Kaagaz Film Review in Hindi Film Reviews by Mahendra Sharma books and stories PDF | कागज़ फ़िल्म रिव्यु

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कागज़ फ़िल्म रिव्यु

कागज़ फ़िल्म रिव्यु
भारत में रहने का मतलब समस्याओं से जूझना या फिर उनको स्वीकार करके आगे बढ़ते रहना। पर कुछ लोग समस्याओं का समाधान ढूंढने निकल पड़ते हैं और फिर बनते हैं किस्से और बुन जातीं हैं रोमांच से भरपूर कहानियां।
बस ऐसी ही एक कहानी है 'भरत लाल मृतक' की , मतलब ज़ी 5 ओरिजनल की फ़िल्म "कागज़" ।

यह फ़िल्म बनी है एक सच्ची कहानी लाल बिहारी मृतक की ज़िंदगी और उनके संघर्ष पर।
एक व्यक्ति जो बैंड बाजा बजानेका व्यापार करके एक सामान्य और सुखी जीवन जी रहा है और अचानक किसी के कहने पर धंधा बढ़ाने की योजना बनाता है। धंधा बढ़ाने के लिए ज़रूरत पड़ती है पैसे की, लोन की और लोन के लिए चाहिए गिरवी रखने वाली मिल्कियत की। तो भैया भरत लाल निकल पड़ते हैं अपनी पुश्तैनी मिलकत को लेने अपने चचा के पास। पर चचा तो निकले बदमाश, उन्होंने भतीजे के हिस्से की ज़मीन पहले से ही अपने बेटों में बांट रखी है। जिसका पता भरतलाल को नहीं था। वे तो गए ज़मीन के कागजात निकलवाने रजिस्ट्री ऑफिस, और वहां से जो जानकारी मिली वह जानकर भरतलाल के पैरों के नीचे से ज़मीन खिसक गई। उन्हें रजिस्ट्री के कागज़ में मृतक घोषित किया जा चुका है और उसके हिस्से की ज़मीन चचा पहले से ही हड़प चुके थे।
फिर क्या था, भरतलाल निकल पडे खुद को ज़िंदा प्रामाणित करने, पर यह काम इतना आसान नहीं था। क्योंकि एक बार आप मृतक घोषित हो गए सो हो गए, फिर ज़िंदा होना मतलब फिरसे जन्म लेने जितना ही मुश्किल होता है।

फ़िल्म में पंकज त्रिपाठी को देखकर यह तो तय हो गया है कि हर एक सामाजिक मसले पर फ़िल्म बनाने के लिए अब सुपर स्टार 'अक्षय कुमार' पर निर्भर रहने की ज़रूरत नहीं। कम खर्च में, अच्छे एक्टर लेकर और एक जबरदस्त कहानी लेकर अच्छी फिल्म बन सकती है।

80 और 90 के दशक में सरकारी कामकाज और कचहरियों में चल रही रिश्वतखोरी पर बनी यह फ़िल्म एक करारे तमाचे की तरह है। किस तरह बिचारे भरतलाल को सरकारी कर्मचारियों से लेकर मंत्रीओ ने उसे मार मरवाकर, कपड़े फड़वाकर और पागल बनाकर बेहद परेशान किया, उनको न कोई कोर्ट मदद कर रहा था, न कोई पुलिस , न कचहरी न ही कोई मंत्री। एक मंत्री महोदया ने उन्हें व्यक्तिगत तौर पर आंदोलन चलाने में प्रारंभिक सहायता की, आंदोलन के नए नए फंडे भी दिए और फिर उन्हें भी आखिर भरतलाल में राजनैतिक लाभ ही दिखा।
भरतलाल हर वो मुमकिन तरकीब आज़माते हैं जिससे वे जीवित घोषित हो जाएं। कानून तोड़ कर गिरफ्तार होना चाहा और इलेक्शन भी लड़े पर सब बेकार गया। कुल मिलाकर सिस्टम से लड़ने की जो हिम्मत और धीरज भरतलाल ने दिखाई वह शायद ही कोई कर पाए। इन परिस्थितियों में ज़्यादातर लोग टूट कर बिखर जाते हैं।

पंकज त्रिपाठी भरतलाल के रोल में छा गए हैं। मिर्ज़ापुर के बाहुबली कालीन भैया यहां आपको जूते चप्पल खाते भी दिखेंगे, घबराइयेगा नहीं। मोनल गज्जर ने भरतलाल की पत्नी रुक्मणि के रोल में आदर्श पत्नी का संतोष कारक काम किया है, मोनल गुजराती एक्ट्रेस हैं और अच्छी फिल्में और वेब सिरीज़ दे चुकीं हैं। सतीश कौशिक डायरेक्ट और एक्ट दोनों कर रहे हैं। वकील की भूमिका में उनका अच्छा कॉमिक रोल भी है। मीता वशिष्ठ मंत्री असरफी देवी के रोल में बहुत ही उम्दा एक्ट का परिचय दे रहीं हैं। उनका गंभीर चेहरा आज कल डिमांड में है। एक छोटे से रोल में अमर उपाध्याय फिर एक्टिंग में नाकामयाब साबित हुए हैं और बृजेंद्र काला छोटे से रॉल में बढ़िया काम करके दिखाते हैं। बृजेन्द्र आपको जोली एलएलबी 2 में अक्षय कुमार को वकील का कैबिन बेचते हुए दिखे थे। बहुत ही मंझे हुए एक्टर हैं।

इस प्रकार की फिल्में शायद मल्टीप्लेक्स वाले थियेटर में नहीं चलेंगी क्योंकि मसाला वाली बातें यहां नहीं हैं। गाने ठीक ठाक हैं , पर हमें गानों में शाहरुख, सलमान, आमिर, रितिक जैसे खूबसूरत हीरो देखने की आदत है इसलिए पंकज त्रिपाठी को गानों में मोनल के साथ देखना पैसा वसूल वाला फीलिंग नहीं देगा।

कवर ड्राइव : सिस्टम को बदलने के लिए निकलने वालों को दुनिया पागल ही कहती है, पर आप पागल नहीं हैं क्योंकि आपने कभी कोशिश ही नहीं की।

-महेंद्र शर्मा 12.1.21