व्यंग्य
डॉक्टर कवि की अनोठी शल्य क्रिया’
रामगोपाल भावुक
अश्वनी मास की धूप, गाँव में सफाई की कमी, मच्छरों का प्रकोप से लोग बीमार पड़ने लगे।
मुझे भी मलेरिया हो गया। पापा के साथ सरकारी अस्पताल के चार-छह चक्कर लगये, लेकिन डॉक्टर साहब नदारत। गाँव के नीम-हकीम डॉक्टर से सात दिन से दवायें ले रही हूँ, बीमारी घटने बजाय बढ़ रही हैं।
मेरे स्वास्थ की बिगडती स्थिति देखकर मम्मी, पापा जी से बोलीं-‘‘इसे तो शहर के वयोवृद्ध चिकित्सक केतकर जी को दिखाकर लाओ।‘‘
पापा बोले ‘‘सुगन्धा, चल उठ, आज ही उन्हें दिखा लाता हूँ ।’
यह कहकर उन्होंने भैया के दहेज में मिली बाइक निकाली, उस पर जमीं धूल झाड़ी और बोले- ‘‘समधी ने ऐसी रद्दी बाइक पकड़ा दी है कि यह इतना अधिक पेट्रोल खाती है कि पैसे का भोर हो रहा है।‘‘
मुझे लगा- अच्छा है जब पापा मुझे बाइक देंगे तो ऐसी देंगे जो पेट्रोल कम खाती हो ।
हम डॉ0 केतकर के यहाँ जा पहुँचे, वहाँ ग्रामीण मरीजों की भीड़ थी । डाँक्टर साहब का स्वभाव एक व्यंग्य कवि जैसा है। वे मरीजों के इलाज के साथ-साथ व्यवस्था की शल्य क्रिया भी करते जाते हैं। उन्हें जिससे जो कहना है उससे वे कहे बिना नहीं चूकते। उनके अस्पताल में मरीजों के लिये टेविलें, बैंचंे तथा कुर्सियाँ पड़ी हैं, जिन पर मरीज कब्जा किये बैठे हैं। डॉक्टर साहब को ज्ञात है कौन किसके बाद यहाँ आया है? उसी क्रम से वे उन्हें अपनी टेविल पर बुलाते जा रहे हैं।
एक मरीज ने उन्हें दिखाने की जल्दी की और वह उनकी टेबिल पर जाकर लेट गया। उन्हें क्रम तोड़ना पसन्द नहीं था, वे उससे बोले- ‘‘क्या बात है? घर की बड़ी जल्दी है। क्या गौना कराके लाये हो?‘‘
उस मरीज ने उत्तर दिया- ‘‘गौने को तो चार साल हो गये।‘‘
‘‘तो जल्दी क्यों पड़ी है?‘‘
वह बोला-‘‘मैं पुलिस में हूँ , ड्यूटी पर जल्दी पहुँचना है।‘‘
डॉक्टर साहब ने उसके चेहरे के भाव पढ़ते हुये पूछा- ‘‘तुम दरोगा बन पाये कि नहीं?‘‘
‘‘अरे नहीं साहब! अभी भी सिपाई ही हूँ।‘‘
डॉक्टर साहब बोले-‘‘मैं समझ गया, तुमने झूठा एनकाउण्टर नहीं दिखा पाया होगा।‘‘
वह बोला- ‘‘एक बार मौका तो लगा लेकिन टी0आई0 ने उसे अपने नाम लिख लिया। उस पर उन्हें राष्ट्रपति पुरस्कार भी मिला।
‘‘............और तुम्हें।‘‘
‘‘उन्होंने मुझे तो खूब शाबासी ही दी।‘‘
‘‘खैर छोड़ो, अब यह बताओ तुम्हें बीमारी क्या है?
‘‘मुझे रात में नींद नहीं आती।‘‘
‘‘अरे!दीवान जी, प्रमोशन की चिन्ता छोड़ो, यही तुम्हारी दवा है।
अब डॉक्टर साहब अगले मरीज की नब्ज देखकर पर्चा लिखते हुये बोले- ‘‘रे तू बड़ा इश्क बाज है। टी0वी0 हो गई, दवा लम्बी चलेगी। अच्छा होना हो तो शक्ति इश्क में खर्च मत कर।‘‘
वे टेबिल पर लेटी औरत के पेट पर हाथ रखते हुये बोले-‘‘कितने बच्चे हो गये?
