The Author Anju Kharbanda Follow Current Read मुस्कुराती वसीयत By Anju Kharbanda Hindi Moral Stories Share Facebook Twitter Whatsapp Featured Books Devil I Hate You - 8 अंश जानवी को देखने के लिए,,,,, अपने बिस्तर से उठ जानवी की तर... My Devil Hubby Rebirth Love - 55 अब आगे छिपकली सुन कर उस लड़की ने अपने हाथों की मुट्ठी गुस्से... तेरी मेरी यारी - 12 (अंतिम भाग) (12)मकान पर पहुँच कर संजय ने दरवाज़ा खटखटाया। रॉकी ने... मोमल : डायरी की गहराई - 38 पिछले भाग में हम ने देखा कि फीलिक्स ने खुद पर काबू तो कर लिय... Secret Billionair जंगलों के बीचों बीच बना एक सुनसान घर जिसके अंदर लाशों का ढेर... Categories Short Stories Spiritual Stories Fiction Stories Motivational Stories Classic Stories Children Stories Comedy stories Magazine Poems Travel stories Women Focused Drama Love Stories Detective stories Moral Stories Adventure Stories Human Science Philosophy Health Biography Cooking Recipe Letter Horror Stories Film Reviews Mythological Stories Book Reviews Thriller Science-Fiction Business Sports Animals Astrology Science Anything Crime Stories Share मुस्कुराती वसीयत (3) 1.4k 3.7k मुस्कुराती वसीयत सुरेश पाल जी को रात को अचानक हार्ट अटैक हुआ । छोटा भाई हरेश और पत्नी सुनयना रात के दो बजे उन्हें लेकर अस्पताल भागे । शहर के सबसे अच्छे अस्पताल में एडमिट करवाया जहाँ दुनिया भर की सुविधाएँ थी । फिर भी रात भर भाग दौड़ रही ।पम्मी घर बच्चों को सँभाले बैठी थी, पर बच्चे बार बार मम्मी पापा को याद कर रहे थे । सुबह होते होते ऑपरेशन हो गया । डॉक्टरों ने खूब तसल्ली दी, पर देर शाम तबियत ऐसी बिगड़ी कि सभी के होश उड़ गये । तकरीबन एक सप्ताह अस्पताल में ही बीत गया । अस्पताल से छुट्टी भी इसी शर्त पर मिली कि पेशेंट फुल बेड रेस्ट मिलना चाहिए । घर मानो अस्पताल ही बन गया । हरेश और पम्मी हर पल सुनयना के साथ खड़े रहे । जो अनब्याहे देवर व ननद उसे फूटी आँख न सुहाते आज वही दोनों सब सँभाले हैं । घर, बच्चे, दुनियादारी ... सब ! सुरेश जी ने ही पूरा फैमिली बिजनेस संभाला हुआ था । छोटा भाई हरेश शुरु से ही सीधा सा था । न उसे पढ़ाई में अधिक रुचि थी न दुनिया-जहान में । उसकी तो अपनी एक अलग ही दुनिया थी- ख्यालों की दुनिया! पिता तो बचपन में ही चल बसे थे । माँ जब तक रही उसे दुनिया की उंच-नीच समझाती रही । माँ सुरेश को हमेशा कहा करती "हरेश को कभी अकेला न छोड़ना बेटा! वह बहुत सरल है दुनियावी मोह माया से दूर नेक बच्चा है । हमेशा इसके साथ बने रहना ।" सुरेश जी ने सदा माँ की बात का मान रखा । हाँ अकेले बिजनेस संभालते संभालते कभी कभी हरेश पर बरस भी पड़ते "ख्यालों की दुनिया से निकल कम से कम ऑफिस तो आ जाया कर ! मैं अकेला सारा दिन पिसता हूँ!" बार बार कहने पर वह सप्ताह में दो तीन दिन बेमन से ऑफिस चला भी जाता तो भी डांट ही खाता । उसे ऑफिस के कामों की न तो समझ थी न रुचि । हाँ पम्मी जरुर सुरेश जी को पूरा स्पोर्ट करती । कॉलेज की पढ़ाई के साथ साथ बड़े भाई को पूरा सहयोग देती। उसकी बी ए पूरी होने वाली थी । जिस दिन कॉलेज न जाना होता उस दिन वह सुबह भाई के साथ ही ऑफिस निकल जाती और शाम को भाई के साथ ही वापिस आती । इससे उसका समय भी अच्छा कट जाता और बहुत कुछ सीखने को भी मिलता । सुनयना ने कई बार सुरेश जी से पम्मी की शादी का जिक्र किया । "शादी हो तो पिण्ड छूटे! कल को अपने बच्चों का भी तो सोचना है कि नहीं!" सुरेश जी ने भी कई बार पम्मी से इस बाबत बात की पर हर बार वह कोई न कोई बहाना लगा टाल जाती । "भैया अभी कुछ दिन और अपनी छाया में रहने दीजिये न! बचपन में ही पिता को खो दिया । मेरे लिये यो आप ही पिता है और आप ही बड़े भाई!" उसके विनम्र निवेदन के आगे सुरेश जी निरूत्तर हो जाते । पम्मी उन्हें क्या बतलाती कि किस कदर वह प्यार में चोट खाए बैठी है और अब शादी नाम के शब्द से भी उसे नफरत है । एक समय था जब वह मिक्की के साथ ब्याह के सपनों में खोई रहती । उसे लगता वह दुनिया की सबसे खुशनसीब लड़की है जो उसे मिक्की जैसे केयरिंग लड़का मिला है । मिक्की कॉलेज में भंवरों की तरह उसके इर्द-गिर्द मंडराता फिरता । उसे खुद की किस्मत पर तो रश्क होता ही, कॉलेज की बाकी लड़कियाँ भी उस पर रश्क करती । "हुँह ! ऐसा क्या है इसकी सांवली सूरत में जो मिक्की भँवरे की तरह डोलता फिरता है इसके चारों ओर!" "सुना था लंगूर के हाथ अंगूर! पर यहाँ तो बिलकुल ही उल्टा है!" कहकर सब ठठ्ठा कर हँस पड़ते । उन्हें यूँ जलता भुन देख पम्मी मिक्की की बाँह थाम मुस्कराती इठलाती हुई उनके आगे से निकल जाती । मिक्की के साथ जिन्दगी रोशन थी, खूबसूरत थी, बिंदास थी। पर ये खुशी स्थायी कहाँ थी भला । दो दिन से मिक्की कॉलेज नहीं आया । पम्मी ने दोस्तों से पता करने की कोशिश की पर किसी को कोई खबर न थी । बदहवासी में पम्मी को कुछ न सुझाई पड़ा तो उसके घर जाने का निश्चय किया । ये पहला अवसर था जब वह मिक्की के घर जा रही थी । मिक्की ने एक बार बातों बातों में घर का पता बताया तो था, उसी को रिकॉल करती हुई वह चल दी । मन में सौ सौ बुरे ख्याल आ रहे थे "हे भगवान! मिक्की की तबियत ठीक हो !" "उसके घर में सब कुशल मंगल हो!" "हे प्रभु ! सब अच्छा रखना !" "उसके माता पिता मुझे यूँ घर आया देखेंगे तो क्या सोचेंगे! मिक्की सब संभाल ही लेगा !" इसी उधेड़बुन में तंग गलियों को पार करती हुई वह एक छोटे से घर के बाहर जा पहुंची । इससे पहले कि वह दरवाज़ा खटखटाती, अंदर से आता बदबू का भभका उसके नथुनों से टकराया । पम्मी के कदम ठिठक गए । वह कुछ समझ पाती उससे पहले ही उनके कानों में आवाजें पड़ी "मोटा माल फंसाया है तूने गुरु!" "अरे न शक्ल न सूरत! क्या देख तू उस पर मर मिटा प्यारे!" ऊल-जलूल बातें सुन वह गुस्से से भुनभुना उठी, उसका जी चाहा दरवाजा खोल उन लड़कों को अच्छे से पीट दे । "अरे मेरी पम्मी के बारे में ऐसा मत बोल मेरे