तीन शराबी
लेखक - जी शिवशंकर
दिल्ली के सरकारी दफ्तरों के बहुत सारे कमरे शाम 6 बजे के बाद मेकशिफ्ट बार में बदल जाते हैं । चपरासी पांच साढ़े पांच बजते-बजते अद्धा, पव्वा या पूरी बोतल के साथ नमकीन, सलाद, आलू टिक्की, उबले अंडे या मीट के स्नैक्स लेने मार्केट की तरफ रवाना हो जाते हैं । समय की कीमत होती है ये पीने वालों से बेहतर कौन जानता है । 6 बजे तक महफिल सज जाती तो 7-7:30 तक निबटकर दफ्तर से निकलना हो जाता है । ये महफिलें सुविधानुसार विभिन्न कमरों में सजी होतीं हैं । फिर चाहे दिल्ली या केन्द्र सरकार के दफ्तर हों । निगम के, पब्लिक वर्क्स महकमे के, टैक्स महकमें के या दूसरे महकमों के प्रदेश भर में फैले में दफ्तर हों । शाम ढलते ही सब गुलज़ार हो जाते है । कुछ हाई सिक्यूरिटी दफ्तर एक हद तक अपवाद हैं । पर वहां भी जरूरतमंद बड़े अफसरों चाहें तो कोई दिक्कत नहीं है । सिक्योरिटी वाले उन्हें सैल्यूट मारने के अलावा कुछ नहीं कर सकते । बड़े अफसरों की सुविधा के लिये डिफेंस के बार हैं, बड़े-बड़े क्लब हैं परन्तु दिक्कत ये है कि 7 बजे से पहले कहीं भी ड्रिंक सर्व नहीं होती । ऐसे में पीते पिलाते 9-10 बजते देर नहीं लगती । दो पैग अन्दर जाने के बाद समय का भान नहीं रहता । देर से आने पर घर में बीवी की डांट फटकार से भी बचना मुश्किल हो जाता है । अफसर चाहे जितना भी बड़ा हो बीवी से बड़ा नहीं हो सकता । छोटे अफसर कर्मचारियों की दिक्कत ये है उन्नके पास किसी क्लब की मैम्बरशिप नहीं होती । इन क्लबों की मैम्बरशिप पा लेना बहुत बड़ी बात होती है । मैम्बरशिप के लिये लम्बी लाइन होती है और रैंक, रसूख या मोटे डोनेशन के अभाव में ये मिल पाना असम्भव है । सस्ते बार की सुविधा क्लबों में सबसे बड़ा आकर्षण है । शराब मिलती है बिना एक्साइज या टैक्स लगे तो खर्च घर में पीने के बराबर । सस्ते स्नैक्स और हर तरह की सुख सुविधा । बड़े लोगों और अफसरों ने अपने लिये बढ़िया बन्दोबस्त किया हुआ है । मध्यम दर्जे के अफसरों को कहीं सम्मान पूर्वक बैठ कर शाम की महफिल जमाने लायक जगह उपलब्ध नहीं होती । होटल्स, बार या रेस्तरां इतने मंहगे पड़ते हैं कि जाना असम्भव है । घर में बैठकर पीने से परिवार में डिस्टरबेंस होती है । यार दोस्तों की महफिल में खुलकर ठहाके नहीं लगाये जा सकते । मतलब कि वो माहौल नहीं बन पाता जिसकी दरकार होती है । ये सारा कुछ देखते हुए दफ्तर में ही माहौल बना कर महफिल सजाना मजबूरी होती है ।
नवीन दत्त, राजीव खोसला और मनोहर कृष्ण तीन दोस्त थे जो ऑफीसर ग्रेड में होने की वजह से अलग-अलग और अक्सर दूर-दूर दफ्तरों में पोस्ट होते थे । कभी हैड क्वार्टर में या बड़े रीजनल ऑफिस में कभी दो या कभी तीनों भी एक जगह पोस्ट हो जाते । पर दूरियां कभी महफिल जमा कर बैठने की राह में आड़े नहीं आती थी। अक्सर ही शाम को महफिल जोड़ कर बैठते थे । दशकों से सिलसिला चल रहा था । कभी पोस्टिंग हैड ऑफिस होती तो कभी किसी क्षेत्रीय दफ्तर में । जैसा मौका लगता महफिल जुड़ जाती और बोतल खुल जाती । हंसी ठट्ठा चलता, सलाद कटती, स्नैक्स और उबले अंडे आ जाते । ऑफिस के कम्प्यूटर पर पुरानी फिल्मों के गानों की विडियो चलती जो मनोरंजन को संपूर्णता प्रदान करतीं थीं । हैड ऑफिस में जब बैठते