‘‘चार लड़कीं हैं।‘‘
‘‘तो अब क्यों पैदा करने में लगे हो? अरे! जमाना बदल गया। लड़का -लड़की एक समान हैं।’
वह बाली-‘ यह बात तो इनसे कहें।’
डॉक्टर साहब उसके पति से बोले-‘ क्यों इसके प्राण लेने पर उतारू है, यह भी लड़की ही हो गई तो। भैया, अब आने वाले को आने दो।‘‘
वे एक बुढ़िया की नब्ज देखते हुये बोले-‘‘मैया, तेरी जीभ जरा ज्यादा चलतै। बहू से लड़ तो नहीं पड़ती।‘‘
यह सुनकर वह बोली- ‘‘अरे डॉक्टर साहब! मेरी बहू बड़ी खराब है, बाकी मताई छू-छक्का जानतै। मोय तो जों लगतै, कहूँ मोय दिनाई (तांत्रिक प्रयोग) तो नाने।‘‘
‘‘मुझे तो यह बात नहीं लगती। देख मैया, अपनी जीभ पर कन्ट्रोल कर।‘‘ यह कहते हुये वे उसे दवा का पर्चा लिख चुके।
एक शिक्षक जी कुर्सी पर बैठे-बैठे ऊँघ रहे थे। डॉक्टर साहब ने उन्हें बुला कर पूछा-‘‘कहो गुरू जी कैसे ऊँघ रहे थे! क्या क्लास में नहीं सो पाये?‘‘
उन्होंने उत्तर दिया-‘‘यह बात नहीं है। जब मैं कक्षा में जाता हूँ तो मन लगाकर पढ़ाता हूँ। यदि कक्षा में नहीं जाता तो हमारा हैड मास्टर भी मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकता, फिर कक्षा में जाओ चाहे मत जाओ, गाँव के सरपंच को वेतन में से कुछ हिस्सा देकर पटाये रखो।‘‘
डॉक्टर सहाब बोले- ‘‘पढ़ाई-लिखाई तो हो गई चौपट! अब तुम्हें तो मध्याह्न भोजन के चक्कर में लगा रहना पड़ता होगा।‘‘
‘‘जी साहब, लड़के सुबह से पढ़ने तो नहीं आते लेकिन भोजन की घण्टी बजी कि अपने खेतों में से काम छोड़कर भोजन करने जरूर आ जाते हैं। मताई-बाप के जानें तो मोड़ा-मोड़ी पढ़े चाहें न पढ़ें, बस पास हो जायें। जिससे उनकी सगाई ब्याह हो जायें।‘‘
यह सुनते हुये वे सुघरसिंह पटवारी की नब्ज देखते हुये बोले-‘‘अब पटवारीगिरी में पहले जैसा धंधा नहीं रहा?‘‘
पटवारी ने बात आगे बढ़ाई- ‘‘आदमी थोड़ा बहुत पढ़-लिख क्या गया, सुसरा बहुत चतुर हो गया है!‘‘
‘‘पटवारी, तुम तो खुद ही चतुर आदमी हो। आदमी देखकर पहचान लेते होगे कि कौन किस मर्ज का है। ‘‘
वह शान में तनते हुये बोला-‘‘सो तो मैं अच्छे-अच्छों को चरा देता हूँ। कल अपने विधायक जी का एक चमचा आकर मुझे धौंस देने लगा। मैं समझ गया जो कुछ मैं थोड़ा बहुत कमा लेता हूँ, उसमें से इसे भी कुछ चाहिये। मैंने तो कह दिया-‘‘यहाँ नहीं तो कहीं और सही, वे पटवारी से चपरासी तो बना नहीं देंगे।‘‘
डॉक्टर सहाब ने निर्णय सुनाया-‘‘लेने-देने के धन्धे में तुम माहिर हो गये हो, मेरा कहना है गरीबों की आह से बचो।‘‘
इसी समय कुछ लोग एक नेता जी को लेकर अस्पताल में आ धमके। नेता जी के चमचों ने डॉक्टर साहब से निवेदन किया- ‘‘हमारे नेता जी शख्त बीमार हैं। पहले उन्हें देख लें।‘‘
डॉक्टर साहब मन ही मन बड़बड़ाये- पहले इनका इलाज करना ही पड़ेगा। जिससे उनके साथ आई भीड़ छँट जायेगी। डॉक्टर साहब ने नेता जी के पेट पर हाथ रखते हुये कहा- ‘‘इन्हें तो ग्वालियर के बड़े अस्पताल में दिखाओ... भर्ती करना पड़ेगा। अब वे उनका पेट दबादबा कर देखते हुये व्यंग्य कवि की भाषा में बोले- ‘‘कितना खा गए! इतना मत खाओ कि पेट ही फट जाये। जैसा खाओगे वैसा ऊपर उतरायेगा।’’
वे अपनी नर्स से बोले, ‘‘इनको नम्बर 6 व नम्बर 8 वाले दो इंजेक्शन लगा दो।‘‘
