असत्यम्। अशिवम् ।। असुन्दरम् ।।। - 4 in Hindi Comedy stories by Yashvant Kothari books and stories PDF | असत्यम्। अशिवम्।। असुन्दरम्।।। - 4

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असत्यम्। अशिवम्।। असुन्दरम्।।। - 4

4

कस्बे के बाजार के बीचांे-बीच के ढीये पर कल्लू मोची बैठता था। उसके पहले उसका बाप भी इसी जगह पर बैठकर अपनी रोजी कमाता था। कल्लू मोची के पास ही गली का आवारा कुत्ता जबरा बैठता था। दोनांे मंे पक्की दोस्ती थी। जबरा कुत्ता कस्बे के सभी कुत्तांे का नेता था और बिरादरी मंे उसकी बड़ी इज्जत थी। हर प्रकार के झगड़े वो ही निपटाता था। कल्लू मोची सुबह घर से चलते समय अपने लिए जो रोटी लाता था उसका एक हिस्सा नियमित रूप से जबरे कुत्ते को देता था।

दिन मंे एक बार कल्लू उसे चाय पिलाता था। सायंकालीन डिनर का ठेका झबरे कुत्ते ने पास वाले हलवाई को स्थायी रूप से दे दिया था। रात को नौ बजे से बारह बजे तक जबरे कुत्ते का डिनर हलवाई के बर्तनांे मंे चलता रहता था। कल्लू मोची के पास लोग-बाग केवल अपने जूतांे-चप्पलांे की मरम्मत के लिए ही आते हो, ऐसी बात नहीं थी। कल्लू की जाति के लोग, सड़क के आवारा लोग, भिखारी, पागल आदि भी कल्लू के आसपास मण्डराते रहते थे। आज कल्लू के पास के गांव का उसकी जात का चौधरी आया हुआ था। जबरा कुत्ता भी उनकी बातांे मंे हुंकारा भर रहा था।

चौधरी बोला-अब बता कल्लू क्या करंे। गांव मंे बड़ी किरकिरी हो रही है। भतीजा रहा नही। भतीजे की बहू के एक लड़की है और भतीजे के मरते समय से ही वह पेट से है................। ‘कैसे सुधरे यह सब।’

‘अब इसमंे चौधरी साफ बात है। छोरी का नाता कर दो।’

‘यह क्या इतना आसान है। एक लड़की है और एक ओर बच्चा होगा...........।’

‘अरे तो इसमंे क्या खास बात है। नाते मंे जो मिले उसे छोरी के नाम से बैंक मंे डाल दो। दादा-दादी इसी बहाने पाल लंेगे। और जो पेट मंे है उसकी सफाई करा दो।’

‘राम........राम..........। कैसी बाते करते हो।’

‘भईया यहीं व्यवहारिक है। लड़की अभी जवान है, सुन्दर है, घर का काम-काज आसानी से कर लेती है। कोई भी बिरादरी का आदमी आसानी से नाता जोड़ लेगा। सब ठीक हो जायेगा। रामजी सबकी भली करते है।

‘कहते तो ठीक हो............मगर....................।

‘अब अगर............मगर छोड़ांे। कहो तो बात चलाऊं।’

‘कहाँ।’

‘यही पास के गांव मंे एक विधुर है।’

‘यह ठीक होगा।’

‘तो क्या तुम पूरी जिन्दगी उस लड़की की रखवाली कर सकोगे। जमाना बड़ा खराब है।’

‘‘हां ये तो है।’

‘तो फिर..............।’

‘सोचकर..........घर मंे बात कर के बता देना।’

‘या फिर पंच बिठाकर फैसला कर लो।’

‘अन्त मंे शायद यही होना है।’

