feeling in Hindi Short Stories by रमेश पाली books and stories PDF | एहसास

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एहसास

एहसास

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पापा…!... मेरे सारे डॉक्युमेंट्स क्लियर हो गए हैं.. सब ठीक रहा तो अगले महीने अमेरिका जाना पक्का हो गया। बेटे के स्वर में चहक थी ..उमंग थी। वो बहुत खुश था.. खुशी से दमकता उसका चेहरा.. स्वयं के एहसास की दृष्टि से देखा मैंने।

....अरे वाह! ये तो बहुत अच्छा रहा.. मैंने भी खुश हो कर कहा।.. फिर वो बताने लगा कि कितनी मुश्किल हुई उसे यह सब करने कराने में । फिर और भी कई बातें हुईं उसने.. बताया कि उसके साथ के तीन और लोगों ने अप्लाई किया था और उनका नहीं हुआ । बेटे को डिनर करना था सो वह डिनर करने चला गया। मैंने कहा ठीक है..डिनर कर लो.. फिर बात करेंगे ।फोन रखने के बाद देर तक मैं जहां बैठा था वहीं बैठा रह गया।

कभी कभी मन में एक साथ इतने मिश्रित भाव आते हैं कि पता ही नहीं चलता स्थाई भाव कौन सा है। खुशी के साथ साथ एक विलगाव और हल्की सी छटपटाहट का भाव भी था मेरे मन में.. लगा जैसे अतीत के सागर से स्मृतियों की लहरें उठी हों और उन लहरों ने सराबोर कर दिया हो मुझे।

मुझे याद है ...बेटा जब बहुत छोटा था तो बिना गोदी में ले कर टहलाए उसकी चैतन्यता नहीं जगती थी। दूध पीने का तो कहना ही क्या.... जब तक उसकी पसंदीदा नन्हीं लाल चुन्नी की कहानी न सुनाऊं दूध ही नहीं पीता था। खाने में इतना नाटक कि जब तक इनकी मम्मी सबके नाम का काैर बनाकर न रख दें..खाना नहीं खाते थे साहब.. इतने नखरे थे!

रामचरन और सेरे की कहानी तो अगर वो रोता भी रहे और सुना दो तो तुरंत चुप होकर सुनने लगता था। कहानी लगभग मनगढ़ंत और एक जैसी ही होती थी हर बार। इस कहानी में दादा नाम के पात्र का आगमन होते ही वह खिलखिला कर हंस पड़ता था। शुक्ला नामक एक पात्र और थे जिनसे दादा की वैसी ही ट्यूनिंग थी जैसी स्वर्गीय प्राण जी की कॉमिक में बजरंगी पहलवान और बिल्लू की।उसे पता नहीं क्या नया लगता था जो हर बार इतनी तन्मयता से सुनता था। हालांकि कभी कभी खुद मुझे वही बार बार सुनाने में बोरियत हो उठती थी।.. कहेंगे तो कभी आपको भी सुनाऊंगा तफसील से अगर आप बोर ना हों तो।

नन्हा सा बेटा इतना बड़ा हो गया कि अब विदेश जा रहा है। मुझे अच्छी तरह याद है कि एक बार मैं उसका बाल कटाने ले गया था। कुर्सी पर बैठाकर नाऊ ने कपड़ा लपेट दिया था कि बाल उसके कपड़े पर न गिरे। मैं पीछे बेंच पर बैठा था और वो मुझे शीशे में से देखता जाता था।.. सड़क के दूसरी तरफ रंग बिरंगे स्टिकर बिक रहे थे ।घर में कई साल पहले की ली हुई फाइबर की गोल टेबल थी.. और चार कुर्सियां भी। मैंने अपनी पहली तनख्वाह से खरीदी थी। सच है.. पहले का सुख और उससे उपजा लगाव अवर्चनीय होता है.. शब्दों से परे। समय के साथ उपयोग होते होते उसमें स्क्रैच पड़ गए थे..बीचोबीच कुछ ज्यादा ही। देखने में अच्छा नहीं लगता था। मैंने सोचा जब तक इनके बाल कट रहे हैं.. मैं कुछ स्टिकर खरीद लूं। स्क्रैच के ऊपर चिपकाने के लिए।.. देखने में भी अच्छा लगेगा और स्क्रैच भी छिप जाएगा। प्रयास यह कि खामियां ऐसी छुपें कि देखने में सुंदर लगने लगें।मैं उठकर सड़क पार कर दूसरी तरफ पहुंचा और स्टिकर देखने लगा... मुझे स्टिकर की सुंदरता के साथ साथ आकार भी देखना था ताकि चिपकाने पर पूरा स्क्रैच ढंक जाय।.. बेटे ने शीशे में से मुझे जाते हुए देखा... लगभग रोते हुए.. जल्दी से कुर्सी से उतरकर.. कपड़ा लपेटे हुए मेरे पीछे भागने की चेष्टा की। दुकानदार ने मुश्किल से इन्हें संभाला और मुझे आवाज दी। मैं तुरंत वापस आ गया बिना स्टिकर लिए ।इनकी रोनी सूरत देखकर हंसी आ गई थी मुझे। क्या हो गया.. यह कहकर मैंने उसके सिर पर अपना हाथ रख दिया। दुकानदार भी ठहाका मार कर हंस पड़ा। बोला ..कपड़ा लपेटे लपेटे भाग रहे थे ये। खैर... मैं स्टिकर लेने नहीं गया। बाल कटा कर हम घर अा गए थे।

लगभग ऐसी ही स्थिति आज मुझे अपनी लग रही थी। एक निर्भरता और निर्बलता का एहसास हुआ मुझे। लगा जैसे हाथ से कुछ फिसल रहा हो मेरे.. और मैं... फिसलते हुए साक्षात देख रहा हूं। मैं इनके पीछे पीछे भाग नहीं सकता था...और रोकने का सवाल ही नहीं उठता था। खुल के रो भी नहीं सकता था। भावों की अधिकता ने थिर सा कर दिया था मुझे।

मन में एक बोझिल भरी खुशी थी। एक बेचैनी भरी संतुष्टि थी। एक छटपटाहट भरा सुकून था।... अचानक चाय की तलब हो उठी। मैं किचेन में गया। अतीत की पतीली में संतुष्टि और खुशी का दूध और पानी डालकर पकने के लिए रख दिया मैंने। ताकि भावुकता और अपनेपन की चाय की पत्ती डाल सकूं। बोझिलता की छन्नी और सुकून का कप बगल में रख कर.. सिर झुकाए चाय बनने की प्रतीक्षा करने लगा।…..शायद ऐसा ही मेरे पापा ने भी महसूस किया होगा जब मैं घर से बाहर निकला रहा होऊंगा।

अगली पीढ़ी के लिए निकले हुए एहसास कभी कभी हमें पिछली पीढ़ी के एहसास की साफ और स्पष्ट झलक दे जाते हैं। तब हमें अपनी अहमियत का पता चलता है। हमारे प्रति.. हमारे अपनों की बोझिल संतुष्टि और बेचैनी भरे सुकून का एहसास होता है हमें।…और तब…... अनगिनत तारों सरीखे आशीर्वाद से भरा पूरा इंद्रधनुषी आकाश.. और नीला... और गहरा…. और सुंदर दिखने लगता है।... मैंने चाय की पहली सिप ली….. आज की चाय शायद और दिनों की चाय से कुछ ज्यादा ही स्वादिष्ट थी।


___रमेश पाली