बंगले की छत से पीछे कुछ दूरी पर ग़ज़ब की हरियाली दिखाई देती थी। उस दिन मेरी बड़ी बहनजी मिलने आईं तो मैं उन्हें बंगला दिखाते हुए छत पर भी ले गया। वो देखते ही ठिठक गईं। बोलीं- वाह, क्या नज़ारा है! दिल्ली में तो ऐसी हरियाली कलेंडर की तस्वीर में भी न दिखे।
ये सुनकर तो वो अचंभे से देखती ही रह गईं कि सुबह लंच के साथ सलाद में जो ताज़ा मूली खाई थी वो इसी हरे भरे खेत की है।
मैंने उन्हें बताया कि आसपास के ये खेत जिस छोटे से गांव के हैं वहीं से अपना दूध वाला आता है। कभी - कभी ताज़ा सब्ज़ी भी वही दे जाता है।
एक दिन दूध वाला आया तो मैं बंगले के लॉन में टहल रहा था। वो मुझे अभिवादन करता हुआ भीतर दूध देने चला गया। कुछ मायूस सा लग रहा था।
वो वापस बाहर निकला तो मैंने पूछ लिया- क्या बात है? कुछ बुझे हुए दिख रहे हो।
इतनी सी सहानुभूति तो उसके लिए बहुत थी। झट से बोला- साहब क्या करूं, शेरू फ़िर आ गया।
मुझे एकाएक समझ में नहीं आया कि वो किसकी बात कर रहा है। मैंने कोई अनुमान लगाने से बेहतर उसी से पूछना ठीक समझा- कौन शेरू?
वह हंसा। वह इतनी ज़ोर से हंसा कि मैं घबरा गया, कहीं इसे पागलपन का कोई दौरा तो नहीं पड़ गया। इस तरह भी कोई हंसता है भला? सारे टेढ़े- मेढ़े, मैले- पीले दांत दिख गए। उसके ही थूक के छीटें उड़कर उसके मैले - कुचैले कपड़ों पर पड़े।
वह बोला- भूल गए सर जी, आपने ही तो उसका नाम रखा था शेरू।
अब मेरे चौंकने का दूसरा मौका था। मुझे दूर- दूर तक ये याद नहीं था कि कहीं कोई शेरू है और उसका ये नाम मैंने रखा है।
लेकिन कुछ उसके याद दिलाने और कुछ मेरी स्मृति जाग जाने से मुझे ये याद आ गया कि आज से लगभग अठारह- बीस साल पहले वह एक दिन फटे पुराने कपड़ों में लपेट कर अपने सद्यजात बच्चे को मुझे दिखाने लाया था।
जब इतने छोटे से बच्चे का माथा जबरन झुका कर लगभग ज़मीन से सटाते हुए उसने कहा था- साहब को ढोक दे, साहब तेरी ज़िन्दगी बना देंगे तो मैंने उसे रोकते हुए कहा था, इसे अभी से बकरी की तरह मिमियाना मत सिखा, ये तो शेर बच्चा है... शेरू!
और फिर मैं सब कुछ भूल गया।
मैं ये भी भूल गया कि उस वक्त स्कूटर पर चलने वाला मैं अब दो लक्जरी गाड़ियों का मालिक बन चुका हूं, पर वो अब भी अपने लड़के की शादी में बारात को बैलगाड़ियों पर ही लेजा पाया था।
मैं ये भी भूल गया कि अपने पुराने जूते या पुरानी कमीज़ जो मैं उसे दे दिया करता था, उन्हें वो जतन से संभाल कर तीन साल तक पहनता रहता था और उसके बाद भी उन्हें फेंकने से पहले जोड़ - तोड़ कर बच्चों के काम में लेने की कोशिश करता था।
मैं ये भी भूल गया कि वो अपने छोटे से खेत की सब्जियां, मूंगफली, गन्ने आदि जब - तब मुझे मुफ़्त में दे जाया करता था और मैं उसके बेटे से दो - तीन बार तरह - तरह के फॉर्म भरवा देने के बावजूद उसे किसी घटिया से घटिया कॉलेज में भी एडमिशन नहीं दिलवा पाया था।
एक दिन तो मैंने उसकी घरवाली के मुंह से एक ऐसा तीखा सवाल भी सुन लिया था जिसके जवाब में मैं बगलें झांकने के अलावा और कुछ नहीं कर पाया था।