इन्जेक्शन की बात पर नेताजी के सभी साथियों के चेहरे बनावटी दुःख से लटक गये। नर्स ने बड़े संभलकर इन्जैक्शन लगाया। नेताजी चीखे- ‘‘अरे! मर गया ऽऽ।‘‘
कुछ लोगों ने नर्स पर बनावटी गुस्सा उतारा-‘‘तुझे इन्जैक्शन लगाना नहीं आता।‘‘
डॉक्टर साहब ने उनकी यह बात सुन ली तो वे मुड़कर बोले- ‘‘नेताजी पर पैसे की कमी तो है ही नहीं, इन्हें तो सहारा नर्सिंग होम में भर्ती कराते।‘‘
फिर उन्होंने इधर-उधर दृष्टि घुमाते हुये पूछा-‘‘सुना है नेता जी तो किसी कॉपरेटिव बैंक के अध्यक्ष हैं।‘‘
कोई बोला- ‘‘जी ऽऽ।‘‘
‘‘भैया, कहीं ये सारा का सारा मिट्टी का तेल तो नहीं पी गये।‘‘
दूसरे की आवाज सुन पड़ी- ‘‘ये डॉक्टर साहब तो सठिया गये हैं।‘‘
यह सुनकर डॉक्टर साहब चिल्लाये- ‘‘मेरी समझ में यह नहीं आता कि इस बूढ़े डॉक्टर के पास आने की क्या जरूरत है? यह तो गरीबों का अस्पताल है। खैर, अब तुम यह बताओ इन्हें और क्या तकलीफ है?‘‘
नेता जी के साथ आई उनकी पत्नी ने आगे बढ़कर कहा- ‘‘मुझे तो लगता है कि इन्हें किसी ने कुछ खिला-पिला तो नहीं दिया।‘‘
यह सुनकर डॉक्टर साहब ने उनका गहराई से परीक्षण किया और बोले- ‘‘इन्हें कोई क्या खिला पाता? वह तो इन्हें जो कुछ मिला, इन्होंने उसे खुद ही डकारा है। अरे जितना पचे उतना ही खाओ! नाज पराया है तो क्या पेट भी पराया है?‘‘
डॉक्टर साहब नेताजी की नब्ज देखकर बोले-‘‘ये तो पैसे वाले हैं। मैं जाँचें लिखे देता हॅूं । इनके सभी टेस्ट करवा लें, पता चल जायेगा इन्हें क्या बीमारी है? दो चार हजार रुपये की तो यहाँ कोई बात ही नहीं है।‘‘
उनकी पत्नी बोलीं- ‘‘पैसा तो सब राम जी की कृपा है। हाथ का मैल है... इन्हें कष्ट नहीं सहा जात। ये तो जल्दी से ठीक हो जायें।
वे बोले-‘‘इनके खाने में चिकनाई बन्द कर दो। यह जो पेट बढ़ रहा है, इसको घटाओ ऽऽ।‘‘
फिर उन्होंने नेता जी से मुस्कराते हुये पूछा ‘‘.......और जी, तुम्हारी दिल्ली के क्या हालचाल हैं?‘‘
यह सुनकर नेताजी के चेहरे पद चमक आ गई। वे ऐसे बोले जैसे उन्हें अब कोई बीमारी ही नहीं है- ‘‘डॉक्टर साहब, हमारे प्रधानमंत्री तो आतंकवादियों के साथ हर तरह से सख्ती से निपटने को तैयार हैं। विरोधी नेता सर्जिकल स्ट्राइक एवं कैशलेश व्यवस्था पर ही सन्देह कर रहे हैं। सारा देश तो जाग गया किन्तु विरोधी नेताओं को यह बात पच नहीं रही है।
यह कहते हुये वे मेरे पास आकर मसक-मसक कर मेरा पेट देखने लगे। मुझे लगा- ये जाने क्या कहने वाले हैं?
तभी उनके शब्द सुनाई पड़े- ‘‘ अभी तक इसे इतनी दवा दे दीं गई हैं कि अब इसे दवाओं की जरूरत ही नहीं है।’’ अब वे मेरे पिता जी की ओर मुखातिव होते हुए बोले-‘ बिटिया पढ़ी-लिखी है, सोचती अधिक है, इसका ब्याह हुआ सोई मुटा जायेगी।‘‘
मैं समझ गई। मेरे ब्याह की उम्र निकल रही है, मैं सत्ताइस की हो गई। उन्होंने मेरे पिताजी का ध्यान आकृष्ट किया है कि इसके ब्याह की भी चिन्ता करो। कोई दूसरा इनसे यह कहता तो पिताजी उससे लड़ ही पड़ते। पिताजी, मुफ्त का लड़का चाहते हैं । दहेज की बात आते ही उन्हें उसमें अवगुण दिखाई देने लगते हैं।
डॉक्टर साहब की बात सुनकर, पापा खिसिया गये, बोले ‘‘ सुगन्धा ! उठ चल। ‘‘
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