तो दफ्तर से बाहर निकलते ही नौजवान पनवाड़ी मदन मेन गेट के बराबर ही बैठता था । मदन के पास पान खाना और सिगरेट के कश लगाना एक शगल था जिसका अपना ही एक मजा था । मदन का बाप भी रीजनल दफ्तर के लम्बी ऊँची बिल्डिंग के नीचे कभी पान लगाया करता था । पहले वहीं हैड क्वार्टर हुआ करता था । जब हैड क्वार्टर यहां नई बिल्डिंग में शिफ्ट हुआ मदन ने यहां ठीया बना लिया । पीकर निकलते तो यहां मदन की दुकान पर इधर उधर की बातें चलतीं और मदन पान लगाने के साथ-साथ दिन भर की खबरें बताता । खड़े-खड़े पूरे दफ्तर की खबरें आराम से मिल जातीं ।
तीनों की उम्र रिटायरमेंट के करीब आ गयी थी । साल दो साल के अन्तर पर नवीन दत्त और मनोहर कृष्ण और 6 साल बाद राजीव खोसला रिटायर होने वाले थे । नवीन दत्त रिटायर हुआ तो खोसला और मनोहर ही जुगाड़ कर बैठ जाते । नवीन दत्त भी अक्सर अपनी गाड़ी लेकर शाम को पहुंच जाता । मनोहर कृष्ण रिटायर हुआ तो भी ये हौसला बना रहा कि खोसला के रिटायरमेंट में चार साल बाकी थे । अब यदा कदा दत्त और मनोहर दोनों शाम को घर से दफ्तर पहुंच जाते और इकट्ठे शाम को वहां से निकलते । गाड़ी शॉपिंग सैंटर पर जाकर रुकती जहां शराब का सरकारी ठेका था । उतर कर बोतल, प्लास्टिक के गिलास, बिसलेरी की वॉटर बॉटल और नमकीन फटाफट लिये जाते । गाड़ी बार बन जाती । घंटे डेढ़ घंटे मे मेहफिल का काम पूरा हो जाता और बातों बातों में समय का पता नहीं चलता । साढ़े-आठ नौ तक घर पहुंच जाते । पुराने गाने गाड़ी के बढ़िया ऑडियो सिस्टम से सुनते हुए पीने का मजा दुगना हो जाता । तो पीते हुए हंसी ठट्ठा खुलकर होता । कोई रोक टोक नहीं ।
मदन पनवाड़ी हैड क्वार्टर के बाहर अब नहीं बैठता था । बड़ा अफसोस हुआ क्योंकि मदन से बेहतर देसी पत्ते का पान लगाने वाला दिल्ली शहर में मिलना बहुत मुश्किल है । बिल्कुल करारा देसी पत्ता और कत्थे चूने के उचित मिश्रण की रगड़ाई के साथ इलायची, सुपारी, खुशबू और चटनी वाला देसी पान का बस मजा मत पूछिये । सब मदन के साथ चला गया । दिल्ली में किसी पनवाड़ी से पूछो तो देसी की जगह कलकतिया या मीठे पत्ते का नाम ले देगा । दोनों में वो टेस्ट नहीं ।
वैसे भी अब गाड़ी में पीने के वजह से पीते हुए दूर निकल जाते थे तो उसके बैठने या ना बैठने का कुछ फर्क नहीं पड़ता था । पीने के बाद पान की तलब होती । सिगरेट तो जेब में होती ही थी । एक अपना तम्बाकू वाला बनारसी पान सिर्फ चूने मे लगवाता तो बाकी दोनों देसी पत्ते में सादा लगवाते । पनवाड़ी बदलते रहत्ते । कभी क्लैरिजेज होटल के बराबर में बैठने वाला तो कभी दरिया गंज मार्केट वाला । कभी रीजनस ऑफिस के बाहर राजा राम पनवाड़ी तो कभी बंगाली मार्केट में नत्थु हलवाई के बराबर दुकान वाला पनवाड़ी । गोल्ड फ्लेक सिगरेट भले ही जेब मे हों पर पनवाड़ी से 555 की एक एक सिगरेट लेकर पीते । ये तो अब टशन बन चुका था । 555 ना मिले तो इंडिया किंग । टशन जो पूरा करना ठहरा । पनवाड़ी से पता नहीं कहां कहां की बाते करते । वो भी ज्यादातर समझ बूझ कर व्यवहार करते थे । घर के लिये भी पान बंधवाए जाते । ये महफिलें बड़े हाइ नोट पर खतम होतीं और उसके बाद गले मिलकर सब अपने रास्ते निकलते ।