कल्लू ने चाय मंगाई। जबरे के लिए एक कप चाय पास के पत्थर पर डाली। जबरे ने चांटी। और चौधरी ने चाय सुड़क ली। तम्बाकू बनाई खाई और चौधरी चला गया। कल्लू अपना काम शुरू करता उससे पहले ही बाजार मंे हल्ला मच गया। जबरा दौड़कर चला गया। वहां बाजार मंे कुत्तांे के दो झुण्ड एक कुतिया के पीछे दौड़ रहे थे। जबरे ने उन्हंे ललकारा, झुण्ड चले गये। झबरा वापस कल्लू के पास आया और बची हुई चाय चाटने लगा। जबरा कुत्ता किसी से नहीं डरता था। डॉक्टर का अलेशेशियन कुत्ता भी उसे देखकर भांेकना बन्द कर देता था। जबरे का गुर्राना डॉक्टर को पसन्द नहीं आता था, मगर उसे क्या करना था। कुत्तांे के बीच की यारी-दुश्मनी से उसे क्या मतलब था। कुत्तांे की कुत्ता-संस्कृति पूरे कस्बे की संस्कृति का ही हिस्सा थी।

कुछ कुत्ते आदमियांे की तरह थे और कुछ आदमी कुत्तांे की तरह थे। कस्बे मंे रामलीला भी चलती थी और कुत्तालीला भी। कुत्ते संस्कृति के रक्षक भी थे और भक्षक भी। कुत्ते बुद्धिजीवी भी थे और नेता भी। कुछ कुत्ते तो स्वर्ग से उतरे थे और वापस स्वर्ग मंे जाना चाहते थे।

कल्लू मोची जूतांे-चप्पलांे की मरम्मत के अलावा मोहल्ले समाज, बाजार, मंहगाई, चोरी, बेईमानी, रिश्वत आदि की भी मरम्मत करता रहता था। उसका एक मामला कोर्ट मंे था, उसको लेकर वह वकीलांे, अदालतांे और मुकदमांे पर एकदम मौलिक चिन्तन रखता था, कभी-कभी गुस्से मंे जबरे कुत्ते को सुना-सुना कर अपना दिल का दुःख हल्का कर लेता था। लेकिन जबरे कुत्ते के अपने दुःख दर्द थे जो केवल कल्लू जानता था। वह जबरे को लकी कुत्ता मानता था। क्यांेकि जबरे के बैठने से ही उसका व्यापार ठीक चलता था। कुत्ता के पास कुत्तागिरी थी और कल्लू के पास गान्धीगिरी।

कल्लू मोची और पास वाले हलवाई के बीच-बीच तू-तू, मैं-मैं चलती ही रहती थी। हलवाई उसे हटवाना चाहता था और कल्लू की इस लड़ाई के बावजूद झबरे कुत्ते का डिनर बाकायदा यथावत चलता रहता था। लड़ाई कल्लू से थी जबरे कुत्ते से नहीं।

*****

मोहल्ले की प्रोढवय की महिलाआंे ने शुक्वाईन के चाल-चलन, व्यवहार, खानदान आदि पर शोधकार्य शुरू कर दिये थे। अभी तक शोधपत्र प्रकाशित नहीं हुए थे, मगर शोध सारांश धीरे-धीरे इधर-उधर डाक के माध्यम से आने-जाने लगे थे। मुंह से ये जनानियां शोध लोकप्रियता का दर्जा प्राप्त कर रहे थे। शोधपत्रांे के सारांश मंे से एक सारांश का सार ये था कि शुक्लाइन वो नही है जो दिखती है, एक अन्य शोधकर्ती ने उन्हंे बुद्धिमान मानने से ही इन्कार कर दिया था। आखिर एक अन्य शोधपत्र तो सीधा मौहल्ले मंे प्रकाशित हो गया। इस शोधपत्र के अनुसार शुक्लाईन शुक्लाजी के साथ ही पढ़ती थी। पढ़ते-पढ़ते लव हो गया। शादी हो गई। बच्चा हो गया। वैसे भी शक्ल सूरत से देहाती लगती है।