यार!" मिक्की की ये बात सुन उसने राहत की सांस ली । वह हिम्मत कर दरवाजा खोलने को आगे बढ़ी ही थी कि मिक्की की लड़खड़ाती हुई आवाज सुन रूक गई "शक्ल सूरत का अचार डालना है मुझे? मोटी पार्टी है वो मोटी पार्टी ! उसका एक भाई बीमार, दूसरा दिमाग से पैदल । देखना आने वाले समय में मैं ही बनूंगा मालिक उस ऑफिस का! फिर तुम सबको रोज दारू पिलाऊंगा!" "वाह गुरु! दूर की कौडी फिट की तूने! मानना पड़ेगा तुझे!" "सलाम हुजूर सलाम!" "हा हा हा हो हो हो !" सब नशे में झूमते लड़खड़ाते हुए चिल्लाने लगे । एक एक शब्द सीसे की भांति पम्मी के कानों में पड़ रहा था । उसका पूरा शरीर क्रोध और बेइज्जती की आग में जलने लगा। सपनों का महल पल भर में ध्वस्त हो सामने पड़ा था । क्रोधाग्नि से उसकी सांसे फूलने लगी । उसने दरवाजे को धक्का देने को हाथ उठाया ही था कि ऐसा लगा किसी ने उसका हाथ थाम लिया हो । "पागल हो ! इन कुत्तों के मुँह क्या लगना! इसने तो अपनी औकात दिखा दी अब तू खुद पर काबू रख और चल यहाँ से!" उसके दिल से आवाज आई। वह झटके से मुड़ी और तेज कदमों से वापिस लौट पड़ी । आज सपनों का एक दरवाजा झट से बन्द हो गया था। मन इतना अशांत था कि वह रात भर एक पल भी न सो पायी । सुबह उसे तेज बुखार था जिस कारण वह कई दिनों तक कॉलेज न गई और न ही अब जाने का विचार ही था। "उस कुत्ते मिक्की से सामना करना!" उफ्फ ! वह आगे न सोच पाती । उसने कॉलेज में लीव एप्लीकेशन भिजवा दी । प्रिसीपल सर और सुरेश जी अच्छे मित्र थे तो कोई खास परेशानी का सामना नहीं करना पड़ा । फायनल इयर तो था ही । पम्मी ने खुद को जैसे तैसे संभाला । अब जिंदगी में रह भी क्या गया था जो ध्यान भटकता! सुरेश जी की तबियत बिगड़ने के कारण वह रोज ऑफिस जाने लगी । सुनयना सुरेश जी को संभालती और हरेश बच्चों को! घर के मुखिया के बिस्तर पर पड़ते ही सभी की चलती-फिरती जिन्दगी रूक सी गई । महीना भर यूँ ही निकल गया पर सुरेश जी की तबियत में अधिक सुधार नहीं हो रहा था । परेशानियाँ बढ़ती जा रही थी । एक से एक अच्छे डॉक्टरों से बात की पर नतीजा शून्य । उनका स्वास्थ्य दिन प्रति दिन गिरता जा रहा था । सुनयना को को न घर की होश थी न बच्चों की। वह चौबीस घंटे पति के साथ बनी रहती । पति की ओर देखते हुए वह विचारों में खो गयी । उनकी शादी को केवल आठ बरस ही हुए थे पर इन आठ बरसों में सुरेश जी ने सुनयना को सिर आँखों पर बिठा कर रखा था । वह उम्र में उससे लगभग दस वर्ष बड़े थे लेकिन स्वभाव से बेहद रोमांटिक! दोनों ने कभी भी उम्र का फासला महसूस नहीं किया था । बचपन में ही पिता का साया सिर से उठने के कारण सुरेश जी वक्त से पहले ही जिम्मेदारियों से घिर गए थे लेकिन सुनयना जैसी खूबसूरत पत्नी पा वह खो गए एक एक पल को जीना चाहते थे । सुनयना भी उनके साथ बेहद खुश थी बस कभी कभी हरेश और पम्मी को लेकर दोनों में तकरार हो जाती जिस पर सुरेश जी भी कभी कभी उखड़ जाते । और आज वही दोनों ही सुनयना का साया बन पल पल साथ थे । रिश्ते नातेदार तो