उस दिन दूध देने वो ही आई थी। मैं ड्राइंग रूम में बैठा सुन रहा था जब वो पर्दे की ओट लेकर रो - रोकर मेरी पत्नी को सुना रही थी कि... जहां आपका बच्चा पढ़ा, वहीं हमने भी अपने बेटे को पढ़ने भेजा। हमारी सपना देखने की कोई हैसियत नहीं थी पर फ़िर भी पेट काट- काट कर उसकी फ़ीस भरते रहे। आपका बच्चा तो वहां से इंजीनियर बनने वाले कॉलेज में चला गया, पर मेरे बेटे को किसी भी कॉलेज में नहीं ले रहे.. आज एक जगह चपरासी बनने भेजा तो वहां भी इंटरव्यू में फेल कर दिया। लोग हमसे कहते हैं कि हम दूध में पानी मिलाते हैं पर मैं कहती हूं कि तुम पढ़ाई में पानी मिलाते हो, ज़िन्दगी में पानी मिलाते हो, गरीब की किस्मत में पानी मिलाते हो! कह कर वो फ़िर रोने लगी।
मैं उसकी बात सुनकर पसीज गया था और मैंने कह सुन कर उसके बेटे को मामूली वेतन पर एक दफ़्तर में "वाटर बॉय" की पोस्ट पर लगवा दिया था। कर्मचारियों को चाय - पानी लाकर पिलाता रहेगा, कम से कम चार पैसे तो मिलेंगे।
लेकिन कुछ ही दिन बाद दूधवाले ने बताया कि उसके लड़के को काम पर से हटा दिया। कहते थे, बेकार बैठा रहता है। उसने लड़के से पूछा तो लड़का बोला- ये सब अपने आप उठ कर पानी भी नहीं पी सकते क्या? हुकुम चलाते हैं।
लड़का फ़िर गांव में आवारा घूमने लगा।
कुछ समय बाद उसे फ़िर एक कंपनी में काम मिल गया। कंपनी कोई इमारत बना रही थी। उसे साइट पर ट्रैक्टरों से आने वाली ईंटें गिननी पड़ती थीं। दो - चार दिन तो ठीक चला, पर फ़िर उसकी नौकरी छिन गई। अफ़सर कहता था कि ये गिनता नहीं है, अंदाज़ से कुछ भी बताता है। लड़के ने अपने पिता को बताया कि अफ़सर अपने किसी आदमी को वहां लगाना चाहता है इसलिए बहाना करके उसे हटाया।
उसने जब ये बात मुझे बताई तो मैंने कहा- तू क्यों इसकी नौकरी के पीछे पड़ा है? इसे अपना पुश्तैनी धंधा खेती - किसानी ही करने दे।
मेरी बात सुनकर वो ऐसे उपेक्षा से हंसा मानो मैंने कोई सूरज पर छींटे मार कर उसे ठंडा करने का जुल्म किया हो।
फ़िर वह गहरी आवाज़ में बोला- साहब मेरी ज़िन्दगी तो इसलिए कट गई कि मैंने बाप- दादा के ज़मीन के टुकड़े के साथ - साथ दो चार पशु - मवेशी भी रख लिए, खेती के भरोसे तो जाने कब का सड़क पर आ जाता।
मैं मुंह बाए उसे देखता रह गया। वह बोलता गया- साहब, सुबह आप लोग जब चाय का प्याला पकड़ने के लिए रजाई से हाथ बाहर निकालने में दो बार सोचते हो तब तक तो बैलों को लेकर मैं खेत की मिट्टी को उलट- पलट कर कीचड़ कर छोड़ता हूं। इन बच्चों से ये कब होगा? इन्हें तो स्कूल ने जाने क्या पढ़ा दिया कि हल - बैल तो दूर, ये तो हम, इनके मां - बाप के साथ खड़े होने में भी शरमाते हैं।
मेरे पास कोई जवाब नहीं था। मैंने अख़बार में मुंह छिपा लिया। वो चला गया।
लेकिन फ़िर कुछ दिन बाद उसने मिन्नतें करके लड़के को एक फैक्ट्री में डिब्बे पैक करने के काम में लगा दिया। बारह घंटे की ड्यूटी थी, सिर उठाने को समय नहीं मिलता था, गर्दन अकड़ जाती थी। मुश्किल से दो महीने गुज़रे होंगे कि वो फ़िर लौट कर घर आ गया, काम छोड़ कर।
यही कह रहा है शायद वो, कि शेरू फ़िर नौकरी छोड़ कर आ गया।
मैंने धीरे से पूछ लिया- अब क्या बात हो गई?
वह उपेक्षा से बोला- बात क्या होगी, ये ही मरखना है, नौकरी को सींग मार कर भाग आता है!
वह चला गया, लेकिन मैं सोच रहा हूं कि "मरखना" कौन है? क्या शेरू मरखना है, या फ़िर उसकी शिक्षा, जिसने उसे आगे पढ़ने लायक तो नहीं बनाया, पिता का रोज़गार संभालने की हिम्मत भी तोड़ दी और किसी काम - धंधे में मन लगाना नहीं सिखाया। ...या ज़माने की ये हवा मरखनी है जो गरीब को और गरीब, अमीर को और अमीर बनाती है ... या फ़िर ख़ुद मैं ही मरखना हूं जिसने उसका नाम शेरू रख दिया? उसका पिता तो उसे पैदा होते ही गिड़गिड़ाना सिखा ही रहा था।
(समाप्त)