इसके ठेठ विपरीत एक अन्य शोध छात्र का निष्कर्ष कुछ ज्यादा महत्वपूर्ण था। उनके अनुसार शादी जो थी वो आर्य समाज की विधि से हुई थी और बच्चा जो है पहले से ही पेट मंे था। इस शोध का आधार क्या था, यह किसी को भी पता नहीं था। आखिर मोहल्ले की महिलाआंे ने एक दिन सामूहिक रूप से शुक्ला परिवार के घर पर धावा बोलने का निश्चय किया।

दोपहर का समय। शुक्लाईन बच्चंे को सुलाकर खुद भी आराम के मूड मंे थी। काल बेल बजी। अभी उनके आने का समय तो हुआ नही था। ऐसे मंे कौन हो सकता है शुक्लाईन यह सब सोचते-सोचते आई और गेट खोला। गेट पर मोहल्ले की प्रोढ़ाआंे को देखकर सूखी हंसी के साथ स्वागत करती हुई बोली।

‘आईये। आईये। धन्य भाग मेरे।’

हां बेटी तुम नई हो सो सोचा परिचय कर ले। किसी चीज की जरूरत हो तो बताना बेटी। चाची बोली।

चाची को चुप करते हुए मोहल्ले की भाभी बोली।

‘तुम्हारे वो तो रोज जल्दी आ जाते है क्या बात है। बहुत प्रेम है क्या ?’

‘प्रेम की बात नहीं है, भाभी कॉलेज मंे काम ही कम होता है। अपनी क्लास लो और बस काम खत्म।’

‘अच्छा। ऐसा होता है क्या भई हम तो कॉलेज गई ही नही। हमारे वो तो देर रात गये आते है।’

‘अपनी-अपनी किस्मत।’ चाची ने भाभी को नीचा दिखाने के लिए कहा।

शुक्लाइन चाचियांे, भाभियांे को चाय पिलाकर चलता करना चहाती थी कि मुन्ना जग गया। शुक्लाइन ने उसे फिर सुलाया, इस बार चुलबुली दीदी ने पूछा।

‘भाभी लव मैरिज थी या अरेन्जड ?’

‘अरे भाई क्या लव और क्या अरेन्ज। वास्तव मंे लव पहले हो गया और मैरिज बाद मंे हुई।’

‘भई हमारे जमाने मंे तो ये सब चांेचले नहीं चलते थे।’ चाची फिर बोल पड़ी। ‘सीधा ब्याह होता था जिस खूंटी पर बांध देते, बंध जाते।’

‘अब बाकी ये तो सब तो चलता है।’ दीदी ने कहा और बात खत्म की।

शुक्लाईन इन महानारियांे से उब चुकी थी। चाय, शाय हुई और उन्हंे चलता किया। बाहर जाकर औरतांे ने अपने-अपने शोधपत्रांे मंे अपेक्षित सुधार किये और प्रकाशनार्थ इधर-उधर चल दी। यह शोध अनवरत जारी है।

*****

कल्लू मोची और उसके जबरे कुत्ते की कसम खाकर यह किस्सा-ए-अलिफ लैला या दास्तान, ए लैला मंजनू अर्ज करने की इजाजत चाहता हूं। खलक खुदा का और मुलक बादशाह का। यह न तो कोई फसाना है और न ही अफसाना, मगर हकीकत का भी बयां किया जाना बेहद जरूरी है।

जिस प्रोफेसर और प्रोफेसराइन की चर्चा, कुचर्चा, तर्क, कुतर्क, वितर्क कर करके मौहल्लेवालियां हलकान हुई जा रही है उसे तफसील से बताना है तो गैर जरूरी होगा मगर किस्सा गोई के सिद्धान्तांे के अनुसार जरूरी बातंे अर्ज करता हूं।