आते और फ़ॉरमेलिटी पूरी कर चले जाते । सात वर्षीय पूरब और पांच वर्षीय पल्लवी को बुआ और चाचा ने ही पूरी तरह से संभाला हुआ था । सुनयना सुरेश जी के पास पड़ी कुर्सी पर बैठे-बैठे अतीत में खो गई । अचानक खांसने की आवाज से सुरेश जी की ओर लपकी! जब तक डॉक्टर को फोन करते सुरेश जी जिन्दगी की डोर छोड़ चुके थे । घर भ्र में कोहराम मच गया । सुनयना तो जैसे पगला सी गई । पम्मी और हरेश बुरी तरह टूट चुके थे पर सुनयना और बच्चों की खातिर उन्होंने अपने आँसू जब्त कर लिये । सुनयना पति की असमय मौत के कारण टूट सी गई, बेहाल कटी पतंग सी पड़ी रहती । बच्चे पास जाते तो दुत्कार देती । डरे सहमे बच्चे माँ को इस हालत में देख बौखला जाते तो पम्मी बच्चों को अपनी गोद में दुबका लेती और प्यार से समझाने की कोशिश करती । तेहरवीं तक रिश्तेदारों, दोस्तों, जान पहचान वालों का तांता लगा रहा । फिर वही अकेलापन वही उदासी व्ही तन्हाई । एक एक दिन पहाड़ सा प्रतीत हो रहा था । बच्चे अपना बचपना भूल गये । बच्चों के शोर से गूँजता घर एकदम वीरान हो गया । सुरेश जी इस घर की धुरी थे जिससे सभी आपस में बँधे हुए थे । रहने को तो अभी भी एक ही घर में रह रहे थे पर सभी अपने अपने में गुम! हँसते खेलते परिवार को किसी की नजर ही लग गई थी जैसे । आज एक महीना हो गया था सुरेश जी को गुजरे । जिन्दगी की गाड़ी अपनी पटरी से कोसों दूर थी । सुनयना के माता पिता अक्सर मिलने आ जाया करते । आज आए तो हरेश और पम्मी के सामने अपनी बेटी को अपने घर ले जाने की पेशकश रखी "रो रोकर बुरा हाल हो गया है इसका । हमारे साथ जाएगी तो मन कुछ बदल जाएगा ।" नाना नानी की बात सुन बच्चे बुआ की गोद में दुबक गए । अब बुआ ही तो उनके लिये माँ बन गई थी। हरेश भी सिर नीचे झुकाए बैठा रहा । पम्मी को भी कोई जवाब न सुझाई पड़ा । अकस्मात सुनयना जोर जोर से चिल्लाने लगी "नहीं! ये मेरा घर है मैं कहीं नहीं जाऊंगी । " "बेटा! समझने की कोशिश करो ! थोड़ा जी बहल जाएगा!" पिता ने स्नेहपूर्वक उसके सिर पर हाथ रखते हुए तो वह बिलखते हुए उनसे लिपट गई । "नहीं पापा! मुझे कहीं नहीं जाना!" "अच्छा जैसा मेरी बेटी को ठीक लगे ।" कहकर माता पिता उसे गले मिल चले गये । वक्त कभी रूका है जो अभी रुकता । दिन बीत रहे थे पर कैसे! हर कोई दर्द के समंदर में डूबा था । बच्चों की परीक्षा सिर पर थी । हरेश अपनी तरफ से कोशिश तो करता उन्हें पढ़ाने पर उसे ज्यादा कुछ समझ न आता । संकोची स्वभाव होने के कारण उसने सुनयना से कभी भी ज्यादा बात न की थी । ये झिझक अभी भी बरकरार थी । एक दिन उसने हिम्मत कर कहा "भाभी! बच्चों की पढ़ाई का बहुत नुक्सान हो रहा है, थोड़ा समय उन्हें दीजिए । मैं कोशिश तो करता हूँ पर मुझसे होता नहीं ।" सुनयना ने अचकचा कर हरेश की ओर देखा और हल्का सा सिर हिला दिया । हरेश ने राहत की साँस ली । उसी शाम सुनयना ने इतने दिनों बाद बच्चों को अपने पास बिठाया । खूब प्यार किया पुचकारा। बहने को आतुर आँसुओ और दिल पर उसने पत्थर रख दिया । इस