Hansta kyon hai pagal - 5 in Hindi Fiction Stories by Prabodh Kumar Govil books and stories PDF | हंसता क्यों है पागल - 5

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हंसता क्यों है पागल - 5

मैं बाहर घूम - घाम कर घर लौटा तो कुछ बेचैनी सी थी। खाना खाकर बैठने के बाद भी ऐसा लगता रहा जैसे बदन में कोई धुआं सा फ़ैल रहा है।
मैं कुछ देर शीशे के सामने भी खड़ा रहा। मैं कपड़े बदल लेने के बाद मन ही मन सोचने लगा कि क्या मुझे किसी डॉक्टर से मिलना चाहिए? लेकिन डॉक्टर को बताऊंगा क्या? नहीं बताया तो वो दुनिया भर के सारे टैस्ट लिख देगा। फ़िर करवाते फिरो। हर टैस्ट में सैकड़ों रुपए और उसके बाद एहतियात के लिए बेशुमार दवाएं। मुझे एकाएक ज़ोर से हंसी आ गई।
ओह! ये किस बात का संकेत है? मैं हंसा क्यों? यही सवाल जाकर डॉक्टर से किया तो वो रुला देगा। अब ये फ़ैसला मुझे करना था कि रोऊं या हंसूं!
आख़िर मैंने अपने ही दिमाग़ पर ज़ोर डाला। मेरे दिमाग़ ने कहा - हंसना कोई रोग नहीं है, हां बेबात हंसना ज़रूर रोग हो सकता है। तो अब से जब भी मुझे हंसी आई, मैं सोच कर उसका कारण ज़रूर ढूंढूंगा। बेमतलब के नहीं हंसूंगा। हंसी आते ही जब तक मुझे उसकी वजह नहीं पता चले, मैं कुछ नहीं करूंगा... केवल और केवल ये जानने की कोशिश करूंगा कि मुझे हंसी क्यों आई।
लो, खोदा पहाड़ निकली चुहिया!
अभी - अभी मुझे जो हंसी आई उसका कारण याद भी आ गया। मतलब ये बिना बात के हंसना तो नहीं ही हुआ न!
मुझे कुछ याद आ गया था। लगभग पैंतालीस साल पुरानी बात।
उन दिनों मेरे माता- पिता राजस्थान के एक छोटे से गांव में रहते थे। वो गांव शिक्षा के क्षेत्र में तो अव्वल था मगर शहरी सुख सुविधाओं से काफ़ी दूर था।
"सादा जीवन उच्च विचार", यही वहां का जीवन मंत्र था।
मेरी शादी उसी गांव में हुई। मज़े की बात ये थी कि मेरा ससुराल भी उसी गांव में था।
जब विवाह हुआ उस समय मेरी होने वाली पत्नी मुंबई के एक बहुत बड़े परमाणु अनुसंधान केंद्र में ऊंचे पद पर कार्यरत थी। मैं स्वयं भी बैंक में कार्यरत था।
शादी के लिए हम दोनों ही छुट्टी लेकर वहां आए थे।
मेरी पत्नी के दादा अब काफ़ी उम्रदराज थे परन्तु वो अपने ज़माने में बहुत सामाजिक और मिलनसार थे। वह सभी मिलने वालों के पारिवारिक व समाज के कामों में बढ़ - चढ़ कर हिस्सा लिया करते थे।
रसोई का काम संभालना उनका प्रिय शगल था। किसी भी सामूहिक दावत में स्वेच्छा से पहुंच कर वह भट्टी अथवा चूल्हे का काम अपने हाथों में ले लेते थे फ़िर हलवाई को उनकी देख- रेख में ही काम करना पड़ता। वो इस काम में दक्ष भी थे।
उस ज़माने में गैस नहीं थी। कोयले या लकड़ियां सुलगा कर ही भट्टी अथवा सिगड़ी, जिसे अंगीठी कहते थे, जलाई जाती थी।
वे इस कला में भी प्रवीण थे और बेहद कम ईंधन की खपत में किफायत के साथ काम पूरा करवाया करते थे।
किन्तु अब उनकी उम्र अधिक हो जाने के कारण आग के खेल उनके लिए जोखिम भरे माने जाते थे लिहाज़ा शादी के समय उन्हें हलवाई के आसपास न रहने देने की कोशिश की गई।
हलवाई के बार- बार उन्हें वहां न आने के अनुरोध से खिन्न होकर उन्होंने घर के पिछवाड़े कुछ लकड़ियां सुलगा कर एक शानदार चूल्हा जला लिया और वे पूरे घर के लिए नहाने के गर्म पानी की व्यवस्था में जुट गए। विवाह के समय सर्दियां शुरू हो चुकी थीं अतः उनके उपक्रम से किसी को कोई आपत्ति नहीं थी। वो एक बड़े से बर्तन में लगातार पानी गर्म करते और घर के लोगों को बुला - बुला कर नहाने के लिए पानी देकर भेजते।