प्रोफेसर शुक्ला जिस हाई स्कूल रूपी कॉलेज मंे पढ़ाने आये थे, वो अभी भी हाई स्कूल के स्तर से ऊपर नहीं उठा था। हैडमास्टर साहब को हैडमास्टर ही कहा जाता था और प्रिंसिपल का पद भी इसी मंे समाहित था। कॉलेज मंे सहशिक्षा थी। यौन शिक्षा थी। पास मंे ही सरकार का शिक्षा संकुल था। राजनीति थी। फैशन थी। अक्सर फैशन परेडे होती रहती थी। किसी भी बहाने नाचने-गाने के कार्यक्रम होते रहते थे। डाण्डिया, दिवाली, वार्षिक उत्सव, परीक्षा, फ्रेशर्स पार्टी, वन दिवस, वर्षा दिवस, सूखा दिवस, आदि दिवसांे पर लड़के-लड़कियां नाचते थे। गाते थे। साथ-साथ घूमते थे। मौसम की मार से बेखबर हर समय वसन्त मनाते थे। मां-बाप की काली-सफेद लक्ष्मी के सहारे इश्क के पंेच लड़ाते थे और सरस्वती को प्राप्त करने के लिए नकल करने का स्थायी रिवाज था। जो लोग नकल नहीं कर सकते थे वे विश्वविद्यालय के बाबू से परीक्षक का नाम, पता, सुविधा शुल्क देकर ले आते थे और पास हो जाते थे।

प्रायोगिक परीक्षाआंे मंे पास होने का सीधा अंकगणित था। बाह्य परीक्षक को टी.ए., डी.ए. का नकद भुगतान छात्र चन्दे से कर देते थे। कोई-कोई अड़ियल परीक्षक टी.ए., डी.ए. के अलावा टॉप कराने का शुल्क अतिरिक्त मांगते थे और एक बार दो छात्रांे को टॉप करना पड़ा, क्यांेकि दोनांे ने अतिरिक्त शुल्क आन्तरिक परीक्षक को जमा करा दिया था। वास्तव मंे सच ये है कि शिक्षा, पद्धति जबरे कुत्ते की रखैल थी। जिसे हर कोई छेड़ सकता था। नांेच सकता था। उसके साथ बलात्कार कर सकता था और प्रजातन्त्र की तरह प्रौढ़ा शिक्षा पद्धति की कही कोई सुनवाई नहीं थी।

ऐसे खुशनुमा वातावरण मंे शुक्लाजी पढ़ाते थे या पढ़ाने का ढांेग करते थे। कक्षा और उनके बीच की केमेस्ट्री बहुत शानदार थी, जैसे दो प्यार करने वालांे के बीच होती है। लेकिन इस कॉलेज के चक्कर मंे असली किस्सा तो छूटा ही जा रहा है।

शुक्लाजी इस महान कॉलेज मंे आने से पहले राज्य के कुख्यात विश्वविद्यालय मंे शोधरत थे। अक्सर वे विश्वविद्यालय के सामने की टी-स्टाल पर बैठकर अपने गाईड को गालियां देते रहते थे। उदासी के क्षणांे मंे वे नीम पागल की तरह विश्वविद्यालय की सीढ़ियांे पर पड़े पाये जाते थे। आते-जाते एक दिन उन्हांेने देखा कि विभाग की एक कुंवारी कन्या उन्हंे देख-देखकर हंस रही है। वो शोध छात्रा थी। दोनांे के टॉपिक एक से थे। सिनोप्सिस विश्वविद्यालय मंे जमा हो गये थे। विश्वविद्यालय के शोध बाबू ने शोध सारांश के पास हाने की कच्ची रसीद शुल्क लेकर दे दी थी। अर्थात सब तरफ मंगल ही मंगल होने वाला था।

शुक्लाजी ने भावी शुक्लाईन का अच्छी तरह मुआईना किया। साथ मरने जीने की कस्मंे खाई। तो शोध छात्रा ने पूछा।

‘आपने गाईड को कैसे पटाया।’