बीच हरेश बच्चों के लिये दूध गर्म करके ले आया । सुनयना ने कृतज्ञता पूर्ण नजरों से उसकी ओर देखा । चाय बनाऊं! नहीं रहने दो! मैं बनाती हूँ । आप बच्चों को पढ़ाइए! पहले ही इनकी पढ़ाई का काफी हर्जा हो गया है । कहकर हरेश रसोई की ओर बढ़ गया । जिन्दगी धीरे-धीरे दिशा पकडने लगी । पम्मी को ऑफिस संभालता देख सुनयना निश्चिंत थी। वही पम्मी जिससे कभी वह अपना पिण्ड छुड़ाने के लिये उतावली हुई फिरती थी उसी पम्मी के बिना रहने का अब वह सोच भी पाती । पम्मी शाम को घर आ उसे ऑफिस के पूरे दिन की बातें बताती और कोई भी निर्णय लेने से पहले उससे सलाह मशवरा जरूर करती । एक बार ऑफिस में देर रात हुए शॉर्ट सर्किट से चौकीदार को कुछ और न सुझाई दिया तो वह हड़बड़ाहट में ऑफिस के पास ही रहने वाले ऑफिस इंचार्ज अनिल के घर की ओर लपका । अनिल और चौकीदार रामसिंह की सूझ बूझ से काफी नुकसान होने से बच गया । सुबह पाँच बजे पम्मी को सूचित किया गया तो वह बदहवास सी ऑफिस पहुंची । तब रामसिंह ने उसे पूरी बात बताई । अब अनिल कहाँ हैं? जी उस कमरे में! पम्मी कृतज्ञता व्यक्त करने के लिये कमरे की ओर दौड़ी । रामसिंह भी साथ हो लिया । अनिल थकान से चूर एक टेबल पर सिर रखे पस्त हुआ बैठा था । उसकी कमीज कई जगह से फट चुकी थी । कोहनी से खून भी रिस रहा था। उसे आहट सुनाई दी तो वह कराहते हुए बोला रामसिंह एक गिलास पानी ला दो। रामसिंह पानी लेने को मुड़ा पर पम्मी ने इशारे से उसे रोक दिया और खुद पानी का गिलास ले अनिल के पास आई- अनिल ! पानी पी लो और फिर मेरे साथ अस्पताल चलो । पम्मी की आवाज सुन अनिल ने झटके से उठने की कोशिश की तो लड़खड़ा गया । रामसिंह और पम्मी ने उसे संभाला । कुर्सी पर बिठाया । पम्मी ने अपने हाथों से उसे पानी पिलाया और फिर कंधे का सहारा देते हुए अस्पताल ले गयी । अनिल को इन्जेक्शन लगवा, दवा दिलवा घर तक छोड़ा । अनिल के घर पर ताला देख पता चला कि अनिल अकेला ही रहता है तो पम्मी को उसकी चिंता हुई । अनिल को बिस्तर पर लिटा पम्मी घर आई । सुबह से भागम-भाग में वह भी थक गई थी । नहा धोकर अनिल और अपने लिये खाना पैक किया और उसे देते हुए ऑफिस आ गई । शाम को वह फिर अनिल के घर गई । कुछ देर बैठी । उसके घर पर ही चाय बनाई । खुद भी पी उसे भी पिलायी । चाय के दौरान हल्की फुल्की बातचीत चलती रही । कुछ देर बाद अपना ध्यान रखना की हिदायत के साथ लौट आई और रात का खाना हरेश के हाथ भिजवा दिया । उस रात वह अनिल के बारे में ही सोचती रही । उसका सरल व्यवहार उसकी सादगी उसका शर्मिलापन! अचानक वह मिक्की और अनिल की तुलना करने लगी। मिक्की का दोगलापन और अनिल की मासूमियत... कितना कुछ सोचते सोचते रात यूं ही आँखों में कट गई । अगली सुबह वह नाश्ता ले अनिल के घर पर थी । अनिल पजामा बनियान में ही था । सुबह सुबह अचानक पम्मी को आया देख अनिल सकुचा गया तो पम्मी को हँसी आ गई । ये लो नाश्ता! गर्म गर्म ही है, अभी खा लो । और हाँ खाली पेट दवा बिलकुल न खाना । उसने स्नेहपूर्वक अधिकार