भला किसी को क्या ऐतराज होता, उम्रदराज सही, पर आख़िर थे तो घर के मुखिया ही।
शादी वाले दिन सुबह- सुबह मुंबई से मेरी होने वाली पत्नी के ऑफिस की कुछ महिलाएं शादी में शरीक होने के लिए आईं। वे ट्रेन से रात भर का सफ़र करके पहली बार उस गांव में पहुंची थीं, अतः उन्हें उनके स्वागत के लिए शिष्टाचार के नाते, आते ही पूरे परिवार से मिलवाया गया। यहां तक कि उन्होंने सबसे मिलने के बाद ही चाय - पान आदि किया।
तो घर के पिछवाड़े उन्हें दादाजी से मिलवाने भी ले जाया गया। उनके परिचय में दादाजी को बताया गया कि ये लोग पहली बार राजस्थान आई हैं।
दादाजी पूरे मनोयोग से गर्म पानी की भट्ठी सुलगाने में तल्लीन थे। वे बिना उनकी ओर देखे तत्परता से बोल पड़े - हां, तो इन्हें गर्म पानी से नहला दो।
सब हंस पड़े। ये विचित्र संयोग हुआ कि राजस्थान को लेकर मुंबई (जो तब बम्बई था) की उन महिलाओं की धारणा यही थी कि राजस्थान पूरी तरह रेगिस्तान है जहां पानी की भीषण कमी है। उन्होंने दादाजी की गर्मपानी की इस पेशकश को मेहमानों के लिए विशेष मनुहार समझा और इसे अपने ख़ास स्वागत के रूप में लिया।
मेरी पत्नी ने बाद में उन्हें समझाया कि सरकार के पर्यटन विभाग ने रेगिस्तान के चित्रों को राजस्थान की छवि के रूप में दर्शा कर सब जगह ऐसी छवि बना दी है, वैसे राजस्थान में पानी की ऐसी कमी नहीं है जो पर्यटन विभाग के विज्ञापनों में दिखाई देती है।
घर के सभी सदस्यों को हंसते देख कर मेहमानों को भी ये परिहास समझ में आया।
अब पिछले दो- तीन दिनों से गीज़र खराब होने के चलते गर्म पानी की ये समस्या बार- बार मेरे सामने आती थी और मुझे साढ़े चार दशक पहले की याद दिलाती थी। मेहमान के रूप में मेरे पास आए लड़के ने भी जब गर्म पानी न होने की बात की तो उसे पानी देने से पहले मैं इन्हीं यादों में खो गया था।
इस सारी घटना की याद आ जाने से मुझे ये भरोसा हो गया कि मैं अकारण नहीं हंसा था और पूर्णिमा के चांद की कलाओं ने अपनी उथल- पुथल से मेरे दिमाग़ में लहरें नहीं उठाई थीं।
मेरे विद्यार्थी के अंडरवियर पहन कर नहाने का पानी मांगते समय, शाम को घूमने जाते समय बाग में कुछ सजी - धजी महाराष्ट्रीयन महिलाओं को देखते हुए मैं इसी कल्पना में खो गया था कि ये सब पाहुणे (मेहमान) नहाने के लिए गर्म पानी की कतार में खड़े हैं और आसमान में चांद अपनी कलाओं में इठलाता घूम रहा है।
अपनी उलझन का खुलासा हो जाने से आज मुझे बहुत अच्छी नींद आई, और जल्दी भी। मेरे दिमाग़ से तनाव बिलकुल निकल गया।
मैं सोचता रहा कि कल मैं बाज़ार की उस दुकान पर जाकर पता करूंगा कि मेरे मैकेनिक को सच में कोई दुःख या उलझन तो नहीं है, वो आया क्यों नहीं? मैं जैसे भी बन पड़ेगा उसकी मदद करने की चेष्टा करूंगा।
सोते समय फ़िर फ़ोन की घंटी बजी तो मैं बिना चश्मे के भी समझ गया कि फ़ोन ज़रूर मेरे छात्र उस लड़के का ही होगा।
रात को देर हो चुकी तो क्या, कॉलेज पास कर लेने के बाद लड़के अपने प्रोफ़ेसरों के दोस्त बन ही जाते हैं, और दोस्तों के लिए फ़ोन का क्या टाइम, क्या बेटाइम?