‘पटाने को उस बूढ़े खूंसट मंे है ही क्या, मैंने उसके नाम से एक लेख लिखकर छपा दिया। अपना फोटो-लेख छपा देख वह बूढ़ा खुश हो गया। एक सायंकाल घर पर जाकर गुरुआईनजी को भी खुश कर आया। उस समय गाईड जी कहीं दोस्तांे के साथ ताशपत्ती खेल रहे थे। रात भर घर नहीं आये।

‘वे रात भर ताशपत्ती नहीं खेल रहे थे भई, वे मेरी सिनोप्सिस लिख रहे थे, रजाई मंे बैठकर.............।’

‘अच्छा तो फिर तुम्हारी सिनोप्सिस भी पास हो गई।’

‘वो तो होनी ही थी। इस कुरबानी के साथ तो डिग्री मुफ्त मिलती है।’

दोनो शोधकर्ता अपनी-अपनी जमीन पर नंगे थे। दोनांे के सूत्र मिलते थे। गाईड एक थे। सब कुछ एकाकार होना चाहता था। सो आर्य समाज मंे दहेज, जाति, वर्ण रहित शादी सम्पन्न हो गई और छात्रा जो किसी गांव से शहर आई थी अब श्रीमती शुक्लाइन बन गई थी।

कॉलेज मंे पढ़ाने के बाद शुक्लाजी घर की तरफ आ रहे थे, सोचा कुछ सौदा लेते चले। नये खुले मॉल मंे घुस गये। वहां देखा, कॉलेज के छात्र चारांे तरफ जमा थे। शुक्लाजी वापस उल्टे पैरांे आये। उनके कानांे मंे कुछ वाक्यांश पड़े।

‘यार शुक्ला बड़ा तेज है।’

‘सुना है शहर से ही चांद का टुकड़ा मार लाया है।’

‘एक बच्चा भी है।’

‘पता नहीं, किसका है ?’

‘दोनांे के गाईड का लगता है।’

‘हे भगवान अब ये क्या पढ़ायेंगे ?’

‘बेचारा शुक्ला, बेचारी शुक्लाईन।’

‘जैसी भगवान की मर्जी और क्या ?’

*****

शुक्लाजी जब घर पहुंचे तो भरे हुए थे। शुक्लाइन का भेजा फ्राई हो रहा था। शुक्लाजी जीवन की परेशानियांे से परिचित थे। सोचते थे जीवन है तो परेशानियां है। मगर इस तरह की गलीज परेशानियों की तो उन्हांेने कल्पना ही नही की थी। उनके स्वीकृत मानदण्डांे मंे ये सब ठीक नहीं हो रहा था। वे प्रगतिशील विश्वविद्यालय से पढ़कर निकले थे। इस प्रकार की लफ्फाजी के आदि नही थे। वे सभ्य संसार की अन्दरुनी हालत जानते थे। समझते थे। मगर ये सब..............।

इधर शुक्लाईन मौहल्ले की महानारियांे के बाणांे से त्रस्त थी। उनकी बातांे के वाणांे के साथ तीखे नयनांे की मार भी वो अभी-अभी भी झेल चुकी थी। जाहिर था इस सम्पूर्ण रामायण पर एक महाभारत जरूरी था। वही हुआ।

शुक्लाजी घर मंे घुसे तो आंधी की तरह शुक्लाईन उन पर छा गई। धूल की तरह जम गई। शुक्लाईन कद-काठी से शुक्लाजी से सवायी डेढ़ी थी, भरी हुई थी, हर तरह से जली-भुनी थी, बोल पड़ी।

‘तुम्हंे कुछ पता भी है, मोहल्ले मंे क्या हो रहा है ?’

