Journey to the center of the earth - 15 in Hindi Adventure Stories by Abhilekh Dwivedi books and stories PDF | पृथ्वी के केंद्र तक का सफर - 15

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पृथ्वी के केंद्र तक का सफर - 15

चैप्टर 15

नीचे उतरना जारी रहा।

अगले दिन, सुबह 8 बजे, भोर जैसे दिन ने हमें जगाया। अंदर रोशनी छन कर ऐसे आ रही थी जैसे किसी प्रिज्म से हज़ार रोशनियाँ फुट रहीं हों।
हमें सबकुछ साफ और आसानी से दिख रहा था।
"तो, हैरी मेरे बच्चे," प्रोफ़ेसर ने उत्साहित होते हुए अपने हाथों को सहलाते हुए कहा, "तुम्हें क्या कहना है? तुमने कभी कोनिग्स्टर्स के हमारे घर में इतनी शान्त रात बितायी थी? ना किसी गाड़ी के पहियों का शोर, ना फेरीवालों की चीखें, ना नाविकों या कहारों के अपशब्द!"
"मौसाजी, जैसा कि अभी हम सब इतने नीचे हैं, लेकिन मुझे इस शान्ति में भय दिख रहा है।"
"क्यों?" प्रोफ़ेसर ने तुनकते हुए कहा, "लगता है तुम अभी से डर रहे हो। आगे कैसे बढोगे? तुम्हें पता है अभी हमने गहरायी का एक इन्च भी नहीं छुआ है।"
"क्या बात कर रहे हैं?" मैंने हतप्रभ होते हुए पूछा।
"मैं ये कहना चाह रहा हूँ कि अभी हमने इस द्वीप के ज़मीन को छुआ है। स्नेफल्स के खोह में उतरने के बाद से अभी तक जहाँ हम पहुँचे हैं, वो समुद्र तल से पहला स्तर है।"
"क्या, आप सही कह रहे हैं?"
"बिल्कुल। बैरोमीटर से परख लो।"
बात एकदम सही थी क्योंकि नीचे उतरने के दौरान मापक पारा 29 डिग्री पर जाकर रुक गया था।
"देखा तुमने," प्रोफ़ेसर ने कहा, "अब हमें हवा में दबाव को सहना होगा। मैं बैरोमीटर की जगह मैनोमीटर का इस्तेमाल करूँगा।"
अब बैरोमीटर वैसे भी किसी काम का नहीं था। समुद्र तल से नीचे हवा के दबाव में वो बेकाम का हो चुका था।
"लेकिन," मैंने कहा, "इससे इस बात का भी तो डर है कि इस दबाव के बढ़ते रहना, हमारे लिए दुखदायी और असहाय हो जाए?"
"नहीं," उन्होंने कहा, "हम नीचे उतरेंगे बहुत ही धीरे जिससे कि हमारे फेफड़े ऐसे हवाओं में साँस लेने के लिए अभ्यस्त हो सकें। सभी जानते हैं कि अंतरिक्ष यात्रियों वहाँ तक पहुँचे थे जहाँ हवा भी नहीं थी, हमारे पास जितना भी है क्यों ना उसी के अभ्यस्त हो जाएँ? मुझे तो यकीन है मैं इसे निभा लूँगा। अब हमें समय बर्बाद नहीं करना चाहिए। वो गट्ठर कहाँ है जिसे सबसे पहले उतारा गया था?"
मैंने मुस्कुराते हुए मौसाजी को इशारे से बता दिया। हैन्स ने शायद देखा नहीं था, उसे लगा कहीं और है और उसने जो अपनी भाषा में कहा वो हमारे सिर के ऊपर से निकल गया।
"अब," मौसाजी ने कहा, "हमें नाश्ता कर लेना चाहिए और इस तरीके से करो जैसे सारा दिन काम करना है।"
बिस्कुट, सूखे माँस और पीने के लिए पानी में शयिदम के स्वाद वाला पेय, यही हमारा राजसी भोजन था।
जैसे ही ये सब पूरा हुआ, मौसाजी ने अपने जेब से एक नोटबुक निकाल कर उसपर यात्रा सम्बंधित ज्ञापन लिखने लगे। उन्होंने सारे यंत्रों को व्यवस्थित कर ये लिखा:
सोमवार, जून 6
क्रोनोमीटर, 8 बजकर 17 मिनट, सुबह
बैरोमीटर, 29.6 इंच
थर्मामीटर, 6 डिग्री
दिशा, पूर्वोत्तर दक्षिणी पूर्व
ये सारी जानकारी इस अस्पष्ट गलियारे के लिए थी जो हमें चुम्बकीय दिशा-सूचक यंत्र से मिला था।
"सुनो हैरी," प्रोफ़ेसर ने उत्साहित स्वर में कहा, "जबसे पृथ्वी बनी है और जहाँ आजतक किसी इंसान ने कदम नहीं रखा, हम उसी पृथ्वी की गहरायी में उतरने जा रहे हैं। इसलिए ये समझ लो कि असल में, अब हमारी यात्रा शुरू हो रही है।"
मौसाजी ने जैसे ही अपनी बात पूरी की, उन्होंने एक हाथ में रुह्मकोर्फ़ के यन्त्र को सम्भाला और दूसरे हाथ में पकड़े हुए दिए कि लौ में उसी यन्त्र के विद्युत से रोशनी कर दी। और वो गहरा उदास सुरंग रोशनी से जगमगा उठा।
इसका असर जादुई था।
हैन्स ने भी अपने उपकरण का इसी तरह इस्तेमाल किया। ये विद्युत वितरण की अभूतपूर्व क्रिया से हमे आगे बढ़ने में भी आसानी हुई और खतरनाक ज्वलनशील गैस से भी बच गए थे।
"चलो!" मौसाजी ने चीखा। सबने अपना गट्ठर सम्भाल लिया था। पहले हैन्स, फिर मौसाजी और उनके पीछे मैं, और तीनों उस अंधकारमय गलियारे में दाखिल हो गए।
अभी उस विषादग्रस्त रास्ते में खोने से पहले मैंने सिर ऊपर उठा कर उस आइसलैंड के पट्टीनुमा बादल को देखा जिसे शायद फिर देखने का मौका ना मिले।
क्या मैं इसे अन्तिम बार देख रहा हूँ?
