admi jat ka admi-swymprakash in Hindi Book Reviews by राज बोहरे books and stories PDF | आदमी जात का आदमी-स्वयं प्रकाश

Featured Books
  • پاپا کی سیٹی

    پاپا کی سیٹییہ کہانی میں نے اُس لمحے شروع کی تھی،جب ایک ورکش...

  • Khak O Khwab

    خاک و خواب"(خواب جو خاک میں ملے، اور خاک سے جنم لینے والی نئ...

  • پھٹے کپڑے

    زندگی بس یہی ہے۔   جینا تو یہی ہے، یہ نصیحت بھی لکھی ہے...

  • رنگین

    سفر کا مزہ سفر سے لطف اندوز ہوتے رہیں۔ اپنے دل کے مواد سے لط...

  • ادھورے رشتے، مکمل سچ

      .ادھورے رشتے، مکمل سچ اوصاف، ایک متمول بزنس مین ارمان کا ا...

Categories
Share

आदमी जात का आदमी-स्वयं प्रकाश

स्तक समीक्षा‘ आदमी जात का आदमी-स्वयं प्रकाश
राजनारायण बोहरे
आदमी जात का आदमी कहानी संग्रह स्वयं प्रकाश का छठवां कहानी संग्रह है जो किताबघर दिल्ली से प्रकाशित हुआ है। इस संग्रह में स्वयं प्रकाश की कुल ग्यारह कहानियां सम्मिलित हैं।
हिन्दी के सातवें दशक से लिखना आरंभ करने वाले और अपनी खास भाषा और दृष्टि की वजह से कहानीकारों में अपना अलग स्थान बनाने की वजह से जिन कहानीकारों का नाम आता है उनमें रमेश उपाध्याय, स्वयं प्रकाश के नाम प्रमुख हैं।
इस संग्रह की पहली कहानी एक खूबसूरत घर है जिसमें एक पापा हैं, बच्चे हैं और एक मम्मी भी हैं। पापा को करने को बहुत से काम हैं, आफिस है, आफिस के साथी है, रिश्तेदार हैं, पर मम्मी का जीवन सिर्फ घर की जरूरतों और घर के कामो से जुडे़ लोग सब्जीवाला,ब्रेडवाला,दूधवाला,पुराने कपड़ों के बदले स्टील के बर्तन देने वली और बचे खुचे बर्तनों पर बची-खुची कलई करने वाले बचे-खुचे कलईगर या मेहतरानी या ग्यारस-तेरस पर सीधा मांगने वाले। ‘ मम्मी की कमर पर चर्बी की परतें चढ़ गई थीं। मम्मी की छातियां बेडौल और लटकी हुई थीं। .......कहां जाना है बन ठन कर भी?सज-संवर कर भी?सुचिक्कन-सुडौल होकर भी? कौन देखने वाला है?शरीर को उन्होंने केवल माध्यम माना था--सुखी-सम्पन्न घर-परिवार पाने का। हो गया। अब उसकी परवाह करने की क्या जरूरत है?’ जबकि पापा का महत्व देखिए-- ‘पापा को हर रंग पसंद नही है, इसलिए घर में हरे रंग के पर्दे नही है। पापा को पान खाना चीपनेस लगता है, इसलिए हमारे यहां कोर्ठ पान नही खाता। पापा को अमिताभ बच्चन से सख्त चिढ़ है, इसलिए उसकी पिक्चर आते ही टी.वी. बन्द कर दिया जाता है। पापा खटाई नहीं खाते, इसलिय घर में कोई खटाई नही खाता।’ कितने सहज भाव से भारत के पितृ सत्तात्मक परिवार में एक पुरूष का महत्व कह जाते हैं स्वयं प्रकाश। एक दिन पिता को आफिस से आने में देर होजाती है तो मममी पति के सहकर्मी शर्माजी के यहां बार बार बच्चों को भेजकर पुछवाती हैं कि उन्हें पापा के बारे में कुछ पता है क्या,? लेकिन निराश होती हैं अन्तत‘ पिता रात ग्यारह बजे लौटते है, वजह बताते हैं कि स्कूटर खराब हो गया था, फिर पूछते हैं कि क्या हुआ ? ‘‘मम्मी कुछ नहीं बोलीं। जो हुआ वह बताया नहीं जा सकता था।’’....कहानी का अन्त देखिये- ‘ हां यह घर था। और हमारी दुनिया में जो कुछ ही खूबसूरत बातें रह गई हैं, उनमें से एक खूबसूरत बात यह भी है, कि यह था।’