‘मोहल्ले को मारो गोली। हम तो किरायेदार है। आज नहीं तो कल इस असार मोहल्ले को छोड़कर कहीं और बसेरा कर लेंगे।’

‘लेकिन बदनामी वहां भी पीछा नहीं छोड़ेगी।’

‘न छोड़े बदनामी के डर से जीना तो बंद नहीं कर सकते।’

‘तुम नहीं समझोगे। नहीं सुधेरोगे।’

‘मैं समझता भी हूं और सुधर भी गया हूं।’

‘अरे वाह। हमारी बिल्ली हमीं को आंखे दिखाये।’

‘मैं आंखंे नहीं दिखा रहा हूं। कानों से जो सुना है, उसे ही पचाने की कोशिश कर रहा हूं।’

अब तुम्हारे कानांे मंे क्या गरम सीसा पड़ गया।’

‘हां वही, समझो, आज सोदा खरीदते समय कुछ लोण्डे कुछ अण्ट-सण्ट बक रहे थे।’

‘क्या बक रहे थे। मैं भी सुनूं।’

‘अब तुम जानकर क्या करोगी.........। ये सब गंवार, जंगली, जाहिल लोग है।’

‘अरे तो हम सुनेंगे क्यों ?’

‘सुनना और सहना ही मनुष्य की नियति है। तुम चाय बनाओ। छोड़ो ये पचड़ा।’

नहीं तुम्हें मेरी कसम बताओ।’

शुक्लाजी ने जो सुना था, दोहरा दिया।

शुक्लाईन सन्न रह गई। उसे भी यह खटका था।

उदास सांझ मंे उदासी के साथ दोनांे ने चाय ली। खाना खाया और सो गये। बाहर गली मंे कुत्ते भौंक रहे थे और जबरा कुत्ता उन्हंे चुप रहने के आदेश दे रहा था। कुछ समय मंे जबरे कुत्ते के आदेशांे की पालना हुई क्यांेकि अब केवल एक कुतिया ही रो रही थी।

प्रजातंत्र का सबसे बड़ा आराम ये है कि कोई भी किसी को भी गाली दे सकता है। सरकार, मंत्री, अफसर की ऐसी तेसी कर सकता है। गली-मोहल्ले से लगाकर देश के उच्च पदांे पर बैठने वालांे की बखियां उधेड़ सकता है। लेकिन क्या प्रजातंत्र झरोखे, गोखड़े, खिड़की, दरवाजे पर खड़े रहकर देखने मात्र की चीज है, या प्रजातंत्र को भोगना पड़ता है। सहना पड़ता है। उसकी अच्छाईयांे-बुराइयांे पर विचार करना पड़ता है। शुक्लाजी स्टॉफ रूम के बाहर के लोन मंे खड़े-खड़े यही सब सोच रहे थे। प्रजातंत्र राजतंत्र और तानाशाही के त्रिकोण मंे फंसा संसार उन्हंे एक मायाजाल की तरह लगता था। वे इसी उधेड़-बुन मंे थे कि इतिहास की अध्यापिका भी वही आ गईं। वे शुक्लाजी सेे कुछ वर्ष वरिष्ठ थी और उड़ती हुई खबरंे उन तक भी पहुंची थी। लेकिन शालीनता के कारण कुछ नहीं बोल पाती थी।

‘क्या बात है आप कुछ उदास है ?’

‘उदासी नही बेबसी है। हम चाहकर भी व्यवस्था को नहीं सुधार सकते।’

‘आप बिलकुल ठीक कहते हैं। इस सड़ी-गली व्यवस्था से कुछ भी अच्छंे की उम्मीद करना बेमानी है।’

‘वो तो ठीक है मगर व्यवस्था सभी को नाकारा, नपुसंक, नंगा और भ्रष्ट क्यांे समझती है।’

‘क्यांेकि यही व्यवस्था का चरित्र है।’ सत्ता का मुखौटा और चरित्र एक जैसा होता है लेकिन बिग बदल जाती है। गंजे सिर पर लगी बिग या पार्टी की टोपी ही सब कुछ तय करती है और मुखौटा तथा बिग बदलने मंे कितना समय लगता है ?