से कहा तो अनिल ने मुस्कुरा कर नजरें झुका लीं । चलो शाम को मिलते हैं अभी ऑफिस के लिये देर हो रही है । अनिल के चेहरे पर आए भावों ने पम्मी का मन मोह लिया। तीन दिन बाद अनिल ऑफिस आने लगा । अब पम्मी ने रूटीन बना ली कि ऑफिस के लिये टिफिन पैक करते हुए वह दो टिफिन पैक करती, एक अपने लिये और एक अनिल के लिये! शायद जिन्दगी ने खुशियों के द्वार फिर से पम्मी के लिये खोल दिये थे । मिक्की से प्यार में धोखा और बड़े भाई के जाने के बाद पम्मी ने जैसे तैसे खुद को घर ऑफिस में उलझा लिया था पर उसका तन्हा मन रात की तन्हाइयों में अक्सर फूट फूट कर रो पड़ता । अनिल रूपी मरहम से उसके सूने जीवन के घाव जैसे भरने लगे थे । फागुन के मनभावन रंग अब फिज़ाओं में बिखरने लगे थे और पम्मी उनमें रंगने को तन मन से तैयार थी । हरेश भी अब सुनयना से थोड़ी बहुत बातचीत करने लगा था । सुनयना अपनी छोटी सोच पर शर्मिन्दा थी पर हरेश और पम्मी ने कभी भी ऐसा नहीं जतलाया । एक रविवार को सुनयना के माता पिता घर आए। सुनयना को हँसता बोलता देख उन्हें खुशी हुई । लंच की टेबल पर उन्होंने आज आने का मकसद बताया तो सभी चौंक गए । "सुनयना बेटा! साल भर होने को आया सुरेश जी को गुजरे । अब तुझे अपने बारे में भी सोचना चाहिए आखिर पूरी जिन्दगी यूँ अकेले तो नहीं कट सकती न!" सुनयना का चेहरा गुस्से से लाल हो गया । "मम्मा पापा आपको पहले भी कह चुकी हूँ मैं यहाँ से कहीं नहीं जाऊंगी । मेरा घर मेरे बच्चे ही अब मेरी सबसे बड़ी पूंजी हैं और यही मेरी खुशी ।" "बेटा कल को पम्मी की शादी हो जाएगी और ये हरेश... इसे तो वैसे भी दुनियादारी की समझ नहीं!" "मम्मा आप जिनके बारे में बात कर रही है न! उन दोंनो ने ही मुझे और बच्चों को संभाला । उनके जाने के बाद भी उनकी तरह ही मुझे सिर आँखों पर बिठा कर रखा ।" "पर बेटा ..बच्चे अभी छोटे है और तेरे आगे पूरी जिन्दगी...!" "पापा अच्छा होगा अगर इस विषय को यहीं खत्म कर दिया जाए । और सबसे बड़ी बात! मेरे बच्चे यहाँ खुश हैं तो मैं भी यहीं खुश हूँ ।" सुनयना ने दो टूक फैसला सुनाते हुए कहा । "बेटा मैं तो वकील से भी बात करके आया हूँ । साथ ही साथ वसीयत भी हो जाती तो अच्छा होता! " पम्मी उनकी बात सुन अलमारी से एक फाइल निकाल लायी और बोली "अंकल जी भैया हमारे लिये बहुत कुछ छोड़ कर गए है और वसीयत भी उन्होंने माँ के रहते ही बना दी थी। रही बात शादी की तो भाभी चाहे तो हरेश भैया से...!" "हरेश से ! जिसे खुद कोई समझ नहीं वह मेरी बेटी का क्या ख्याल रखेगा ?" "पापा! यही ख्याल रखते हैं मेरा दिन भर और साथ ही साथ बच्चों का भी । " हरेश ने चौंक कर सुनयना की ओर देखा। सुनयना पल भर को सकपका गई । "पहली बात मेरा दुबारा शादी का कोई इरादा नहीं और कभी इरादा बना भी तो...! बच्चों के पिता के रुप में सिर्फ हरेश ही होंगे ।" पम्मी ने मुस्कुरा कर फाईल की ओर देखा! वसीयत के कागज भी जलील होने और अदालतों की ठोकरें खाने से बच जाने पर मुस्कुरा दिये। अंजू खरबंदा Download Our App