खोसला का रीजनल ऑफिस में ट्रांसफर हुआ तो काम ओर आसान हो गया । अक्सर ही उसके ऑफिस मे महफिल सजने लगी । सलाद, अंडे, नमकीन, टिक्के का बन्दोबस्त चपरासी मुस्तैदी से कर देता । पास में मार्केट भी स्टैंडर्ड का था और पनवाड़ी भी ऊँची सम्पन्न दुकान वाला । दिल्ली के पनवाड़ी शाम को पीकर आने वालों को समझते हैं और उन्हें पूरी इज्जत देते हैं । पढ़े लिखे अफसरों की तो कुछ ज्यादा ही । वैसे भी पान खाकर 555 की सिगरेट पीने पर कुछ हवा तो बंध ही जाती थी । यदा कदा आइसक्रीम भी खा लेते थे । हफ्ते पन्द्रह दिनों में ही प्रोग्राम बन पाता था क्योंकि सब दूर दूर हो गये थे । परन्तु एक लगावट और मुहब्बत हो तो क्या कहना । दूरीयाँ भी रोक नहीं पाती थीं ।
तीनों रिटायर हुए तो मिलना जुलना कम हो गया पर सिलसिला टूटा नहीं । महीने पन्द्रह दिन में महफिल जम जाती । अब तीनों में से एक अपनी गाड़ी ले आता और उसी में महफिल सज जाती । ज्यादा तर अब शहर के सैन्ट्रल प्लेस में ही महफिल जमानी पड़ती थी क्योंकि सब अलग अलग दिशाओं से दूर से आते । परन्तु मैट्रो के आने से सुविधा हो गयी थी । दिल्ली में गाड़ी में पीने पर पुलिस के धर लेने का डर भी रहता था । इसलिये दिल्ली के सेन्ट्रल प्लेस को अपना ठिकाना बनाया । यहां पर अपने दफ्तर का रीजनल ऑफिस भी था और सिक्योरिटी गार्ड भी ज्यादातर पहचानते थे । दफ्तर के सामने फुटपाथ पर राजाराम पनवाड़ी था ही जिससे हर तरह का पान और 555 की सिगरेट भी मिल जाती । राजाराम पनवाड़ी 25-30 साल से वहां दुकान लगाता था जहां पहले मदन का बाप लगाता था । राजाराम भी तीनों दोस्तों से वाकिफ़ था । वो दफ्तर से आने वाले अफसरों और कर्मचारियो से उनके हाल चाल की भी जानकारी लेता रहता था । कौन प्रोमोट हुआ, कौन रिटायर हुआ और कौन जिन्दा है या कौन मर गया तक । कौन दफ्तर में सुबह से पीना चालू कर देता है और कौन शाम को बोतल मंगवाकर दफ्तर में पीता है राजाराम को सब खबर होती थी । तीनों दोस्त जब जब राजाराम के पास आते तो वो ताजा खबरों के साथ मिलता । राजाराम ने ही बताया था कि मेहता साहब भगवान को प्यारे हो गये । यूनियन के दबंग नेता थे और काफी पहले रिटायर हो गये थे । पूरा कुनबा महकमे में लगवा चुके थे । उनका साला सलिल भी यहीं नौकरी पर था । राजाराम ने खबर दी की सलिल भी चल बसा था । उसकी उम्र कुछ ज्यादा नहीं थी । खबर सनसनीखेज थी । लड़का हैंडसम था और 45-50 की उम्र का रहा होगा । पर मौत का क्या कहा जाये । पता नहीं कब किसको आ जाये । एक बार तो राजाराम ने सलिल के बड़े भाई से फोन पर बात भी करा दी जो खुद भी रिटायर्ड था और वहां राजाराम के पास पान खाने आता जाता रहता था । वो तीनों दोस्तों को भी अच्छी तरह जानता था । पर वो पहचान नहीं पाया कि कौन बोल रहा है हालांकि राजाराम ने पूरा इंट्रोडक्शन दिया था । बुढ़ापे में पुराने दोस्तों को पहचानना मुश्किल हो जाता है खासकर तब जब बरसों से बात या मुलाकात न हुई हो । बीसीयों साल जिनके साथ काम किया था उनकी मौत का सुनकर धक्का लगता । परन्तु रिटायरमेंट के बाद यही खबरें मिलती थीं । एक दिन राजाराम ने खबर दी कि इंजीनियर सरदार अमरजीत सिंह की मौत हो गयी । अभी नौकरी में ही था । सुबह-सुबह अद्धा लेकर आता था और पानी की ठेली से पानी में मिलाकर गटागट पी जाता । सीधे जाकर सीट पर बैठ जाता । दफ्तर में कुछ ज्यादा काम तो था नहीं । ़
