मैं भारत बोल रहा हूं 2
(काव्य संकलन)
वेदराम प्रजापति‘ मनमस्त’
4. मैं भारत बोल रहा हूं
मानवता गमगीन, हृदय पट खोल रहा हूं।
सुन सकते तो सुनो, मैं भारत बोल रहा हूं ।।
पूर्ण मुक्तता-पंख पांखुरी नहीं खोलती।
वे मनुहारी गीत कोयलें नहीं बोलती।
पर्यावरण प्रदुषित, मौसम करैं किनारे।
तपन भरी धरती भी आँखें नहीं खोलती।
जो अमोल, पर आज शाक के मोल रहा हूं।।1।।
गहन गरीबी धुंध, अंध वन सभी भटकते।
भाई भाई के बीच,द्वेष के खड़ग खटकते
विद्वेषित हो गया धरा का चप्पा चप्पा
घन उलूक वे मेल आसमॉं नित्य चटकते।
कृषक लिऐ दिल व्यथा, कथा को खोल रहा हूं।।2।।
रोज अस्मते लुटें, वने खूनी चौराहे
सांझ भई गमगीन, भोर नहीं, उषा लाऐ
राहु-केतु से आज, चॉंद-रवि ग्रसित हो गए
सुमन अधखिले झडे़, बरसती है उल्काऐ
नर नारी बेचैन, उदधि-उर खौल रहा हूं।।3।।
वैसा अब मै नहीं, कि जैसा था मैं पहले
वावन पत्ता खेल, चलैं यहाँ नहले-दहले,
कही बजीर पिट रहे, बेगमें कही बौराई,
बेशर्मी अति रही, कोई कितना भी कहले।
क्या होगा मनमस्त, हृदय पट खोल रहा हूं।।4।।
चौपालों की न्याय नीति, न्यायालय भटके।
न्यायधीस भी यहाँ, सबल बॉंहों में अटके।
खबरदार बे-खबर, गुरू चेलों से रोए -
बैसाखिन के पंगु, अनौखे यहाँ पर मटके।
मरियादा वे-मर्द, पोल सब खोल रहा हूं।।5।।
वेद ऋचाऐं मिटीं, संत राजनीति आए ।
सिंह भऐ बेचैन, गीदड़ों से घबराए ।
हंस वंश मिट रहे, वकों के झुंड उड़ रहे।
मैढ़क, गर्दभ, गीत, श्रवण सुनकर घबराए ।
भाषा-पाणणि मिटी, व्याकरण खोल रहा हूं।।6।।
गूंगा-बहरे लोग यहाँ के, किसकी सुनते।
कोई किसी का नहीं, गूदड़ी खुद की बुनते।
कैसा आया समय, सोचता रहा रात-दिन,
कैसा घुन लगा गया, स्वयं की जो जड़ चुनता।
कल क्या होगा? पता नहीं वह बोल रहा हूं।।7।।
मैं भारत बोल रहा हूं।।
5.गीत
सभी जगह सूर्य चॉंद और ये तरइयां।
दुनियां में सुन्दर कोउ भारत सौ नइयां।
उत्तर में प्रहरी ये हिमगिरी विजेता है,
गौरव कहानी जो भारत को देता है,
श्यामल सी हरियाली का ये रचेता है।
मनुहारें गाती है प्रातः की तरइयां।।1।।
पूरव की लाली ये अबीर सा उड़ाती है,
कोयल की कुहु-कुहु अमृत बरसाती है,
भारत की सुन्दरता दुनियां की थाती है।
डालन पै कुदक-फुदक नच रही मुनइयां।।2।।
दक्षिण में सागर ने चरण ये पखारे हैं,
लहरे बन रागनियां राग से उचारे हैं,
भरदये रत्नाकर ने रतनन भंडारे हैं।
लहरों से निकल रहीं भोर सी उरइयां।।3।।
अस्ताचल जीवन का, पश्चिम पढ़ाती है,
जीवन परिमार्जन का मारग बताती है,
कर्मशील जीवन पर बलिहारी जाती है।
हंस हंस के आपस में लेतचल बलइयाँ।।4।।
6.गोताखोर
मैं तो गोताखोर, मुझे गहरा जाना होगा,
तुम तो तटपर बैठ, भंवर की बातें किया करो।
मैं पहला खोजा नहीं, अगम भव-सागर का,
मुझसे पहले इसको कितनों ने थाहा है।
तल के मोती खोजे, परखे, विखराये हैं
डूबे है पर, मिट्टी का कौल निवाहा है।।
मैं भी खोजा हूं, मुझ में-उनमें भेद यही-
मैं सबसे मंहगे उस मोती का आशिक हूं,
जो मिला नहीं, वह पा लेने की ध्वनि मेरी,
तुम भलॉं, सहेजो घर की बातें किया करों।।1।।
पथ पर तो सब चलते हैं, चलना पड़ता हैं,
पर मेरे चरण, नया पथ चलना सीखें हैं।
तुम हंसो, मगर मेरा विश्वास न हारेगा-
जीने के अपने-अपने अलग तरीके हैं।
जिस पथ पर, कोई पैर निशानी छोड़ गया-
उस पथ पर चलना मेरे मन को रूचा नहीं-
मैं भी कॉंटे रौदूगॉं, अपनी राह बनाऊॅंगा,
तुम फूलों भरी डगार की बातें किया करो।।2।।
7.गुप्त जी से और दे दो
कर रहे कर वद्व विनती, ओ! प्रकृति के पीर ज्ञाता।
जन हृदय अनुपम चितेरे, गुप्त जी से और दे-दो।।
राष्ट्र के उत्थान में नित, श्रमकणों की नींव भरने,
कोटि सत् मानव मनों में, मानवी को प्यारे करने,
दीन हीनों की कुटी पर, छानकर जो छान धारता,
और मग के कंटको को झाड़कर मग कष्ट हरता,
आज की मानव मही को, आज की अनुकूलता हित-
हर जवां की जिन्दगी में, जिन्दगी का मीत दे दों।।1।।
सोच है विज्ञान मानव, मौत के सामा जुटाता,
और उस पर ही खडे़ हो, जिन्दगी के गीत गाता,
नित्य प्रति जो भूलकर, संहार के श्रृंगार करता,
क्या इन्हें ही मानते है, विश्व के निर्माण कर्ता।
अब इन्हीं की भूल को, इनके हृदय में ही जगाने-
शारदे! वीणा बजाकर, झन झनाता गीत दे दो।।2।।
युग हृदय से जो उपेक्षित, नारियाँ गम घॅूट पीतीं,
और जीकर भी मरी सी, जिंन्दगी को नित्य जीतीं,
नाम जिनका निज जवां पर लोग लेते कॉंपते थे,
गढ़ गये जैसे जमीं में और खुद को नापते थे।
खोज कर उद्धार तिनका, जिस हृदय ने ही किया हो-
उस हृदय सा, आज को उद्धार कर्ता और दे दो।।3।।
राष्ट्र के कल्याण का, कल्याण यहाँ नहीं छप रहा है,
देख कर ऐसी विषमता, आसंमा भी कंप रहा है,
हर हृदय में जीत पाने क्या कहें चौसर मढ़ी है,
पर यहां पर देश हित की भूमिका खाली पड़ी है,
खल रहा यह बस, प्रभू! अब जन हृदय मनमस्त करने,
वेदना के शत् स्वरों में ऐक मनीषी और दे दो।।4।।