1219 में जो लावा का बहाव था उसके दबाव ने इस सुरंग को वो रास्ता बना दिया था। अंदर हर कहीं उसके परत मजबूती से जमे हुए थे। इस विद्युतीय प्रकाश से सबका असर साफ दिख रहा था।
हमारे सफर की मुश्किलें अब शुरू होने वाली थीं। इन सपाट से एकदम खड़ी चढ़ाई वाले रास्तों पर फिसलने से कैसे बचेंगे? खैर था कि कहीं दरार, कहीं खुरदुरापन और उबड़ खाबड़ परतों से पैर रखने के लिए जगह बने थे। हम धीरे-धीरे उतर रहे थे लेकिन हमारे सामान फिसलकर जल्दी पहुँचने में थे, हालाँकि लम्बी रस्सी से बंधे थे।
लेकिन जो हमारे लिए सीढ़ी बने थे वही कुछ जगहों पर पथरीले निक्षेप बने हुए थे। जमे हुए लावा रूपी पत्थरों में इतने बड़े छिद्र थे जो किसी फफोले जैसे लगते थे। स्फटिक रूपी पत्थरों पर प्राकृतिक पारदर्शी बूंदें थीं जो छत से चमक के साथ टपक रहे थे, पास से देखने पर लगा वो अभी जल उठेंगे। किसने सोचा होगा कि हम इंसानों के लिए यहाँ कोई जिन्न दिया जला रहा होगा।
"बेमिसाल, अद्वितीय!" मैं खुद के उत्साह में ज़ोर से चीख पड़ा, "मौसाजी, क्या नज़ारा है! क्या आप इन लावा से प्रभावित नहीं जो किसी ताप की मात्रा से अनभिज्ञ होकर भी ऐसे रंगे हुए हैं, जो लालिमा रंग से लेकर मटमैले रंग तक फैले हैं? ये चमकदार टुकड़े जो किसी उदीप्त पिंड जैसे हैं!"
"ये सब तो सफर के शुरुआत में है मास्टर हैरी," मौसाजी ने कहा। "आगे बढ़ने पर और देखना। अभी कुछ नहीं मिला है, आगे मेरे बच्चे, आगे देखो!"
अगर वो सिर्फ इतना कह देते कि, "चलो और फिसलते हैं" तो ज़्यादा सही रहता क्योंकि आगे रास्ता अभी भी वैसा ही था। कम्पास ने बताया कि हम दक्षिणी-पुर्व दिशा में जा रहे हैं। लावा का जो बहाव था वो कभी दाएँ या बाएँ नहीं हुआ था। वो सख्ती से एक सीधी कतार में बहा था।
शायद इसलिए हमें किसी उमस और ताप का पता नहीं चला। इससे हम्फरी डेवी के सिद्धांत सही साबित होते हैं और कुछ-एक बार मैंने देखा कि थर्मामीटर भी खामोश था।
2 घण्टे के बाद भी अभी तक 54 डिग्री फ़ारेनहाइट ही बता रहा था। मुझे इसलिए लग रहा था कि इसके ढलान, लंबाई में कम और क्षैतिज ज़्यादा है। हालाँकि गहरायी को मापने के जो तरीके थे वो हम सब अच्छे से कर चुके थे। प्रोफ़ेसर हर दिशा-चिन्ह और घुमाव पर गौर करते हुए आगे बढ़ रहे थे लेकिन वो सारी जानकारी उन्होंने अपने तक सीमित रखा था।
करीब 8 बजे मौसाजी ने रुकने का इशारा किया। हैन्स भी ज़मीन पर बैठ गया। लालटेन को पत्थरों के दरारों पर टिका दिया गया। हम अब ऐसे गुफा में था जहाँ हवाओं का होना आसान नहीं लेकिन यहाँ प्रचूर मात्रा में थे। इसके क्या कारण हो सकते हैं? किस वायुमंडलीय उत्पात के वजह से ये भरा होगा? लेकिन उस समय इस सवाल पर मैं कोई चर्चा नहीं चाहता था। भूख और थकान की वजह से मुझे उसमें कोई दिलचस्पी नहीं थी। 7 घण्टे लगातार चलने से इतना थकना स्वाभाविक है। मैं थककर इतना चूर था कि जब रुकने की बात कही गयी तो मुझे सिर्फ उसी बात से खुशी हुई थी।
