तो निश्चित ही अपनों से मिलने-जुलने का और अधिक आनंद उठा पाएंगे। अंत में मैं यही कहना चाहूंगी, बस यह फ़िज़ूल की मेहमान नवाजी को अगर हम अपनी आदत से निकाल दें, फिर देखिए जिंदगी अपनों के संग, कितनी खुशगवार हो जाएगी।