दूसरी कहानी ‘पांच दिन और औरत’ है। एक विक्षिप्त सी औरत एक चौराहे के पास मादरजात नंगी दिखती है जो कि अपने घुटनों को छाती से चिपकाये हुए है। उसी दिन चौराहे पर लोग चाय पीने आते हैं, साइकिल वालों की चैन उतरती है, लोग सिगरेट पीने आते है, मोटर साइकिल खराब होती है यानि कि जानबूझ कर लोग वहां रूकते हैं। अगले दिन वही औरत एक पुराने गन्दे गूदड़े पर एक कुछ कम पुरानी नायलोन की साड़ी लपेटे बैठे हुए हैं । तीसरे दिन उस औरत के जिस्म पर वही साड़ी है और गूदड़ी भी लेकिन साड़ी हजार जगह से फटी हुई है ओर उलटी दस्त खून और कीचड़ से सनी हुई है, गूदड़ी के टुकड़े फाड़ कर वह औरत अपनी टांगों में जगह जगह चिपका रही है। चौथे दिन वह औरत गायब है और कोई राहगीर वहां नहीं रूक रहा है। पांचवे दिन अखबार की पीछे के पन्ने में छपता है कि गन्दे नाले वाली पुलिया के नीचे एक महिला की क्षत विक्षत लाश मिली। लेखक कहता है कि यह क्या कम है कि लोकतंत्र के अखबारो ंने उसे महिला लिखा। इस औरत की कहानी के समानांतर नगर में बहुत कुछ घटा। एक भले आदमी की बेटी किसी के साथ सिनेमा देखते मिली तो वह लड़का पीटा गया तथा अगले दिन वह लड़का व लड़की भाग भी गये तथा तीसरे दिन आर्यसमाज में ब्याह करने के बाद पिता से आशीर्वाद लेने नव दम्पत्ति उपसिथत भी हो गया तो मां ने सोचा िकइस लड़की से जिस दुहाजू के ब्याह की बात चल रही थी उससे छोटी बेटी की शादी कर देते हैं यह जानकर छोटी बेटी कीटनाशक दवा कीशीशी पीजाती है लेकिन बचजाती है तथा वह भी अखबार के बीच के पन्ने पर उसकी खबर छपती है। इसी के समानांतर तीसरी स्त्रीयां है जिनके समाचार पहले पन्ने पर रोज छप रहे हैं। पहले दिन श्रीमती दगड़े की प्रेस कॉन्फ्रेस होती है जो कि एक बेरिस्टर की अति आधुनिक पत्नी हैं तथा कुंजड़िनों,धोबिनों, मेहतरानियों,दाइयों महरियो, मिसराइनों आदि वर्किंग वीमेन की नुमाइंदगी करती हैं, हित रक्षिक हैं।दूसरे दिन प्रसिद्ध लेखिका वीरवानी यहां के स्थानीय महिला महाविद्यालय में छात्राओं से भेेट करती है, जो कि बालेंा मेंशैम्पु लगा,हिन्दी की बुक्स हाथ में लिए उपस्थित होती हैं जहां कि वीरवानी बताती हे कि मां बनना नारी जीवन की चरम सार्थकतर है। स्त्री के अपनी मुक्ति के लिए स्वयं लड़ाइ्र लड़ना होगा। भले ही मां बनना और मुकित की लड़ार्इ्र अलग अलग बात है पर महिलाए ताली बजाती हैं। चौथे दिन एक दहेज हत्या और पांचवंे दिन मुस्लिम महिला विधेयक की तारीफ का समाचार