तीनों दोस्त मिलकर किसी के मरने में जाते तो ये पहले से ही तय होता था कि यहां से निबटने के बाद महफिल सजेगी । और यही होता था । रीजनल दफ्तर के बाहर महफिल जमती और पीने के बाद राजाराम की खबरें होतीं । किसी कुलीग की अन्त्येष्टि, चौथा या तेरहवीं पर मिलने वाले पुराने संगी साथी उन तीनों से हमेशा जलते थे कि ये पीकर क्यों मस्त रहते हैं । अब वो अचम्भे से देखते कि इतना पीने के बाद भी स्साले जिन्दा हैं । आँखों-आँखों में जैसे कह रहे हों कि दुनिया मर रही है पर इन्हें कुछ नहीं होता । बाद में तीनों दोस्त उनके मनोभावों को मोटी मोटी गालियों के साथ दोहराकर खूब हंसते । तीनों दोस्त बिना दुनिया की फिक्र किये खुश रहते । एक दूसरे के घर परिवार की कभी बात नहीं करते । हर आदमी सौ जख्म खाये घूमता है और सहानुभूति की आड़ में ज्यादातर लोग इन जख्मों को कुरेदने के चक्कर में लगे रहते हैं । ये जख्मों को कुरेदना बहुत चोट पहुंचाता है । इस प्रक्रिया में आदमी टूट जाते हैं और मौत की तरफ बढ़ जाते हैं । दरअसल आपसे सहानुभूति जताने वाले आपकी जड़ खोदने वाले होते हैं । आप बरबाद हों तो लोग प्रसन्न रहते हैं । तीनों दोस्तों का कभी किसी के जख्मों को ना कुरेदने का स्वभाव ही वास्तव में पीने के अलावा दोस्ती का सबसे बड़ा आधार था ।
रिटायरमेंट के बाद बाहर गाड़ी में बैठकर पीते पिलाते तीन साल होने को आये । कई जो कुलीग्स थे बड़ी पोस्ट पर पहुंच गये । कभी जो चपरासी हुआ करते थे सहायक निर्देशक बन गये थे । रिटायरमेंट की तादाद बढ़ती जा रही थी तो प्रोमोशन में तेजी का दौर था । कई बार राजाराम की दुकान पर पुराने लोग टकरा जाते । कुछ पहचान में आ जाते कुछ नहीं आते । कुछ नमस्ते करके निकल जाते तो दिमाग पर जोर लगाना पड़ता । राजाराम नाम और पोस्ट दोनों बता देता तब याद आता कि ये तो उनके समय में क्लर्क था जो डायरेक्टर बन गया था । कुछ इंजीनियर, कुछ आर्किटेक्ट और दूसरे प्रशासन के लोगों की मरने की खबरें आती रहीं ।
एक दिन जब अपने परमानेंट अड्डे पर गाड़ी खड़ी कर महफिल जमायी और पीने पिलाने के बाद राजाराम के ठीये पर पहुंचे तो राजाराम नजर नहीं आया । पनवाड़ी की दुकान ज्यूं की त्यूं सजी थी पर वहां कोई नौजवान बैठा था । सोचा शायद राजाराम का लड़का होगा । लड़के से पूछा :
"राजाराम कहाँ है? "
"जी राजाराम तो मर गये ।" - लड़का बोला ।
"कब ? कैसे? क्या तुम उसके लड़के हो? " - तीनों राजाराम की मौत की खबर सुनकर सकते में थे । आखिर तो 25-30 साल से ज्यादा का साथ था ।
"जी नहीं । हमने तो अपनी दुकान लगायी है । राजाराम का तो कोई नहीं था ।"
सुनकर धक्का लगा । कभी सोचा न था कि पान खाने आयेंगे तो राजाराम नहीं मिलेगा । और ये नया लड़का क्या कह रहा है?
'राजाराम का कोई नहीं था ।'
राजाराम का कोई नहीं था । यही बात बार-बार दिल से टकराती थी । क्या तीनों दोस्तों का कोई रिश्ता बनता था? राजाराम के मरने का धक्का उन्हें जरूर लगा था । यही सोचते-सोचते पान लेकर और सिगरेट पीकर बोझिल मन से तीनों वापस गाड़ी की ओर चल पड़े । पर क्या तीनों उन 'कोई' की भीड़ से कुछ अलग थे जिनका जिक्र कविराज शैलेन्द्र ने अपने गीत में किया था ।
चार आंसू कोई रो दिया,
फेरकर मुंह कोई चल दिया,
समाप्त.