ठीक कहती है, आप इतिहासज्ञ है, इतिहास के आईने मंे सूरते बदलती रहती है और हम सब देखतेे रह जाते है।

‘राजनीति इसी का नाम है। जब भी किसी के साथ अन्याय की बात आती है तो सर्वप्रथम राजनीतिक बातंे ही उठती है। अपना कस्बा छोटा है और कॉलेज तो और भी छोटा है मगर राजनीति बड़ी है।’

अब देखो न शुक्लाजी आपके आने से पहले यहां पर आपके पद पर वर्माजी थे। बेचारे बड़े सीधे-सादे। अपने काम से काम। न किसी के लेने मंे और न किसी के देने मंे। मगर हैडमास्टर साहब ने उन्हंे एक परीक्षा हॉल मंे मैनेजमंेट ट्रस्टी के लड़के को नकल नहीं कराने की ऐसी सजा दिलवाई की बस मत पूछो।

‘क्यों क्या किया हैडमास्टर साहब ने।’

‘ये पूछो कि क्या नहीं किया।’

‘पहले आरोप। फिर आरोप-पत्र। फिर लड़कांे द्वारा अश्लील पोस्टर लगवाये। नारे लगवाये। सड़कांे पर नारे लिखवाये। उन्हंे जलील किया। बेइज्जत किया। यहां तक कि पत्नी को अपहरण कराने की धमकी दी।’

‘अच्छा। फिर..............।’

‘फिर क्या, पूरे शहर मंे बदनामी की हवा फैली। हैडमास्टर को आगे कुछ नहीं करना पड़ा। वर्माजी एक रात बोरियां-बिस्तर लेकर गये सो आज तक वापस नहीं आये। बेचारे...........।’

लेकिन अन्याय का प्रतिकार किया जाना चाहिये था.......।

‘ये सिद्धान्त की बातंे सुनने और बोलने मंे अच्छी लगती है शुक्लाजी। लेकिन जब बीतती है तो सिर छुपाने को जगह नहीं मिलती। यह कहकर इतिहास की राघवन मैडम चल दी।’

शुक्लाजी फिर सोचने लगे। वे अपने और शुक्लाईन के भविष्य को लेकर आश्वस्त होना चाहते थे। इस निजि कॉलेज की राजनीति से बचना चाहते थे, मगर राजनीति उनसे बचना नहीं चाहती थी। तभी चपरासी ने आकर बताया कि हैडमास्टर साहब याद कर रहे है। शुक्लाजी हैडमास्टर साहब के कक्ष की ओर चल दिये।

अधेड़ उम्र के हैडमास्टर को हर कोई टकला ही कहता था, मगर रोबदाब ऐसा कि मत पूछो। शुक्लाजी कक्ष मंे घुसकर बैठने के आदेश का इन्तजार करने लगे। काफी समय व्यस्तता का बहाना करके हैडमास्टरजी ने उन्हंे बैठने को कहा।

‘शुक्लाजी सुना है आप की कक्षा मंे अनुशासन कुछ कमजोर है, पढ़ाने की और ध्यान दे..........।’

‘जी ऐसी तो कोई बात नहीं है, मगर फिर भी मैं ध्यान रखूंगा।’

‘मैं चलूं सर।’ मगर अनुमति नही मिली।

‘सुनो हिन्दी की मैडम कुछ समय के लिए मेटरनिटी लीव पर जा रही है कोई पढ़ाने वाली ध्यान मंे हो तो बताना। ’

हैडमास्टर साहब ने मछली को चारा फंेक दिया था। शुक्लाजी को पता था कि उन्हंे कुछ समय के लिए ऐवजी मास्टरनी की जरूरत है। अतः हैडमास्टर साहब के प्रस्ताव पर तुरन्त उनके ध्यान मंे शुक्लाइन का चेहरा आ गया। मगर छोटे बच्चे की सोच चुप लगा गये, फिर सोचकर बोल पड़े।

‘सर मेरी मिसेज भी क्वालिफाइड है। आप उचित समझे तो..........’शुक्लीजी ने जान बूझकर बात अधूरी छोड़ दी।