है लेकिन छठवें दिन गजब होता है जबकि वीरवानी और श्रीमती दगड़े कार से दिल्ली की यात्रा में है और रात का किसी जंगल में अज्ञात लोग उनकी कार रोक कर उनके साथ बदतमीजी करते है। हालांकि कहानी का अंत लेखक एक अजीब से अंदाज में करता है-‘‘बीच जंगल में उनकी कार किसी अदृश्य शक्ति ने रोक ली। खुले बाल लहराती देा प्रेतात्माऐं हवा में उड़ती हुइ्र आयी । एक ने श्रीमती दगड़े के कपड़े तार तार कर उन्हे उलटी दस्त कीचड़ और खून मे सनी नायलोन की साड़ी में लपेट हाथ पांव बांध बीच सड़क पर उकडूं बैठा दिया। और दूसरी ने वीरवानी के बदन पर जादुई घासलेट डालकर आग लगा दी जिससे उनका चेहरा झलस गया ....’’ महिलाओं के अनेक वर्ग, उनकी कथायें और एक सी नियति बताती यह कहानी स्वयं प्रकाश की एक महत्वपूणर््ा कहानी है।
नेताजी का चश्मा इस संग्रह की तीसरी कहानी है, जिसमें एक कस्बे के बीचमें लगी नेताजी सुभाषचंद बोस की प्रतिमा से लोगो ंके जुड़े की कहानी है। मूत्रि पर चश्मा नही है इसलिए एक चश्मे वाला अपनी नन्ही सी दुकान का एक चश्मा मूर्ति को पहना देता है। यह केप्टन चश्मा वाला बदल बदल क चश्मा पहलाता है क्योंकि ग्राहक को अगर मूर्ति का चश्मा पसंद आता है तो वह चश्मा बेच दिया जाता है और मूर्ति को दूसरा चश्मा पहना दिया जाता है। यह चश्मा वाला कैपटन एकदिन खत्म हेा जाता है तो मूर्ति बिन चश्मे की हो जाती हैै। लेकिन एक दिन मूर्ति की आंख पर सरकंडे का लगा चश्मा दिखता है जिसे वहां खेल रहे एक बच्चे ने बना कर लगा दिया है। बहु आयामी अर्थ देती यह कहानी हंसी हंसी में बहुत कुछ कह देती है।यहभी कि नेताजी से अब लगाव सिर्फ मन के भोले लोगों को है, देश भक्त लोगों को है, सनकी लोगों को है, नगरपालिकाएं या प्रशासनिक इकाइयां अपनी जिम्मेदारी बिलकुूल नही समझती वे एक बार मूर्ति स्थापित कर उस मूर्ति की देख रेख छोड़ देती हैं, आसपस से गुजरते लोग भी किसी भी बड़े नेता और देश भक्त या उनकी मूर्ति के प्रति कोई लगाव नही रखते।
चौथी कहानी अविनास मोटू उर्फ एक आम आदमी में एक बहुत मस्त चरित्र के बहाने आम भारतीय व्यक्त् िकी कहानी कही गयी है जो स्वभाव से खिलंदड़ा है, जिस विषय मे ंनही जानता उस विषय में भी हाथ डालने की उसकी आदत है और जिद के चलते हर काम करके देखने व घाटा खाने के बाद काम सीखने के संतोष के साथ उस घटना को भूल जाने के स्वभाव की कहानी है। ऐसे अपनी धुन के पक्के, अपने काम में अपना पूरा ध्यान देने वाले बहुत कम लोग बचे है । यह कहानी पढ़ते पढ़ते हमे अपने आसपास के तमाम चरित्र याद आते हैं। लेकिन कुल मिलाकर यह चरित्र बहुत सुख देता है।