हैन्स ने तुरन्त वहीं एक उभार पर सब बिछाया और हम सब उस पर टूट पड़े थे। एक ही बात थी जो थोड़ी चिंताजनक थी, पीने का पानी आधे से ज़्यादा खत्म हो चुका था। मौसाजी को पूरा विश्वास था कि हमें नीचे स्रोत मिलेगा लेकिन अभी तक कोई सफलता नहीं मिली थी। उनका इस तरफ ध्यान खींचने के अलावा और कोई चारा नहीं था।
"कोई जल स्रोत नहीं मिलने की वजह से अचरज में हो?" उन्होंने पूछा।
"बिल्कुल। मुझे कुछ भी समझ नहीं आ रहा। हमारे पास पाँच दिन तक चलने लायक पानी नहीं हैं।"
"इस विषय के लिए निश्चिंत रहो," मौसाजी ने कहना जारी रखा। मैं बता रहा हूँ हमे पानी मिलेगा, और ज़रूरत से ज़्यादा मिलेगा।"
"लेकिन कब?"
"जब हम इस लावा रूपी सतह को पार कर लेंगे। तुम इस मजबूत पथरीले दीवार में से किसी फव्वारे की भी उम्मीद कैसे कर सकते हो?
"लेकिन इसका क्या प्रमाण है कि यही परतें अन्तिम तक नहीं मिलेंगी? मुझे नहीं लगता ऐसा कुछ और नीचे जाकर मिलने वाला है।"
"ऐसा तुम्हें क्यों लगता है, मेरे बच्चे?" मौसाजी ने नम्रता से पूछा।
"क्योंकि अगर हम समुद्र तल से नीचे उतर आए हैं तो अभी के मुकाबले नीचे और ज़्यादा ताप होगा।"
"ये तुम्हारे हिसाब से है," मौसाजी ने कहा, "थर्मामीटर क्या कहता है?"
"जबसे हम चले हैं, तब से ताप-मापक के अनुसार लगभग 15 डिग्री जिसमें अभी तक सिर्फ 9 डिग्री की बढ़त है।"
"ठीक है, इससे क्या निष्कर्ष निकलता है?" प्रोफ़ेसर ने पूछा।
"मैंने ये बहुत सामान्य तरीके से समझा है। सबसे सार्थक कथन के अनुसार, भू-गर्भीय तापमान में हर 100 फ़ीट पर 1 डिग्री की वृद्धि होती है। लेकिन कुछ सामान्य कारणों से इसमें थोड़ा-बहुत बदलाव भी हो सकता है। जैसे, साइबेरिया के योकुस्ट में माना जाता है कि हर 36 फ़ीट पर ताप बढ़ता जाता है। इसमें अंतर सिर्फ चट्टानों की ज्वलनशीलता से पड़ता है। इसी मृत ज्वालामुखी के पड़ोस में माना गया है कि हर 25 फ़ीट पर 1 डिग्री का अंतर होता है। अब इसी के नियम से, जो कि सबसे उपयुक्त है; हम हिसाब लगा लेते हैं।"
"हिसाब लगाओ मेरे बच्चे।"
"बहुत आसान है," मैंने कहते हुए अपना नोटबुक और पेंसिल निकाल लिया। एक सौ पच्चीस फ़ीट को नौ से गुणा करने पर ग्यारह सौ पच्चीस होते हैं।"
"अर्कीमेडिस भी ज्यामिति इससे ज़्यादा नहीं समझा सकता था।"
"मतलब?"
"मतलब, मेरे निरीक्षण के अनुसार, समुद्र तल से, हम कम से कम दस हज़ार फ़ीट नीचे हैं।"
"क्या ये सम्भव है?"
"या तो मेरा हिसाब सही है, या फिर संख्याओं में पड़ने की कोई ज़रूरत नहीं।"
प्रोफ़ेसर के हिसाब एकदम सही थे। हम ज़मीन के नीचे छः हज़ार की फ़ीट से भी ज़्यादा नीचे थे, जहाँ आजतक कोई नहीं पहुँच पाया था। अभी तक इंसान सिर्फ कित्ज़बूहेल, तिरोल और वुर्टेमबर्ग के खदानों में सबसे नीचे तक पहुँचने में सफल हुआ था।
जिस तापमान को इस समय इक्यासी होना चाहिए था, वो पंद्रह पर था। ये एक सोचनेवाली गम्भीर बात थी।