पांचवीं कहानी रशीद का पाजामा बच्चों और किशोरों में पलती मजहब भेद की जबदस्त कहानी है। एक गरीब बाप का अति प्रतिभाशाली बेटा रशीद अपने स्कूल की तरफ से प्रेसिडेंट परेड के लिए सिलेक्ट होकर नेनीताल जा रहा है , पूरे देश से केवल सैकड़ा भर लोग सिलेक्ट हुए है जिनमें एक यह भी है। दस दिन के शिविर के लिए खर्च, अलग तरह के कपड़े वगैरह के लिए उसका पिता तमाम कर्ज करके उसकी तैयारी कराता है। रशीद शिविर के हर आयोजन हर प्रतियोगिता मंे भाग लकर पहला स्थान पाता है। लोटते में आगरा स्टेशन पर बाथरूम में रशीद नहा रहा होता है कि उसके पाजामा का नाड़ा नेफा में सटक जाता है और वह भीतर बैठा यत्न करता है कि किसी तरह नाडा निकल आये , उसे निकलने में देर हो रही है और बाहर दूसरे लोग वाथरूम का दरवाजा पीट रहे हैं, तौलिया इतना बड़ा नही कि उसे लपेट के आया जा सके, तब हाथ से पाजामा पकड़ वह बाहर अता है तो उसे अपने साथियो ंसे यह सुनने को मिलता है-ये कटवे साले ऐसा ही करते हैं। रशीद उस दिन यह नही समझ पाता कि पाजामा के नेफा में नाड़ा घुस जाने सेे कटवा या मुसलमान कहां से आ गया वह समाज की इस मानसिकता पर बहुत दुखी होता है। उससे सहानुभूति रखने वाली सोफिया उसे समझाती है और रास्ते भर वह भी रशीद के साथ समाज की इस मानसिकता पर रोती है क्योंकि एक स्त्री ओर एक अल्पसंख्य के पास इससे ज्यादा क्या विकल्प है। रशीद का दस दिन का उत्साह खराब होजाता है।
पांचवी काहानी छुटकारा मंे विनय और सुधा जैसे जिन्दा दिल जोड़े के घर एक ऐसा बच्चा पैदा होता है कि जिसके पांव भीतर की तरफ मुड़े हुए हैं। ज्यों ज्यों बच्चा बड़ा हो रहा है उसकी देखरेख कठिन हो रही है। घर से मुस्कान और मजाक गायब हो चुका है, हर तरह की झाड़फंूक और इलाज आजमाया जा चुका है लेकिन केाई लाभ नही हेा रहा है। अंततः एक दिन बच्चा खत्म होजाता है, जिसके पहले कथानायक उनके घर गया था तो किच्चू यानि बालक को तेज बुखार था और माता पिता उस भभूत के भरोसे थे जो वे बहुत दूर जा कर लाये थे लेकिन बच्चे के खत्म होने की खबर सुन कर कथानायक खुद को भी दोषी मानता है। अचानक उसको एहसास होता है कि किच्चू की देखरेख और उसके भविष्य के सवाल से माता पिता बहुत निराश हो चुके थे और उन्हंे जितना दुख हो रहा होगा उतना ही छुटकारे का अहसास भी।
संग्रह की शीर्षक कहानी आदमी जात का आदमी एक कवि सुधीर की कहानी है जो कि कवि सम्मेलन में जनमभूमि वाली कविता कविता पढ़ने वाला बुलाया गया है लेकिन कस्बे में पहंुचते ही वह देखता है कि उसके पेण्ंट की जिप खराब हो गयी है ,ढलती सांझ वह जिप ठीक करने वाले की तलाश में निकलता हे तो कोई ठीक नही करता , अन्ततः बड़ी मुश्किल के बाद युसुफ मियां मिलते है जो सुधीर को परेशानी में जानकर अपनी दुकान बंद करने का समय, चाय का समय और सांझ के नाश्ते का समय व बेटी का बुलावा तयाग कर पूरी लगन व चिंता से सुधीर की जिप ठीक करने भिढ़ जाते हैं तो अचानक सुधीर को अहसास होता है कि वह किन लोगों के खिलाफ जनमभूमि वाली कविता पढ़ता है, इन जैसें हजारों लाखों है जिन्हंे इस मुददे से कोई मतलबनहीं, इन्होने तो ग्राहक का मजहब भी नही पूछा बस एक भले आदमी को परेशनी में देख मदद की। वह निर्णय करता है कि अब वह जनमभूमि वाली कविता नही पढ़ेगा।
इस संग्रह की सबसे लम्बी कहानी बलि है। एक जंगली क्षेेत्र मंे नये खनिज का पता चला है तो वहां खनिज का परिशोधित करने वाला कारखना खुलता है ,बाहर से लोग आते हैं, पैसा आता है, स्थानीय लोगों की दिनचर्या बदलती है, बिन मांगा पैसा आता है तो लोग शराबी और नाकारा हो जाते हैं। लेखक ने लिखा है-पहली बार बड़े-बड़े नोट देखने को मिले। घर-घर मारा मारी। और अण्डे.... ओर मुर्गे.... और मछली....ओर भात। अब जो कुछअच्छा था सब बेचे जाने के लए था। अपने उपयोग के लिए नही न दूध न माछ न सबजी न भात। अब रूपये थे और भस्मासुरी इच्छायें। कइ्रयो कंी जमीन चली गयी। बदले में कुछ नौट और नौकरी का आश्वासन। ऐसे में लोगों ने बाहर से आये साहब लोगों के यहां घरेलू काम करनाआरंभ किया। बच्चो ंने भी काम कया। गांव मंे सबसे पहले मंगली ने काम किया। उसे पहनने को नये तरह का फ्रॉक मिला। खाने को भात। नहाने को खुशबूदार साबुन। तब उस लड़की ने तय किया कि वह भी काम करेगी-लड़की यानि की उसका कोई नाम कहानीकार ने नही दिया मतलब इस देश की लाखों लड़की में से कोई लड़की। यह लड़की एक दिन एक साहब के यहां काम करने चली गयी काम था बच्चे का संमालना। पहले बुरा लगा फिर उसका मन लगा तो घर के सारे काम मन से करने लगी। साफ सफाई, किचन का काम और धीरे धीरे करके उस घर का हर काम करने लगी वह लड़की उस घर का हिस्सा हो गयी। साहब की बीबी या निक मामी को उसका काम और व्यवहार बहुत पसंद आयां। लम्बे अरसे बाद उन लोगों का यहां से तबादला हुआ तो साहब और उनकी बीबी लड़की के घर जाकर उसके मां बाप से मिले और निवेदन किया कि वे कुछ माह के लिए लड़की को साथ ले जा रहे हैं, मांबाप ने इजाजत दे दी तो वे लोग उसे साथ ले गये । नयी जगह भी वह लड़की परिवर का हिस्सा बन कर रही। बाद मे ंएक दिन पिता जो बहंुत लालची और बदतमीज था जाने किस बात पर गुस्सा हुआ तो लड़की को वापस ले आया और आते ही एक बदसूरत और तदतमीज आदमी केे साथ उसे बयाह दिया। वह आदमी लड़की पहनावे उड़ावे ओर भद्र जनो की तरह बातचीत से गुस्सा रहता था और घर के अंदर और बाहर उसे बहुत बुरी तरह बेबात पीटता था। वह लड़की सहन करती रही अंत मे एक दिन निराश होकर उसने फंासी लगा कर आत्म हत्या कर ली। इस कथा का शीर्षक दिया गया है -बलि। सच मे उस हंसती खेलती और सलीकेदार हो चुकी लड़की की बलि ही है यह। बिना इच्छा उसे नोकरी में घकेला फिर सलीकेदार बन जाने पर वापस खींच कर उससे बेमेल लड़के बल्कि पुरूष से ब्याह दिया गया और पति के अत्याचार के बाद भी मा बाप यानि समाज ने कुछ न कहा बल्कि उसे जाने दिया । इस तरह की लाखों लड़कियों की बलि की कहानी है यह उपन्यासिका नुमा कहानी। जिसमें बहुत सारे डिटेल्न्स है, बहुत सारी भावनाऐं है, कुछ उपकथाएं भी हैं।
संग्रह की कहानी दस साल बाद, सम्मान, उल्टा पहाड़ भी स्वयं प्रकाश की अदभुम कहानी कला के बेजोड़ नमूने है। स्वयं प्रकाश के बारे में डॉ0 कमलाप्रसाद ने लिखा है-स्वयं प्रकाश मंे एक तड़प है। वह तड़प बार बार उन्हें ललकारती है। वह उन्हें रूप की सीमा से वस्तु की ओर ले जाती है। तड़पने, मचलने और लिखने की एसी बैचेनी आज की ठण्डी परिस्थितियों में कम मिलती है।’ परमानंद श्रीवास्तव ने लिखा है -‘ऐसे लेखक बहत कम बल्कि अपवाद सरीखे हैं जो अनुभव में विचारधारा और विचाराधारा में कला को मूूर्त कर सकें और जिनका विकास हर मोड़ पर अपनी नई पहचान बनाने वाला हो। स्वयं प्रकाश ऐसे ही लेखकों में से है जिन्होंने अमरकांत, ज्ञानरंजन और काशीनाथ सिंह के बाद अपनी अलग पहचान बनायी।’
स्वयं प्रकाश के चरित्र कोई अलौकिक, कृत्रिम दलित या कल्पित आम आदमी नहीं होते बल्कि समाज के आस पास से वास्तविक चरित्र होते हैं, जिनमें कोई खासियत, कोई गुण और सिद्धांत उन्हें साधारण से अलग कर देते हैं। इनके चरित्र पाठक के स्मृति में बस जाते हैं,जैसे रशीद का पाजामा का रशीद, अविनास मोटू कहानी का अविनास, बलि कहानी की लड़की, एक खूबसूरत घर कहानी की मम्मी आदि।
न केवल कहानी के चरित्रो ंबल्कि भाषा और संवाद को लेकर स्वयं प्रकाश बहुत सावधान लेखक हैं। उनकी भाषा एक जीवंत भाषा है, उदासी और बोरियत व ऊब उनकी कहानियों मे ंनाममात्र को नहंीहै। ऊब की स्थिति को भी वे कहानी भी वे बड़ी दिल्लगी से कहते हैं- एक खिलंदडीश्भाषा उनकी प्रत्येक कहानी में है इसतरह जबकि हिन्दी कहानी ‘वह’ ‘यह’ के सम्बोधन के साथ एक ऊब भरी भाषा में लिखी जा रही थी तब उनकी कहानियों की खासियत यह भाषा ही थी और हिन्दी कहानी को उनकी यह बड़ी देन है। कहानी के चरित्र और उसकी मूल संवेदना को जनतांत्रिक संदर्भ में ले जाने में स्वयं प्रकाश को महारत हासिल है। डॉ0 खगेन्द्र ठाकुर कहते हैं-स्वयं प्रकाश ने पूरी परंपरा को और उसके नये सन्दर्भ को भी जनतांत्रिक मूल्यों की नयी रोशनी में देखकर कहानी का नया बना दिया है।
इस संग्रह की अनेक कहानियों के केंद्र में हुये बिना भी स्त्री अपने पूरे सरोकारों के साथ आयी है यह स्वयं प्रकाश का निजी पेटर्न है, एक खूबसूरत घर की मम्मी और बलि की नायिका लड़की इसके सशक्त उदाहरण हैं। बिना किन्ही नारों और गहरे विमर्श के स्वयं प्रकाश स्त्री विमर्श पर गहरी बात करते हैं, नारेबाजी मंे नहीं, कहानी की भाषा में कहानी के विवरण हैं, चरित्रों में वे इस तरह का विमर्श प्रस्तुत करते हैं कि समाज का यथार्थ जो हमको नही दिखता उसे वे अंगुली के इशारे से दिखाने लगते हैं।
यह संग्रह स्वयं प्रकाश की बहुत सशक्त कहानियों का संग्रह है।